"हमने संसदीय लोकतंत्रात्मक प्रणाली को सोच-समझकर ही चुना है; हमने इसे केवल इसी कारण नहीं चुना कि हमारा सोचने का तरीका कुछ हद तक ऐसा ही रहा बल्कि इस कारण भी कि यह प्रणाली हमारी पुरातन परंपराओं के अनुकूल है। स्वाभाविक है कि पुरातन परंपराओं का पुरातन स्वरूप में नहीं अपितु नई परिस्थितियों और नए वातावरण के अनुसार बदलकर अनुसरण किया गया है; इस पद्धति को चुनने का एक कारण यह भी है कि हमने देखा कि अन्य देशों में, विशेष रूप से यूनाइटेड किंगडम में यह प्रणाली सफल रही है।"
-जवाहरलाल नेहरू
प्राचीन भारत में प्रतिनिधि निकाय
26 जनवरी, 1950 के दिन भारत के नए गणराज्य के संविधान का शुभारंभ हुआ और भारत अपने लंबे इतिहास में पहली बार एक आधुनिक संस्थागत ढांचे के साथ पूर्ण संसदीय लोकतंत्र बना। लोकतंत्र एवं प्रतिनिधि संस्थाएं भारत के लिए पूर्णतया नई नहीं हैं। कुछ प्रतिनिधि निकाय तथा लोकतंत्रात्मक स्वशासी संस्थाएं वैदिक काल में भी विद्यमान थीं (सिरका 3000-1000 ईसा पूर्व)। ऋग्वेद में 'सभा' तथा 'समिति' नामक दो संस्थाओं का उल्लेख है। वहीं से आधुनिक संसद की शुरुआत मानी जा सकती है। इन दो संस्थाओं का दर्जा और इनके कृत्य अलग अलग थे। 'समिति' एक आम सभा या लोक सभा हुआ करती थी और 'सभा' अपेक्षतया छोटा और चयनित वरिष्ठ लोगों का निकाय, जो मोटे तौर पर आधुनिक विधानमंडलों में उपरि सदन के समान था। वैदिक ग्रंथों में ऐसे अनेक संकेत मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि ये दो निकाय राज्य के कार्यों से निकट का संबंध रखते थे और इन्हें पर्याप्त प्राधिकार, प्रभुत्व एवं सम्मान प्राप्त था। ऐसा ज्ञात होता है कि आधुनिक संसदीयः लोकमत के कुछ महत्वपूर्ण तत्व, जैसे निर्बाध चर्चा और बहुमत द्वारा निर्णय, तव भी विद्यमान थे। बहुमत से हुआ निर्णय "अलंघनीय माना जाता था जिसकी अवहेलना नहीं हो सकती थी क्योंकि जब एक सभा में अनेक लोग मिलते हैं और वहां एक आवाज से बोलते हैं, तो उस आवाज या बहुमत की अन्य लोगों द्वारा उपेक्षा नहीं की जा सकती" । वास्तव में प्राचीन भारतीय समाज का मूल सिद्धांत यह था कि शासन का कार्य किसी एक व्यक्ति की इच्छानुसार नहीं बल्कि पार्षदों की सहायता से त्युक्त रूप से होना चाहिए। पार्षदों का परामर्श आदर से माना जाता था। वैदिक काल के राजनीतिक सिद्धांत के अनुसार 'धर्म' को वास्तव में प्रभुत्व दिया जाता था और 'धर्म' अथवा विधि द्वारा शासन के सिद्धांत को राजा द्वारा माना जाता था और लागू किया जाता था। आदर्श यह था कि राजा की शक्तियां जनेच्छा और रीति-रिवाजों, प्रथाओं और धर्मशास्त्रों के आदेशों द्वारा सीमित होती थीं। राजा को विधि तथा अपने क्षेत्र के विधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी पड़ती थी और अपनी जनता के भौतिक तथा नैतिक कल्याण के लिए राज्य को न्यास अथवा ट्रस्ट के रूप में रखना होता था। यद्यपि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि प्राचीन भारतीय राजनीतिक व्यवस्था मुख्यतया राजतंत्रवादी हुआ करती थी, फिर भी ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहां राजा का चुनाव होता था। जो भी हो, कुछ लोकतंत्रात्मक संस्थाएं एवं प्रथाएं प्रायः हमारी राजतंत्रीय शासन प्रणाली का सदा अभिन्न अंग रहीं।
'आत्रेय ब्राह्मण', पाणिनि की 'अष्टाध्यायी', कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र', 'महाभारत' अशोक स्तंभों के शिलालेखों, समकालीन यूनानी इतिहासकारों तथा बौद्ध एवं जैन विद्वानों द्वारा लिखित ग्रंथों में तथा 'मनुस्मृति' में इस तथ्य के पर्याप्त ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं कि वैदिकोत्तर काल में अनेक गणराज्य भी थे। उन गणराज्यों में, जो 'समधा' अथवा गणराज्य के नाम से जाने जाते थे, प्रभुसत्ता एक बहुत बड़ी सभा में निहित रहती थी और उसी सभा के सदस्य न केवल कार्यपालिका के सदस्यों को, बल्कि सैनिक प्रमुखों को भी चुना करते थे। वही वैदेशिक कार्यों पर नियंत्रण रखती थी और शांति और युद्ध जैसे मामलों का फैसला भी करती थी। इसके अतिरिक्त, कार्यपालिका पर निर्वाचित सभा का पूर्ण नियंत्रण रहता था। पाली में लिखित ग्रंथों में इस विषय में दिलचस्प ब्यौरे मिलते हैं कि प्राचीन गणराज्यों में सभाओं में क्या क्या प्रथाएं एवं प्रक्रियाएं अपनाई जाती थीं, जो कुछ विद्वानों के अनुसार ‘आधुनिकतम स्वरूप के विधि एवं संवैधानिक' सिद्धांतों पर आधारित थीं। उदाहरण के तौर पर, सभा का अपना अध्यक्ष हुआ करता था जिसे 'विनयधर' कहा जाता था और सचेतक भी हुआ करता था जिसे 'गणपूरक' कहा जाता था। 'विनयधर' संकल्प, गणपूर्ति का अभाव, बहुमत द्वारा मतदान, इत्यादि जैसे प्रक्रियागत उपायों एवं शब्दावली से परिचित होता था। सभा में चर्चाएं स्वतंत्र, स्वच्छ एवं निर्बाध हुआ करती थीं मतदान शलाकाओं (टिकटी) द्वारा होता था जो विभिन्न मतों का प्रतिनिधित्व करन वाली भिन्न भिन्न रंगों की लकड़ी की पट्टियां होती थीं। जटिल और गंभीर मामले प्रायः सभा के सदस्यों में से चुनी गई विशेष समिति के पास भेजे जाते थे।
निचले स्तर पर लोकतंत्र प्रादेशिक परिषदों (जनपद), नगर परिषदों (पौर सभा) और ग्राम सभाओं के रूप में विद्यमान था। ये निकाय स्थानीय कार्यों की देखरेख पूरी स्वाधीनता से करते थे जिसमें स्थानीय उपक्रम एवं स्वशासन का तत्व रहता था। 'अर्थशास्त्र', 'महाभारत' और 'मनुस्मृति' में 'ग्राम संघ' विद्यमान होने का अनेक स्थानों पर उल्लेख मिलता है। उस दिनों ग्राम सभाओं, ग्राम संघों अथवा पंचायतों जैसे निर्वाचित स्थानीय निकाय साधारणतया भारतीय राजनीति व्यवस्था के अंग होते थे। 'सभा' तथा 'समिति' जैसी लोकतंत्रात्मक संस्थाएं तथा गणराज्य तो बाद में लुप्त हो गए परंतु ग्राम स्तर पर 'ग्राम संघ', 'ग्राम सभाएं' अथवा 'पंचायतें' अनेक हिंदू तथा मुस्लिम राजवंशों के शासन काल में अस्तित्व में रहीं तथा ब्रिटिश शासकों के आगमन तक और उसके पश्चात भी किसी न किसी रूप में प्रभावी संस्थाओं के रूप में कार्य करती रहीं और फलती फूलती रहीं।
आधुनिक संसदीय संस्थाओं का उद्भव
आधुनिक अर्थों में संसदीय शासन प्रणाली एवं विधायी संस्थाओं का उद्भव एवं विकास लगभग दो शताब्दियों तक ब्रिटेन के साथ भारत के संबंधों से जुड़ा हुआ है। परंतु यह मान लेना गलत होगा कि बिल्कुल ब्रिटेन जैसी संस्थाएं किसी समय भारत में प्रतिस्थापित हो गईं। जिस रूप में भारत की ससंद और संसदीय संस्थाओं को आज हम जानते हैं, उनका विकास भारत में ही हुआ। इनका विकास विदेशी शासन से मुक्ति के लिए और स्वतंत्र लोकतंत्रात्मक संस्थाओं की स्थापना के लिए किए गए अनेक संघर्षों और ब्रिटिश शासकों द्वारा रुक रुककर, धीरे धीरे, झिका झिकाकर, छोटे छोटे टुकड़ों में दिए गए संवैधानिक सुधारों के द्वारा हुआ ।
1833 का चार्टर अधिनियम :
भारत में केंद्रीय विधानमंडल की पहली धुंधली-सी शुरुआत 1833 के चार्टर अधिनियम से हुई जिसके द्वारा भारतीय शासन प्रणाली में और भारत सरकार की विधायी शक्तियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। इस अधिनियम के द्वारा भारत में सब ब्रिटिश राज्य क्षेत्रों के लिए एक विधान परिषद की स्थापना की गई। वह पहला अवसर था जबकि गवर्नर-जनरल की सरकार भारत सरकार' के नाम से जानी जाने लगी और उसकी कौंसिल 'इंडियन कौंसिल' के नाम से। गवर्नर-जनरल की कौंसिल की विधि-निर्माण बैठकों और कार्यपालिका बैठकों में भेद करके इस अधिनियम द्वारा संस्थागत विशेषज्ञता का तत्व भी जोड़ा गया। गवर्नर-जनरल की कौंसिल के कार्यपालिका तथा विधायी कृत्यों में इस अधिनियम के द्वारा जो भेद किया गया उसके परिणामस्वरूप एक 'चौथा' अथवा विधायी सदस्य शामिल किया गया और इस पद पर विशिष्ट विधिवेत्ता लार्ड मैकाले को नियुक्त किया गया। इस प्रकार, हमें 1833 के अधिनियम में कार्यपालिका परिषद से भिन्न एक विधान परिषद के बीज दिखाई पड़ते हैं, यद्यपि बहुत बाद तक इस नाम का उपयोग नहीं हुआ।
1853 का चार्टर अधिनियम :
1853 का अधिनियम अंतिम चार्टर अधिनियम था जिसके द्वारा गवर्नर-जनरत की कौंसिल में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। कौंसिल के चौथे' अथवा विधायी सदस्य को कार्यपालिका बैठकों में उपस्थित होने और मतदान करने का अधिकार देकर उसे अन्य सदस्यों के बराबर का दर्जा प्रदान किया गया। इसके साथ ही, छह विशेष सदस्य शामिल करके, जिन्हें 'विधायी पार्षद' का पदनाम दिया गया, विधायी प्रयोजनों के लिए कौंसिल का विस्तार किया गया। इस प्रकार, गवर्नर-जनरल तथा कमांडर इन चीफ के अतिरिक्त, 1853 के अधिनियम के अधीन गठित कौंसिल में बारह सदस्य थे। कौंसिल जब विधायी निकाय के रूप में कार्य करती थी, तो वहां चर्चा लिखित न होकर मौखिक होती थी; विधेयक किसी एक सदस्य के पास भेजने के बजाय प्रवर समितियों के पास भेजे जाते थे, विधान कार्य गोपनीय होने के बजाय सार्वजनिक रूप से किया जाता था और कार्यवाहियों के वृतांत सरकारी तौर पर प्रकाशित किए जाते थे। इस प्रकार, विधानमंडल और कार्यपालिका में भेद करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया गया। नई कौंसिल के कर्तव्य विधान बनाने तक ही सीमित नहीं रहे बल्कि, जैसा कि मांटेगु-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट (1918) में कहा गया, “संसद के आशयों के विपरीत, इसने शिकायतों की जांच करने और उन्हें दूर करने के प्रयोजनार्थ समवेत लघु प्रतिनिधि सभा का रूप धारण करना आरंभ कर दिया।
1861 का इंडियन कौंसिल्ज अधिनियम :
इस अधिनियम का उद्देश्य “गवर्नर-जनरल की कौंसिल के गठन के लिए बेहतर व्यवस्था करना” और “अनेक प्रेजिडेंसियों तथा प्रांतों की स्थानीय सरकार के लिए व्यवस्था करना" था। इस अधिनियम को भारतीय विधानमंडल का प्रमुख घोषणापत्र' कहा गया जिसके द्वारा “भारत में विधायी अधिक रों के अंतरण की प्रणाली" का उद्घाटन हुआ। इस अधिनियम द्वारा केंद्रीय एवं प्रांतीय स्तरों पर विधान बनाने की व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। इसके अधीन गवर्नर-जनरल की कौंसिल पुनर्गठित की गई और तत्पश्चात उसके लिए अब तक के चार के स्थान पर पांच साधारण सदस्यों की व्यवस्था की गई। विधान बनाने के प्रयोजनार्थ, गवर्नर-जनरल को अधिकार दिया गया कि वह अपनी कौंसिल के लिए 'कम-से-कम छह और अधिक-से-अधिक बारह' अतिरिक्त सदस्य मनोनीत करे जिनमें से कम-से-कम आधे गैर-सरकारी सदस्य हों। यद्यपि कानून द्वारा विस्तारित कौंसिल के लिए गैर-सरकारी सदस्यों में भारतीयों को नियुक्त किया जाना जरूरी नहीं था तथापि हाउस आफ कामंस में यह आश्वासन दिया गया कि भारतीयों को इन पदों पर नियुक्त किया जाएगा। इस आश्वासन और इस तथ्य के वावजूद कि कौंसिल के लिए स्पष्ट व्यवस्था थी कि वह केवल विधायी कार्य करे, इसे उत्तरदायी या प्रतिनिधि विधायी निकाय नहीं माना जा सकता। वह सरकार की विधायी समिति मात्र थी जिसके द्वारा कार्यपालिका विधान के बारे में मंत्रणा एवं सहायता प्राप्त करती थी। विचाराधीन विधान के अलावा किसी अन्य विषय पर चूंकि उसमें विचार नहीं किया जाता था और उसे शिकायतों की जांच करने, जानकारी प्राप्त करने या कार्यपालिका के आचरण की जांच करने का अधिकार नहीं था, अतः उस कासिल में उत्तरदायी संस्थाओं का कोई अंश नहीं था। फिर भी, संवैधानिक विकास की दृष्टि से 1861 के अधिनियम के परिणामस्वरूप पहले की स्थिति में सुधार हुआ क्योंकि अंग्रेजी राज के भारत में जमने के पश्चात इसमें पहली बार विधायी निकायों में गैर-सरकारी व्यक्तियों के प्रतिनिधित्व के महत्वपूर्ण सिद्धांत को स्वीकार किया गया। इसके अतिरिक्त, तत्पश्चात विधान उचित विचार-विमर्श के बाद बनाए गए और वे नियमित विधान थे जिन्हें केवल उसी प्रक्रिया द्वारा बदला जा सकता था, जिस प्रक्रिया से वे बने थे। इस प्रकार कार्यपालिका द्वारा विधान बनाए जाने के दिन व्यवहारिक रूप से बीत गए और यह समझा जाने लगा कि विधान बनाना केवल कार्यपालिका का ही कार्य नहीं है।
इंडियन नेशनल कांग्रेस का गठन :
इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई। इससे भारत में साम्राज्यवादी नियंत्रण धीरे धीरे कम होने की और उत्तरदायी सरकार के विकास की प्रक्रिया की शुरुआत हुई। कांग्रेस ने प्रारंभ से ही अपने सार्वजनिक जीवन का मुख्य आधार यह बनाया कि देश में धीरे धीरे प्रतिनिधि संस्थाएं बनें। कांग्रेस का विचार था कौंसिल में सुधार से ही अन्य सब व्यवस्थाओं में सुधार हो सकता है। कांग्रेस के पांचवें अधिवेशन, (मुंबई, 1889) में इस विषय पर बोलते हुए सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने कहा : “यदि कौंसिल में सुधार हो जाता है तो आपको और सभी कुछ मिल जाएगा। हमारे देश का भविष्य और हमारी प्रशासनिक व्यवस्था का भविष्य इसी पर निर्भर करता है"।
1892 का इंडियन कौंसिल्ज अधिनियम :
यह अधिनियम, कम से कम अंशतः, प्रतिनिधि संस्थाओं के लिए बढ़ती हुई भारतीय मांग को स्वीकारने की दिशा में एक कदम था। ब्रिटिश संसद द्वारा "विधान परिषदों में भारत की जनता को वास्तव में प्रतिनिधित्व देने" की दृष्टि से इंडियन कौंसिल्ज अधिनियम, 1892 को स्वीकृति प्रदान करना इन अर्थों में कांग्रेस की विजय माना गया कि ब्रिटिश सरकार ने पहली बार "परिवर्द्धित परिषदों में प्रतिनिधित्व की बात को मान्यता दी"। कांग्रेस को इस बात से संतुष्टि हुई कि “भारतीयों के राजनीतिक मताधिकार के साझे प्रयोजनार्थ उनमें एकता उसी ने कायम की"। भारतीय परिषदों के पुनर्गठन के लिए 1892 के अधिनियम द्वारा इंडियन कौंसिल्ज अधिनियम, 1861 में संशोधन किया गया। गवर्नर-जनरल की विधान परिषद । का अग्रेतर विस्तार करने के लिए यह व्यवस्था की गई कि उसमें "कम-से-कम दस और अधिक-से-अधिक सोलह" अतिरिक्त सदस्य होंगे। पहले यह व्यवस्था थी कि उसमें कम-से-कम छह और अधिक-से-अधिक बारह सदस्य होंगे। इसी प्रकार प्रांतीय विधान परिषदों के अतिरिक्त सदस्यों की संख्या में भी वृद्धि की गई। जिन विनियमों के अधीन परिषदों के अतिरिक्त सदस्य मनोनीत किए जाते थे उनमें निर्धारित था कि कुछ गैर-सरकारी व्यक्ति, विशेष हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले कुछ मान्यता प्राप्त निकायों अथवा एसोसिएशनों की सिफारिश पर मनोनीत किए जाने चाहिए। गवर्नर-जनरल की विधान परिषद, अथवा भारतीय विधान परिषद में इस प्रकार पांच और अतिरिक्त सदस्य शामिल किए गए जिनमें से चार का प्रांतीय परिषदों के गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा और एक को कलकत्ता वाणिज्य मंडल द्वारा मनोनीत किया गया। यद्यपि 'चुनाव' शब्द का जानबूझकर प्रयोग नहीं किया गया परंतु इस तथ्य से प्रांतीय परिषद के गैर-सरकारी सदस्यों ने सिफारिश की और केंद्रीय परिषद में अपने मनोनीत सदस्य को भेजा, जिससे चुनाव के सिद्धांत को अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकारने का संकेत मिलता है। विधान परिषद के सदस्यों को भी प्रश्न पूछने, अर्थात महत्वपूर्ण विषयों पर जानकारी प्राप्त करने की दृष्टि से सरकारी सदस्यों से पूछताछ करने का अधिकार दिया गया। इस अधिकार का, जो किसी भी विधानमंडल का एक मौलिक अधिका होता है, प्रयोग उस समय कभी-कभार ही किया गया, परंतु यह अधिकार प्राप्त हो जाना संसदीय संस्था के विकास में एक निश्चयात्मक कदम था। यह एक दिलचस्प बात है कि प्रारंभिक अवस्थाओं में इस अधिकार का प्रयोग सरकारी सदस्यों द्वारा भी किया गया। यह विचित्र लगता होगा कि किस तरह एक सरकारी सदस्य दूसरे सरकारी सदस्य से प्रश्न कर रहा है और जानकारी प्राप्त कर रहा है। 1892 के अधिनियम के परिणमस्वरूप विधान परिषदों में प्रतिनिधिक तत्व आया और परिषदों के कार्यकरण पर लगे प्रतिबंधों में कुछ ढील दी गई। इस दृष्टि से 1892 के अधिनियम ने 1861 के अधिनियम में निश्चय ही सुधार किया। 'निर्वाचित' सदस्यों के प्रवेश से परिषद के जीवन में एक नवीन युग प्रारंभ हुआ। जनमत को और अधिक अभिव्यक्त किया जाने लगा और चर्चाओं में विचार-विमर्श तथा आलोचनात्मक पहलुओं में परिवर्तन आया।
1909 का इंडियन कौंसिल्ज अधिनियम :
देश के कार्यों में और अधिक एवं प्रभावी प्रतिनिधित्व के लिए कांग्रेस द्वारा जो सतत अभियान चलाया गया, उसके फलस्वरूप 1908 के मोरले-मिंटो सुधार प्रस्ताव आए। मोरले-मिंटो सवैधानिक सुधारों की योजना को इंडियन कौंसिल्ज अधिनियम, 1909 द्वारा कार्यरूप दिया गया। इस अधिनियम और इसके अधीन बनाए गए विनियमों से भारतीय विधानमंडलों के गठन एवं कृत्यों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। भारतीय विधान परिषद की अधिकतम सदस्य संख्या 16 से बढ़ाकर 60 कर दी गई। इनके अलावा कार्यकारी पार्षद पदेन सदस्य । होते थे। प्रेजिडेंसीज/प्रांतों में विधान परिषदों का आकार भी दुगुने से अधिक हो गया। अधिनियम के अनुसार अपेक्षित था कि विधान परिषदों में निर्वाचित तथा मनोनीत दोनों प्रकार के सदस्य होने चाहिए। 1909 के अधिनियम द्वारा विधान परिषदों के कृत्यों में परिवर्द्धन किया गया। इसके अधीन सदस्यों को बजट पर और सामान्य सार्वजनिक हित के किसी भी मामले पर संकल्प पेश करने और उन पर परिषद में मतदान कराने का अधिकार दिया गया। संकल्प सरकार के लिए सिफारिशों का रूप ले सकते थे परंतु सरकार उन्हें स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं थी। अनुपूरक प्रश्नों की अनुमति देते हुए प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया परंतु प्रेजीडेंट को यह शक्ति प्राप्त थी कि वह चाहे तो किसी प्रश्न के लिए अनुमति न दे। 1909 में जो सुधार हुए उनमें सबसे बड़ी त्रुटि यह थी कि पृथक अथवा सांप्रदायिक आधार पर निर्वाचन की पद्धति लागू की गई जिसके अनुसार मुसलमानों, वाणिज्य मंडलों, जमींदारों इत्यादि जैसे विशेष हितों के लिए परिषदों में प्रतिनिधित्व एवं स्थानों के आरक्षण की व्यवस्था की गई। इस अधिनियम के अधीन प्रतिनिधित्व की जिस सांप्रदायिक पद्धति की शुरुआत की गई उससे भारत का भावी सार्वजनिक जीवन दूषित हो गया और पृथकतावादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिला। 1857 के विद्रोह के दमन के पश्चात धर्मानरपेवा भारतीय राष्ट्रवाद को इससे सबसे अधिक धक्का पहुंचा और यह ब्रिटेन की 'फूट डालो और राज करो' की नीति की वास्तव में सबसे बड़ी विजय थी। सरदार पाणिकर के शब्दों में “यह घृणित द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की प्रथम अभिव्यक्ति थी जिससे अंत में देश का विभाजन हुआ" ।
भारत सरकार अधिनियम, 1919 :
1919 के सुधार अधिनियम और उसके अधीन बनाए गए नियमों द्वारा भारतीय सवैधानिक व्यवस्था में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। केंद्र में, भारतीय विधान परिषद के स्थान पर द्विसदनीय विधानमंडल बनाया गया जिसमें एक था राज्य परिष' (कौंसिल आफ स्टेट) और दूसरा था विधान सभा (निम्न सदन) और प्रत्येक सदन म अधिकांश सदस्य निर्वाचित होते थे। राज्य परिषद में सांविधिक नियमों के अनुसार मनोनीत अथवा निर्वाचित अधिक से अधिक 60 सदस्य और इनमें अधिक से अधिक 20 सरकारी सदस्य होने की व्यवस्था थी। प्रथम राज्य परिषद में कुल 60 सदस्य थे जिनमें से 34 निर्वाचित, 20 मनोनीत सरकारी सदस्य और 6 मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य थे। अधिनियम के अधीन विधान सभा की सदस्य संख्या अस्थाई रूप से 140 निर्धारित की गई। इनमें 100 निर्वाचित, 20 मनोनीत सरकारी सदस्य और शेष मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य होते थे। सांविधिक नियमों के अनुसार कुल सदस्य संख्या में वृद्धि की जा सकती थी और विभिन्न वर्गों के सदस्यों के बीच अनुपात में परिवर्तन भी किया जा सकता था, ताकि कुल संख्या के कम से कम 5/7 सदस्य निर्वाचित हों और शेष में से कम-से-कम एक-तिहाई गैर-सरकारी सदस्य हों। 1919 के अधिनियम के अधीन गठित प्रथम विधान सभा वर्ष 1921 में अस्तित्व में आई। उसके कुल 145 सदस्य थे। 104 निर्वाचित-52 सामान्य, 30 मुस्लिम, 9 यूरोपीय, 7 भूस्वामी, 4 वाणिज्यिक तथा 2 सिख निर्वाचन क्षेत्रों से-26 सरकारी सदस्य और 15 मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य थे। दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य प्रत्यक्ष रूप से चुने गए थे परंतु मताधिकार बहुत ही सीमित था जो संपत्ति तथा कर अथवा शिक्षा संबंधी अर्हताओं पर आधारित था। राज्य परिषद के मामले में, संपत्ति संबंधी मतदाता अर्हताएं इतनी ऊंची रखी गई थीं कि वह सदन लगभग धनी भूस्वामियों तथा व्यापारियों का ही सदन बनकर रह गया था। राज्य परिषद की अपेक्षा विधान सभा के लिए निर्वाचन हेतु मतदान की संपत्ति संबंधी अर्हता कम स्तर पर रखी गई थी, परंतु फिर भी वह प्रांतीय मताधिकार के लिए अपेक्षित अर्हता से काफी अधिक थी। 1920 में परिषद के कुल मतदाता केवल 17,644 थे और विधान सभा के 904,746। परिषद की सामान्य कार्यविधि पांच वर्षों की थी तथा विधान सभा की तीन वर्षों की। गवर्नर-जनरल दोनों में से किसी भी सदन को उसकी पूर्ण कालावधि समाप्त होने से पूर्व ही भंग कर सकता था। वह विशेष परिस्थितियों में उनकी सामान्य कार्यावधि बढ़ा भी सकता था। दोनों सदनों को समान शक्तियां प्राप्त थीं, सिवाय इसके कि केवल विधान सभा ही आपूर्ति (सप्लाईज) की स्वीकृति दे सकती थी अथवा रोक सकती थी। 1919 के अधिनियम के अधीन उस प्रणाली के अनुसार जो 'द्वितंत्र' (डाइआर्की) के नाम से प्रसिद्ध हुई, प्रांतों में तो आंशिक रूप से उत्तरदायी सरकार स्थापित की गई परंतु केंद्र में उत्तरदायित्व का कोई तत्व नहीं था और गवर्नर-जनरल-इन-कौंसिल का भारत के लिए केवल सेक्रेटरी आफ स्टेट के प्रति और उसके द्वारा ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायित्व बना रहा। केंद्रीय विधानमंडल का स्वरूप यद्यपि पहली विधान परिषदों की अपेक्षा अधिक प्रतिनिधिक था और उसे पहली बार आपूर्तियों की स्वीकृति देने की शक्ति प्राप्त थी तथापि उसे सरकार को बदलने की शक्ति प्राप्त नहीं थी। विधान बनाने तथा वित्तीय नियंत्रण के क्षेत्र में भी उसकी शक्तियां सीमित थीं और वे गवर्नर-जनरल की सर्वोपरि शक्तियों के अध्यधीन थीं। इस प्रकार, यद्यपि संपूर्ण ब्रिटिश इंडिया के लिए, भारत में सम्राट की ब्रिटिश प्रजा एवं सेवियों के लिए तथा ब्रिटिश इंडिया में और उससे बाहर ब्रिटिश इंडिया की सारी प्रजा के लिए केंद्रीय विधानमंडल की शक्ति को दोहराया गया परंतु उसकी अनेक महत्वपूर्ण सीमाएं बनी रहीं जो या तो ब्रिटिश संसद की प्रभुसत्ता जो ज्यों की त्यों बनाए रखने के लिए निर्धारित की गई थीं या फिर गवर्नर-जनरल तथा उसकी परिषद की प्रभुसत्ता बनाए रखने के लिए। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि भारतीय विधानमंडल को ब्रिटिश इंडिया से संबंधित किसी भी संसदीय विधि में संशोधन करने या उसका निरसन करने या ब्रिटिश संसद के प्राधिकार को छूने वाला कोई कार्य करने की शक्ति प्राप्त नहीं थी। अधिनियम के अधीन यह भी अपेक्षित था कि कुछ महत्वपूर्ण मामलों पर प्रभाव रखने वाले विधान गवर्नर-जनरल की पूर्ण मंजूरी से ही भारत के किसी भी सदन में पेश किए जा सकें। विधानमंडल द्वारा पास किए गए किसी भी विधेयक को वीटो करने अथवा उसे महामहिम की इच्छा जानने के लिए रखने की उसकी वर्तमान शक्ति के अतिरिक्त, गवर्नर-जनरल को ऐसे विधान अधिनियमित कराने की शक्ति प्रदान की गई जो वह ब्रिटिश इंडिया अथवा ब्रिटिश इंडिया के किसी भाग की सुरक्षा, शांति या हित साधन के लिए आवश्यक समझे। आपात की स्थिति में ब्रिटिश इंडिया की शांति एवं समुचित शासन के लिए अध्यादेश प्रख्यापित करने की गवर्नर-जनरल की शक्ति भी बरकरार रही। इसी प्रकार, वित्तीय मामलों में भी यद्यपि विधान सभा को यह शक्ति प्रदान की गई कि वह किसी अनुदान की मांग को स्वीकृत कर सकती है अथवा स्वीकृत करने से इंकार कर सकती है या किसी मांग की राशि में कमी कर सकती है, तथापि सभा द्वारा किसी मांग को स्वीकृति प्रदान करने से इंकार किए जाने की स्थिति में गवर्नर-जनरल-इन-कौंसिल केवल यह घोषणा करके उसे बहाल कर सकता था कि वह उसके उत्तरदायित्वों के निर्वहन के लिए आवश्यक है। इस प्रकार 1919 के अधिनियम के अधीन भारतीय विधानमंडल प्रभुसत्तारहित निकाय था और प्रशासनिक, विधायी एवं वित्तीय मामलों में सरकार के क्रियाकलापों के सब क्षेत्रों में कार्यपालिका के सामने शक्तिहीन था। फिर भी, विधानमंडल के गठन के साथ, विधान बनाने का कार्य गवर्नर-जनरल की कौंसिल के हाथ में नहीं रहा। उस निकाय को अब एक मंत्रिमंडल के रूप में कार्य करना होता था और सरकार के पित्तीय एवं विधायी प्रस्ताव विधानमंडल में प्रस्तुत करने होते थे जिसका पीठासीन अधिकारी गैर-सरकारी 'प्रेजीडेंट' होता था। विधायी कार्य में भारी वृद्धि हुई और देश को स्थायी लाभ पहुंचाने वाले अनेक विधान बनाए गए। व्यय के कुछ रक्षित शीर्षों को छोड़कर शेष बजट के लिए स्वीकृति लेनी होती थी और सभा द्वारा आपूर्ति एवं सेवाओं से इंकार किए जाने या पूरा बजट अस्वीकृत किए जाने की स्थिति में सरकार को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। दोनों सदनों में वाक स्वातंत्र्य सुनिश्चित होने, प्रश्न पूछने तथा संकल्प एवं स्थगन प्रस्ताव पेश करने का अधिकार होने के कारण सदस्यों को सरकार की आलोचना करने और उसे अनावृत करने के अवसर मिलते थे। कुछ सदस्यों को सरकार पर प्रभाव डालने और कार्यपालिका विभागों के कार्यकरण से परिचित होने के स्थायी समितियों के माध्यम से अतिरिक्त अवसर प्राप्त होने लगे। केंद्रीय विधानमंडल का उद्भव ऐतिहासिक महत्व की बात थी। यह पहला अवसर था जबकि विधान बनाने में और सरकार की नीतियों को प्रभावित करने में जन-प्रतिनिधियों की आवाज सुनी गई। इसने देश के राजनीतिक भविष्य की दिशा निर्धारण में भी महान भूमिका अदा की। जब देश विदेशी प्रभुत्व को समाप्त करने के लिए संघर्ष कर रहा था, तो विधानमंडल में समवेत जन-प्रतिनिधि सदन में संघर्ष कर रहे थे। दुनिया ने देखा कि विदेशी सरकार किस प्रकार जनता की इच्छाओं के समक्ष झुकती है या अपनी पराजय स्वीकारती है। निस्संदेह, उस पराजय से को कोई अंतर नहीं पड़ता था क्योंकि मनोनीत कार्यकारी पार्षदों से बनी सरकार पद त्याग करने के लिए बाध्य नहीं थी। फिर भी, आलोचनात्मक विधानमंडल होने से कार्यपालिका को सावधानी और विवेक से काम लेना पड़ता था जिससे उसमें जनता के प्रति अपने दायित्व की चेतना पैदा हुई। लोकमान्य तिलक ने 1919 के सुधारों को “असंतोषजनक, निराशाजनक और प्रकाशहीन सूर्य' बताया। परंतु उन्होंने घोषणा की कि जो कुछ दिया गया है उसे वह स्वीकार करेंगे, आंदोलन करेंगे और अधिक परिश्रम करेंगे और यथासंभव शीट और अधिक प्राप्त करने के लिए इसका प्रयोग करेंगे। उनकी संवेदनशील सहयोग की नीति में सहयोग के साथ साथ संवैधानिक अधिकारों पर जोर देने और यदि आवश्यक हो तो, संवैधानिक रुकावटें पैदा करने की बात भी शामिल थी। श्रीमती एनी बेसेंट ने घोषणा की कि यह योजना "ब्रिटेन द्वारा पेश किए जाने और भारत द्वारा स्वीकार किए जाने योग्य नहीं है"। इस प्रकार 1919 के सुधारों पर कांग्रेस में एक तरह की दरार पैदा हो गई। 1918 में कांग्रेस को छोड़ने वाले कुछ नरमपंथियों ने सुरेंद्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में नेशनल लिबरेशन फेडरेशन नामक एक अलग संगठन बना लिया था। इन नरमपंथियों ने सुधारों का स्वागत किया परंतु कांग्रेस ने अपने 1919 के अमृतसर अधिवेशन में उन्हें “अपर्याप्त, असंतोषजनक एवं निराशाजनक' बताया।
1919 के अधिनियम के अधीन विधानमंडल :
1919 के अधिनियम के संवैधानिक सुधार 1921 में लागू हुए। देश के सबसे बड़े और सबसे अधिक प्रभावशाली राजनीतिक दल, इंडियन नेशनल कांग्रेस ने 1920-21 के निर्वाचनों का बहिष्कार किया और इस प्रकार जो विधानमंडल 1921 में बने उनमें उसका प्रतिनिधित्व नहीं था। केवल नरमपंथियों द्वारा, जो 1918 में कांग्रेस को छोड़ गए थे, बनाई गई नेशनल लिबरेशन फेडरेशन ने ही निर्वाचनों में सक्रिय रूप अनेक प्रसिद्ध सदस्य विधानमंडल के लिए निर्वाचित हुए। जैसाकि उनसे आशा की जाती थी और जैसाकि उन्होंने अपने निर्वाचकों को वचन दिया था, उन्होंने विधायकों एवं मंत्रियों के रूप में अपने कृत्यों का निर्वहन किया। उन्होंने परिषदों में अपने कार्यक्रम को ‘समरूपी, निरंतर एवं संगत रुकावट डालने की नीति" बताया। 1923 में, देशबंधु सी. आर. दास और पंडित मोतीलाल नेहरू ने स्वराज पार्टी बनाई जिसकी नीति यह थी कि चुनाव लड़े जाएं और व्यवस्था को बदलने या श भाग लिया और इस दल के के कैंप' में प्रवेश करके व्यवस्था को तोड़ने की दृष्टि से परिषदों में स्थान प्राप्त किया जाए। मौलाना आजाद की अध्यक्षता में सितंबर 1923 में हुए कांग्रेस के विशेष दिल्ली अधिवेशन में परिषदों में स्थान प्राप्त करने की स्वराज पार्टी की योजना को स्वीकृति दी गई और तत्पश्चात स्वराज पार्टी कांग्रेस का विधायी पक्ष बन गई। स्वराज पार्टी के नेताओं ने यह कहकर विधानमंडलों में प्रवेश को उचित ठहराया कि विद्यमान परिस्थितियों में प्रशासन व्यवस्था को निरर्थक एवं अप्रभावी बनाने का यही सबसे अच्छा तरीका है। स्वराज पार्टी को 1923 के निर्वाचनों में आश्चर्यजनक सफलता मिली। कुल 145 स्थानों में से 25 स्थान जीतकर स्वराज पार्टी केंद्रीय विधानमंडल में सबसे बड़ी पार्टी बन गई। मौलाना आजाद के अनुसार पार्टी की सबसे बड़ी सफलता यह थी कि वह उन स्थानों पर भी जीत गई जो मुसलमानों के लिए आरक्षित थे। कुछ निर्दलीय सदस्यों तथा पंडित मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व वाली नेशनलिस्ट पार्टी के सदस्यों के समर्थन से इसे पूर्ण बहुमत प्राप्त हो गया। मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में स्वराजवादियों ने राष्ट्रीय महत्व के अनेक प्रस्तावों पर सरकार को पराजित किया और बजट तथा अनेक विधायी उपायों के पास होने में बार बार रुकावट डाली। अनेक बार सदन से बहिर्गमन अथवा वाक आउट किए। स्वराजवादियों के प्रयासों के परिणामस्वरूप 1924 और 1925 में राष्ट्रीय मांग अथवा 'नेशनल डिमांड' संबंधी संकल्प भारी बहुमत से पास हुए। 1926 के निर्वाचनों के परिणाम स्वराज पार्टी के निराशाजनक रहे। 7 मार्च, 1926 को अखिल भारत कांग्रेस समिति ने, सरकार से सहयोग के कोई चिह्न दिखाई न देने के कारण, स्वराजवादियों से कहा कि वे विरोधस्वरूप विधानमंडलों से उठकर चले आएं। इस प्रकार स्वराजवादी प्रयोग समाप्त हुआ। इस अवधि के दौरान एक महत्वपूर्ण घटना अध्यक्ष पद विकास था। केंद्रीय विधान सभा का प्रथम प्रेजीडेंट (अध्यक्ष), सर फ्रेडरिक व्हाईट को मनोनीत किया गया था परंतु अगस्त, 1925 में श्री विठ्ठलभाई पटेल को चुना गया और वे सभा के प्रथम गैर-सरकारी प्रेजीडेंट (अध्यक्ष) बने। उन्होंने तथा सदन के अनेक सदस्यों ने महसूस किया कि सभा का सचिव भारत सरकार के अधीन विधायी विभाग का सचिव होने से निर्वाचित अध्यक्ष की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। 22 सितंबर, 1928 को पंडित मोतीलाल नेहरू ने सदन में संकल्प पेश किया कि एक पृथक सभा विभाग (एसेंबली डिपार्टमेंट) बनाया जाए। यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकार हुआ। सेक्रेटरी आफ स्टेट फार इंडिया ने कुछ रूपभेदों के साथ उसे स्वीकृति प्रदान की और 10 जनवरी, 1929 से विधान सभा विभाग नामक एक पृथक पूर्ण विभाग बनाया गया। अध्यक्ष को नए विभाग का वास्तविक प्रमुख अधिकारी बनाया गया और उसके लिए कर्मचारी अध्यक्ष की अनुमति से नियुक्त किए गए। तथा भारत सरकार अधिनियम, 1919 के अनुसार किए गए सीमित सुधार प्रतिनिधि उत्तरदायी सरकार की जनता की मांग को पूरा करने में पूर्णतया अपर्याप्त सिद्ध हुए। सीमित शक्तियों वाले विधानमंडल के विरुद्ध राष्ट्रीय मत बढ़ता गया और वर्ष प्रतिवर्ष पूर्ण प्रभुसत्तासंपन्न संसद और उत्तरदायी सरकार के लिए मांग जोर पकड़ती गई।
साइमन कमीशन की नियुक्ति :
1920 से 1935 तक के वर्ष बहुत महत्वपूर्ण थे। इन वर्षों में देश में बहुत राजनीतिक चेतना पैदा हुई। महात्मा गांधी के नेतृत्व में इंडियन नेशनल कांग्रेस ने एक जन-संगठन का रूप ले लिया। 1919 के अधिनियम में व्यवस्था थी कि दस वर्षों की अवधि व्यतीत हो जाने पर एक रायल कमीशन नियुक्त किया जाए जो “ब्रिटिश इंडिया में शासन प्रणाली के कार्यकरण की प्रतिनिधि संस्थाओं के विकास की जांच करे..." और यह बताया कि “क्या उत्तरादायी सरकार के सिद्धांत को कार्यरूप देना, या उत्तरदायी सरकार का विस्तार करना, उसमें रूपभेद करना, या सीमित करना वांछनीय है और, यदि हां, तो कहां तक वांछनीय है, तथा क्या स्थानीय विधानमंडलों में दूसरा सदन स्थापित करना वांछनीय है या नहीं" । नवंबर 1927 में, निर्धारित समय से दो वर्ष पूर्व ही, उक्त कमीशन की नियुक्ति की घोषणा कर दी गई। परंतु कमीशन के सभापति, सर जॉन साईमन, और उसके सभी सदस्य ब्रिटिश संसद में से ही चुने गए। सभी श्वेत सदस्यों के उस साईमन कमीशन का अधिकांश भारतीय दलों ने बहिष्कार किया। कमीशन के मई, 1930 प्रकाशित प्रतिवेदन को सब राजनीतिक दलों द्वारा अस्वीकार कर दिया गया। इस बीच जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में इंडियन नेशनल कांग्रेस 1929 में अपने लाहौर अधिवेशन में घोषणा कर चुकी थी कि "पूर्ण स्वराज' ही हमारा उद्देश्य है।
भारत सरकार अधिनियम, 1935 :
1935 के अधिनियम का उद्देश्य संघीय ढांचे की व्यवस्था करना था। उसमें उपबंध था कि गवर्नर-जनरल के 'कृत्यों के निर्वहन में उसकी 'सहायता तथा मंत्रणा' के लिए, सिवाय उस स्थिति के जहां उसके लिए अपने कृत्यों का निर्वहन “अपने विवेकाधिकार" अथवा "अपने व्यक्तिगत विचार" के अनुसार करना अपेक्षित हो, दस से अनधिक सदस्यों की मंत्रिपरिषद होगी। संघीय विधानमंडल के प्रति मंत्रियों के व्यक्तिगत या सामूहिक उत्तरदायित्व का अधिनियम में कोई उल्लेख नहीं था यद्यपि यह अपेक्षित था कि प्रत्येक मंत्री विधानमंडल के किसी एक सदन का सदस्य अवश्य हो। इसके अतिरिक्त प्रधानमंत्री के पद का भी कोई उल्लेख नहीं था। मंत्रियों को नियुक्त करने और बर्खास्त करने के बारे में अपने कृत्यों का प्रयोग गवर्नर-जनरल को अपने 'विवेकाधिकार' से करना था। वह अपने 'विवेकाधिकार' से मंत्रिपरिषद की बैठकों की अध्यक्षता कर सकता था। अधिनियम में व्यवस्था थी कि संघीय विधानमंडल में (सम्राट), जिसका प्रतिनिधित्व गवर्नर-जनरल करता था, तथा दो सदन होंगे जिन्हें क्रमशः कौंसिल आफ स्टेट (उपरि सदन) तथा हाउस आफ एसेंबली (निम्न सदन) कहा जाएगा। कौंसिल में ब्रिटिश इंडिया के 156 प्रतिनिधि और भारतीय रियासतों के 104 से अनधिक प्रतिनिधि होंगे तथा हाउस आफ असेंबली में ब्रिटिश इंडिया के 250 प्रतिनिधि तथा भारतीय रियासतों के 125 से अनधिक प्रतिनिधि होंगे। कौंसिल आफ स्टेट एक स्थायी निकाय होगा जिसे भंग नहीं किया जा सकेगा परंतु उसके एक-तिहाई सदस्य हर तीसरे वर्ष सेवानिवृत्त हो जाएंगे। प्रत्येक संघीय एसेंबली, यदि उसे गवर्नर-जनरल द्वारा अपने 'विवेकाधिकार' से समय-पूर्व भंग नहीं कर दिया जाता तो, पांच वर्षों तक कार्य करेगी। अधिनियम में उपरि सदन के लिए प्रत्यक्ष निर्वाचन की और निम्न सदन के लिए अप्रत्यक्ष निर्वाचन की पद्धति अपनाई गई थी। यह व्यवस्था थी कि प्रत्येक सदन अपना सभापति तथा उपसभापति चुनेगा और उसे, अधिनियम के उपबंधों के अधीन रहते हुए, अपनी प्रक्रिया एवं कार्य को स्वयं विनियमित करने की शक्ति प्राप्त होगी। गवर्नर-जनरल को अपने 'विवेकाधिकार' से विधानमंडल को बैठक के लिए आमंत्रित करने और उसका सत्रावसान करने तथा निम्न सदन को भंग करने की शक्ति प्राप्त होगी। कोई विधेयक तब तक कानून नहीं बनेगा जब तक कि दोनों सदन उस पर सहमत न हो जाएं और गवर्नर-जनरल उस पर अपनी अनुमति न दे दे अथवा जो विधेयक महामहिम की इच्छा जानने के लिए रक्षित रखा गया हो, उस पर महामहिम की इच्छा की सूचना न मिल जाए। गवर्नर-जनरल की अनुमति प्राप्त अधिनियम भी महामहिम द्वारा नामंजूर किया जा सकता था। गवर्नर-जनरल कोई विधेयक पुनर्विचार के लिए सदनों के पास भेज सकता था। सदनों में असहमति होने की स्थिति में गवर्नर-जनरल संयुक्त बैठक बुला सकता था जिसमें बहुमत द्वारा निर्णय हो सकता था। दोनों सदनों को लगभग समान शक्तियां दी गई थीं, परंतु वित्तीय क्षेत्र में अंतर था। धन विधेयक केवल निम्न सदन में ही पेश किए जा सकते थे, परंतु उपरि सदन को निम्न सदन के समान ही उनमें संशोधन करने या उन्हें अस्वीकार करने की शक्ति प्राप्त थी, और गवर्नर-जनरल को संयुक्त बैठक बुलाकर मतभेद दूर करने की शक्ति प्राप्त थी। कांग्रेस के लखनऊ में (अप्रैल, 1936) और फैजपुर में (1937) हुए क्रमशः में 49वें और 50वें अधिवेशनों में इस अधिनियम में उपबंधित नए संविधान को इस आधार पर पूर्णतया अस्वीकार कर दिया गया कि इससे “राष्ट्र की इच्छा किसी भी प्रकार पूरी नहीं होती" । कांग्रेस ने महसूस किया कि अधिनियम भारत की जनता की घोषित इच्छा के प्रतिकूल उस पर लाद दिया गया है। कांग्रेस ने घोषणा की कि भारत की जनता केवल ऐसे सवैधानिक ढांचे को मान्यता दे सकती है जो स्वयं उनके द्वारा बनाया गया हो। 1935 के अधिनियम का संघीय व्यवस्था वाला भाग कभी लागू नहीं हुआ क्योंकि रियासतों को संघ में शामिल होने के लिए तैयार नहीं किया जा सका। इसके कुछ से पैदा हुए रूपभेदों के साथ, वैसा ही रहा जैसाकि वह 1919 के आयनिया का परिणामस्वरूप, भारत में केंद्रीय सरकार का सावधान, प्राता का स्वायत्तता जान के प्रति उत्तरदायी हो और केंद्रीय विधानमंडल की शक्तियां एवं कृत्य तब तक वह अनुसार था। इस प्रकार, केंद्र में ऐसी कोई मंत्रिपरिषद नियुक्त नहीं हई, जो विधानमरन । 1947 के लागू हो जाने तक कोई परिवर्तन नहीं हुआ। 1934 में गठित विधान सभा रहे जैसी कि 1919 के अधिनियम में व्यवस्था थी। उनमें भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम में कांग्रेस दल के 44 सदस्य और ।। वे राष्ट्रवादी थे, जिन्होंने भोलाभाई देसाई और अणे के नेतृत्व में सामान्यतया उन्हीं के साथ मतदान किया। राष्ट्रीय दलों और सरकारी पक्ष के बीच संतुलन रखने वाले निर्दलीय सदस्यों के नेता जिन्ना थे। राष्ट्रवादियों का मुख्य उद्देश्य यह सिद्ध करना था कि भारत सरकार गैर-जिम्मेदार है, भारत की जनता का उसमें कोई विश्वास नहीं है और वे उसे समर्थन देने को तैयार नहीं है। सरकार के प्रति विरोध प्रकट करने के अवसर तब आते थे जव रेलवे एवं सामान्य बजट पर मतदान होता था। इस उद्देश्य से अनेक मदों की अनुदानों की मांगें अस्वीकार कर दी जाती थीं। भारत की जनता की शिकायतों को व्यक्त करने और जनता के हितों की उपेक्षा किए जाने के लिए सरकार की निंदा करने हेतु कटौती प्रस्ताव पेश किए जाते थे। गवर्नर-जनरल में निहित प्रमाणीकरण की विशेष शक्तियों के अनुसार सरकार उनमें से अधिकांश कटौतियों को बहाल कर दिया करती थी। इससे स्वभावतया यह साफ हो जाता था कि भारत का शासन जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों की सम्मति से नहीं बल्कि गवर्नर-जनरल के तानाशाही आदेश से चल रहा है। केंद्रीय विधान सभा के नए चुनाव, जो बहुत पहले हो जाने चाहिए थे, 1945 की अंतिम तिमाही में हुए । कांग्रेस ने वह चुनाव 1942 के अपने 'भारत छोड़ो' प्रस्ताव को लेकर लड़े। चुनावों में कांग्रेस को निर्वाचित स्थानों में अधिकांश स्थान (102 में से 56) प्राप्त हुए। कांग्रेस विधायक दल के नेता शरत चंद्र बोस थे। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के अधीन कुछ परिवर्तन हुए। 1935 के अधिनियम के वे उपबंध निष्प्रभावी हो गए जिनके अंतर्गत गवर्नर-जनरल या गवर्नर अपने विवेकाधिकार के अनुसार अथवा अपने व्यक्तिगत विचार के अनुसार कार्य कर सकता था। डौमीनियन विधानमंडल को “विधान बनाने की पूर्ण शक्ति, उन विधानों सहित जिसका राज्यक्षेत्रातीत प्रभाव हो", प्राप्त हो गई।
प्रथम प्रभुसत्तासंपन्न विधानमंडल
गवर्नर-जनरल द्वारा भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के अनुसरण में, संविधान सभा द्वारा अन्य उपबंध किए जाने तक, भारत सरकार अधिनियम, 1835 को डौमीनियन का अस्थायी संविधान बनाने के लिए उसमें रूपभेद किया गया और उसे अनुकूल बनाया गया। गवर्नर-जनरल की उसके कृत्यों के निर्वहन में' 'सहायता करने तथा मंत्रणा देने के लिए एक मंत्रिपरिषद बनी। गवर्नर-जनरल की विधायी शक्तियां समाप्त कर दी गईं और उसे यह शक्ति प्रदान की गई कि वह डौमीनियन की शांति एवं अच्छे प्रशासन के लिए केवल आपात स्थिति में अध्यादेश प्रख्यापित कर सकता है। गवर्नर-जनरल डौमीनियन विधानमंडल का अंग नहीं रहा और विधानमंडल को भंग करने की उसकी शक्ति समाप्त हो गई। इस प्रकार, गवर्नर-जनरल देश का केवल उपाधिधारी प्रमुख रह गया और डोमीनियन विधानमंडल पूर्ण प्रभुरात्तासंपन्न हो गया। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 में भारत की संविधान सभा को पूर्ण प्रभुसत्तासंपन्न निकाय घोषित किया गया और 14-15 अगस्त, 1947 की मध्य रात्रि को उस सभा ने देश का शासन चलाने की पूर्ण शक्तियां ग्रहण कर लीं। अधिनियम की धारा 8 के द्वारा संविधान सभा को पूर्ण विधायी शक्ति प्राप्त हो गई। किंतु साथ ही यह अनुभव किया गया कि संविधान सभा के संविधान निर्माण के कृत्य तथा विधानमंडल के रूप में इसके साधारण कृत्य में भेद बनाए रखना वांछनीय होगा। सदन के सहमत हो जाने पर, इस विषय पर विचार करने के लिए 20 अगस्त, 1947 को श्री जी. वी. मावलंकर की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की गई। 29 अगस्त, 1947 को मावलंकर समिति के प्रतिवेदन पर विचार करने के पश्चात संविधान सभा ने संकल्प किया कि संविधान निर्माण निकाय के रूप में सभा के कार्य और डौमीनियन विधानमंडल के रूप में उसके कार्य में स्पष्ट भेद किया जाए और जब सभा डौमीनियन विधान सभा के रूप में कार्य करे तो उसकी अध्यक्षता के लिए एक अध्यक्ष के चुनाव हेतु उपबंध किया जाए। उपर्युक्त संकल्प के अनुसरण में भारतीय डौमीनियन की स्थापना से ठीक पूर्व में लागू विधान सभा नियमों को संविधान सभा के प्रेजीडेंट द्वारा रूपभेदित किया गया तथा उन्हें अनुकूल बनाया गया। संविधान सभा (विधायी) की एक अलग निकाय के रूप में प्रथम बैठक 17 नवंबर, 1947 को संविधान सभा के प्रेजीडेंट डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में हुई। अध्यक्ष पद के लिए चूंकि केवल श्री जी. वी. मावलंकर का एक ही नाम प्राप्त हुआ था अतः उन्हें विधिवत निर्वाचित घोषित किया गया। डॉ. राजेंद्र प्रसाद अध्यक्ष-पीठ से उठ गए और तब अध्यक्ष मावलंकर ने वह स्थान ग्रहण किया। इस बीच संविधान सभा स्वतंत्र भाग के लिए संविधान के निर्माण कार्य में लगी हुई थी। संविधान सभा ने इस सिद्धांत को स्वीकार किया कि संसदीय कार्यपालिका सामूहिक रूप से संसद के निर्वाचित सदन के प्रति उत्तरदायी हो, जैसी किं संघीय संविधान समिति ने सिफारिश की थी और बाद में प्रारूप समिति द्वारा तैयार किए गए संविधान के प्रारूप में उसे सम्मिलित किया गया। 4 नवंबर, 1948 को संविधान का प्रारूप संविधान सभा में पेश करते हुए और संसदीय शासन प्रणाली के लिए सिफारिश करते हुए, प्रारूप समिति के सभापति बी. आर. अंबेडकर ने कहा कि “संविधान के प्रारूप में ससंदीय शासन प्रणाली की सिफारिश करते हुए अधिक स्थिरता की अपेक्षा अधिक उत्तरदायित्व को तरजीह दी गई है" । यद्यपि संसदीय शासन प्रणाली के विचार के विरुद्ध कुछ आवाजें सुनी गईं तथापि प्रारूप समिति के प्रस्ताव के पक्ष में भारी बहुमत था और अंत में 26 जनवरी, 1950 को स्वतंत्र भारत के गणराज्य का संविधान लागू हो जाने से, आधुनिक संस्थागत ढांचे और उसकी अन्य सब शाखा-प्रशाखाओं सहित पूर्ण संसदीय शासन प्रणाली स्थापित हो गई। संविधान सभा भारत की अस्थायी संसद बन गई और वयस्क मताधिकार के आधार पर प्रथम आम चुनावों के पश्चात नए संविधान के उपबंधों के अनुसार संसद का गठन होने तक इसी प्रकार कार्य करती रही। नए संविधान के अंतर्गत प्रथम आम चुनाव वर्ष 1951-52 में हुए। प्रथम निर्वाचित संसद जिसके दो सदन थे, राज्य सभा और लोक सभा, मई 1952 में बनी; दूसरी लोक सभा मई, 1957 में बनी; तीसरी अप्रैल, 1962 में; चौथी मार्च, 1967 में पांचवीं मार्च, 1971 में; छठी मार्च, 1977 में; सातवीं जनवरी, 1980 में, आठवीं जनवरी, 1985 में; नवीं दिसंबर, 1989 में, दसवीं जून, 1991 में, ग्यारहवीं मई, 1996 में, बारहवीं मार्च, 1998 में और वर्तमान तेरहवीं अक्तूबर, 1999 में बनी। 1952 में पहली बार गठित राज्य सभा एक निरंतर रहने वाला, स्थायी सदन है जिसका कभी विघटन नहीं होता। हर दो वर्ष बाद इसके एक-तिहाई सदस्य अवकाश ग्रहण करते हैं। 2
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