संसदीय प्रश्न एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा संसद प्रशासन पर निगरानी रखती है और इसका प्रयोग उन सब देशों में किया जाता है जहां प्रतिनिधि संसदीय लोकतंत्र की प्रणाली विद्यमान है। इस प्रणाली में सरकार अपनी प्रत्येक भूल चूक के लिए संसद के प्रति और संसद के द्वारा लोगों के प्रति उत्तरदायी होती है। प्रशासन का यह उत्तरदायित्व दो स्तरों पर होता है। सदन सामूहिक रूप से इस शक्ति का प्रयोग स्वयं और अपनी समितियों के माध्यम से भी करता है। व्यक्तिगत रूप से सदन के सदस्य इस अधिकार का प्रयोग, अन्य बातों के साथ साथ, संसदीय प्रश्नों के माध्यम से करते हैं। संसद सदस्यों को लोक महत्व के मामलों पर सरकार के मंत्रियों से जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रश्न पूछने का अधिकार होता है। जानकारी प्राप्त करना प्रत्येक गैर-सरकारी सदस्य का अंतर्निहित एवं निर्बाध संसदीय अधिकार है। संसद सदस्य के लिए लोगों के प्रतिनिधि के रूप में यह आवश्यक होता है कि उसे मूल उत्तरदायित्वों के निर्वहन के लिए सरकार के क्रियाकलापों के बारे में जानकारी हो। अतः प्रश्न पूछने का मूल उद्देश्य लोक महत्व के किसी मामले पर जानकारी प्राप्त करना और तथ्य जानना है। प्रश्न यह जानने के लिए किए जाते हैं कि सरकार द्वारा घोषित और/अथवा संसद द्वारा अनुमोदित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय नीतियों को उचित रूप से कार्यरूप दिया गया है या नहीं। प्रश्न विभिन्न विषयों के बारे में किए जाते हैं, अतः प्रश्नों के द्वारा प्रशासन के लगभग सभी पहलुओं की छानबीन हो जाती है।
दोनों सदनों के प्रत्येक बैठक के प्रारंभ में एक घंटे तक प्रश्न किए जाते हैं और उनके उत्तर दिए जाते हैं। इसे 'प्रश्नकाल' कहा जाता है। इस काल के दौरान भारत सरकार से संबंधित मामले उठाए जाते हैं और समस्याएं सरकार के ध्यान में लाई जाती हैं ताकि किसी स्थिति का सामना करने के लिए, लोगों की शिकायतें दूर करने के लिए या किसी प्रशासनिक त्रुटि या ज्यादती का समाधान करने के लिए सरकार कार्यवाही करे । अतः इस काल के दौरान सरकार का परीक्षण होता है। इसके अतिरिक्त, खोजी और अनुपूरक प्रश्न पूछकर यह जानने के लिए मंत्रियों का पी परीक्षण होता है कि वे अपने विभागों के कार्यकरण को कितना समझते हैं। कभी कभी मंत्रियों की त्रुटियों को या किन्हीं स्थितियों में उनके अकुशल कार्यकरण को प्रकाश में लाने के लिए भी प्रश्न पूछे जाते हैं।
प्रश्नकाल संसद की कार्यवाहियों का सबसे अधिक दिलचस्प अंग है। लोगों के लिए, समाचारपत्रों के लिए और स्वयं सदस्यों के लिए कोई अन्य कार्य इतनी दिलचस्पी पैदा नहीं करता जितनी कि प्रश्नकाल पैदा करता है। इस काल के दौरान सदन का वातावरण इतना अनिश्चित होता है कि कभी अचानक तनाव का बवंडर उठ खड़ा होता है तो कभी कहकहे लगने लगते हैं। कभी-कभी प्रश्न पर होने वाले कटु तर्क-वितर्क से जो उत्तेजना पैदा होती है वह सदस्यों या मंत्रियों की हाजिर-जवादी और विनोदप्रियता से दूर हो जाती है। कई सदस्य समय समय पर अपनी विनोदशीलता से प्रश्नकाल में जान डाल देते हैं। यदि प्रश्न सामयिक रुचि के महत्वपूर्ण मामलों से संबंधित हों, संक्षिप्त हों, सारगर्भित हों तो प्रश्नकाल उपयोगी, दिलचस्प और प्रायः सनसनीखेज हो जाता है। यही कारण है कि प्रश्नकाल के दौरान न केवल सदन कक्ष बल्कि दर्शक एवं प्रेस गैलरियां भी लगभग भरी रहती हैं।
विभिन्न प्रकार के प्रश्न
संसद के दोनों सदनों में प्रश्न सामान्यतया मंत्रियों से अर्थात सरकारी सदस्यों से पूछे जाते हैं और वे तीन श्रेणियों के होते हैं, अर्थात तारांकित प्रश्न, अतारांकित प्रश्न और अल्प-सूचना प्रश्न । प्रश्न कभी कभी गैर-सरकारी सदस्यों से भी पूछे जा सकते हैं।
तारांकित प्रश्न :
इन प्रश्नों का सदन में मौखिक उत्तर दिया जाता है। सदस्यों द्वारा ऐसे प्रश्नों के अनुपूरक प्रश्न भी पूछे जा सकते हैं। ऐसे प्रश्नों को तारांकित प्रश्न इस कारण कहा जाता है कि इन पर तारांक लगाकर इनका विभेद किया जाता है।
अतारांकित प्रश्न :
ऐसे प्रश्नों को अतारांकित प्रश्न इस कारण कहा जाता है कि इन पर तारांक नहीं लगा होता। ऐसे प्रश्नों का उत्तर लिखित रूप से दिया जाता है न कि तारांकित प्रश्नों के उत्तर की तरह मौखिक रूप से। इसी कारण इस पर अनुपूरक प्रश्न नहीं पूछे जा सकते।'
अल्प-सूचना प्रश्न :
अल्प-सूचना प्रश्न वह प्रश्न है जो किसी अविलंबनीय लोक महत्व के मामले से संबंधित हो। यह साधारण प्रश्न के लिए निर्धारित दस दिन की अवधि से कम अवधि की सूचना देकर पूछा जा सकता है।'
ऐसा नहीं कि सदस्य जब चाहें, बिना पूर्व सूचना के, सदन में किसी मंत्री विभाग को से प्रश्न पूछ सकते हैं। यदि ऐसा हो तो मंत्रिगण सदस्यों के प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर देने की स्थिति में नहीं होंगे। विभिन्न स्तरों से संगत जानकारी एकत्रित करने और सदन में मंत्री द्वारा दिए जाने के लिए सुस्पष्ट उत्तर तैयार करने के लिए संवद्ध कुछ समय की आवश्यकता होती है। इसी प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने के लिए दोनों सदनों में कार्य-संचालन तथा प्रक्रिया नियों का उपबंध किया गया है कि कोई सदस्य प्रश्न की सूचना संबद्ध सदन के महासचिव को दे सकता है। जिस तिथि को प्रश्न का उत्तर मांगा जाए उस तिथि से ऐसी सूचना कम से कम दस दिन पूर्व और अधिक से अधिक इक्कीस दिन पूर्व दी जानी चाहिए।
प्रश्न कैसे गृहीत किए जाते हैं
संसद के दोनों सदनों में पूछे जाने वाले प्रश्नों का चूंकि समाचारपत्रों में और लोगों में व्यापक प्रचार होता है और सरकार भी उन्हें गंभीर रूप से लेती है अतः यह स्वाभाविक ही है कि सदस्यों के प्रश्नों की प्रत्येक सूचना को गृहीत करने से पहले उसकी पूरी छानबीन की जाए। ऐसे प्रश्न भी पूछे जा सकते हैं जो गलत जानकारी पर आधारित हों और जिनमें गलत निष्कर्ष निकाले गए हों जिनसे सरकार को या किसी व्यक्ति की सरकारी या निजी हैसियत से उसे अनावश्यक परेशानी हो सकती है। इस स्थिति से बचने के लिए, दोनों संदनों के नियमों में कुछ शर्ते निर्धारित की गई हैं जिनके अनुसार प्रश्न गृहीत किए जाते हैं।
यदि कोई आरोपात्मक प्रश्न तथ्यों पर आधारित न हो और किसी वर्ग या संस्था के बारे में न होकर किसी व्यक्ति के बारे में हो तो सामान्यतया उसे गृहीत नहीं किया जाता, क्योंकि एक बार यदि सार्वजनिक रूप से कोई आरोप लगा दिया जाता है तो, चाहे वह सिद्ध किया जाए या नहीं किया जाए, उसका ऐसा प्रभाव पड़ जाता है जिसका निराकरण नहीं किया जा सकता। ऐसा विशेष रूप से तब होता है जब आरोप ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध लगाया जाए जिसे सदन के समक्ष आने और अपनी स्थिति स्पष्ट करने का अवसर नहीं मिलता। ऐसे प्रश्नों के तथ्यात्मक आधार का पता लगाने के लिए गृहीत करने से पहले, उन्हें संबद्ध मंत्रालयों विभागों के पास भेजा जा सकता है। कभी कभी सदस्यों से भी कहा जाता है कि वे प्रश्न में लगाए गए आरोप के समर्थन में सामग्री भेजें।
इसके अतिरिक्त, यदि किसी प्रश्न का विषय किसी न्यायालय के समक्ष या विधि के अधीन बनाए गए किसी अन्य न्यायाधिकरण या निकाय के समक्ष निर्णय के लिए लंबित हो या किसी संसदीय समिति के विचाराधीन हो तो ऐसा प्रश्न पूछने की अनुमति नहीं है। जिन देशों के साथ भारत के मित्रतापूर्ण संबंध हैं उनके बारे में अशिष्ट कथनों वाले प्रश्न अस्वीकृत कर दिए जाते हैं। इसी प्रकार व्यक्तियों के बारे में पूछे गए प्रश्न अस्वीकृत कर दिए जाते हैं। परंतु यदि कोई प्रश्न उच्च पद वाले किसी व्यक्ति के बारे में हो या उसके द्वारा सिद्धांत या नीति का कोई महत्वपूर्ण मामला जनहित में उठाया गया हो तो उसे गृहीत किया जा सकता है। यह ध्यान देने वाली बात है कि प्रश्न किसी ऐसे मामले के बारे में नहीं होना चाहिए जो मूल रूप से भारत से संबंध नहीं रखता। ऐसे प्रश्न गृहीत नहीं किए जाते जिनमें तक, निष्कर्ष या मानहानिकारक कथन हों या जिनमें किसी व्यक्ति की सरकारी या सार्वजनिक हैसियत से नहीं बल्कि उसकी व्यक्तिगत हैसियत से उसके चरित्र या आचरण का उल्लेख हो, और ऐसे प्रश्न जिनमें जानकारी मांगने की बजाय जानकारी दी गई हो।
प्रश्न नियमों में उपबंधित शर्तों के अनुसार तारांकित या अतारांकित श्रेणी में रखे जाते हैं। सामान्यतया ऐसे प्रश्न लिखित उत्तर के लिए, अर्थात अतारांकित प्रश्नों के रूप में गृहीत किए जाते हैं जिनमें विस्तृत आंकड़े मांगे गए हों या जो स्थानीय रुचि के मामलों से संबंधित हों। इसी प्रकार, जो प्रश्न लोक महत्व के हों और जिन पर अनुपूरक प्रश्न पूछे जाने की संभावना हो, उन्हें तारांकित प्रश्नों के रूप में मौखिक उत्तर के लिए रखा जाता है। परंतु यह अध्यक्ष के विवेकाधिकार की बात है वह जैसे उचित समझे किसी प्रश्न को मौखिक उत्तर के लिए रखे या लिखित उत्तर के लिए।
प्रश्नों से संबंधित सूचनाओं की यह सुनिश्चित करने के लिए छानबीन की जाती है कि क्या वे प्रक्रिया के अनुकूल हैं और उन सूचनाओं को सुस्थापित किए जाने पर संसदीय प्रथाओं का उल्लंघन नहीं होता, तब उन्हें जिस दिन उनका उत्तर दिया जाना हो उस दिन की मौखिक और लिखित उत्तर के लिए अलग-अलग प्रश्न सूचियों में रखा जाता है। सदन के समय और उसके द्वारा किए जाने वाले अन्य कार्य की दृष्टि से यह उपबंध किया गया है कि लोक सभा का कोई सदस्य तारांकित और अतारांकित श्रेणी के एक दिन में पांच से अधिक प्रश्न नहीं पूछ सकता। इसके अतिरिक्त एक दिन में एक ही सदस्य के राज्य सभा में अधिक से अधिक तीन तारांकित प्रश्न और लोक सभा में अधिक से अधिक एक तारांकित प्रश्न गृहीत किया जा सकता है। किसी एक दिन की तारांकित प्रश्न सूची में कुल 20 प्रश्न होते हैं।' लोक सभा में किसी एक दिन की अतारांकित प्रश्न सूची में अधिक से अधिक 230 प्रश्न होते हैं। राज्य सभा में ऐसी कोई सीमा नहीं है परंतु सामान्यतया किसी एक दिन की अतारांकित प्रश्न सूची में 200 से कम प्रश्न होते हैं।
प्रश्नों के उत्तर देने के लिए भारत सरकार के मंत्रालयों और विभागों को पांच समूहों में अर्थात ए, बी, सी, डी और ई ग्रुपों में विभाजित किया गया है और क्रमशः सोमवार, मंगलवार, बुधवार, गुरुवार और शुक्रवार को प्रश्नों के उत्तर के लिए मंत्रालयों के इन ग्रुपों के लिए दिन नियत किए गए हैं। ग्रुप इस प्रकार बनाए जाते हैं कि प्रत्येक मंत्री के लिए प्रश्नों के उत्तर देने के लिए लोक सभा में सप्ताह में एक दिन निश्चित हो और राज्य सभा में प्रश्नों के उत्तर के लिए सप्ताह में कोई अन्य दिन निश्चित हो। प्रश्न पूछने के लिए निर्धारित तिथि से कम कम पांच दिन पहले अंतिम रूप से गृहीत प्रश्नों की सूची मंत्रालयों को भेज दी जाती है ताकि उनके उत्तर तैयार करने के लिए मंत्रालयों को पर्याप्त समय मिल सके।
प्रश्न किस प्रकार पूछे जाते हैं
जिस सदस्य का प्रश्न किसी दिन के लिए तारांकित प्रश्न के रूप में गृहीत किया में गया हो उसे अध्यक्ष द्वारा या सभापति द्वारा, जैसी भी स्थिति हो, प्रश्न पूछने के लिए कहा जाता है। वह सदस्य अपने स्थान पर खड़ा जाता है और सूची से केवल प्रश्न की संख्या पढ़कर, न कि प्रश्न का पाठ पढ़कर, अपना प्रश्न पूछता है।" उसके बाद मंत्री प्रश्न का उत्तर देता है।
प्रश्नकाल के दौरान किसी प्रश्न पर या दिए गए उत्तर पर वाद-विवाद की अनुमति नहीं होती। परंतु दिए गए उत्तर संबंधी किसी तथ्य के स्पष्टीकरण के प्रयोजन से अनुपूरक प्रश्नों या अनुवर्ती प्रश्नों के लिए अनुमति दी जा सकती है। जिस सदस्य के नाम में प्रश्न दर्ज हो वह दो अनुपूरक प्रश्न पूछ सकता है। अन्य सदस्य जिन्हें अध्यक्ष अनुमति दे एक-एक पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं। अध्यक्ष सामान्यतया एक प्रश्न पूछने के लिए सत्ता पक्ष के सदस्य को और दूसरा प्रश्न पूछने के लिए विपक्ष के सदस्य को पुकारता है। प्रश्न के महत्व को देखते हुए समुचित संख्या में अनुपूरक प्रश्नों के लिए अनुमति देकर और अनुपूरक प्रश्न पूछने का अवसर सदन के सब पक्षों के सदस्यों को देकर, अध्यक्ष इस अनूठे संसदीय उपाय की कुशलता सुनिश्चित करता है। इसके अतिरिक्त, प्रश्नकाल के सीमित समय में, वह प्रयास करता है कि यथासंभव अधिक से अधिक प्रश्न पूछे जाएं। प्रश्नकाल में अधिक से अधिक मौखिक प्रश्नों के उत्तर दिलाने के लिए अध्यक्ष का यह प्रयास रहता है कि किसी तारांकित प्रश्न पर सामान्यतया आठ मिनट से अधिक समय न लिया जाए। सही बात तो यह है कि यदि 60 मिनटों में 20 प्रश्न लिए जाने हों तो एक प्रश्न पर औसतन तीन मिनट से अधिक नहीं लगने चाहिए। यदि अध्यक्ष/सभापति यह महसूस करता है कि मामले पर पर्याप्त रूप से बात हो चुकी है तो वह उस सदस्य को पुकारता है जिसके नाम में सूची में अगला प्रश्न दर्ज हो। यह सिलसिला दोपहर 12 बजे तक चलता रहता है।
अनुभव यह रहा है कि प्रत्येक दिन की तारांकित प्रश्नों की सूची में दर्ज 20 प्रश्नों में से सदन के वास्तव में अधिक से अधिक पांच से सात प्रश्नों के ही उत्तर दिए जाते हैं। जहां तक शेष प्रश्नों का संबंध है, उनके लिखित उत्तर संबद्ध मंत्रियों द्वारा सभा पटल पर रखे गए मान लिए जाते हैं। इसी तरह, अतारांकित प्रश्नों के उत्तर भी प्रश्नकाल के अंत में सभा पटल पर रख दिए जाते हैं।
अल्प-सूचना प्रश्न
अविलंब लोक महत्व के किसी मामले के बारे में प्रश्न के मौखिक उत्तर के लिए सूचना पूरे दस दिन से कम अवधि में दी जा सकती है। ऐसे प्रश्न की देने वाले सदस्य को अल्प-सूचना पर प्रश्न पूछने के कारण संक्षेप में बताने होते हैं यदि अध्यक्ष सभापति महसूस करता है कि मामला अविलंबनीय स्वरूप का है तो संबंधित मंत्री से पूछा जाता है कि क्या वह अल्प-सूचना पर उत्तर देने की स्थिति में है और यदि हां तो किस तिथि को। यदि मंत्री अल्प-सूचना प्रश्न का उत्तर देने के लिए सहमत हो जाता है तो उसके द्वारा बताई गई तिथि इस हेतु निर्धारित की जाती है। यदि मंत्री अल्प-सूचना पर प्रश्न का उत्तर देने से इंकार करता हो और अध्यक्ष/सभापति की यह राय हो कि वह प्रश्न इतना महत्वपूर्ण है कि सदन में उसका मौखिक उत्तर दिया जाना चाहिए तो वह निर्देश दे सकता है कि उस प्रश्न को उस दिन की मौखिक उत्तर के लिए प्रश्नों की सूची में प्रथम प्रश्न के रूप में रख दिया जाए जिस दिन वह प्रश्न कम से कम पूरे दस दिन की शर्त पूरी करने पर रखा जा सकता हो। किसी दिन की प्रश्न सूची में ऐसा केवल एक ही प्रश्न रखा जा सकता है।
प्रश्नकाल के अंत में अल्प-सूचना प्रश्न, यदि कोई हो तो, लिया जाता है और उसे वैसे ही निबटाया जाता है जैसे मौखिक उत्तर के लिए किसी प्रश्न को निबटाया जाता है। अल्प-सूचना प्रश्न गृहीत करने के लिए शर्ते वही हैं जो मौखिक उत्तर के लिए साधारण प्रश्नों की हैं।
गैर-सरकारी सदस्यों से पूछे जाने वाले प्रश्न
प्रश्न किसी गैर-सरकारी सदस्य से भी पूछा जा सकता है यदि उस प्रश्न का विषय किसी ऐसे विधेयक या संकल्प से या सभा के कार्य के किसी अन्य विषय से संबंधित हो जिसके लिए वह सदस्य उत्तरदायी रहा हो। ऐसे प्रश्न लोक सभा में कभी-कभार ही पूछे जाते हैं और हो सकता है कि अधिवेशन बीत जाने पर भी ऐसा प्रश्न पूछा न जाए। ऐसे प्रश्न पर अनुपूरक प्रश्न नहीं पूछा जा सकता। अल्प-सूचना प्रश्न किसी गैर-सरकारी सदस्य से नहीं पूछा जा सकता।
आधे घंटे की चर्चा
किसी ऐसे प्रश्न से उत्पन्न होने वाले मामलों पर जिसका उत्तर सदन में दिया जा चुका हो, आधे घंटे की चर्चा लोक सभा में सप्ताह में तीन दिन, अर्थात सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को, बैठक के अंतिम आधे घंटे में की जा सकती है। राज्य सभा में ऐसी चर्चा सभापति द्वारा इस प्रयोजन के लिए नियत किसी दिन सामान्यतया 5 बजे म.प. से 5.30 म.प. तक की जा सकती है। ऐसी चर्चा का विषय पर्याप्त लोक महत्व का होना चाहिए जो हाल के किसी तारांकित, अतारांकित या अल्प-सूचना बन का विषय रहा हो और जिसके उत्तर के किसी तथ्यात्मक मामले का स्पष्टीकरण करना आवश्यक हो।
जो सदस्य ऐसी चर्चा उठाना चाहता हो उसे उस दिन से कम से कम तीन दिन पूर्व, जब वह चर्चा उठाना चाहता हो, लिखित रूप में सूचना देनी होती है। अपनी सूचना में सदस्य के लिए उस मुद्दे या उन मुद्दों का उल्लेख करना अपेक्षित है जो वह उठाना चाहता हो। किसी दिन की बैठक के लिए आधे घंटे की चर्चा को केवल एक सूचना रखी जाती है। इसके अलावा, लोक सभा में एक सप्ताह में किसी एक सदस्य के नाम में केवल एक चर्चा रखी जाती है और कोई सदस्य एक ही अधिवेशन में दो से अधिक चर्चाएं नहीं उठा सकता। अध्यक्ष/सभापति प्रत्येक मामले में यह फैसला करता है कि क्या मामले के किसी तथ्यात्मक पहलू के स्पष्टीकरण की आवश्यकता है और क्या वह इतने लोक महत्व का है कि उसे चर्चा के लिए रखा जाए।
ऐसी चर्चा के बारे में सदन में प्रक्रिया यह है कि जिस सदस्य ने चर्चा की शुरुआत की हो उसके द्वारा संक्षिप्त बयान दिए जाने के पश्चात, अधिक से अधिक चार अन्य सदस्य, जिन्होंने इस आशय की पूर्व सूचना दी हो, किसी तथ्यात्मक बात के अग्रेतर स्पष्टीकरण के प्रयोजन से एक एक प्रश्न पूछ सकते हैं। उसके पश्चात अंत में संबंधित मंत्री चर्चा का उत्तर देता है।
प्रश्नकाल का मूल्यांकन
यद्यपि परिभाषा के अनुसार प्रश्न पूछने का प्रयोजन जानकारी प्राप्त करना है, तथापि व्यवहार में, अधिकांश प्रश्नों का प्रयोजन जानकारी उपलब्ध कराना है। कभी कभी सदस्य को किसी विशिष्ट मामलों में उससे अधिक जानकारी हो सकती है जितनी कि सरकार देने के लिए तैयार हो। ऐसी स्थिति में प्रश्न का वास्तविक प्रयोजन प्रशासनिक कमियों को उजागर करना, सरकार को परेशानी में डालना या सरकार को किसी असुविधाजनक बात के लिए वचनबद्ध करना या किसी कार्यवाही के लिए वचनबद्ध करना हो सकता है। एक प्रयोजन यह भी हो सकता है कि सदस्य ऐसी जानकारी रखते भी व्यापक प्रचार के लिए चाहता हो कि उसका सदन में उल्लेख किया जाए।
संसदीय प्रश्नों से एक ओर यह संभव हो जाता है कि सरकार लोगों की, जो अपने प्रतिनिधियों को प्रश्नों के लिए सामग्री उपलब्ध कराते हैं, शिकायतों, समस्याओं और आशयों से अवगत हो जाए तो दूसरी ओर इन प्रश्नों के द्वारा सरकार की गतिविधियों और कार्यक्रमों, इसकी नीतियों और विभिन्न मामलों पर दृष्टिकोण को और प्रशासन के कार्यकरण के ढंग को लोग जान सकते हैं। सरकारी कार्य करने वालों पर संसदीय प्रश्नों के रोकात्मक प्रभाव के अलावा, प्रश्नों के द्वारा कार्यपालिका जान सकती है कि नीतियों को किस तरह कार्यरूप दिया जा रहा है और आम व्यक्तियों को ये किस तरह प्रभावित कर रही हैं। आजकल प्रशासनिक व्यवस्था का इतना विस्तार हो रहा है कि राजनीतिक नेताओं को, कार्यपालिका को और प्रमुख प्रशासनिक अधिकारियों को भी यह सब जानने में कठिनाई हो रही है कि उनके नियंत्रणाधीन विभागों में क्या कुछ हो रहा है। इस दृष्टि से संसदीय प्रश्न निश्चय ही कार्यपालिका के लिए सहायक होते हैं क्योंकि वे ऐसी बातों को प्रकाश में लाते हैं जिनसे आम लोगों का महत्वपूर्ण रूप से संबंध रहता है।
यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि सदस्य प्रश्न पूछने के अधिकार का प्रयोग करने में भारी रुचि दिखाते रहे हैं। प्रश्नों की प्रक्रिया अपेक्षतया सरल और आसान होने के कारण, यह संसदीय प्रक्रिया में अन्य उपायों की तुलना में संसद सदस्यों में अधिकाधिक प्रिय होती जा रही है। जितनी लोक सभाएं अस्तित्व में चुकी हैं उनमें गृहीत किए गए ऐसे प्रश्नों की, जिनके उत्तर दिए गए, संख्या देखने से यह बात स्पष्ट हो जाती है।
देखिए निम्न सारणी
सारणी
अवधि - सब श्रेणियों के गृहीत प्रश्नों की संख्या
पहली लोक सभा (1952-57) - 43,725
दूसरी लोक सभा (1957-62) - 24,631
तीसरी लोक सभा (1962-66) - 56,355
चौथी लोक सभा (1967-70) - 93,538
पांचवीं लोक सभा (1970-76) - 98,606
छठी लोक सभा (1977-79) - 50,144
सातवीं लोक सभा (1980-84) - 1,02,959
आठवीं लोक सभा (1985-89) - 98,390
नवीं लोक सभा (1989-91) - 21,550
दसवीं लोक सभा (1991-96) - 90,695
ग्यारहवीं लोक सभा (1996-98) - 23,681
बारहवीं लोक सभा (1998-99) - 15,579
पहली लोक सभा में गृहीत प्रश्नों की कुल संख्या 43,725 थी जो सातवीं लोक सभा में बढ़कर 1,02,959 हो गई। आठवीं लोक सभा में यह संख्या 98,390 और नवीं लोक सभा में 21,550 रही। दसवीं लोक सभा में 90,695, ग्यारहवीं में 25,681 और बारहवीं में यह संख्या 15,579 रही। यह भी देखा गया है कि अधिवेशनों के दौरान प्राप्त हुए प्रश्नों की सूचनाओं की संख्या में से 50 से 70 प्रतिशत गहीत किए जाते हैं परंतु सूचियों में शामिल किए जाने वाले तारांकित और अतारांकित प्रश्नों को निर्धारित सीमा के कारण बजट अधिवेशन में केवल 33 प्रतिशत और मानसून हो पाते हैं। प्रति बैठक प्राप्त होने वाली प्रश्नों की सूचनाओं की औसत संस्त्या लगभग तथा शरदकालीन अधिवेशनों में 30 से 45 प्रतिशत प्रश्न वास्तव में सूचियों में सम्मिलित 600 बैठती है।
प्रश्नकाल का महत्व कुछ ऐसे उदाहरणों से पर्याप्त रूप से सिद्ध हो जाता है जबकि सतर्क सदस्यों द्वारा गंभीरता से प्रश्नों पर अनुवर्ती कार्यवाही करते रहने के कारण कानून के उल्लंघन, सरकार की नीतियों के उल्लंघन या सार्वजनिक धन के दुरुपयोग के मामलों में सरकार को जांच करनी पड़ी। उनमें से कुछ उदाहरण, जिनमें जांच कराई गई, इस प्रकार हैं : जीप कांड (1951), मूंदड़ा कांड (1957), आयात लाइसेंस कांड (1974) और इस्पात के सौदों की जांच का मामला और वनस्पति घी में गाय की चर्बी के प्रयोग का मामला। इन तथ्यों से पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है कि प्रश्नों की प्रक्रिया कितनी प्रभावी है और प्रश्नकाल कितना उपयोगी है।
'शून्यकाल' (जीरो आवर)
संसद के दोन सदनों में प्रश्नकाल के ठीक बाद का समय आमतौर पर 'शून्यकाल' अथवा जीरो आवर के नाम से जाना जाने लगा । यह एक से अधिक अर्थों में शून्यकाल होता है। 12 बजे दोपहर का समय न तो मध्याह पूर्व का समय होता है और न ही मध्याह्न पश्चात का समय। 'शून्यकाल' 12 बजे प्रारंभ होने के कारण इसे इस नाम से जाना जाता है। इसे 'आवर' भी कहा गया क्योंकि पहले 'शून्यकाल' पूरे घंटे तक चलता था, अर्थात 1 बजे म.प. पर सदन के मध्याह्न भोजन के लिए स्थगित होने तक। बाद में सातवीं और आठवीं लोक सभाओं में, उदाहरण के लिए, 'शून्यकाल' सामान्यतया 5 से 15 मिनट तक ही चलता रहा। आठवीं लोक सभा में 'शून्य' कार्यवाही में अधिक से अधिक समय जो लगा वह 32 मिनट था। किंतु, अल्पकालिक नवीं लोक सभा में स्थिति एकदम बदल गई जब अध्यक्ष रवि राय ने इस नियम विरुद्ध 'शून्यकाल' को न्यायसंगत और सम्माननीय बनाने का निर्णय लिया और उसे व्यवस्थित करना चाहा। नतीजा यह हुआ कि प्रायः 'शून्यकाल' एक घंटे से कहीं अधिक तक चलता रहने लगा। वस्तुतया कभी कभी तो वह दो दो घंटे या उससे भी ज्यादा देर तक चला जिससे सदन की आवश्यक व्यवस्थित कार्यवाही के शुरू होने की प्रतीक्षा में बैठे मंत्रियों और सदस्यों को स्वाभाविक खीज की अनुभूति हुई।
यह कोई नहीं कह सकता कि इस काल के दौरान कौन-सा मामला उठ खड़ा हो या सरकार पर किस तरह का आक्रमण कर दिया जाए। नियमों में 'शून्यकाल' का कहीं भी कोई उल्लेख नहीं है। 'शून्यकाल' का यह नाम 1960 और 1970 की दशाब्दी के प्रारंभिक वर्षों में किसी समय समाचारपत्रों में तब दिया गया जब विना पूर्व सूचना के अविलंबनीय लोक महत्व के विषय उठाने की प्रथा विकसित हुई। प्रश्नकाल के समाप्त होते ही सदस्यगण ऐसे मामले उठाने के लिए खड़े हो जाते हैं जिनके बारे में वे महसूस करते हैं कि कार्यवाही करने में देरी नहीं की जा सकती, हालांकि इस प्रकार मामले उठाने के लिए नियमों में कोई उपबंध नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रथा के पीछे यही विचार रहा है कि ऐसे नियम जो राष्ट्रीय महत्व के मामले या लोगों की गंभीर शिकायतों संबंधी मामले सदन में तुरंत उठाए जाने में सदस्यों के लिए बाधक होते हैं, वे निरर्थक हैं और उन्हें लोगों के प्रतिनिधियों की चिंता की मूल बातों और अधिकारों के आड़े नहीं आना चाहिए। आखिर, संसद एक राजनीतिक संस्था है जो लोगों के प्रतिनिधियों से बनती है और सदन को बिल्कुल नियमों के अनुसार ही चलाने का प्रयास निरर्थक हो सकता है। नियम सामान्य विनियमन एवं मार्गदर्शन के लिए होते हैं और उनमें समय समय पर उत्पन्न हो सकने वाली सभी संभव स्थितियों की पहले से परिकल्पना कदापि नहीं की जा सकती।
नियमों की दृष्टि से तथाकथित 'शून्यकाल' एक अनियमितता है। मामले चूंकि बिना अनुमति के या बिना पूर्व सूचना के उठाए जाते हैं अतः इससे सदन का बहुमूल्य समय व्यर्थ जाता है और इससे सदन के विधायी, वित्तीय और अन्य नियमित कार्य का अतिक्रमण होता है। अनेक उत्तेजित सदस्यों के एक साथ बोलने से पीठासीन अधिकारी का काम बहुत कठिन हो जाता है। अतः आवश्यक है कि अध्यक्ष और सदन नियमित कार्य में ऐसी बाधा को प्रोत्साहन न दें।
किंतु, जैसी स्थिति इस समय है उससे प्रतीत होता है कि 'शून्यकाल' हमेशा के लिए स्थायी हो गया है। अध्यक्ष श्री पाटिल ने इसे विनियमित करने तथा इसकी समयावधि पर बड़ी चतुराई के साथ नियंत्रण करने की चेष्टा की थी।
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