प्रश्नों के उत्तर पाने में दस दिन से अधिक का समय लग जाता है, सिवाय अल्प-सूचना प्रश्नों के जो संबंधित मंत्री की सहमति से ही पूछे जा सकते हैं। प्रश्नों की प्रक्रिया ऐसी है कि सिवाय आधे घरे की चर्चा के, उन पर विस्तृत चर्चा करने को स्नुमति नहीं दी जा सकती। कभी कभी अनायास ही, अप्रत्याशित रूप से, कोई समस्या उत्पन्न हो सकती है। ऐसे मामले में यह हो सकता है कि उस समस्या को सरकार के ध्यान में लाने के लिए बहुत पहले सूचना देना संभव न हो। अविलंदनीय लोक महत्व के ऐसे मामले उठाने के लिए पहले सरकार और संसद द्वारा तुरंत ध्यान दिया जाना अपेक्षित हो, संसद सदस्य के लिए अनेक अतिरिक्त प्रक्रियागत उपाय उपलब्ध है, जैसे स्थगन प्रस्ताव (एडजॉर्नमेंट मोशन), ध्यानाकर्षण सूचनाएं (कॉलिंग एटेंशन), अल्पकालीन चर्चाएं (शार्ट डुरेशन डिस्कशन) और नियम 377 के अधीन उल्लेख। इसी तरह सदस्य सार्वजनिक रुचि के मामलों पर चर्चाएं उठाने के लिए विभिन्न प्रस्ताव (मोशन) और संकल्प रिजोल्यूशन) पेश कर सकते हैं और सदन का तथा सरकार का ध्यान उनकी ओर दिला सकते हैं। अविलंबनीय लोक महत्व के मामले उठाने और संसद में वाद-विवाद आरंभ करने के लिए उक्त उपायों के प्रयोग के लिए दोनों सदनों के प्रक्रिया नियमों में शर्ते दी गई हैं।
स्थगन प्रस्ताव
सामान्यतया सदन कार्यसूची में दर्ज मदों के अनुसार ही काम निबटाता है और कार्यसूची में सम्मिलित किया गया कोई कार्य अध्यक्ष की अनुमति के बिना नहीं करता। तथापि अविलंबनीय लोक महत्व का कोई मामला, यदि अध्यक्ष उस पर सहमत हो जाए तो, नियमित कार्य को रोक कर स्थगन प्रस्ताव के द्वारा सदन के समक्ष लाया जा सकता है।
स्थगन प्रस्ताव पेश करने का मूल उद्देश्य हाल के किसी अविलंबनीय लोक महत्व के मामले की ओर, जिसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं और जिसके संबंध में उचित सूचना देकर कोई प्रस्ताव या संकल्प पेश करने से बहुत देर हो सकती है, सदन का ध्यान दिताना है। जो मामला उठाने का विचार हो वह ऐसा होना चाहिए कि लोगों को और उनकी सुरक्षा को प्रभावित करने वाली कोई गंभीर बात हो गई ट्रे और सदन के लिए अपना नियमित कार्य रोक कर उसकी ओर तुरंत ध्यान देना आवश्यक हो गया हो। अतः स्थगन प्रस्ताव एक असाधारण प्रक्रिया है जिसे गृहीत कर लिए जाने पर 'अविलंबनीय लोक महत्व के निश्चित मामले पर चर्चा करने के लिए सदन का नियमित कार्य रोक देना होता है। स्थगन प्रस्ताव के आवश्यक तत्व इस प्रकार हैं:
(क) मामला निश्चित स्वरूप का हो;
(ख) उसका आधार तथ्यात्मक हो;
(ग) मामता अविलंबनीय हो;
(घ) वह लोक महत्व का हो;
इस प्रकार देश की राजनीतिक स्थिति, अराजकता, बेरोजगारी, रेल दुर्घटनाएं और विमान दुर्घटनाएं, मिलों का बंद हो जाना, सामान्य अंतर्राष्ट्रीय स्थिति, स्थगन प्रस्ताव के लिए उचित विषय नहीं हैं। इसी प्रकार परिवहन मोटर गाड़ियों की कमी, अपहरण के मामले, डकैती, विस्फोट, सांप्रदायिक तनाव भी ऐसे प्रस्ताव के लिए उचित विषय नहीं माने गए हैं। इस प्रस्ताव के द्वारा कोई विशेषाधिकार का प्रश्न, किसी विशिष्ट प्रस्ताव के अधीन उठाया जाने वाला प्रश्न, कोई न्यायालय में विचाराधीन मामला और ऐसा कोई मामला भी नहीं उठाया जाना चाहिए जिस पर उसी अधिवेशन में चर्चा हो चुकी हो। ऐसे प्रस्ताव के विषय का संबंध प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत सरकार के आचरण या उसकी किसी त्रुटि से अवश्य होना चाहिए। परंतु यदि से राज्य के अधिकार क्षेत्र का कोई विषय राज्य में संवैधानिक घटना से संबंधित हो या अनुमृचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों या समाज के कमजोर वर्गों पर अत्याचार से संबंधित हो तो गुणावगुणों के आधार पर उसे गृहीत करने के लिए विचार किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, नीचे कुछ विषय दिए गए हैं जिन पर स्थगन प्रस्ताव गृहीत किए गए और चर्चा भी हुई :
1. दिल्ली में नकली शराब पीने के कारण आठ व्यक्तियों की मौत और अनेक राज्य व्यक्तियों का रोगग्रस्त हो जाना और इससे उत्पन्न गंभीर स्थिति
2. कुतुब मीनार दुर्घटना जिसमें 45 लोग मारे गए;
3. पंजाब में उग्रवादियों की गतिविधियों से उत्पन्न गंभीर स्थिति और इस मामले को हल करने में सरकार की विफलता।
जो सदस्य स्थगन प्रस्ताव पेश करना चाहता हो उसके लिए अपेक्षित है कि वह जिस दिन प्रस्ताव पेश करना चाहता हो उस दिन 10.00 बजे म. पू. तक प्रकार की सूचना अध्यक्ष को, संबंधित मंत्री को और महासचिव को दे । वदि प्रथम दृष्टय अध्यक्ष का समाधान हो जाए कि वह मामला नियमानुकूल है तो वह प्रस्ताव करने के लिए अपनी सम्मति प्रदान कर सकता है। प्रश्नकाल के बाद, अध्यक्ष संत सदस्य से कहता है कि वह प्रस्ताव पेश करने के लिए सदन की अनुमति मांग यदि अनुमति दिए जाने पर सपत्ति की जाए तो अध्यक्ष उन सदस्यों से जो अनुमान दिए जाने के पक्ष में ही अपने स्थानों पर खड़े होने के लिए कहेगा, तदनुसार यह कम से कम पचास सदस्य खड़े हों तो वह घोषणा करेगा कि अनुमति दी जाती है
प्रस्ताव पेश करने के लिए सदन की अनुमति मिल जाने के बाद, प्रस्ताद औपचारिक रूप से गृहीत हुआ माना जाता है। किसी गृहीत स्थगन प्रस्ताव पर चर्च सामान्यतया 16.00 बजे म. पू. पर आरंभ होती है और ढाई घंटे तक, अर्याट 18.30 बजे म. पू. तक या उसके बाद चलती है। चर्चा प्रस्तावक द्वारा यह प्रस्ताद पेश किए जाने पर आरंभ होती है “कि सभा अब उपस्थित हो"। प्रस्ताव पर प्रस्तावक और अन्य सदस्यों के बोल चुकने के पश्चात मंत्री बोलता है और अंत में प्रस्तावक को चर्चा का उत्तर देने का अधिकार होता है। तत्पश्चात प्रस्ताव मतदान के लिए रखा जाता है। यह ध्यान में रखने की बात है कि ऐसे प्रस्ताव पर चर्चा जब आरंभ हो जाए तो उसे निबटाए जाने तक सदन को स्थगित करने की शक्ति अध्यक्ष को प्राप्त नहीं है क्योंकि उस समय यह शक्ति सदन में निहित रहती है।
यदि कोई स्थगन प्रस्ताव अस्वीकृत हो जाता है तो सदन अपना कार्य पुनः आरंभ कर देता है जो इस प्रस्ताव के कारण रुक गया था। दूसरी ओर, यदि प्रस्ताव स्वीकृत हो जाता है तो उससे सरकार की निंदा मानी जाती है। यद्यपि उससे सरकार अपदस्थ नहीं होती तथापि उससे यह सिद्ध हो जाता है कि जो सरकार स्थगन प्रस्ताव पर प्रतिकूल मत को रोकने में विफल रही है वह मंत्रिपरिषद में 'अविश्वास के प्रस्ताव के परिणाम से बच नहीं सकेगी। किसी स्थगन प्रस्ताव के स्वीकृत हो जाने में चूंकि सरकार की निंदा का तत्व होता है अतः राज्य सभा इस प्रक्रिया का प्रयोग नहीं करती। यह देखा गया है कि स्थगन प्रस्ताव की प्रक्रिया का प्रयोग कभी कभार ही किया जाता है। उदाहरणार्थ, सातवीं लोक सभा की कार्यावधि के दौरान प्राप्त हुई स्थगन प्रस्तावों की 5762 सूचनाओं में से केवल 149 सूचनाएं सदन के समक्ष लाई गई और अंत में उनमें से केवल 24 सूचनाएं गृहीत हो सर्की और उन पर चर्चा हो सकी और उनमें से कोई भी प्रस्ताव स्वीकृत नहीं हुआ। आठवीं लोक सभा में 1801 सूचनाओं में से 4 विषयों पर 80 गृहीत हुई और नवीं लोक सभा में 375 सूचनाएं प्राप्त हुईं और 9 पर चर्चा हुई। दसवीं लोक सभा के कार्यकाल में 608 स्थगन प्रस्तावों की सूचनाएं मिलीं। इनमें से 4 गृहीत हुई और उन पर चर्चा हुई। ग्यारहवीं लोक सभा में 64 स्थगन प्रस्तावों की सूचनाएं प्राप्त हुईं और केवल एक सूचना गृहीत हुई और उस पर चर्चा हुई। बारहवीं लोक सभा के दौरान प्राप्त 83 सूचनाओं में एक भी गृहीत नहीं की जा सकी और कोई चर्चा नहीं हुई।
ध्यानाकर्षण सूचनाएं
ध्यानाकर्षण सूचनाओं के लिए उपबंध पहली बार वर्ष 1954 में किया गया। उससे पूर्व, किसी महत्वपूर्ण और अविलंबनीय मामले को उठाने की स्पष्ट प्रक्रिया की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। स्थगन प्रस्ताव, जो सरकार के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव होता है, लाने की प्रक्रिया विद्यमान संवैधानिक ढांचे में सीमित स्वरूप की थी। अतः यह विचार किया गया कि कोई ऐसी प्रक्रिया बनाई जाए जिससे सदस्यों को सरकार का ध्यान अविलंबनीय मामलों की ओर दिलाने का अवसर मिल सके।
आधुनिक संसदीय प्रक्रिया में, ध्यानाकर्षण सूचनाओं के लिए प्रक्रिया नियमों में व्यवस्था करने का विचार केवल भारत की देन है। इसमें उत्तर के लिए प्रश्नों, अनुपूरक प्रश्नों और संक्षिप्त टिप्पणियों का सम्मिश्रण है जिसमें सभी दृष्टिकोण संक्षेप में और स्पष्टतया व्यक्त किए जाते हैं और सरकार को अपनी बात कहने का पर्याप्त अवसर मिलता है। कभी कभी इससे सदस्यों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सरकार की आलोचना करने और किसी महत्वपूर्ण मामले में सरकार की विफलता या उसकी अपर्याप्त कार्यवाही को उजागर करने का अवसर मिलता है।
कोई सदस्य, अध्यक्ष/सभापति की पूर्व अनुमति से, अविलंबनीय लोक महत्व के किसी मामले की ओर किसी मंत्री का ध्यान दिलाता है और उससे अनुरोध करता है कि वह उस मामले पर एक वक्तव्य दे।' मंत्री संक्षिप्त वक्तव्य दे सकता है या बाद की किसी तिथि को वक्तव्य देने के लिए समय मांग सकता है।
ध्यानाकर्षण सूचनाएं देने के लिए सदस्यों का मुख्य स्रोत दैनिक समाचारपत्र होते हैं। कभी-कभी वे किसी सदस्य की निजी जानकारी के आधार पर या उसके अपने निर्वाचकों के साथ हुए पत्र व्यवहार के आधार पर दी जा सकती है।
ध्यानाकर्षण सूचनाएं सदस्यों द्वारा लिखित रूप से 10.00 म. पू. तक देनी होती हैं। कोई सदस्य किसी बैठक के लिए दो या दो से अधिक सूचनाएं नहीं दे सकता। एक ही विषय पर एक से अधिक सदस्यों द्वारा सूचनाएं दी जा सकती हैं, परंतु कार्यसूची में अधिक से अधिक पांच सदस्यों के नाम दर्ज किए जाते हैं। अध्यक्ष सूचनाओं को देखता है और आगामी दिन सदन की बैठक में संबंधित मंत्री द्वारा वक्तव्य दिए जाने के लिए उनमें से एक सूचना का चयन करता है। कुछ मामलों में, अध्यक्ष एक बैठक के लिए दो सूचनाएं चुन सकता है। परंतु यदि अध्यक्ष का विचार हो कि मामला इतना अविलंबनीय है कि मंत्री द्वारा उसी दिन वक्तव्य दिया जाना चाहिए तो वह अपने विवेकाधिकार से, ध्यानाकर्षण को उसी दिन लिए जाने की अनुमति दे सकता है जिस दिन उसकी सूचनाएं दी गई हों। ध्यानाकर्षण सूचनाओं को एक दिन या इससे अधिक समय पूर्व गृहीत किए जाने के पीछे विचार यह कि ऐसा करने से संबंधित मंत्री को उठाए जाने वाले मामले के बारे में तथ्य एरित करने और समय पर वक्तव्य तैयार करने का पर्याप्त समय मिल जाए।
मंत्रियों का ध्यान दिलाने के लिए एक बैठक में दो से अधिक सूचनाएं नी ली जा सकतीं। ऐसे वक्तव्य पर वाद-विवाद नहीं होता परंतु ऐसे प्रत्येक सदस्य को जिसका नाम कार्यसूची में दर्ज हो, स्पष्टीकरण के लिए एक प्रश्न पूछने की अनुमति हो जाती है। अतः ध्यानाकर्षण प्रस्ताव का मुख्य प्रयोजन यह है कि किसी अदिलंदनीय स्वरूप के मामले पर मंत्री प्राधिकृत वक्तव्य दे। इस प्रक्रिया में सरकार की निंदा अंतर्ग्रस्त नहीं होती क्योंकि न तो इस प्रस्ताव पर नियमित रूप से चर्चा होती है और न ही मतदान होता है।
जिन विषयों पर मंत्रियों से वक्तव्य देने के लिए कहा गया है उनमें से इस प्रकार हैं : भारत के किसी भाग में उपद्रव; सीमावर्ती झगड़े रेल दुर्घटनाएं; सरकारी उपक्रमों का बंद हो जाना; न्यायालयों द्वारा दिए गए ऐसे फैसले जिनमें मंत्रालयों या केंद्रीय सरकार के अधिकारियों को प्रभावित करने वाली टिप्पणियां की गई हो; शत्रु के विमानों द्वारा वायु सीमा क्षेत्र का उल्लंघन; पत्तनों, बंदरगाहों, विमान कंपनियों, रेलवे तथा अन्य सार्वजनिक उपयोग की सेवाओं में हड़ताले विदेशों में रहने वाले भारतीयों की स्थिति; गंभीर खाद्यान्न, सूखे या बाढ़ की स्थिति, इत्यादि। मामले के अविलंबनीय स्वरूप और लोक महत्व को देखते हुए किसी मामले पर ध्यानाकर्षण सूचना को अध्यक्ष द्वारा अपने विवेकाधिकार से गृहीत किया जाता है।
ध्यानाकर्षण की प्रक्रिया से संसद सरकार को सतर्क रख सकती है, आम महत्व के किसी विशिष्ट मामले में तुरंत सरकार से स्पष्टीकरण मांग सकती है और ऐसी स्थिति पैदा कर सकती है जिससे सरकार तथ्य या अपना फैसला बताए या इस विचार और भावना से मामले में प्रभावी कार्यवाही करे कि उसे सदन का समर्थन प्राप्त है। यह एक ऐसे महत्वपूर्ण मामले को उठाने, उस पर चर्चा करने और निष्कर्ष पर पहुंचने का संक्षिप्त एवं तात्कालिक उपाय है जिसमें सूचना देने वाले सदस्यों को, दल के सचेतक (द्विप्र) के बिना और किसी औपचारिक या विशिष्ट प्रस्ताव पर मत विभाजन द्वारा दुखद निर्णय पर पहुंचे बिना, समान रूप से भाग लेने का अधिकार होता है। इसमें कोई विशिष्ट निष्कर्ष रिकार्ड नहीं किए जाते। सारे सदन में भावुकता में का वातावरण बन जाता है और प्रत्येक सदस्य लघु चर्चा का अपनी समझ से जैसे चाहे अर्थ लगा सकता है और निष्कर्ष पर पहुंच सकता है।
अल्पकालीन चर्चाएं
एक गैर-सरकारी सदस्य के लिए अविलंबनीय लोक महत्व के मामले सदन के ध्यान में लाने का एक अन्य उपाय भी है, अर्थात अल्पकालीन चर्चा उठाना। वर्ष 1953 से पहले ऐसी चर्चाएं उठाने के लिए कोई उपबंध नहीं था। तब केवल प्रस्तावों और संकल्पों के लिए ही उपबंध था। कोई महत्वपूर्ण और अविलंबनीय मामले उठाने के लिए स्थगन प्रस्ताव के सिवाय सदस्यों के लिए अन्य कोई विकल्प नहीं था। स्थगन प्रस्ताव निंदा प्रस्ताव के स्वरूप का होने के कारण उसका बार बार उपयोग नहीं किया जा सकता था। इसलिए 1953 में एक प्रथा बनी जिसके अनुसार सदस्य ऐसे मामलों पर अल्पकालीन चर्चा उठा सकते थे। यह प्रक्रिया बाद में दोनों सदनों के प्रक्रिया नियमों में सम्मिलित कर ली गई।
ऐसी चर्चा उठाने के लिए मामले का संक्षेप में उल्लेख करते हुए उसके कारणों की स्पष्ट व्याख्या करते हुए सदस्य द्वारा महासचिव को सूचना देनी होती है। ऐसी सूचना पर संसद के कम से कम दो अन्य सदस्यों के हस्ताक्षर भी होने चाहिए।
अध्यक्ष/सभापति प्राप्त सूचनाओं की ग्राह्यता के बारे में फैसला करता है। यदि उसका समाधान हो जाए कि मामला इतना अविलंबनीय और पर्याप्त महत्व का है कि शीघ्र ही उसका सदन में उठाया जाना आवश्यक है और उस पर चर्चा के लिए शीघ्र कोई अवसर अन्यथा उपलब्ध नहीं है तो वह सूचना को गृहीत कर सकता है। अल्पकालीन चर्चा की सूचना में, ग्राह्य होने के लिए, ऐसा मामला उठाया जाना चाहिए जिसका मूलतया केंद्रीय सरकार से संबंध हो, जो निराधार आरोपों पर आधारित न हो, जो काल्पनिक न हो और जिसमें अविलंबनीयता का तत्व हो। एक सूचना में केवल एक मामला उठाया जा सकता है
अध्यक्ष अल्पकालीन चर्चा के लिए एक सप्ताह में दो बैठकें नियत कर सकता है और ऐसी चर्चा के लिए बैठक की समाप्ति पर या उससे पहले अधिक से अधिक एक घंटा नियत कर सकता है। चर्चा की तिथि कार्य मंत्रणा समिति की सिफारिश पर निर्धारित की जाती है। सामान्यतया ऐसी चर्चाएं मंगलवार और गुरुवार के दिन ली जाती हैं। राज्य सभा में सभापति, सदन के नेता के परामर्श से चर्चा के लिए तिथि निर्धारित कर सकता है और उसके लिए अधिक से अधिक ढाई घंटे का समय दे सकता है।
सूचना गृहीत किए जाने और चर्चा के लिए तिथि निर्धारित किए जाने के बाद उसे उस दिन की कार्यसूची में सम्मिलित किया जाता है। इस दिन अध्यक्ष उस प्रथम सदस्य को जिसके नाम में कार्यसूची में मद दर्ज हो संक्षिप्त वक्तव्य देने में के लिए कहता है और मंत्री संक्षेप में उसका उत्तर देता है। उसके बाद अन्य सदस्य चर्चा में भाग लेते हैं। जो सदस्य चर्चा उठाता है उसे उत्तर देने का अधिकार नहीं होता। सदन के समक्ष कोई औपचारिक प्रस्ताव नहीं होता, न ही मतदान होता है।" चर्चा का उद्देश्य यह होता है कि जिन सदस्यों के पास उस विषय के बारे में कुछ तथ्य हों वे सदन को उनसे अवगत कराएं और मंत्री सदन और राष्ट्र के लाभार्थ स्थिति स्पष्ट करे।
नियम 377 के अधीन उल्लेख
सार्वजनिक गैलरियों में बैठे किसी भी दर्शक ने देखा होगा कि हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि किस तरह ऐसे मामले उठाने का प्रयास करते हैं जिनका नियमों एवं विनियमों का व्याख्या से कोई संबंध नहीं होता परंतु जो उस समय उन्हें और उनके निर्वाचन क्षेत्र के लोगों को उत्तेजित कर रहे होते हैं और वे अनुभव करते हैं कि उन मामलों को शीघ्रातिशीघ्र सदन में उठाना आवश्यक है। कभी कभी प्रश्नकाल के तुरंत बाद, जिसे प्रेस द्वारा ‘शून्यकाल' कहा जाता है, अनेक सदस्य ऐसे मामले उठाने के लिए खड़े हो जाते हैं और सदन में कोलाहल तथा अव्यवस्था का वातावरण पैदा कर देते हैं। दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों को विश्वास हो गया था कि इस प्रथा को रोकने की जरूरत है और वे चाहते थे कि कोई ऐसा तरीका निकाला जाए जिससे कि सांसद ऐसे मामले उठा सकें जो वे उठाना चाहते हों और जो हाल के किसी प्रश्न, स्थगन प्रस्ताव, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव आदि के अंतर्गत न उठाए जा सकते हो राज्य सभा में विशेष उल्लेख' की प्रथा और लोक सभा में नियम 377 के अधीन मामले उठाने की प्रथा इसी दृष्टि से आरंभ हुई। नियम 377 के उपबंध का प्रयोग प्रथम बार 14 मई, 1966 को किया गया जब पुलिस द्वारा एक संसद सदस्य के साथ किए गए दुर्व्यवहार संबंधी मामले को उठाया गया। यह एक ऐसा मामला था जो किसी भी अन्य नियम के अधीन उठाया नहीं जा सकता था।
जो मामले व्यवस्था के प्रश्न नहीं होते या जो प्रश्नों, अल्प-सूचना प्रश्नों, ध्यानाकर्षण प्रस्तावों आदि से संबंधित नियमों के अधीन नहीं उठाए जा सकते, वे नियम 377 के अधीन उठाए जाते हैं।
जो सदस्य नियम 377 के अधीन कोई मामला उठाना चाहता हो वह संक्षेप में (साधारणतया 250 से अधिक शब्दों में नहीं) वे मुद्दे बताते हुए जो वह उठाना चाहता हो और साथ ही उनको उठाने के कारण बताते हुए लिखित रूप से महासचिव को सूचना देता है। कोई सूचना ग्राह्य होने के लिए उसमें, अन्य बातों के साथ साथ, केवल स्थानीय महत्व का मामला या केवल किसी एक व्यक्ति या व्यक्तियों से संबंधित मामला या न्यायालय के विचाराधीन मामला नहीं उठाया जाना चाहिए और कोई ऐसा मामला नहीं उठाना चाहिए जिसमें आरोपात्मक, असंसदीय अभिव्यक्तियां आदि हों
संबंधित सदस्य को जिस दिन मामला उठाने की अनुमति दी जाती है उस दिन अध्यक्ष द्वारा अनुमोदित पाठ की एक प्रति उसे दी जाती है। वह मामला उठाते समय, सदस्य को अपने वक्तव्य के अनुमोदित पाठ से हटकर कुछ कहने की अनुमति नहीं होती। सामान्यतया, कोई मामला उठाए जाने के बाद संबंधित मंत्री वक्तव्य · नहीं देता, परंतु यदि वह चाहे तो ऐसा कर सकता है। संबंधित मंत्री नियम 377 के अधीन उठाए गए मामले के बारे में सीधे सदस्य को लिखकर सूचित करता है कि उस मामले के बारे में सरकार के विचार क्या हैं और क्या कार्यवाही की गई है। यह ध्यान देने की बात है कि इस प्रकार उठाए जाने वाले मामले कार्य सूची में सम्मिलित नहीं किए जाते।
छठी लोक सभा के चौथे अधिवेशन से पहले तो सदन में मामले उठाने के लिए नियम 377 का प्रयोग कुछ सीमित था परंतु उसके बाद अधिक उदार दृष्टिकोण अपनाया गया है ताकि सदस्य लोक महत्व के विभिन्न मामले, विशेष रूप से अपने निर्वाचन क्षेत्रों से संबंधित मामले जितनी जल्दी हो सके उठा सकें। यह देखा गया है कि सदस्य इस नियम का अधिक से अधिक सहारा ले रहे हैं और यह प्रक्रिया बहुत लोकप्रिय हो गई है। चौथी लोक सभा की कार्यावधि में नियम 377 के अधीन केवल 36 मामले उठाने की अनुमति दी गई और पांचवीं, छठी, और सातवीं लोक सभा की कार्यवाहियों में इन मामलों की संख्या बढ़कर क्रमशः 184, 829 और 3134 हो गई। आठवीं लोक सभा और नवीं लोक सभा में यह संख्या क्रमशः 3205 और 721 रहो। दसवीं, ग्यारहवीं और बारहवीं लोक सभा में यह संख्या क्रमशः 2063, 628 और 667 रही।
प्रस्ताव (मोशन)
सदन लोक महत्व के विभिन्न मामलों पर अनेक निर्णय करता है और अपनी राय व्यक्त करता है। लोक सभा की सदस्य संख्या बड़ी होने के कारण, सदन की राय या इच्छा जानना कठिन कार्य है। इस प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने के लिए, कोई सदस्य एक प्रस्ताव के रूप में कोई सुझाव सदन के समक्ष रख सकता है जिसमें उसकी राय या इच्छा दी गई हो और यदि सदन उसे स्वीकृत कर लेता है तो वह समूचे सदन की राय या इच्छा बन जाती है। अतः मोटे तौर पर, 'प्रस्ताव' सदन का निर्णय जानने के लिए या उसकी राय व्यक्त करने के लिए सदन के समक्ष लाया गया एक सुझाव होता है। इसलिए सदन के निर्णय के लिए प्रत्येक प्रश्न को किसी सदस्य द्वारा प्रस्ताव के रूप में प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है। संसद में निर्णय चूंकि पूरी चर्चा और वाद-विवाद के बाद किए जाते हैं अतः किसी मामले पर सदन में चर्चा अध्यक्ष या सभापति, जैसी भी स्थिति हो, की सहमति से लाए जानेवाले किसी प्रस्ताव पर ही की जा सकती है।"
प्रस्ताव वास्तव में संसदीय कार्यवाहियों का आधार होते हैं। लोक महत्व का कोई भी मामला किसी प्रस्ताव का विषय हो सकता है। एक प्रस्ताव पर वाद-विवाद की ये चार अवस्थाएं होती हैं :
(क) प्रस्ताव पेश करना;
(ख) अध्यक्ष/सभापति द्वारा प्रश्न प्रस्तुत करना;
(ग) यदि अनुमति हो तो वाद-विवाद या चर्चा करना; और
(घ) सदन की स्वीकृति या फैसला।
प्रस्ताव पेश करने वाला सदस्य प्रस्ताव को ऐसा रूप देता है जिस रूप में वह चाहता हो कि सदन उसे स्वीकृत करे। परंतु यह बात सदन पर निर्भर करती है कि वह चाहे तो उसे उसी रूप में स्वीकृत कर दे या अस्वीकृत कर दे या कुछ संशोधनों के साथ स्वीकृत करे। इस प्रकार जो सदस्य उस प्रस्ताव के किसी भिन्न रूप में स्वीकृत किए जाने के इच्छुक हों वे पीठासीन अधिकारी द्वारा मूल प्रस्ताव पेश किए जाने के बाद संशोधन या स्थानापन्न प्रस्ताव पेश कर सकते हैं।
प्रस्ताव भिन्न भिन्न सदस्यों द्वारा भिन्न भिन्न प्रयोजनों से पेश किए जा सकते हैं। प्रस्ताव मंत्रियों द्वारा पेश किए जा सकते हैं और गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा भी। सामान्यतया, सरकार के प्रस्ताव किसी नीति या कार्यवाही के लिए सदन का अनुमोदन प्राप्त करने संबंधी प्रस्ताव होते हैं। दूसरी ओर, गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा पेश किए जाने वाले प्रस्तावों का उद्देश्य सामान्यतया किसी मामले पर सरकार की राय या विचार जानना होता है। यद्यपि प्रस्ताव सदन की विभिन्न कार्यवाहियों से संबंधित होते हैं तथापि उन्हें तीन प्रमुख श्रेणियों में रखा जा सकता है, अर्थात मूल प्रस्ताव, स्थानापन्न प्रस्ताव और सहायक प्रस्ताव।
मूल प्रस्ताव (सब्सटेंटिव मोशन) :
एक मूल प्रस्ताव अपने आपमें पूर्ण स्वतंत्र प्रस्ताव होता है जो सदन के अनुमोदन के लिए पेश किया जाता है और ऐसे ढंग से बनाया गया होता है कि उससे सदन के फैसले की अभिव्यक्ति हो सके।" यह न तो किसी अन्य प्रस्ताव पर निर्भर करता है और न ही किसी अन्य प्रस्ताव से उत्पन्न होता है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव, लोक महत्व के किसी मामले पर स्थगन प्रस्ताव, अविश्वास प्रस्ताव, लोक सभा के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष के या राज्य सभा के उपसभापति के निर्वाचन के लिए या हटाने के लिए प्रस्ताव, विशेषाधिकार के प्रस्ताव और सभी संकल्प मूल प्रस्ताव होते हैं। इसके अतिरिक्त, संविधान में राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने का उपबंध है जो उचित शब्दों में बनाए गए मूल प्रस्ताव द्वारा ही चलाया जा सकता है।
स्थानापन्न प्रस्ताव (सबस्टीट्यूट मोशन) :
जो प्रस्ताव मूल प्रस्ताव के स्थान पर और उसके विकल्प के रूप में पेश किए जाएं उन्हें स्थानापन्न प्रस्ताव कहते हैं।" किसी मूल प्रस्ताव पर चर्चा आरंभ होने से पहले, कोई सदस्य स्थानापन्न प्रस्ताव पेश कर सकता है जो मूल प्रस्ताव के विषय के अनुकूल होते हुए इस तरह बनाया जाता है कि उसमें सदन की राय व्यक्त की गई हो। मूल प्रस्ताव पर और स्थानापन्न प्रस्ताव पर साथ-साथ चर्चा होती है परंतु सदन की स्वीकृति केवल स्थानापन्न प्रस्ताव पर ली जाती है। यदि वह स्वीकृत हो जाए तो वह मूल प्रस्ताव समाप्त हो जाता है और फिर उसे मतदान के लिए नहीं रखा जाता, लेकिन अगर संशोधन स्वीकृत हो जाए तो मूल प्रश्न को संशोधित रूप में मतदान के लिए रखा जाता है।
सहायक प्रस्ताव (सब्सीडियरी मोशन) :
इस श्रेणी के प्रस्ताव किसी अन्य प्रस्ताव पर निर्भर करते हैं या अन्य प्रस्ताव से संबंधित होते हैं या सदन में किसी कार्यवाही पर अनुवर्ती कार्यवाही स्वरूप होते हैं। इनका अपने आपमें कोई महत्व नहीं होता और मूल प्रस्ताव या सदन की कार्यवाही के संदर्भ के बिना ये सदन का निर्णय बताने योग्य नहीं होते। सहायक प्रस्तावों की फिर तीन श्रेणियां हैं :
(क) अनुषंगी प्रस्ताव (एंसीलरी मोशन),
(ख) प्रतिस्थापक प्रस्ताव (सुपरसीडिंग मोशन), और
(ग) संशोधन (एमेंडमेंट्स)।"
अनुषंगी प्रस्तावों को विभिन्न प्रकार के कार्यों की अग्रेतर कार्यवाही के लिए नियमित उपाय के रूप में सदन की प्रथा द्वारा मान्यता दी जाती है, जैसे कि “विधेयक को एक प्रवर या संयुक्त समिति को निर्दिष्ट किया जाए", या कि “विधेयक पर विचार किया जाए", या कि “विधेयक को पास किया जाए"।
प्रतिस्थापक प्रस्ताव किसी अन्य प्रश्न पर वाद-विवाद के दौरान पेश किए जाते हैं और वे उस प्रश्न का स्थान लेने हेतु होते हैं यद्यपि वे स्वतंत्र स्वरूप के होते हैं। कोई सदस्य किसी विधेयक पर विचार करने के प्रस्ताव के संबंध में प्रतिस्थापक प्रस्ताव पेश कर सकता है "कि विधेयक फिर से किसी समिति को निर्दिष्ट किया जाए" या "अग्रेतर राय जानने के लिए पुनः परिचालित किया जाए" या "विधेयक पर वाद-विवाद स्थगित किया जाए"। ऐसे अधिकांश प्रस्ताव विलंबकारी स्वरूप के होते हैं।
संशोधन का उद्देश्य मूल प्रस्ताव को केवल आंशिक रूप से रूपभेदित करना या स्थानापन्न करना होता है। संशोधन केवल प्रस्तावों, संकल्पों या किसी विधेयक के खंडों में ही नहीं अपितु किसी विधेयक के खंड में, संकल्प में या प्रस्ताव में किए जाने वाले संशोधन में भी हो सकते हैं। संशोधन वाद-विवाद के दौरान पेश किया जाता है और यदि वह स्वीकृत हो जाए तो मूल प्रश्न को संशोधित रूप में मतदान के लिए रखा जाता है। यह ध्यान देने की बात है कि स्थानापन्न प्रस्ताव का प्रयोजन भी मूल प्रश्न के विकल्प के रूप में एक भिन्न प्रस्ताव सदन के समक्ष लाना है परंतु वह संशोधन से इस कारण भिन्न है कि वह समूचे प्रस्ताव को ही बदल देता है।
प्रस्ताव की सूचना, किसी अन्य सूचना की तरह, महासचिव को दी जाती है। प्रस्तावों की सूचना के लिए कोई अवधि निर्धारित नहीं है। यह सूचना किसी मंत्री या किसी गैर-सरकारी सदस्य द्वारा दी जा सकती है। पीठासीन अधिकारी किसी प्रस्ताव को गृहीत कर सकता है या रह कर सकता है या उसके लिए आंशिक रूप से अनुमति दे सकता है। इसके अतिरिक्त प्रस्ताव की विषय वस्तु में, जैसे कि प्रश्नों के मामले में होता है, अन्य बातों के साथ साथ व्यंग्यपूर्ण पद, मानहानिकारक कथन या आरोप नहीं होने चाहिए और उसके द्वारा कोई विशेषाधिकार का प्रश्न या कोई ऐसा मामला नहीं उठाया जाना चाहिए जो न्यायालय में विचाराधीन हो।
अनियत दिन वाले प्रस्ताव :
जो प्रस्ताव अध्यक्ष द्वारा गृहीत कर लिया गया हो और जिस पर चर्चा के लिए कोई दिन नियत न किया गया हो उसे 'अनियत दिन वाला प्रस्ताव' कहा जाता है। इन्हें कार्य मंत्रणा समिति के समक्ष रखा जाता है जो सदन में चर्चा के लिए प्रस्तावों का चयन करती है और इस हेतु समय भी नियत करती है।
प्रस्ताव कैसे पेश किया जाता है :
प्रस्ताव के लिए नियत दिन, अध्यक्ष संबंधित सदस्य को प्रस्ताव पेश करने के लिए और भाषण देने के लिए कहता है। उसके पश्चात अध्यक्ष प्रस्ताव सदन के समक्ष रखता है। फिर उन सदस्यों द्वारा संशोधन और स्थानापन्न प्रस्ताव, यदि कोई हों तो, पेश किए जाते हैं जिन्होंने उस आशय की पूर्व सूचना दी हो और उसके बाद चर्चा की जाती है। सदस्यों और मंत्री के बोल चुकने के पश्चात प्रस्तावक उत्तर देने के अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए फिर बोल सकता है। चर्चा के अंत में संशोधनों/स्थानापन्न प्रस्तावों को, यदि कोई हों तो, सदन के मतदान के लिए रखा जाता है। परंतु नियम 342 के अधीन यह प्रस्ताव कि किसी नीति या स्थिति या वक्तव्य या किसी अन्य मामले पर विचार किया जाए, मतदान के लिए नहीं रखा जाता। ऐसे प्रस्ताव पर पेश किए गए केवल स्थानापन्न प्रस्ताव ही मतदान के लिए रखे जाते हैं। सदन द्वारा स्वीकृत रूप में प्रस्ताव की एक प्रति समुचित कार्यवाही के लिए संबंधित मंत्री को भेज दी जाती है।
राज्य सभा में भी प्रक्रिया यही है। नियत दिन या नियत दिनों के अंतिम दिन, जैसी भी स्थिति हो, सभापति मूल प्रश्न पर सदन के फैसले के लिए तुरंत प्रत्येक आवश्यक प्रश्न को मतदान के लिए रखता है। प्रस्ताव पेश करने वाले सदस्य को उत्तर देने का अधिकार होता है। ऐसे प्रस्ताव पर संशोधन भी पेश किए जा सकते हैं।
संकल्प (रजोल्यूशन)
संकल्प भी एक प्रक्रियागत उपाय है जो आम लोगों के हित के किसी मामले पर सदन में चर्चा उठाने के लिए सदस्यों और मंत्रियों को उपलब्ध है। संकल्प वास्तव में मूल प्रस्ताव होता है। सामान्य रूप के प्रस्तावों के समान, दोनों सदनों के प्रक्रिया नियमों में संकल्पों के प्रारूप दिए गए हैं। तदनुसार, लोक सभा में पेश किया जाने वाला संकल्प राय या सिफारिश की घोषणा के रूप में हो सकता है; या सरकार द्वारा विचार किए जाने के लिए किसी मामले या स्थिति की ओर ध्यान दिलाने वाला हो सकता है; या किसी ऐसे रूप में हो सकता है जिससे सरकार की किसी कार्यवाही या नीति को सदन स्वीकृत या अस्वीकृत करे या जिससे कोई संदेश दिया जाए; या किसी कार्यवाही के लिए सिफारिश, आग्रह या निवेदन के रूप में हो सकता है; या किसी ऐसे अन्य रूप में हो सकता है जैसे कि अध्यक्ष उचित समझे। इसी तरह, राज्य सभा में संकल्प सदन द्वारा राय की घोषणा के रूप में या किसी अन्य रूप में हो सकता है जैसे कि सभापति उचित समझे।
लोक सभा में पेश किए गए निम्नलिखित संकल्पों से ज्ञात हो जाएगा कि संकल्पों के सामान्य रूप क्या होते हैं और उनके विषय क्या क्या होते हैं :
1. “यह विचार करते हुए कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 34 वर्ष पश्चात भी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के अधिकांश लोगों की आर्थिक तथा सामाजिक स्थितियों में सुधार नहीं हुआ है, यह सभा सरकार. से सिफारिश करती है वह उक्त समुदायों के शिक्षित युवकों को आगामी पांच वर्षों में रोजगार उपलब्ध कराने के लिए योजनाएं बनाए"
2. "इस सभा की राय है कि हमारे देश की राजनीतिक व्यवस्था में विभिन्न भाषाई एवं जातिगत ग्रुपों के अलग राजनीतिक इकाइयों के रूप में उभरने से यह आवश्यक हो गया है कि केंद्र और राज्यों के वित्तीय एवं अन्य संबंधों का ढांचा पुनर्गठित किया जाए और इसलिए संकल्प करती है कि संविधान के संगत उपबंधों में उपयुक्त संशोधन किए जाएं"
प्रस्ताव और संकल्प में अंतर :
प्रस्तावों और संकल्पों में एक दूसरे से भेद करना आसान नहीं है क्योंकि बहुत से ऐसे तत्व हैं जो दोनों में समान होते हैं। वास्तव में, दोनों में ज्यादा अंतर प्रक्रिया का होता है, विषय वस्तु का नहीं। प्रायः प्रस्ताव और संकल्प, दोनों एक ही विषय पर कुछ रूप बदलकर गृहीत किए जाते हैं। उदाहरणार्थ, निम्नलिखित प्रस्ताव लोक सभा में गृहीत किया गया :
"इस बात से चिंतित होते हुए कि विभिन्न क्षेत्रों में विकास कार्य क्रियान्वयन में प्रशासनिक विलंब के कारण राष्ट्र की आकांक्षाओं के अनुकूल आगे नहीं बढ़ रहा है, यह सभा सरकार से सिफारिश करती है कि वह सभी स्तरों पर विभिन्न विकास कार्यों की प्रगति पर बराबर निगरानी रखने, प्रगति में बाधक तत्वों का पता लगाने और जहां कोई परियोजनाएं रुकी हुई हों और उनमें विलंब हो रहा हो वहां तुरंत उपचारात्मक उपायों का सुझाव देने के लिए एक राष्ट्रीय सांविधिक निगरानी निकाय की स्थापना करे ।
उसी सदस्य की निम्नलिखित सूचना संकल्प के रूप में गृहीत हुई और पेश की गई :
“सरकार के सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम को शीघ्र कार्यरूप देने की महत्वपूर्ण आवश्यकता की दृष्टि से, यह सभा सिफारिश करती है कि सभी स्तरों पर विभिन्न विकास कार्यों की प्रगति पर बराबर निगरानी रखने, प्रगति में बाधक तत्वों का पता लगाने और उन्हें शीघ्र कार्यरूप देने के लिए तुरंत उपचारात्मक उपायों का सुझाव देने के लिए सरकार के अधीन एक निगरानी निकाय स्थापना की जाए"!
परंतु इनमें एक अंतर है। सब संकल्प मूल प्रस्तावों की श्रेणी में आते हैं, अर्थात प्रत्येक संकल्प एक विशिष्ट प्रकार का प्रस्ताव होता है। परंतु यह आवश्यक नको है कि सब संकल्प मूल प्रस्ताव ही हों। इसके अतिरिक्त, सब प्रस्ताव आवश्यक रूप से सदन के मतदान के लिए नहीं रखे जाते जबकि यह आवश्यक होता है कि सब संकल्पों पर मतदान हो। किसी संकल्प पर स्थानापन्न प्रस्ताव पेश नहीं किया जाता। दूसरी ओर, मूल प्रस्तावों पर ऐसे प्रस्ताव पेश किए जा सकते हैं।
विभिन्न प्रकार के संकल्प
संकल्पों का वर्गीकरण इस प्रकार किया जाता है : गैर-सरकारी सदस्यों के संकल्प, सरकारी संकल्प और सांविधिक संकल्प।
(क) गैर-सरकारी सदस्यों के संकल्प :
गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा पेश किए जाने वाले संकल्पों को गैर-सरकारी सदस्यों के संकल्प कहा जाता है। वास्तव में इनसे ऐसे प्रस्तावों के बारे में जो अभी अनिश्चित हों या जिनके बारे में जनमत अभी बनना हो, सदन के विचार जानने का सरकार को अवसर मिलता है।
हर दूसरे शुक्रवार की बैठक के अंतिम ढाई घंटे गैर-सरकारी सदस्यों के संकल्पों पर चर्चा के लिए नियत किए जाते हैं। जो सदस्य संकल्प पेश करना चाहता हो उसे अपनी इस इच्छा की सूचना महासचिव को देनी होती है। जिन सदस्यों ने संकल्प पेश करने की इच्छा व्यक्त की हो उनमें से लोक सभा में तीन सदस्यों के नामों और राज्य सभा में पांच सदस्यों के नामों का बैलट द्वारा निर्धारण होता है और इन्हीं को एक-एक संकल्प की सूचना (नोटिस) देने की अनुमति दी जाती है। वे संकल्प, यदि गृहीत हो जाएं तो गैर-सरकारी सदस्यों की कार्य सूची में रखे जाते हैं। पीठासीन अधिकारी द्वारा पुकारे जाने पर संबंधित सदस्य संकल्प पेश करता है और उस पर भाषण देता है। उसके पश्चात अन्य सदस्य और संबंधित मंत्री भी बोल सकते हैं। संकल्प पेश किए जाने के पश्चात कोई सदस्य नियमानुसार उस संकल्प में संशोधन पेश कर सकता है।" गैर-सरकारी सदस्यों के संकल्पों पर चर्चा के लिए समय गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों तथा संकल्पों संबंधी समिति नियत करती है। सामान्यतया इन संकल्पों पर चर्चा के लिए दो घंटे नियत किए जाते हैं। मंत्री के भाषण के पश्चात संकल्प के प्रस्तावक को उत्तर देने का अधिकार होता है।
(ख) सरकारी संकल्प :
मंत्रियों द्वारा पेश किए जाने वाले संकल्पों को सरकारी संकल्प कहा जाता है। कोई संकल्प पेश करने की अपनी इच्छा की सूचना मंत्री को भी महासचिव को देनी होती है। यद्यपि इस हेतु कोई अवधि निर्धारित नहीं की गई है तथापि, व्यवहार में, मंत्री ऐसी सूचना कई दिन पूर्व देते हैं। इन सूचनाओं पर भी ग्राह्यता के वही नियम लागू होते हैं जो गैर-सरकारी सदस्यों के संकल्पों पर लागू होते हैं। कोई सरकारी संकल्प गृहीत कर दिए जाने पर, सदन द्वारा कार्य मंत्रणा समिति की सिफारिश पर उस पर चर्चा के लिए समय नियत किया जाता है।" संकल्प निबटाने के बारे में शेष प्रक्रिया वही है जो गैर-सरकारी सदस्यों के संकल्पों के मामले में अपनाई जाती है।
मंत्रियों द्वारा पेश किए जाने वाले संकल्पों का उद्देश्य सामान्यतया ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संधियां, अभिसमयों या समझौतों पर सदन की स्वीकृति लेना होता है जो सरकार द्वारा किए गए हों; या सरकार की कुछ राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय नीतियों की घोषणा करना या उन्हें अनुमोदित कराना होता है; या कुछ समितियों की सिफारिशों को अनुमोदित कराना होता है।
(ग) सांविधिक संकल्प :
ये संकल्प किसी मंत्री द्वारा पेश किए जा सकते हैं और गैर-सरकारी सदस्य द्वारा भी। इन्हें इस नाम से इस कारण जाना जाता है कि ये सदा संविधान के किसी उपबंध के या संसद के किसी अधिनियम के अनुसरण में लाए जाते हैं। कुछ अधिनियमों में स्पष्ट रूप से अपेक्षित होता है कि सरकार निर्धारित समयावधि के संकल्प पेश करे। यदि संविधान के उस विशिष्ट अनुच्छेद में या संविधि की धारा में, जिसके अधीन सांविधिक संकल्प लाया जाए, ऐसा संकल्प लाने की अवधि निर्धारित न हो तो किसी सांविधिक संकल्प को पेश करने के लिए सूचना की कोई निर्धारित अवधि नहीं होती।" ऐसे संकल्प पर, गृहीत किए जाने के पश्चात चर्चा ऐसे समय तक होती है, जो सरकारी कार्य के लिए नियत समय में से कार्य मंत्रणा समिति की सिफारिश पर सदन द्वारा नियत किया जाए।
गैर-सरकारी सदस्य का संकल्प, सरकारी संकल्प या सांविधिक संकल्प के सदन द्वारा पास किए जाने के पश्चात ऐसे प्रत्येक संकल्प की एक प्रति महासचिव द्वारा संबंधित मंत्री को प्रेषित की जाती है।
सदन द्वारा स्वीकृत प्रस्तावों या संकल्पों का प्रभाव :
किसी प्रस्ताव या संकल्प को स्वीकृत करके सदन उसके विषय के बारे में अपनी राय की घोषणा करता है और वह सदन का आदेश हो जाता है। जहां तक उनके प्रभाव का संबंध है, संसद द्वारा स्वीकृतं संकल्प इन श्रेणियों में आते हैं :
1. ऐसे संकल्प सरकार पर बंधनकारी नहीं होते जिनमें सदन ने केवल अपनी राय व्यक्त की हो। प्रथा यह है कि इन संकल्पों में व्यक्त रायों को कार्यरूप देना या न देना पूर्णतया सरकार के विवेकाधिकार पर निर्भर करता है।
2. सदन द्वारा स्वयं अपनी कार्यवाहियों संबंधी मामलों में स्वीकृत संकल्प बंधनकारी होते हैं और वे कानून की शक्ति रखते हैं। उनकी वैधता को न्यायालयों में चुनौती नहीं दी जा सकती।
3. सांविधिक प्रभाव वाले संकल्प, यदि स्वीकृत हो जाते हैं, तो सरकार के लिए बंधनकारी होते हैं और उनमें कानून की शक्ति होती है। संविधान में उपबंध है कि इस प्रकार के संकल्प राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने उपराष्ट्रपति, अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और राज्य सभा के उपसभापति को हटाने; राष्ट्रपति द्वारा प्रख्यापित किसी अध्यादेश का निरनुमोदन करने, राष्ट्र के हित में राज्य-सूची में सम्मिलित किसी विषय पर विधान बनाने में की शक्ति संसद को देने; अखिल भारतीय सेवाओं का सृजन करने, और आपात स्थिति की उद्घोषणा को स्वीकृत करने जैसे प्रयोजनों के लिए पेश किए जा सकते हैं।
संकल्प पेश करने का प्रयोजन चूंकि सदन की राय जानना होता है अतः ऐसी स्थिति कभी पैदा हो सकती है जिसमें विपक्ष सरकार की इच्छा के विरुद्ध सदन में कोई संकल्प स्वीकृत कराने में सफल हो जाए। ऐसी स्थिति में, क्या उस संकल्प को सरकार की निंदा माना जाना चाहिए? क्या सरकार को ऐसी स्थिति में पदत्याग कर देना चाहिए या सदन को भंग करने का परामर्श देना चाहिए? सरकार द्वारा पदत्याग करने के प्रश्न पर कोई निश्चित नियम नहीं है। केवल मोटा सिद्धांत यह है कि यदि सरकार किसी ऐसे मामले पर जो महत्वपूर्ण मामला समझा जाता हो या विपक्ष द्वारा पेश किए गए और सदन द्वारा स्वीकृत अविश्वास के विशिष्ट प्रस्ताव पर पराजित हो जाती है तो सरकार से पद त्याग करने की या सदन को भंग करने का परामर्श देने की आशा की जाती है।
अविश्वास प्रस्ताव
मंत्रिपरिषद तब तक पदासीन रहती है जब तक उसे लोक सभा का विश्वास प्राप्त हो। लोक सभा द्वारा मंत्रिपरिषद में विश्वास का अभाव व्यक्त करते ही सरकार संवैधानिक रूप से पद त्याग करने के लिए बाध्य होती है, चाहे प्रधानमंत्री सभा के विघटन की सिफारिश करे या न करे। इस विश्वास का पता लगाने के लिए, नियमों में इस आशय का एक प्रस्ताव पेश करने का उपबंध है जिसे 'अविश्वास प्रस्ताव' कहा जाता है।
किसी मंत्री द्वारा अपने विभाग में कोई कार्य किए जाने या कार्य न किए जाने के लिए संसद के प्रति उसके व्यक्तिगत उत्तरदायित्व के बारे में संविधान में कोई स्पष्ट उपबंध नहीं है। यह उत्तरदायित्व सामूहिक होता है। इसलिए, केवल संपूर्ण मंत्रिपरिषद में विश्वास का अभाव व्यक्त करने वाला प्रस्ताव गृहीत किया जाता है और किसी नंत्री में व्यक्तिगत रूप में विश्वास का अभाव व्यक्त करने वाला प्रस्ताव नियमानुकूल नहीं है।"
किसी निदा प्रस्ताव के असमान, अविश्वास प्रस्ताव में वे कारण बताने आवश्यक नहीं हैं जिन पर वह आधारित हो। अविश्वास के प्रस्ताव की पूर्व सूचना दी जानी आवश्यक है। नियमों में ग्राह्यता की कोई शतें निर्धारित नहीं हैं। अध्यक्ष को यह फैसला करने का अधिकार है कि कोई प्रस्ताव नियमानुकूल है या नहीं।
यदि अध्यक्ष की राय हो कि प्रस्ताव नियमानुसार है तो वह, प्रश्नकाल समाप्त हो जाने पर, सदस्य से कहेगा कि वह सदन की अनुमति मांगे या अध्यक्ष स्वयं सदन को प्रस्ताव पढ़कर सुनाता है और उन सदस्यों से जो अनुमति दिए जाने के पक्ष में हो अपने स्थानों पर खड़े होने के लिए निवेदन करता है और यदि कम से कम पचास सदस्य अपने स्थानों में खड़े हो जाएं तो अध्यक्ष घोषणा करता है कि अनुमति दी जाती है। अन्यथा यह समझा जाता है कि सदस्य को सदन की अनुमति प्राप्त नहीं हुई। अविश्वास का प्रस्ताव जब एक बार गृहीत हो जाता तो अनुमति दिए जाने के दिन से दस दिन के भीतर उसे बहस के लिए लिया जाना होता है। सरकार के विचार जानने के बाद, अध्यक्ष फैसला करता है कि प्रस्ताव पर चर्चा किस दिन हो। यदि सरकार ऐसा चाहे तो चर्चा उसी समय आरंभ की जा सकती है। चर्चा के लिए समय सामान्यतया कार्य मंत्रणा समिति की सिफारिश पर निर्धारित किया जाता है। सदस्य जब बोल लेते हैं तो सामान्यतया सरकार के विरुद्ध लगाए गए आरोपों का उत्तर प्रधानमंत्री स्वयं देता है। प्रस्तावक को चर्चा का उत्तर देने का अधिकार होता है। जब वाद-विवाद समाप्त हो जाए तो अध्यक्ष तुरंत प्रश्न मतदान के लिए रखता है और सदन का फैसला मौखिक मत द्वारा, या विभाजन द्वारा, यदि इसकी मांग की जाए तो, जाना जाता है।
जब सदन की अनुमति मांगने के लिए सदस्य का नाम अध्यक्ष द्वारा पुकास जाता है तब वह सदस्य अविश्वास के प्रस्ताव की सूचना वापस भी ले सकता है। परंतु सदन द्वारा अनुमति दे दिए जाने के पश्चात यदि सदस्य अपना प्रस्ताव वापस लेना चाहे तो वह ऐसा सदन की अनुमति से ही कर सकता है। अविश्वास के प्रस्ताव की सूचना उन सब सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरकृत पत्र भेजकर भी वापस ली जा सकती है जिन्होंने प्रस्ताव की सूचना पर हस्ताक्षर कर रखे हों और यह कार्यवाही सदन में उस मद के लिए जाने से पहले की जानी चाहिए। उस स्थिति में सदन में उस मद का उल्लेख नहीं किया जाता या उसे सदन के समक्ष लाया ही नहीं जाता।
राज्य सभा को अविश्वास प्रस्ताव पर विचार करने की शक्ति प्राप्त नहीं है क्योंकि संविधान के अधीन सरकार सामूहिक रूप से केवल निर्वाचित लोक सभा के प्रति ही उत्तरदायी होती है।
निंदा प्रस्ताव (सेन्सयोर मिशन)
निंदा प्रस्ताव अविश्वास के प्रस्ताव से भिन्न होता है। अविश्वास के प्रस्ताव में उन कारणों का उल्लेख नहीं होता जिन पर वह आधारित हो परंतु निंदा प्रस्ताव में ऐसे कारणों या आरोपों का उल्लेख करना आवश्यक होता है और यह प्रस्ताव कतिपय नीतियों और कार्यों के लिए सरकार की निंदा करने के विशिष्ट प्रयोजन से पेश किया जाता है। निंदा प्रस्ताव मंत्रिपरिषद के विरुद्ध या किसी एक मंत्री के विरुद्ध या कुछ मंत्रियों के विरुद्ध कोई ऐसा कार्य न करने के लिए या उनकी किसी नीति के विरोध स्वरूप पेश किया जाता है और उसमें किसी मंत्री या मंत्रियों की विफलता पर सदन द्वारा खेद, रोष या आश्चर्य प्रकट किया जाता है। यह प्रस्ताव विशिष्ट एवं स्वतः पूर्ण होना चाहिए ताकि निंदा के कारणों का स्पष्टतया एवं संक्षेप में उल्लेख किया जाए। किसी कारणवश प्रस्ताव नियमानुसार है या नहीं, इस बारे में अध्यक्ष का फैसला है अतिम होता है। निंदा प्रस्ताव पेश करने के लिए सदन की अनुमति अपेक्षित नहीं होती। इस पर चर्चा के लिए तिथि निर्धारित करना और समय निकालना सरकार के विवेकाधिकार की बात है। निंदा प्रस्ताव पेश करने के लिए नियमों में कोई विशिष्ट उपबंध नहीं है। ऐसे प्रस्ताव पर सामान्य रूप से प्रस्तावों पर लागू होने वाले नियम ही लागू होते हैं, और इसे अनियत दिन वाले प्रस्ताव के रूप में गृहीत किया जा सकता है।
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