Tuesday, March 15, 2022

संसद के अध्यक्ष तथा अन्य अधिकारी Speakers of Parliament and other officers

किसी सदन को यदि व्यवस्थित और कुशल ढंग से कोई कार्य करना हो तो उसके लिए किसी प्राधिकारी का होना आवश्यक है जो उसकी कार्यवाहियों को और कार्यकरण को नियमित करे। संविधान में लोक सभा के लिए अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का और राज्य सभा के लिए सभापति और उपसभापति को इसी उद्देश्य से उपबंध किया गया है। भारत का उपराष्ट्रपति राज्य सभा का पदेन सभापति होता है। सदन द्वारा अपने सदस्यों में से एक उपसभापति चुना जाता है। लोक सभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष लोक सभा द्वारा अपने सदस्यों में से चुने जाते हैं। लोक सभा में अध्यक्ष जब उपस्थित न हो तो सदन में उसके कृत्यों का निर्वहन उपाध्यक्ष करता है। इसी तरह, सभापति जेब अनुपस्थित हो तो राज्य सभा में उपसभापति पीठासीन अधिकारी के रूप में कार्य करता है। प्रत्येक सदन में सभापति तालिका भी बनाई जाती है। उस तालिका के सदस्य अपने अपने सदन की उस समय अध्यक्षता करते हैं जब वहां दोनों पीठासीन अधिकारियों में से कोई भी उपस्थित न हो।' दो पीठासीन अधिकारियों के बाद, प्रत्येक सदन में महत्वपूर्ण महासचिव होता है जो सदन का गैर-निर्वाचित स्थायी अधिकारी होता है। 


अध्यक्ष 


अध्यक्ष का पद ब्रिटेन के सवैधानिक इतिहास में विकास के लंबे और गहन संघर्ष के परिणामस्वरूप बना। पुराने दिनों में जब हाउस आफ कामंस विधि का निर्माण करने वाला निकाय न होकर याचिका प्रस्तुत करने वाला निकाय हुआ करता था तो अध्यक्ष का मुख्य कृत्य वाद-विवाद के अंत में दोनों पक्षों के तर्कों का निष्कर्ष निकालना और सदन के विचार 'क्राउन' के समक्ष प्रस्तुत करना हुआ करता था। इस प्रकार वह सम्राट के समक्ष कामंस का प्रवक्ता या 'स्पीकर' हुआ करता था। उसके विपरीत आज का अध्यक्ष कभी-कभार ही बोलता है और जब कभी बोलता है तो सदन में नहीं बल्कि सदन के लिए बोलना है। वह सदन की कार्ययानि भाग नहीं लेता; वह केवन सदन की बैटकों की अध्यक्षता करता है। 


सामान्य रूप से, भारत में अध्यक्ष की स्थिति लगपग वैमी ही है जो कि हाउस आफ कामर के अध्यक्ष की है। उसका पद प्रतिय, गौरव और प्राधिकार का पद है। वह सोक सभा का प्रमुख है। उसका मुख्य उत्तरदायित्व सदन का का शांत एवं व्यवस्थित ढंग से चलाना है। सदन के भीतर और सदन से संबंध  वाले सब मामलों में अंतिम प्राधिकार उसी का है। 


स्वतंत्रता और निष्पक्षता अध्यक्ष पद के दो महत्वपूर्ण गुण हैं। यह उद्देश्य की प्रकार से सुनिश्चित होता है। वरीयता के क्रम में अध्यक्ष को बहुत उच्च स्थान दिया गया है। इस क्रम में उसका स्थान राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बाद आता है। उसका स्थान, सिवाय प्रधानमंत्री के, मंत्रिमंडल के अन्य सब मंत्रियों से ऊंचा है। उसके वेतन और भत्ते भारत की संचित निधि पर प्रभारित हैं, अर्थात उनके लिए संसद की स्वीकृति आवश्यक नहीं होती। उसके आचरण पर सिवाय मूल (सबस्टेंटिव) प्रस्ताव के, अन्यथा चर्चा नहीं की जा सकती। वह सदन में, सिवाय उस स्थिति के जब किसी प्रस्ताव पर दोनों पक्षों के समान मत में अन्यथा मतदान नहीं करता। और जब समान मत होने की ऐसी स्थिति में वह अपना निर्णायक मत देता है तो ऐसा सदा सुस्थापित संसदीय सिद्धांतों और प्रथाओं के अनुसार ही किया जाता है। यह संयोग की बात है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में ऐसा एक भी अवसर नहीं आया जबकि अध्यक्ष को अपने निर्णायक मृत का प्रयोग करना पड़ा हो। अध्यक्ष राजनीतिक रूप से तटस्थ होता है। अध्यक्ष चुने जाने पर, वह अपने दल की सब गतिविधियों से अपने को अलग कर लेता है। वह किसी दल का बेशक होकर रहे परंन दल की किसी राजनीति में उसका दखल नहीं होता। वह किसी दल का पद धारण नहीं करता, किसी दल की बैठकों में या क्रियाकलापों में भाग नहीं लेता और राजनीतिक विवादों से और दल के अभियानों से दूर रहता है। 


अध्यक्ष सूदन के कार्य का संचालन करता है और उसकी कार्यवाहियों को नियमित करता है। वह संविधान के उपबंधों और "लोक सभा के प्रक्रिया तथा कार्यसंचालन नियमों" के अनुसार ही इन कृत्यों का निर्वहन करता है। सदन के भीतर संविधान के उपबंधों और प्रक्रिया नियमों की जो व्याख्या वह करे वही अंतिम होती है। सब संसदीय मामलों में उसका फैसला अंतिम फैसला होता है। जिन मामलों के बारे में नियमों में विशेष रूप से उपबंध न किया गया हो, उनके संबंध में निर्देश देने की अवशिष्ट शक्तियां अध्यक्ष को प्राप्त हैं। ऐसा करते समय, वह किसी सदस्य से या सरकार से कह सकता है कि ऐसे तथ्य, साक्ष्य एवं सूचना उसे उपलब्ध की जाए जो वह किसी निर्णय पर पहुंचने के लिए आवश्यक समझता हो। परंतु सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद जब एक बार वह विनिर्णय दे देता है तो उसे अंतिम ही माना जाना चाहिए। किसी मामले पर पुनर्विचार करने के लिए तो उसासे निवेदन किया जा सकता है परंतु उसके निर्णय को न तो चुनौती दी जा सकती है और न ही उसकी आलोचना की जा सकती है। 


सदन के कार्य का संचालन शांत एवं व्यवस्थित ढंग से सुनिश्चित करने के लिए अध्यक्ष को बहुल शक्तियां प्राप्त हैं। कोई सदस्य सदन में तब तक नहीं व्योत सकता जब तक पीठासीन अधिकारी द्वारा उसे बोलने के लिए कहा नहीं जाता या बोलने की अनुमति नहीं दी जाती। इस बात का निर्णय अध्यक्ष करता है कि सदस्य किस क्रम से बोलेंगे और किसी सदस्य को कितने समय तक बोलने दिया जाए। वह किसी भी सदस्य को अपना भाषण वहीं समाप्त करने के लिए आदेश दे सकता है और यह आदेश भी दे सकता है कि वह सदस्य ऐसे शब्द या अभिव्यक्ति को वापस ले ले जो अध्यक्ष के विचार में असंसदीय या अभद्र हों। वह यह आदेश भी दे सकता है कि उसकी अनुमति के बिना किसी सदस्य द्वारा कही गई कोई बात कार्यवाही-वृत्तांत में सम्मिलित नहीं की जाएगी और असंसदीय पाई गई किसी व्हाव को कार्यवाही-वृत्तांत से निकाल दिया जाए। जिन शब्दों या भाषण के अंशों के बारे में यह आदेश दिया गया हो कि वे 'रिकार्ड न किए जाएं या असंसदीय होने के कारण कार्यवाही-वृत्तांत से निकाल दिए जाएं, उन्हें समाचारपत्रों द्वारा तथा अन्य लोगों द्वारा प्रकाशित नहीं किया जा सकता क्योंकि संसद के सदनों के कार्यवाही-वृत्तांतों को प्रकाशित करने का अधिकार असीमित अधिकार नहीं है। 


सदन में अव्यवस्था पैदा करने के कारण अध्यक्ष किसी सदस्य से किसी एक दिन के लिए या दिन के किसी भी भाग के लिए सदन से चले जाने के लिए कह सकता है या भारी अव्यवस्था फैलाने के कारण उचित प्रस्ताव पेश किए जाने पर किसी सदस्य को सदन से निलंबित भी कर सकता है। सब सदस्यों को अनुशासन में रखना अध्यक्ष का ही काम है और उसके साथ उचित सम्मान से पेश आने में और उसके विनिर्णयों एवं फैसलों को मानने में सदस्यों को बड़ी सावधानी बस्तानी पड़ती है। जब कभी वह बीच में बोलता है या प्रश्नों का प्रस्ताव करले या प्रश्ना मतदान के लिए रखने के उद्देश्य से खड़ा होता है, कुछ टिप्पणियां करता है या आपने विनिर्णय देता है तो शांति से उसे सुनना अनिवार्य है। इस बात का निर्णय भी अध्यक्षा करता है कि क्या विशेषाधिकार भंग या सदन की अवमानना से संबंधित किसी विषय में प्रथम दृष्टया मामला बनता है, या किसी सदस्य के आचरण का मामला जांच पड़ताल के लिए किसी समिति को निर्दिष्ट किया जाना चाहिए। यदि वह अपनी सम्मति प्रदान नहीं करता तो उस मामले पर आगे कार्यवाही नहीं की जाती। सदन में आरोपात्मक, मानहानिकारक या दोषारोपण करने वाले वक्तव्यों से व्यक्तियों के सम्मान की रक्षा भी अध्यक्ष करता है और वह किसी सदस्य को ऐसा वक्तव्य देने से रोक सकता है, यदि ऐसे वक्तव्य के स्वरूप के बारे में या जिस साक्ष्य पर के आधारित हैं उसकी पूर्व सूचना उसे न दे दी गई हो। 


अध्यक्ष को सदन के वातावरण के प्रति संवेदनशील होना पड़ता है। कभी कभी जब सदन में उत्तेजना होती है, कोलाहल होता है या लगातार अंतर्बाधा होती है तब उसे स्थिति को संभालने, तनाव दूर करने और ऐसा वातावरण पैदा करने के लिए जिसमें व्यवस्थित एवं शांत ढंग से वाद-विवाद हो सके, बड़ी होशियारी, सूक्ष्म बुद्धि एवं स्वस्थ हास्यप्रियता से काम लेना पड़ता है। ऐसा गुण स्वामाविक भी हो सकता है और पैदा भी किया जा सकता है, परंतु एक बुद्धिमान एवं योग्य अध्यक्ष में यह निश्चित रूप से बहुत प्रभावी उपाय होता है। 


प्राप्त होने वाली विभिन्न प्रस्तावों की सूचनाओं, प्रश्नों आदि को गृहीत करने या न करने के बारे में विचार करते समय अध्यक्ष अपने मूल कर्तव्य को सदा ध्यान में रखता है कि उसे इस तरह कार्य करना है जिससे कि समय समय पर उत्पन्न होने वाले लोक महत्व के विभिन्न मामलों पर सदन विचार कर सके और उनके बारे में फैसला कर सके। जब कभी अध्यक्ष को संदेह हो तो वह आमतौर पर सदन को अपने विचार व्यक्त करने का अवसर प्रदान करता है। वह अपने कर्तव्यों को या अपनी शक्तियों को इस रूप में नहीं लेता कि जैसे वह सदन से अलग हो या सदन के प्राधिकार से उसकी शक्ति अधिक हो, या कि वह सदन के निर्णयों को रद्द कर सकता हो। वह सदन का अंग होता है और सदन के बेहतर कार्यकरण के लिए सदन से ही शक्तियां प्राप्त करता है। अंततोगत्वा वह सदन का सेवक होता है, उसका स्वामी नहीं। 


सदन की ओर से संदेश अध्यक्ष के प्राधिकार में भेजे जाते हैं और उसी के प्राधिकार से प्राप्ते होते हैं। कोई विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिए उसके समक्ष प्रस्तुत किए जाने से पूर्व अध्यक्ष ही अपने हस्ताक्षर द्वारा प्रमाणित करता है कि वह विधेयक सदन द्वारा पास कर दिया गया है। वह कोई विधेयक सदन द्वारा पास कर दिए जाने के पश्चात उसमें स्पष्ट त्रुटियों में शुद्धि कर सकता है और उसमें ऐसे अन्य परिवर्तन कर सकता है जो सदन द्वारा स्वीकृत संशोधनों के परिणामी परिवर्तन हों। सदन को भेजे गए दस्तावेज, याचिकाएं और संदेश वही प्राप्त करता है और सदन के सब आदेश उसी के द्वारा कार्यान्वित किए जाते हैं। वह सदन के फैसलों की सूचना संबद्ध प्राधिकारियों को देता है और उनसे कहता है कि ऐसे निर्णयों का पालन किया जाए। 


लोक सभा की सब संसदीय समितियां उसके द्वारा या सदन द्वारा गठित की जाती है। वे उसी के नियंत्रण में और निदेशाधीन कार्य करती हैं। सब समितियों के सभापति अध्यक्ष द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। वह समितियों के कार्यकरण संबंधी मामलों में निर्देश जारी करता है और यह भी निर्देश देता है कि वे क्या प्रक्रिया अपनाएं।" सब विवादास्पद मामले अध्यक्ष के मार्गदर्शन के लिए उसके पास भेजे जाते हैं और उसके फैसलों का पालन किया जाता है। कार्य मंत्रणा समिति, सामान्य प्रयोजन समिति और नियम समिति सीधे उसी की अध्यक्षता में कार्य करती हैं।" 


जहां तक कुछ मामलों में दोनों सदनों के आपसी संबंधों का प्रश्न है, संविधान के अनुसार अध्यक्ष को एक विशेष स्थान दिया गया है। यह वही निर्धारित करता है कि वित्तीय मामले कौन कौन-से हैं जो लोक सभा के संपूर्ण अधिकार क्षेत्र में आते हैं। यदि वह प्रमाणित कर देता है कि अमुक विधेयक 'धन विधेयक' है, तो उसका फैसला अंतिम होता है। किसी विधेयक पर दोनों सदनों में असहमति की स्थिति में जब कभी दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाई जाती है तो ऐसी संयुक्त बैठक की अध्यक्षता वही करता है और ऐसी बैठक में सब प्रक्रिया नियम उसके निर्देशों और आदेशों से लागू होते हैं।" 


सदस्यों के लिए ग्रंथालय, आवास, टेलीफोन, वेतन तथा भत्तों की अदायगी, संसद भवन में जलपान और विश्राम-कक्षों, संसदीय पत्रों के मुद्रण और उनकी सप्लाई आदि जैसी विभिन्न प्रकार की सुविधाओं की व्यवस्था करने का उत्तरदायित्व अध्यक्ष का होता है। अध्यक्ष गैलरियों में दर्शकों और प्रेस संवाददाताओं के प्रवेश को नियमित करता है और इस संबंध में सुरक्षा प्रबंधों के लिए उत्तरदायी है। उसके आदेशों के उल्लंघन की स्थिति में, वह सदन के आदेश के अनुसार दर्शकों को आवश्यक दंड दे सकता है। यदि किसी व्यक्ति की, सदन का विशेषाधिकार भंग करने या उसकी अवमानना करने के आरोप में, सदन के समक्ष उपस्थिति अपेक्षित हो तो वह उसे 'समन' जारी कर सकता है। यदि सदन के किसी सदस्य या बाहर के किसी व्यक्ति को कारावास का दंड देने के लिए प्रस्ताव सदन द्वारा स्वीकृत किया जाता है तो उसके विरुद्ध गिरफ्तारी के वारंट भी अध्यक्ष जारी कर सकता है 


संसदीय दलों को मान्यता प्रदान करने के लिए मार्गदर्शी सिद्धांत अध्यक्ष निर्धारित करता है और लोक सभा में विपक्ष के किसी दल नेता को विपक्ष के नेता के रूप में मान्यता उसी के द्वारा दी जाती है। किसी सदस्य का त्यागपत्र स्वीकार करने से पूर्व अध्यक्ष का समाधान हो जाना आवश्यक है कि वह त्यागपत्र सही है और स्वेच्छा से दिया गया है। यदि जांच के पश्चात अध्यक्ष का समाधान हो जाता है कि वह त्यागपत्र स्वेच्छा से नहीं दिया गया या सही नहीं है तो वह त्यागपत्र स्वीकार करने से इंकार कर सकता है।" 


कोई भी सदस्य अध्यक्ष से उसके कक्ष में मिल सकता है। दल बदलने के कारण लोक सभा के किसी सदस्य की अनर्हता संबंधी सब प्रश्नों का फैसला करने की पूर्ण शक्ति अध्यक्ष को प्राप्त है। वह सदस्यों के विचार, उनकी शिकायतें और सुझाव सुनता है और आवश्यक कार्यवाही करता है। कोई भी सदस्य या मंत्री पहले समय निश्चित करके, अध्यक्ष के कक्ष में उसे मिल सकता है। उसकी निष्पक्षता, योग्यता, चरित्र या आचरण या अपेक्षा करना विशेषाधिकार भंग करना है। उसके फैसलों की सदन के भीतर या बाहर आलोचना नहीं की जा सकती। उसका उन्लेख सम्मानपूर्वक, किया जाना चाहिए और उसे उच्च स्थान दिया जाना चाहिए। सदन की गरिया के रक्षा और उसको बनाए रखने के लिए ऐसा करना आवश्यक है। 


यदि लोक सभा का कोई सदस्य किसी अपराध में गिरफ्तार किया जाता है, या उसे कारावास का दंड दिया जाता है, या कार्यपालिका के किसी आदेश से नजार किया जाता है तो ऐसे तथ्य की सूचना दंडाधिकारी या कार्यपालिका प्राधिकारी के द्वारा तुरंत अध्यक्ष को दी जानी अनिवार्य है। किसी सदस्य की रिहाई की स्थिति में भी ऐसी सूचना का दिया जाना अनिवार्य है। अध्यक्ष की अनुमति प्राप्त किा बिना सदन के परिसर में किसी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता और न ही उसके विरुद्ध किसी दीवानी या आपराधिक, कानूनी आदेशिका की तामील की जा सकती है। 


अध्यक्ष सदन में निधन संबंधी उल्लेख करता है, सदन की कार्यावधि समाप्त होने पर विदाई भाषण देता है और महत्वपूर्ण राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं का औपचारिक रूप से भी उल्लेख करता है। 


अध्यक्ष भारतीय संसदीय ग्रुप का, जो भारत में अंतर्संसदीय संघ के राष्ट्रीय ग्रुप के रूप में और राष्ट्रमंडल संसदीय संघ की मुख्य शाखा के रूप में कार्य करता है,, पदेन प्रेजिडेंट होता है। वह, राज्य सभा के सभापति के परामर्श से, विदेशों में जाने वाले विभिन्न संसदीय प्रतिनिधिमंडलों के सदस्य मनोनीत करता ऐसे प्रतिनिधिमंडलों का नेतृत्व स्वयं करता है। अध्यक्ष भारत में विधायी निकायों के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन का सभापति भी होता है। 


लोक सभा सचिवालय अध्यक्ष के निदेश और नियंत्रण में कार्य करता है। उसे सचिवालय के कर्मचारियों पर, सदन के परिसर पर और संसद भवन संपदा पर सर्वोच्च प्राधिकार प्राप्त है। वह अपने इस प्राधिकार का प्रयोग लोक सभा के महासचिव की सहायता से करता है।


अध्यक्ष के इतने महत्वपूर्ण और वृहत उत्तरदायित्वों को देखते हुए, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 8 मार्च, 1958 को अध्यक्ष विट्ठलभाई पटेल के चित्र का अनावरण करते हुए कहा था : 


"अध्यक्ष सदन का प्रतिनिधित्व करता है। वह सदन की गरिमा, सदन की स्वतंत्रता का प्रतिनिधित्व करता है और सदन क्योंकि राष्ट्र की स्वतंत्रता का प्रतीक बन जाता है इसलिए, यही उचित है कि यह पद सम्मान का पद हो, स्वतंत्र हो और यह सदा ऐसे व्यक्तियों से सुशोभित हो जो असाधारण योग्यता रखते हों और असाधारण रूप से निष्पक्ष हों।" 


वर्ष 1921 से पहले, भारत के गवर्नर-जनरल विधान परिषद की बैठकों की । वह प्रायः  अध्यक्षता किया करते थे। भारत में अध्यक्ष की संस्था" का उद्भव 1921 में तब हुआ जब माटेगु-चेम्सफोर्ड सुधारों के अधीन केंद्रीय विधान सभा पहली बार गठित हुई। गवर्नर-जनरल द्वारा सर फ्रेडरिक व्हाइट को 3 फरवरी, 1921 को चार वर्षों की अवधि के लिए सभा का प्रथम अध्यक्ष नियुक्त किया गया। 


श्री विठ्ठलभाई पटेल प्रथम गैर-सरकारी व्यक्ति थे जो 24 अगस्त, 1925 को सभा के अध्यक्ष चुने गए। 20 जनवरी, 1927 को वह पुनः निर्वाचित हुए और अपने पद पर 28 अप्रैल, 1930 तक बने रहे, जिस तिथि को उन्होंने अपने पद का त्याग कर दिया। श्री पटेल को केंद्रीय विधानमंडल का प्रथम भारतीय और प्रथम निर्वाचित अध्यक्ष होने का श्रेय प्राप्त था। श्री गणेश वासुदेव मावलंकर को स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात प्रथम आम चुनावों के परिणामस्वरूप गठित प्रथम संसद के प्रथम अध्यक्ष चुना गया। परंतु वह संविधान सभा (विधायी) में इसी पद पर आसीन रह चुके थे और संविधान के प्रारंभ होने पर अस्थायी संसद के अध्यक्ष बने रहे थे। 


जो प्रतिष्ठित व्यक्ति अध्यक्ष पद पर, या प्रेजीडेंट पद पर, जिस पदनाम से वे 1947 तक जाने जाते थे, रह चुके हैं, उनके नाम और समयावधियां इस के रूप में प्रकार हैं: 


स्वतंत्रता-पूर्व की अवधि 

सर फ्रेडरिक व्हाइट -  3 फरवरी, 1921-24 मार्च, 1925 

विट्ठलभाई जे. पटेल - 24 मार्च, 1925-23 अप्रैल, 1930 

मोहम्मद याकूब - 9 जुलाई, 1930-31 जुलाई, 1930

इब्राहीम रहीमतुल्ला -  17. जनवरी, 1931-7 मार्च, 1933 

सर शनमुखम चेट्टी -14 मार्च, 1933-31 दिसंबर, 1934 

अब्दुल रहीम - 24 जनवरी, 1935-1 अक्तूबर, 1945

गणेश वासुदेव मावलंकर - 23 जनवरी, 1946-14 अगस्त, 1947


स्वतंत्रता-पश्चात की अवधि 

गणेश वासुदेव मावलंकर - 17 नवंबर, 1947-26 जनवरी, 1950 संविधान सभा (विधायी)] 

26 जनवरी, 1950-15 मई, 195222 (अस्थायी सदन) 

17 अप्रैल, 1952-15 मई, 1952

15 मई, 1952-27 फरवरी, 1956 


अनंतशयनम अय्यंगर - 8 मार्च, 1956-16 अप्रैल, 1962 

हुकम सिंह - 17 अप्रैल, 1962-16 मार्च, 1967   

डा. नीलम संजीव रेड्डी- 17 मार्च, 1967-19 जुलाई, 1969   

डा. गुरदयाल सिंह ढिल्लन- 8 अगस्त, 1969-1 दिसंबर, 1975

बलिराम भगत - 5 जनवरी, 1976-25 मार्च, 1977

डा. नीलम संजीव रेडी - 26 मार्च, 1977-13 जुलाई, 1977

के. एस. हेगड़े -   21 जुलाई, 1977-21 जनवरी, 1980

डा. बलराम जाखड़  -   22 जनवरी, 1980-18 दिसंबर, 1989 

रवि राय - 19 दिसंबर, 1989-9 जुलाई, 1991 

शिवराज पाटिल - 10 जुलाई, 1991-22 मई, 1996 

पी. ए. संगमा - 23 मई, 1996-23 मार्च, 1998 

जी. एम. सी बालयोगी - 24 मार्च, 1998-3 मार्च, 2002 

मनोहर जोशी  - 10 मई, 2002 -    


उपाध्यक्ष 


जब कभी अध्यक्ष अनुपस्थित हो तो उसके स्थान पर उपाध्यक्ष सदन की अध्यक्षतः करता है और इस प्रकार अध्यक्षता करते हुए वह प्रक्रिया नियमों के अधीन सदन में अध्यक्ष की सब शक्तियों का प्रयोग करता है। उपाध्यक्ष बजट समितिका सभापति होता है जो सचिवालय के बजट प्रस्ताव सामान्य बजट में सम्मिलित करने के लिए वित्त मंत्रालय को भेजे जाने से पूर्व उनका अनुमोदन करती है। इसके अतिरिक्त अध्यक्ष के समान, लोक सभा सचिवालय, उसके अधिकारियों और कर्मचारियों के संबंध में उपाध्यक्ष के न तो कोई कृत्य होते हैं, न कोई उत्तरदायित्व । इस प्रकार, उपाध्यक्ष पीठासीन उप-अधिकारी होता है परंतु सचिवालय के या सदन के सर्वोच्च अधिकारी या प्रशासनिक प्रमुख के रूप में अध्यक्ष का कनिष्ठ अधिकारी नहीं होता |


सदन की बैठकों में अधिकांश समय सदन की अध्यक्षता उपाध्यक्ष करता है जबकि अध्यक्ष अपने कक्ष में अन्य संसदीय मामलों में व्यस्त रहता है। आमतौर पर, अध्यक्ष मध्याह्न पूर्व, विशेष रूप से प्रश्नकाल के दौरान और प्रश्नकाल के तुरंत बाद के अति कठिनाई के समय पीठासीन रहता है। वह दिन में किसी समय जब यह देखे कि किसी विशेष महत्व वाले विषय पर चर्चा हो रही है या सदन में ऐसी विशेष स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें उसकी उपस्थिति आवश्यक है तो सदन में आकर उसकी अध्यक्षता कर सकता है। जिन विचाराधीन मामलों के संबंध में उपाध्यक्ष विनिर्णय देता है वह उन मामलों में तो अंतिम होता है परंतु अध्यक्ष प्रक्रिया की निश्चितता एवं प्रथा की समरूपता की दृष्टि से, भविष्य में वैसी ही परिस्थितियों में पालन के लिए सामान्य मार्गदर्शन कर सकता है। कभी कभी उपाध्यक्ष अध्यक्ष के विनिर्णय के लिए कोई मामला रक्षित रख सकता है या निर्णय देने से पूर्व उससे परामर्श कर सकता है। 


उपाध्यक्ष को सदन में बोलने का, उसके विचार विमर्शों में भाग लेने का और सदन के समक्ष किसी प्रसाव गर सदस्य के रूप में मतदान करने का अधिकार होता है परंतु ऐसा वह तभी कर सकता है जब पीठासीन न हो। गणाध्यक्ष स्वयं पीठासीन हो तो वह केवल ऐसी स्थिति में अपना मत दे सकता है जब किसी मामले के पक्ष और विपक्ष में बराबर मत दिए गए हों। दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में यदि अध्यक्षा अनुपस्थित हों तो ऐसी बैठक की अध्यक्षता उपाध्यक्ष करता है और उसमें अध्यक्ष की शक्तियों का वैसे ही प्रयोग करता है जैसे कि वह सदन के विचार विमर्श के दौरान करता है। 


उपाध्यक्ष अपने दल की राजनीत में भाग ले सकता है परंतु व्यवहार में वह सदन में अपनी निष्पक्षता बनाए रखने के लिए जहां तक हो सके विवादास्पद मामलों से अपने को अलग रखता है। 


उपाध्यक्ष के पद के साथ जो प्रथाएं और परंपराएं विकसित हुई हैं उनके अनुसार यदि वह किसी संस्थाय समिति का सदस्य मनोनीत या नियुक्त किया जाए तो वह उसका सभापनि भी नियुक्त हो जाता है। उपाध्यक्ष के पद के लिए सामान्यतया विपक्ष के कसी सदस्य को चुना जाता है। 


उपाध्यक्ष के पद का, जिसे 1947 तक डिप्टी प्रेजीडेंट कहा जाता था, उद्भव कैथ विधानमंडल के साथ ही हुआ। जो व्यक्ति उपाध्यक्ष के पद पर रहे हैं उनके नाम और निर्वाचन की तिथियां अथवा समयावधियां इस प्रकार हैं : 


स्वतंत्रता-पूर्व 


1. सचिदानंद सिंह (3 फरवरी, 1921) 

2. सर जमेस्तजी जाजीभाय (21 सितंबर, 1921) 

3. दीवान बहादुर टी. रंगाचारियर (4 फरवरी, 1924) 

4. सर मोहम्मद याकूब (30 जनवरी, 1927) 

5. एच. एस. गौड़ (11 जुलाई, 1930)

6. शनमुखम चेट्टी (19 जनवरी, 1931) 

7. अब्दुल मातिन चौधरी (21 मार्च, 1934) 

8. अखिल चंद्र दत्त (5 फरवरी, 1936) 

9. सर मोहम्मद यामीन खां (5 फरवरी, 1946) 



सभापति-तालिका 


अध्यक्ष और उपाध्यक्ष यदि दोनों ही किसी बैठक में उपस्थित न हों तो सना के छह सदस्यों में से, जिन्हें अध्यक्ष समय समय पर मनोनीत करता है, के 'ई एक सदस्य सदन की अध्यक्षता करता है। यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाए कि अप उपाध्यक्ष और सभापति-तालिका का कोई भी सदस्य सदन में उपस्थित न हो तो सभापति के रूप में कार्य करने के लिए सदन द्वारा सदन का कोई अन्य सदस्य चुन लिया जाता है और वह तब तक अध्यक्षता करता है जब तक कि सभापति तालिका का कोई सदस्य या उपाध्यक्ष या अध्यक्ष पीठासीन होने के लिए सदन में नहीं आ जाता। 


जैसाकि उपाध्यक्ष के मामले में होता है, सदन की अध्यक्षता करते समय किसी सभापति को भी वे सब शक्तियां प्राप्त होती हैं जो अध्यक्ष को प्राप्त हैं। सभापति द्वारा जिस मामले में और जिस बात पर विनिर्णय दिया जाए वह उस मामले में या उस बात पर वैसा ही अंतिम और बंधनकारी होता है जैसे अध्यक्ष द्वारा दिया गया विनिर्णय होता है। परंतु सभापति कोई महत्वपूर्ण मामला अध्यक्ष के निर्णय के लिए रक्षित रख सकता है। जब तक सभापति पीठासीन हो तब उसके आचरण की निंदा करना सदन की अवमानना है; उसे पूरा सम्मान दिया जाना अनिवार्य है जो सदन के पीठासीन अधिकारी को दिया जाना होता है। 


सभापति सदन की सब चर्चाओं में पूरी तरह भाग लेने और विवादास्पद मामलों सहित सदन के समक्ष आने वाले सब मामलों में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए मुक्त होता है। वह अपने दल की बैठकों में उपस्थित होता है और सामान्यतया अपने दल का सक्रिय सदस्य होता है। अध्यक्ष सभापति-तालिका के लिए सदस्य सदा दोनों पक्षों में से चुनता है, सत्तारूढ़ दल में से और विपक्षी दलों में से भी। सभापति-तालिका के सदस्य की पदावधि सामान्यतया एक वर्ष की होती है परंतु एक ही व्यक्ति को बार-बार मनोनीत किया जा सकता है। यह चयन केवल अध्यक्ष करता है परंतु चयन करने से पूर्व वह सदन के राजनीतिक दलों के नेताओं से परामर्श कर सकता है। 


महासचिव 


सदन का तीसरा महत्वपूर्ण अधिकारी सचिव होता है। वह सभी संसदीय कृत्यों और क्रियाकलापों में और प्रक्रिया एवं प्रथा संबंधी सभी मामलों में अध्यक्ष का, सदन का और सदस्यों का सलाहकार होता है। एक स्थायी अधिकारी के रूप में जो सभा पटल का प्रमुख अधिकारी होता है और परिवर्तनशील विभिन्न सदनों और अध्यक्षों के बीच निरंतर कड़ी का काम करता है, महासचिव संसदीय प्रथाओं एवं परंपराओं का रक्षक होता है और पहले सदनों, पीठासीन अधिकारियों और स्वयं अपने पूर्वाधिकारियों की संचित बुद्धिमत्ता एवं अनुभव का भंडार होता है। 


महासचिव अपने अधिकार से बहुत से विधायी, प्रशासनिक एवं कार्यपालिका कृत्यों का निर्वहन करता है और सदस्यों को सेवाएं एवं सुविधाएं उपलब्ध कराता है। वह आरक्षीगण संगठन और संसद संपदा के परिसर में सुरक्षा के लिए सर्वोच्च प्रभारी अधिकारी होता है। संसद ग्रंथालय, शोध, संदर्भ, प्रलेखन और सूचना सेवाएं भी उसी के अधीन कार्य करती हैं। वह संसद भवन, संसदीय सौध और संसद की अन्य संपत्तियों के रख-रखाव और मरम्मत के लिए उत्तरदायी है। संसदीय संग्रहालय और अभिलेखागार के सर्वोच्च अधिकारी के रूप में वह संसद की विरासत का रक्षक होता है और सब संसदीय अभिलेखों का परिरक्षक । वह विधायी सेवाओं और सदन के सचिवालय का प्रमुख अधिकारी है और उसके प्रशासन के लिए उसमें अनुशासन बनाए रखने के लिए और यह सुनिश्चित करने के लिए उत्तरदायी होता है कि सदन और उसकी समितियों का सचिवीय कार्य समुचित ढंग से, कुशलतापूर्वक एवं सुचारु रूप से किया जाए। वह सब संसदीय समितियों को सचिवीय सहायता और कर्मचारी उपलब्ध कराता है और वह स्वयं उन्हें मंत्रणा देने के लिए उपलब्ध रहता है। सदस्यों और समितियों के लिए उसकी भूमिका मित्र, विचारक और मार्गदर्शक की होती है। विभिन्न राजनीतिक दलों के सदस्य परामर्श लेने के लिए उसके पास आते हैं। काफी हद तक उसे निष्पक्षता की वही भूमिका निभानी होती है जो अध्यक्ष निभाता है। वह पूरी तरह जागरूक और तुरतबुद्धि अथवा शीघ्र निर्णय लेने वाला व्यक्ति होना चाहिए। 


संसदीय कार्यों के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्रों की पर्याप्त और नवीनतम जानकारी रखना और उसे उचित रूप से आत्मसात करना भी महासचिव के लिए अपेक्षित है। जो व्यक्ति महासचिव के पद पर आसीन होता है उसके लिए आवश्यक है कि वह प्रतिभावान हो और संसद के बहुमुखी कृत्यों में निपुण हो। जो कार्य उसे सौंपा जाता है वह इतना अधिक तकनीकी और जटिल स्वरूप का है कि उसे सभी श्रेणियों के अनेक योग्य और विद्वान अधिकारियों की सहायता आवश्यक होती है। कार्य का आयोजन इस रीति से किया जाता है कि प्रत्येक इकाई संसदीय जीवन के किसी विषय विशेष या पहलू विशेष संबंधी कार्य करे और उसमें ऐसे प्रतिभासंपन्न कर्मचारी रखे जाएं जो तकनीकी तौर पर योग्य हों और जो अपने कर्तव्यों का निर्वहन कुशलतापूर्वक करें। यह देखना महासचिव का कर्तव्य है कि समय समय पर रिक्त होने वाले पदों को भरने के लिए पर्याप्त कर्मचारियों को प्रशिक्षित किया जाए और संसदीय कार्य की कुशलता का एक उच्च स्तर सदा बना रहे। अतः सदन के सचिवालय के संगठन का रूप एवं स्वरूप तय करना महासचिव का पद धारण करने वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व और दृष्टिकोण पर काफी निर्भर करता है। 


महासचिव राजनीति से कोई संबंध नहीं रखता। उसका दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य सदा पूर्णतया दलगत रहित और निष्पक्ष रहता है। उसे उन अधिकारियों में चुना जाता है जिन्होंने सदन के सचिवालय में विभिन्न पदों पर कार्य करते हुए संसद की सेवा में सराहनीय कार्य किया हो। उसे चुनने और नियुक्त करने का प्राधिकार अध्यक्ष को प्राप्त है। एक बार नियुक्त हो जाने पर वह निर्धारित सेवा-निवृत्ति की आयु, जो इस समय 60 वर्ष है, प्राप्त होने तक अबाध अपने पद पर बना रहता है। सदन में उसकी आलोचना नहीं की जा सकती और सदन में या सदन के बाहर उसके सदन संबंधी कार्यों पर चर्चा नहीं की जा सकती। वह केवल अध्यक्ष के प्रति उत्तरदायी होता है। उसके लिए सेवा की सुरक्षा तथा स्वतंत्रता प्रदान करने की दृष्टि से और इस दृष्टि से पर्याप्त रक्षात्मक उपायों की व्यवस्था की गई है कि वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन उत्साह से, निर्भीकता से, न्यायोचित ढंग से, निष्पक्ष ढंग से और सर्वोच्च जनहित में करे। लोक सभा सचिवालय पूर्णतया पृथक है और अध्यक्ष के नियंत्रणाधीन है ताकि संसद को स्वतंत्र परामर्श मिल सके और इसके निदेशों को किसी बाहरी हस्तक्षेप या आंतरिक दबाव के बिना उचित कार्यरूप दिया जा सके। 


महासचिव, राष्ट्रपति की ओर से, सदन के अधिवेशन में उपस्थित होने के लिए सदस्यों को 'आमंत्रण' जारी करता है; अध्यक्ष की अनुपस्थिति में विधेयकों को प्रमाणित करता है; सदन की ओर से संदेश भेजता है और प्राप्त करता है; सदन के समक्ष या उसकी समितियों के समक्ष पेश होने के लिए साक्षियों को समन जारी करता है; अध्यक्ष की ओर से सदस्यों, मंत्रियों तथा अन्यों के साथ पत्र-व्यवहार करता है; दीर्घाओं के लिए प्रवेश-पत्र जारी करता है; सदन और उसके सचिवालय के वित्त एवं लेखाओं पर नियंत्रण रखता है; कार्य सूचियां, बुलेटिन और संशोधनों की सूचनाए परिचालित करता है; सदन के जनरल, कार्यवाही सारांश और शब्दशः कार्यवाही-वृत्तांत तैयार कराता है; जिन विभिन्न विषयों में सदस्य रुचि रखते हों, उन्हें उनके बारे में जानकारी भेजने की व्यवस्था करता है; सदस्यों और अन्य लोगों के उपयोग के लिए बहुत-सी पत्रिकाओं और अन्य संसदीय प्रकाशनों का संपादन करता है और उन्हें प्रकाशित करता है, अर्थात सारांश, पत्रिकाएं, पुस्तिकाएं, तथ्यात्मक-पत्र, पृष्ठाधार, शोध पत्र, पुस्तकें आदि। संसदीय अध्ययन तथा प्रशिक्षण केंद्र होने के नाते, वह नए संसद सदस्यों और राज्य विधानमंडल के नए सदस्यों, भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय विदेश सेवा और अन्य अखिल भारतीय सेवाओं के परिवीक्षाधीन अधिकारियों के लिए, भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों के लिए, विश्वविद्यालयों के अध्यापकों और देश एवं विदेशों से आए संसदीय अधिकारियों के लिए संसदीय संस्थाओं और प्रक्रियाओं में अध्ययन पाठ्यक्रम, विचार-गोष्ठियां, प्रशिक्षण और प्रबोधन कार्यक्रम इत्यादि आयोजित करता है। भारतीय संसदीय दल के सचिव के नाते वह राष्ट्रमंडल संसदीय संघ और अंतर्राष्ट्रीय संघ की भारत शाखा की गतिविधियों का भी आयोजन करता है। वह संसदीय प्रतिनिधिमंडलों के साथ विदेशों में जाता है और संसद के अनेक अन्य कार्य करता है। जब राष्ट्रमंडल अध्यक्षों का देश में सम्मेलन होता है तो लोक सभा का महासचिव उस सम्मेलन का पदेन महासचिव होता है। वह भारत में विधायी निकायों के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन के लिए, भारत में विभिन्न विधानमंडलों और संसदीय समितियों के सभापतियों के सम्मेलनों के लिए सचिवीय कर्तव्यों के विवरण तैयार करने और आयोजन के लिए उत्तरदायी होता है और भी विविध क्रियाकलापों के लिए प्रबंध करने हेतु जैसे विदेशी प्रतिष्ठित व्यक्तियों द्वारा सदस्यों के समक्ष भाषण, स्वागत समारोह, संसदीय सद्भावना मिशन विदेशों में भेजने या विदेशों से भारत आने वाले ऐसे मिशनों का स्वागत करने से संबंधित कार्य करने के लिए भी उत्तरदायी होता है।


लोक सभा के महासचिव के इन विस्तृत कर्तव्यों और अपने अधिकार से निर्वहन किए जाने वाले दायित्वों के अतिरिक्त, बहुत-से अन्य कृत्य भी हैं जिनका वह निर्वहन करता है जिन्हें वह अध्यक्ष की ओर से और उसके नाम से करता है। अध्यक्ष और महासचिव का आपसी संबंध एक विशेष प्रकार का १५ है जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। उदाहरणार्थ, प्रश्नों, प्रस्तावों आदि की विभिन्न प्रकार की सूचनाओं की अनुमति देने या अनुमति न देने के मामले में अध्यक्ष की जिन शक्तियों का प्रयोग महासचिव करता है, प्रत्यायोजित शक्तियां नहीं हैं। वास्तव में, अध्यक्ष की ये शक्तियां प्रत्यायोजित की ही नहीं जा सकतीं। ये शक्तियां केवल अध्यक्ष में निहित हैं और वही इनका प्रयोग कर सकता है। इसलिए, यही कहा जा सकता है कि अध्यक्ष स्वयं विभिन्न सूचनाओं आदि की अनुमति दे रहा है या नहीं दे रहा है। जो कुछ उसके से, उसकी ओर से और उसके सामान्य निदेशों के अधीन किया जाता है उसकी वह स्वयं पूरी जिम्मेदारी लेता है। 


राज्य सभा का सभापति 


भारत का उपराष्ट्रपति राज्य सभा का पदेन सभापति होता है। वह उपराष्ट्रपति होने के नाते राज्य सभा की अध्यक्षता करता है। जब उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है या जब वह राष्ट्रपति के कृत्यों का निर्वहन करता है तब वह राज्य सभा के सभापति-पद के कर्तव्यों का निर्वहन नहीं करता। उपराष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा किया जाता है और ऐसे निर्वाचन में मतदान गुप्त होता है। उपराष्ट्रपति संसद के दोनों सदस्यों में से किसी सदन का या किसी राज्य के विधानमंडल के किसी सदन का सदस्य नहीं होता। वह अपना पद ग्रहण करने की तिथि से पांच वर्षों की अवधि तक या अपना पद त्याग करने तक या राज्य सभा के ऐसे संकल्प द्वारा अपने पद से हटाए जाने तक जिसे राज्य सभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पास न किया हो और जिससे लोक सभा सहमत हो गई हो, पद धारण करता है। 


पीठासीन अधिकारी के रूप में और अपने सदन के सचिवालय के प्रमुख के रूप में राज्य सभा के सभापति के कृत्य और कर्तव्य लगभग वही हैं जो लोक सभा में अध्यक्ष के हैं। 


जो व्यक्ति राज्य सभा के सभापति पद पर (उपराष्ट्रपति होने के नाते) 1952 से आज तक आसीन रहे, उनके नाम और समयावधियां इस प्रकार हैं : 


डा. एस. राधाकृष्णन 13 मई, 1952-12 मई, 1962 

डा. जाकिर हुसैन 13 मई, 1962-12 मई, 1967 

श्री वी. वी. गिरि 13 मई, 1967-3 मई, 1969 

डा. गोपाल स्वरूप पाठक 31 अगस्त, 1969-30 अगस्त, 1974 

श्री बी. डी. जत्ती 31 अगस्त, 1974-30 अगस्त, 1979 

श्री एम. हिदायतुल्लाह 31 अगस्त, 1979-30 अगस्त, 1984 

श्री आर. वेंकेटरमन 31 अगस्त, 1984-24 जुलाई, 1987 

डा. शंकरदयाल शर्मा 3 सितंबर, 1987-24 जुलाई, 1992 

श्री के. नारायणन 21 अगस्त, 1992-24 जुलाई, 1997 

श्री कृष्णकांत 21 अगस्त, 1997-27 जुलाई, 2002 

श्री भैरोसिंह शेखावत 12 अगस्त, 2002


उपसभापति 


राज्य सभा का सभापति, जो राज्य सभा द्वारा अपने सदस्यों में से चुना जाता है, राज्य सभा का सदस्य बने रहने तक या अपना पद त्याग करने तक या राज्य सभा के ऐसे संकल्प द्वारा अपने पद से हटाए जाने तक जिसे राज्य सः के सदस्यों के बहुमत ने पास किया हो, पद धारण करता है। 


उपसभापति, राज्य सभा के पीठासीन अधिकारी के रूप में, सभी प्रकार के उन्हीं कर्तव्यों, कृत्यों और शक्तियों का प्रयोग करता है जैसे कि लोक सभा का उपाध्यक्ष करता है।” 


सभापति-तालिका और महासचिव 


राज्य सभा का सभापति सदस्यों की एक तालिका बनाता है जिसके सदस्यों को वाइस चैयरमैन कहा जाता है, उनमें से एक सदस्य सभापति और उपसभापति की अनुपस्थिति में राज्य सभा की बैठक की अध्यक्षता करता है। राज्य सभा का वाइस चैयरमैन और महासचिव राज्य सभा के संबंध में लगभग उन्हीं कृत्यों और कर्तव्यों का पालन करते हैं जिनका पालन लोक सभा के संबंध में सभापति-तालिका के सदस्य और महासचिव करते हैं। 

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