Tuesday, March 15, 2022

निर्वाचन प्रणाली क्या है what is the Electoral System

प्रतिनिधि संसदीय लोकतंत्र में जन प्रतिनिधियों के निर्वाचन की और इस प्रयोजन के लिए उपयुक्त तंत्र की आवश्यकता होती है। संविधान में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के लिए उपबंध किया गया है। ऐसे प्रत्येक नागरिक को मतदान करने का पूरा अधिकार है जिसने 18 वर्ष या इससे अधिक की आयु प्राप्त कर ली हो, चाहे उसका धर्म, लिंग या जन्म स्थान कोई भी हो। सबसे महत्व की बात यह है कि निर्वाचन निर्बाध एवं निष्पक्ष हों और ऐसे प्रतीत भी हों। इसीलिए ये एक स्वतंत्र प्राधिकरण के अधीक्षण और निदेश के अधीन कराए जाते हैं। और यह प्राधिकरण निर्वाचन आयोग कहलाता है। भारत जैसे विशाल आकार वाले (लगभग 33 लाख वर्ग किलोमीटर), भारी जनसंख्या वाले (लगभग 100 करोड़ से अधिक) और इतने अधिक मतदाताओं वाले (लगभग 61 करोड़) देश में निर्वाचन कराना एक बहुत बड़ा काम है।' संसद के दोनों सदनों के लिए और राज्यों के विधानमंडलों के लिए निर्वाचनों के अतिरिक्त, निर्वाचन आयोग भारत के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के उच्च पदों के लिए भी निर्वाचन करता है। 


निर्वाचन आयोग 


निर्वाचन आयोग मुख्य निर्वाचन आयुक्त और ऐसे अन्य निर्वाचन आयुक्तों से बनता है जो राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए जाएं। अक्तूबर, 1993 में एक अध्यादेश के द्वारा दो निर्वाचन आयुक्त नियुक्त किए गए थे, जिन्हें वही स्थिति तथा हैसियत प्रदान की गई थी, जो मुख्य निर्वाचन आयुक्त को प्राप्त थी। इसके अतिरिक्त, आयोग से अपेक्षा की गई थी कि वह एक निकाय के रूप में कार्य करे तथा जो भी निर्णय ले सर्वसम्मति से ले या यदि ऐसा न हो पाए तो बहुमत के आधार पर ले। इस अध्यादेश को बाद में जिसका स्थान अधिनियम ने ले लिया था, मुख्य निर्वाचन आयुक्त द्वारा चुनौती दी गई। किंतु उच्चतम न्यायालय ने कानून को सही ठहराया।


मुख्य निर्वाचन आयुक्त के कर्तव्यों के महत्व को देखते हुए ऐसे विशिष्ट व्यक्ति को इस पद पर नियुक्त किया जाता है जिसे पर्याप्त प्रशासनिक अनुभव हो, विधि का ज्ञान हो और जिसे समाज में भी उच्च स्थान प्राप्त हो। आयोग के सदस्यों की सेवा की शर्तों में और पदावधि में उनकी नियुक्ति के पश्चात उनके लिए अलाभकारी परिवर्तन नहीं किए जा सकते। मुख्य निर्वाचन आयुक्त को उसके पद से उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की तरह प्रक्रिया द्वारा ही हटाया जा सकता है, अन्यथा नहीं। अन्य निर्वाचन आयुक्तों को मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सिफारिश के विना उसके पद से नहीं हटाया जा सकता। केंद्रीय तथा राज्य सरकारों को आयोग को उतने अधिकारी और कर्मचारीवृंद उपलब्ध कराने होते हैं जितने उसके कर्तव्यों तथा दायित्वों के उचित निर्वहन के लिए आवश्यक और निर्वाचन संबंधी कृत्यों का निर्वहन करते हुए ऐसे सब अधिकारी तथा कर्मचारीवृंद निर्वाचन आयोग के प्रति पूर्णतया उत्तरदायी होते हैं। 


प्रत्येक राज्य के लिए एक मुख्य निर्वाचन अधिकारी होता है जिसे निर्वाचन आयोग द्वारा निर्वाचक नामावलियां तैयार करने, उनका पुनरीक्षण करने और उनमें शुद्धियां करने के काम के अधीक्षण के लिए और राज्य में सभी निर्वाचनों का संचालन करने के लिए मनोनीत किया जाता है। इसी प्रकार जिले के लिए एक जिला निर्वाचन अधिकारी होता है, जो मुख्य निर्वाचन अधिकारी के निर्देश के अधीन अपने जिले में निर्वाचनों से संबंधित सारे कार्य का समन्वय तथा अधीक्षण करता है। आमतौर पर जिला कलेक्टरों या उपायुक्तों को जिला निर्वाचन अधिकारी नामजद किया जाता है। वे मतदान केंद्रों के लिए प्रेजाइडिंग अधिकारी तथा मतदान अधिकारी नियुक्त करते हैं; प्रेजाइडिंग अधिकारी निर्वाचन के दिन महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है; मतदान केंद्र पर उसका सामान्य कर्तव्य वहां व्यवस्था बनाए रखना और यह देखना होता है कि मतदान निर्बाध और निष्पक्ष हों।' मतदान केंद्र पर मतदान अधिकारी का यह कर्तव्य होता है कि वह प्रेजाइडिंग अधिकारी की उसके कृत्यों के निर्वहन में सहायता करे। 


निर्वाचन आयोग, राज्य सरकार के परामर्श से, प्रत्येक संसदीय तथा विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र के लिए और राज्य सभा में किसी स्थान या किन्हीं स्थानों को भरने के लिए एक रिटर्निंग अधिकारी नियुक्त करता है। रिटर्निंग अधिकारी को ऐसे सब कार्य करने का अधिकार प्राप्त है जो निर्वाचन विधियों के अनुसार निर्वाचन कराने के लिए आवश्यक हों। 


सदस्यों का निर्वाचन 


लोक सभा के लिए सामान्य निर्वाचन जब उसकी कार्यावधि समाप्त होने वाली हो या उसके भंग किए जाने पर कराए जाते हैं।'  


संविधान के अधीन संसद को यह शक्ति प्राप्त है कि वह संसद के प्रत्येक सदन या किसी राज्य विधानमंडल के सदन या प्रत्येक सदन के लिए निर्वाचनों के संबंध में, निर्वाचन नामावलियां तैयार करने, निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन करने और ऐसे सदन या सदनों के सम्यक गठन के लिए अन्य सभी आवश्यक विषयों हेतु विधान बना सकती है। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 और लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 इस उपबंध के अनुसरण में अधिनियमित सबसे अधिक महत्वपूर्ण विधान हैं। निर्वाचनों का रजिस्ट्रीकरण नियम, 1960 और निर्वाचनों का संचालन नियम, 1961 उन विधानों के उपबंधों के पूरक हैं। नई उत्पन्न होने वाली स्थितियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिनियमों और नियमों में समय समय पर संशोधन किया जाता है और उन्हें अद्यतन बनाया जाता है। 


सदस्यता के लिए अर्हताएं और अनर्हताएं 


कोई व्यक्ति संसद का सदस्य बनने के लिए अर्ह तभी होता है जब

(क) वह भारत का नागरिक हो; 

(ख) वह राज्य सभा के स्थान के लिए कम से कम 30 वर्ष की आयु का और लोक सभा के स्थान के लिए कम से कम 25 वर्ष का हो; और 

(ग) वह भारत के किसी संसदीय निर्वाचन क्षेत्र के लिए निर्वाचक हो, परंतु राज्य सभा के मामले में जिस राज्य से या संघ-राज्य क्षेत्र से वह चुना जाना हो उसमें निर्वाचक के रूप में पंजीकृत हो। 


इसके अतिरिक्त, अन्य अर्हताएं संसद, विधि द्वारा, निर्धारित कर सकेगी।' सदस्य बनने के लिए कुछ अनर्हताएं भी हैं। उदाहरणार्थ, कोई व्यक्ति संसद के किसी भी सदन का सदस्य बनने के लिए अनर्ह होगा यदि


(क) वह सरकार के अधीन ऐसे पद को छोड़कर जिसको धारण करने वाले को अनर्ह न होना संसद ने विधि द्वारा घोषित किया है, कोई लाभ का पद धारण करता है; 

(ख) वह विकृतचित्त हो;

(ग) वह अनुन्मोचित दिवालिया हो; 

(घ) वह भारत का नागरिक न हो; 

(ङ) वह संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा अनर्ह कर दिया गया हो; 

(च) वह दल बदलने के आधार पर अनर्ह करार दिया गया हो।" 


मंत्री का पद लाभ का पद नहीं माना जाता।" उपर्युक्त अपेक्षाओं के अतिरिक्त, निर्वाचन विधियों में कुछ अन्य अनर्हताएं भी निर्धारित की गई हैं। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के अधीन यदि कोई व्यक्ति अन्य बातों साथ साथ विभिन्न संप्रदायों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने के लिए दोषसिद्ध किया गया हो या घूस के अपराध के लिए दोषसिद्ध किया गया हो, या अस्पृश्यता का प्रचार करने और उसका पालन करने के कारण दंडित किया गया हो तो वह सदस्य के रूप में चुने जाने से अनर्ह होता है। इसके अतिरिक्त, किसी अपराध के कारण दोषसिद्ध किया गया कोई व्यक्ति जिसे कम से कम दो वर्षों के लिए कारावास का दंड दिया गया हो, वह व्यक्ति अपनी रिहाई के पश्चात पांच वर्षों की अवधि के लिए अनर्ह रहता है। भ्रष्टाचार या राज्य के प्रति गैर वफादारी के लिए बर्खास्त किया गया सरकारी कर्मचारी अपनी बर्खास्तगी की तिथि से पांच वर्षों की अवधि के लिए अनर्ह रहता है। 


निर्वाचन रीति 


राज्य सभाः 


राज्य सभा के सदस्य राज्यों तथा संघ-राज्य क्षेत्रों के लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे किसी राज्य के मामले में उस राज्य की विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा चुने जाते हैं और संघ-राज्य क्षेत्र के मामले में एक निर्वाचक मंडल द्वारा । उनका निर्वाचन अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली के द्वारा और आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा किया जाता है। इसका उद्देश्य अल्पसंख्यक समुदायों तथा दलों के लिए प्रतिनिधित्व की व्यवस्था करना है। 


राज्य सभा में स्थान भरने के प्रयोजन के लिए, राष्ट्रपति, निर्वाचन आयोग द्वारा सुझाई गई तारीख को, अधिसूचना जारी करके, निर्वाचकों से राज्य सभा के सदस्यों को चुनने के लिए कहता है। जिस तिथि को सेवानिवृत्त होने वाले सदस्यों की पदावधि समाप्त होनी हो उससे तीन मास से अधिक समय से पूर्व ऐसी अधिसूचना जारी नहीं की जाती। स्टिर्निंग अधिकारी, निर्वाचन आयोग के अनुमोदन से मतदान का स्थान निर्धारित और अधिसूचित करता है। 


लोक सभा : 


नई लोक सभा के लिए निर्वाचन के प्रयोजन से, राष्ट्रपति, राजपत्र में प्रकाशित अधिसूचना द्वारा, निर्वाचन आयोग द्वारा सुझाई गई तिथि को, सब संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में कहता है कि वे लोग सभा के लिए सदस्य निर्वाचित करें। अधिसूचना जारी किए जाने के पश्चात निर्वाचन आयोग नामांकन पत्र दायर करने, उनकी छानबीन करने, उन्हें वापस लेने और मतदान के लिए तिथियां निर्धारित करता है। निर्वाचन के लिए प्रत्येक उम्मीदवार को 25,000 रुपए, अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य होने की स्थिति में 5,000 रुपए उसके नामांकन के विधिमान्यकरण के लिए जमा कराने पड़ते हैं। यदि वह उम्मीदवार अपने निर्वाचित-क्षेत्र में न्यूनतम निर्धारित प्रतिशत मत प्राप्त करने में असफल रहता है तो वह राशि जल कर ली जाती है। निर्वाचन के लिए उम्मीदवार व्यक्ति को संविधान की तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्रारूप के अनुसार संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा की शपथ लेनी होती है २१ प्रतिज्ञान करना होता है। रिटर्निंग अधिकारी, नामांकन पत्र की वैधता की जांच करने के पश्चात वैध रूप से नामांकित उम्मीदवारों की एक सूची प्रकाशित करता है। 


लोक सभा के लिए प्रत्यक्ष निर्वाचन होने के कारण भारत के राज्य क्षेत्र को उपयुक्त प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित करना आवश्यक है। इस प्रकार प्रत्येक राज्य को ऐसी रीति से विभिन्न संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में बांटा जाता है कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या और उसके लिए आवंटित स्थानों की संख्या का अनुपात, जहां तक व्यवहार्य हो, सारे राज्य में बराबर हो। प्रत्येक संसदीय निर्वाचन क्षेत्र एक सदस्य का निर्वाचन क्षेत्र होता है। 


मतदान पूरा हो जाने के पश्चात मतों की गणना ऐसी तिथि को और ऐसे समय पर होती है, जो रिटर्निंग अधिकारी निर्धारित करे। वही परिणाम की घोषणा करता है और निर्वाचन आयोग को और संबद्ध सदन के महासचिव को उसकी सूचना देता है। 


यदि यह प्रश्न उत्पन्न हो जाता है कि क्या संसद के किसी सदन का कोई सदस्य संविधान में वर्णित किसी अनर्हता से ग्रस्त हो गया है या नहीं तो इस बारे में राष्ट्रपति का फैसला अंतिम होगा। परंतु ऐसे किसी प्रश्न पर फैसला करने से पूर्व उसे इस बारे में निर्वाचन आयोग की राय प्राप्त करनी होती है।" 


स्थान रिक्त हो जाना 


यदि एक सदन का कोई सदस्य दूसरे सदन के लिए भी निर्वाचित हो जाता है तो पहले सदन में उसका स्थान उस तिथि से रिक्त हो जाता है जब वह अन्य सदन के लिए निर्वाचित हुआ हो। इसी प्रकार, यदि वह किसी राज्य विधानमंडल के सदस्य के रूप में भी चुन लिया जाता है तो, यदि वह राज्य विधानमंडल में अपने स्थान से, राज्य के राजपत्र में घोषणा के प्रकाशन से 14 दिनों के भीतर, त्यागपत्र नहीं दे देता तो, संसद का सदस्य नहीं रहता। कोई सदस्य राज्य सभा के सभापति को या लोक सभा के अध्यक्ष को, जैसी स्थिति हो, त्यागपत्र देकर अपना स्थान रिक्त कर सकता है। यदि कोई सदस्य, सदन की अनुमति के बिना 60 दिन की अवधि तक सदन की किसी भी बैठक में उपस्थित नहीं होता तो वह सदन उसके स्थान को रिक्त घोषित कर सकता है। इसके अतिरिक्त, किसी सदस्य को सदन में अपना स्थान रिक्त करना पड़ता है यदि 

(1) वह लाभ का कोई पद धारण करता है; 

(2) उसे विकृत चित्त वाला व्यक्ति घोषित कर दिया जाता है या अनुन्मोचित दिवालिया घोषित कर दिया जाता है; 

(3) वह स्वेच्छा से किसी विदेशी राज्य की नागरिकता प्राप्त कर लेता है; 

(4) उसका निर्वाचन न्यायालय द्वारा शून्य घोषित कर दिया जाता है; 

(5) वह सदन द्वारा निष्कासन का प्रस्ताव स्वीकृत किए जाने पर निष्कासित कर दिया जाता है; या 

(6) वह राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति या किसी राज्य का राज्यपाल चुन लिया जाता है। 


यदि किसी सदस्य को संविधान की दशम अनुसूची के उपबंधों के अंतर्गत दल-बदल के आधार पर अनर्ह कर दिया गया हो, तो उस स्थिति में भी उसकी सदस्यता समाप्त हो सकती है। 


निर्वाचन संबंधी विवाद 


निर्वाचनों से विवाद भी उत्पन्न हो जाते हैं। यह उपबंध किया गया है कि संसद के या किसी राज्य विधानमंडल के किसी सदन के लिए हुए किसी निर्वाचन को चुनौती उच्च न्यायालय में निर्वाचन याचिका के द्वारा ही दी जा सकती है। ऐसी याचिका निर्वाचन में किसी उम्मीदवार द्वारा, या किसी मतदाता द्वारा, पेश की जा सकती है। याचिका ऐसे स्थान भरने के लिए या निर्वाचन के दौरान कोई भ्रष्ट प्रक्रिया अपनाने के कारण जिस पर विधि द्वारा रोक हो, अनर्हता के आधार पर पेश की जा सकती है। यदि सिद्ध हो जाए तो उच्च न्यायालय को यह शक्ति प्राप्त है कि वह उपर्युक्त किसी एक आधार पर सफल उम्मीदवार का निर्वाचन शून्य घोषित कर दे। 


यदि किसी याचिका में, याचिकादाता द्वारा इस बात का दावा किया जाता है कि वैध मतों में से अधिकांश मत उसे मिले थे और यदि सफल उम्मीदवार ऐसी भ्रष्ट प्रक्रियाएं न अपनाता जो उसने अपनाईं तो वह निर्वाचन जीत नहीं सकता था तो यदि न्यायालय का समाधान हो जाए तो वह निर्वाचित उम्मीदवार का निर्वाचन शून्य घोषित कर सकता है और याचिकादाता को विधिवत निर्वाचित घोषित कर सकता है। 


प्रभावित पक्ष को उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील करने का अधिकार है। 


निर्वाचन सुधार 


हाल के वर्षों के दौरान निर्वाचन प्रक्रियाओं में धन, लठैत और माफिया शक्ति के प्रभाव के बारे में व्यापक चिंता व्यक्त की गई है। प्राप्त समाचारों के अनुसार 1991 का दसवां सामान्य निर्वाचन विशेष रूप से क्रूर तथा हिंसापूर्ण था और इस दौरान सभी तरह के अपराध तथा दंगे हुए, हत्याएं हुईं और मार-काट हुई। प्रधानमंत्री ने स्वयं 'राजनीति के अपराधीकरण तथा अपराधियों के राजनीतिकरण' की प्रवृत्ति की निंदा की। चुनावों की वीडियो तथा अन्य मीडिया कवरेज और बूथों पर कब्जा करने, मतदान में हेराफेरी करने, जाली मतदान करने, किसी अन्य व्यक्ति का रूप लेकर मतदान करने, धार्मिक तथा जातीय पहचानों का दुरुपयोग करने और विभिन्न अन्य भ्रष्ट आचरणों के प्रकरणों ने निर्वाचन सुधारों की आवश्यकता को अनिवार्य बना दिया है। समय समय पर निर्वाचन आयोग, शिक्षाविदों, आयोगों और समितियों द्वारा विभिन्न सुझाव दिए गए हैं। पिछले कुछ समय से निर्वाचन आयोग निर्वाचन प्रक्रिया को स्वच्छ तथा सुप्रवाही बनाने के विचार से आचार संहिता, विभिन्न नियमों आदि को लागू करने का प्रयास कर रहा है। सरकार भी इस प्रयोजन के लिए एक व्यापक कानून लाने के बारे में विचार करती रही है किंतु सारी की सारी कसरत राजनीतिक विवादों तथा दलगत मतभेदों में उलझकर रह गई है। 


संविधान के कार्यकरण की समीक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग ने 31 मार्च, 2003 को जो रिपोर्ट पेश की उसमें सभी महत्वपूर्ण निर्वाचन सुधारों का सार नवीनतम परिप्रेक्ष्य में दिया गया है। आयोग ने कुल जितनी सिफारिशें की हैं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण और दूरगामी सिफारिशें निर्वाचनों के संबंध में हैं। जो तथ्य और आंकड़े आयोग के सामने आए उनसे पता चला कि देश भर में निर्वाचित विधायकों का 70 प्रतिशत ऐसे व्यक्तियों का है जिन्हें डाले गए मतों का अल्पमत मिला अर्थात उनके विरुद्ध अधिक मत पड़े और पक्ष में कम । अतः आयोग ने सिफारिश की कि निर्वाचन आयोग जीत के लिए 50 प्रतिशत मत पाने को अनिवार्य करने पर विचार करे। अगर किसी को भी इतने मत न मिले हों तो सबसे अधिक मत पाने वाले दो उम्मीदवारों में पुनः मतदान हो। आयोग ने सर्वसम्मति से जो अन्य सिफारिशें कीं, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं: 


(i) यथासंभव त्रुटिरहित मतदाता सूची की व्यवस्था की जाए, 

(ii) बहु-उद्देश्यीय पहचान पत्र प्रत्येक मतदाता के लिए अनिवार्य हो, 

(iii) सभी निर्वाचन क्षेत्रों में इलैक्ट्रोनिक वोटिंग मशीनों का प्रयोग अनिवार्य हो, 

(iv) मतदान केंद्रों पर कब्जा किए जाने जैसे अपराधों के लिए चुनाव रद्द किए जाने अथवा दुबारा मतदान की आज्ञा देने के लिए निर्वाचन आयोग पूर्णतया सक्षम हो, और 

(v) अधिक संवेदनशील मतदान केंद्रों पर वीडियो तथा अन्य इलैक्ट्रोनिक निगरानी यंत्रों का प्रयोग किया जाए। 


कुछ सिफारिशें जिन पर विधायी कार्यवाही की आवश्यकता है वह हैं : 


(i) चुनाव अभियान के बीच सांप्रदायिक अथवा जातीय भेद भाव फैलाने के लिए अनिवार्य कारावास की सजा तथा सदस्यता के लिए अयोग्य घोषित किए जाने का प्रावधान हो। 

(ii) जिन व्यक्तियों पर किन्हीं न्यायालयों द्वारा गंभीर अभियोग लगे हों, वे चुनाव लड़ने के अयोग्य माने जाएं तथा उन्हें खड़ा करने वाले दलों को भी अमान्य घोषित किया जाए। 

(iii) जघन्य अपराधों के लिए दोषी पाए गए व्यक्तियों को जीवन भर के लिए निर्वाचित पदों के लिए अयोग्य करार दिया जाए। 

(iv) निर्वाचन संबंधी याचिकाओं पर तथा निर्वाचनों में उम्मीदवारों और अन्य राजनीतिज्ञों के विरुद्ध मामलों का तेजी के साथ निपटारा करने की व्यवस्था हो, आवश्यक हो तो विशेष अदालतों का गठन किया जा सकता है। 

(v) अभियुक्तों पर लागू होने वाली अनर्हता निर्वाचित विधायकों पर भी लागू हो। 

(vi) निर्वाचन व्यय पर सीमा, बढ़ते हुए खर्चों को देखते हुए समय समय पर बढ़ा दी जाए किंतु राजनीतिक दलों, समर्थक संगठनों अथवा मित्रों आदि द्वारा किए गए खर्चे भी व्यय सीमा के भीतर ही हों। 

(vii) प्रत्येक उम्मीदवार के लिए अनिवार्य हो कि वह अपनी आय, संपत्ति, देनदारी आदि का पूरा ब्यौरा जनता के सामने रखे। किसी भी राजनीतिक पद पर आसीन व्यक्तियों के लिए ऐसी सूचना हर वर्ष उपलब्ध कराना जरूरी हो। 

(viii) जिन उम्मीदवारों को 25 प्रतिशत से कम मत मिलें उनकी जमानत जब्त हो जाए। 

(ix) निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, लोक सभा और राज्य सभा में विपक्ष के नेता, लोक सभा के अध्यक्ष और राज्य सभा के उपसभापति की सलाह से हो। 

(x) किसी भी निर्वाचित पद के लिए उम्मीदवार बनने से पहले यह जरूरी हो कि सरकार के प्रति कोई देयता शेष न हो तथा सरकारी आवास आदि का अनधिकृत, उपयोग न किया जा रहा हो। 


गत कुछ निर्वाचनों के आंकड़ों के अध्ययन के बाद आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि जितने निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव में खड़े होते हैं उनमें अधिकांश डमी या नकली होते हैं और चुनाव प्रक्रिया को दूषित करते हैं। 1998 के आम चुनाव में 1900 निर्दलीय प्रत्याशी थे जिनमें केवल 6 जीत पाए और 1996 में दस हज़ार से अधिक में से केवल 9 विजयी हुए थे। आयोग ने कहा है कि ऐसे निर्दलीय सदस्यों को चुनावों से दूर रखने का प्रयास किया जाना चाहिए। केवल ऐसे व्यक्ति को निर्दलीय प्रत्याशी बनने का अधिकार हो जो पहले कोई स्थानीय चुनाव जीत चुका हो और जिसे कम से कम 20 स्थानीय निर्वाचित पंचायत या नगरपालिका सदस्य नामांकित करें। 


निर्वाचनों पर होने वाले भयावह व्यय कम करने के लिए आयोग ने संस्तुति की कि जहां तक संभव हो लोक सभा और राज्यों की विधानसभाओं के लिए निर्वाचन एक साथ हों, निर्वाचन अभियान की समय सीमा में कमी हो, किसी को भी एक से अधिक निर्वाचन क्षेत्र से प्रत्याशी बनने का अधिकार न हो, आचार संहिता को विधि का रूप दिया जाए तथा उसका उल्लंघन दंडनीय अपराध हो, और राज्यों के भीतर निर्वाचन क्षेत्रों का पुनःआबंटन एवं आरक्षित स्थानों का अदल-बदल हो। 


इन सारे सुधारों के लिए कोई सांविधानिक संशोधन की दरकार नहीं है किंतु यह जनहित याचिकाओं के अंतर्गत न्यायालयों द्वारा दिए गए आदेशों से भी कदापि सार्थक रूप में लागू नहीं किए जा सकते क्योंकि यह सब मामले संसद के विधायी क्षेत्र में आते हैं न्यायालयों के क्षेत्र में नहीं। आवश्यकता इस बात की है कि यदि विधानपालिका अपने दायित्वों के निर्वहन में कोताई करती है तो लोकतंत्र में जनमत का प्रबल दबाव उसे आवश्यक कदम उठाने के लिए विवश कर दे। लोकतंत्र में यदि जनता जागरूक न हो, जनमत प्रभावी न हो और जन-जन राजनीतिक व्यवस्था में सक्रिय भागीदारी होने के लिए तत्पर न हो तो कोई विकल्प नहीं है, न्यायालय भी नहीं। 


त्रिशंकु लोक सभा विधान सभा की स्थिति में प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री के चयन करने और सरकार बनाने की समस्या से निपटने का सबसे अच्छा उपाय संविधान आयोग की दृष्टि में यह होगा कि राष्ट्रपति/राज्यपाल स्वयं किसी विवाद में पड़े बिना लोक सभा विधान सभाओं को संदेश भेजकर कहें कि सदन का नेता चुन दें। जो दें नेता चुना जाए उसे ही प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया जाए। क्योंकि सदन में मतदान पहले ही हो जाएगा यह भी आवश्यक नहीं रहेगा कि राष्ट्रपति/राज्यपाल प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री को अमुक दिनों के भीतर सदन से विश्वास मत पारित कराने का आदेश दें। आयोग ने इस सुझाव को सर्वसम्मति से स्वीकार किया और यह मूल रिपोर्ट का अंग है। साथ ही आयोग ने इसका एक जुड़वां सुझाव यह भी माना कि एक बार प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री बनने के बाद उसे केवल रचनात्मक अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा ही हटाया जा सके अर्थात प्रक्रिया संबंधी नियमों में एक छोटा परिवर्तन करके यह प्रावधान कर दिया जाए कि अविश्वास प्रस्ताव तभी विवाद के लिए स्वीकृत होगा जब उसमें वैकल्पिक नेता का नाम भी दिया हो। इस प्रकार त्रिशंकु सदन की स्थिति में सरकार बनाने की समस्या का भी समाधान हो जाएगा और इस प्रकार बनी सरकार का स्थायित्व भी सुनिश्चित हो जाएगा। अगर कभी प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री बदलने की नौबत भी आती है तब भी सदन की समर्थन प्राप्त सरकार बराबर बिना किसी व्यवधान के चलती रहेगी। 


निर्वाचन व्यवस्था में सुधार करने का कोई भी प्रयास तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक राजनीतिक दल व्यवस्था में भी साथ साथ आवश्यक सुधार न किए जाएं। आयोग ने सिफारिश की है कि राजनीतिक दलों के नियमन के लिए एक व्यापक कानून बने जिसके अंतर्गत राजनीतिक दलों के पंजीकरण, मान्यता, आंतरिक लोकतंत्र, गठबंधन आदि के नियम हों। प्रत्येक राजनीतिक दल के द्वार बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक के लिए खुले हों। प्रत्येक दल संविधान के प्रति तथा देश की संप्रभुता एवं एकता के प्रति शपथनिष्ठ हो तथा नियत अवाये के भीतर दल के पदाधिकारियों के निर्वाचन अनिवार्य हों, प्रत्येक दल के लिए यह आवश्यक हो कि दल के संगठन में कम से कम 30 प्रतिशत पद महिलाओं के लिए सुरक्षित रखे तथा संसद और राज्यों की विधायिकाओं के लिए दल के प्रत्याशियों क, चयन करते समय भी 30 प्रतिशत स्थान महिलाओं को दिए जाने का प्रावधान कानून में हो। आयोग ने कहा कि यदि कोई दल 30 प्रतिशत स्थान महिलाओं को नहीं देता तो उस दल की वैधिक मान्यता निरस्त कर दी जाए। देश को एक कम विभाजनकारी और लोगों को आपस में जोड़ने वाली व्यवस्था देने के लिए, राजनीतिक दलों को मान्यता देने के मामले में, बहुत सोच-विचार के बाद आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि निर्वाचन आयोग दलों को मान्यता देने के लिए धीरे धीरे अर्हता बढ़ाता जाए ताकि छोटे छोटे दलों की बढ़त को प्रोत्साहन न मिले। केवल ऐसे राजनीतिक दल अथवा दलों के गठबंधन को लोक सभा का चुनाव लड़ने के लिए चुनाव चिह्न दिया जाएगा जिसे राष्ट्रीय दल या गठबंधन के रूप में मान्यता प्राप्त हो। 


आयोग ने सुझाव दिए हैं कि निर्वाचन खर्चों में कमी की जाए, राजनीतिक भ्रष्टाचार रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाए जाएं, जनता को सूचना का अधिकार दिया जाए, राजनीतिक दलों के पैसा इकट्ठा करने और खर्च करने के मामलों में पारदर्शिता लाई जाए, उद्योगपतियों द्वारा राजनीतिक दलों को आर्थिक सहायता देना वैध माना जाए और उस पर करों में कुछ छूट भी दी जाए और यदि निर्वाचन व्यय के दिए गए आंकड़े गलत साबित हों तो दल की मान्यता रद्द कर दी जाए। आयोग ने यह भी सुझाव दिया कि राजनीतिक दल संबंधी विधि यह सुनिश्चित करे कि प्रत्येक दल निर्वाचन में नामांकन भरने वाले अपने उम्मीदवारों से यह अपेक्षा करें कि वह अपनी संपत्ति और देनदारी का ब्यौरा दें। 


इसी प्रकार उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि के बारे में भी आयोग ने यह दायित्व राजनीतिक दलों के ऊपर छोड़ा है और कहा है कि प्रस्तावित विधि में ऐसा प्रावधान हो कि यदि कोई दल आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बनाता है तो उस दल की मान्यता समाप्त कर दी जाए। अगर ऐसा कानून बन जाता है तो निर्वाचनों में आपराधिक तत्वों का बढ़ता वर्चस्व समाप्त हो जाएगा। 


आयोग ने सिफारिश की है कि देश के सामने प्रमुख समस्याओं पर योजनाबद्ध चिंतन, खोज और अध्ययन-प्रशिक्षण के लिए संस्थागत व्यवस्था की ए ताकि राजनीतिक दलों के सदस्य शासन के दायित्वों को संभालने के लिए सुधि क्षेत और सक्षम हो सकें। 


जिस प्रकार हमारे विधायकों का क्रय-विक्रय होता रहा है वह आयोग के शब्दों में लोकतंत्र का परिहास है। अतः आयोग ने सिफारिश की है कि जो कोई भी विधायक अपने दल को छोड़े या उसके विरुद्ध मतदान करे, उसे तुरंत अपनी सदस्यता से त्यागपत्र देकर पुनः चुनाव लड़ना चाहिए। दल बदलने वाले किसी व्यक्ति को कोई मंत्री पद अथवा अन्य पद तब तक प्राप्य नहीं होना चाहिए जब तक वह पुनः निर्वाचन के द्वारा जनादेश जीत कर न आए। यदि किसी मंत्रिमंडल को गिराने के लिए दल के निर्देश के विरुद्ध कोई मतदान करता है तो उसके मत की गणना नहीं होनी चाहिए। एक प्रमुख सुझाव जिसे आयोग का पूर्ण समर्थन मिला वह था मंत्रियों की संख्या पर प्रतिबंध लगाने के बारे में। केंद्र तथा राज्यों में कहीं भी लोक सभा/विधान सभा की सदस्य संख्या के 10 प्रतिशत से अधिक मंत्री नहीं होने चाहिए और मंत्री पद के बराबर और पदों की सृष्टि पर भी 2 प्रतिशत की सीमा होनी चाहिए। 

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