आजकल की संसद का काम केवल कानून अथवा विधान बनाना नहीं है। वर्तमान युग में इस संस्था के अब अनेक कृत्य हो गए हैं। यह विभिन्न भूमिकाएं निभाती है जिनमें से अनेक परस्पर संबद्ध हैं, यहां तक कि उनमें भेद करना कठिन हो जाता है। परंतु यह तथ्य प्रायः लोग समझते नहीं हैं और संसद के कार्यकरण के किसी एक या दो पहलुओं पर ही बल दिया जाता है। आधुनिक संसदीय राजनीति विज्ञान की भाषा में वर्तमान संसद की भूमिकाओं को पूरी तरह निश्चित करने और इसके. कृत्यों का विश्लेषण करने का प्रयास बहुत भ्रामक सिद्ध हो सकता है। फिर भी, विचारों को स्पष्ट करने की दृष्टि से, संसद की कुछ मौलिक भूमिकाएं एवं कृत्य इस प्रकार कहे जा सकते हैं :
• राजनीतिक और वित्तीय नियंत्रण (या कार्यपालिका की जिम्मेदारी अथवा दायित्व)
• प्रशासन की निगरानी (या प्रशासनिक हिसाबदेही)
• जानकारी प्राप्त करने का अधिकार
• प्रतिनिधित्व करना, शिकायतें व्यक्त करना, शिक्षित करना और मंत्रणा देना
• संघर्षों का समाधान करना और राष्ट्रीय एकता सुनिश्चित करना
• विधि-निर्माण, विकास, सामाजिक परियोजना और वैधीकरण
• संविधायी भूमिका (संविधान में संशोधन करना)
• नेतृत्व (भर्ती एवं प्रशिक्षण)
राजनीतिक और वित्तीय नियंत्रण (या कार्यपालिका की जिम्मेदारी अथवा दायित्व) :
संसद के प्रति कार्यपालिका का या सरकार का दायित्व या जिसे प्रायः कार्यपालिका पर या सरकार पर संसदीय नियंत्रण कहा जाता है, वह निम्न बातों पर आधारित है
(1) मंत्रिपरिषद का संसद के निर्वाचित सदन के प्रति सामूहिक दायित्व संबंधी सवैधानिक उपबंध; और
(2) बजट पर संसद का नियंत्रण।
इन दोनों मामलों में, कार्यपालिका पर संसद का नियंत्रण राजनीतिक स्वरूप का है। कार्यपालिका का दायित्व प्रत्यक्ष, निरंतर, समवर्ती एवं दिन प्रतिदिन का है। जब संसद की बैठक चल रही हो तो सरकार का सत्ता में बने रहना हर समय लोक सभा के विश्वास को बनाए रखने पर निर्भर करता है। सदन किसी भी समय बहुमत द्वारा सरकार को अपदस्थ करने का फैसला कर सकता है, अर्थात यदि सत्ताधारी दल सदन के बहुमत का समर्थन खो देता है तो सरकार अपदस्थ हो जाती है। तब कोई आधार बताना, प्रमाण देना या औचित्य बताना आवश्यक नहीं होता। जब सदन स्पष्ट रूप से और अंतिम रूप कह देता है कि सरकार को बहुमत का समर्थन प्राप्त नहीं है तो सरकार को सत्ता छोड़नी ही पड़ती है। सरकार में संसद के विश्वास के अभाव को लोक सभा द्वारा इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है :
(क) मंत्रिपरिषद में अविश्वास का मूल (सबस्टेंटिव) प्रस्ताव पास करके,
(ख) नीति संबंधी किसी बड़े मामले पर सरकार को पराजित करके
(ग) कोई स्थगन प्रस्ताव पास करके; और
(घ) आपूर्ति (सप्लाई) की स्वीकृति देने से इंकार करके या किसी वित्तीय उपाय पर सरकार को पराजित करके।
कार्यपालिका को बजट तैयार करने का अधिकार प्राप्त है। संविधान में उपबंध कि अनुमानित प्राप्तियों तथा व्यय का एक वार्षिक विवरण संसद के समक्ष रखा जाएगा। कार्यपालिका को यह सुझाव देने की पूरी स्वतंत्रता है कि उसके व्यय का स्तर क्या हो और विभिन्न राशियां किस किस प्रयोजनार्थ अपेक्षित हैं। उसे यह सुझाव देने की पूरी स्वतंत्रता है कि उसके व्यय को पूरा करने के लिए राजस्व किस प्रकार जुटाया जाए। इस प्रकार, वित्तीय मामलों में हर प्रकार से पहल सरकार ही कर सकती है। परंतु कार्यपालिका मनमाने ढंग से शक्ति धारण न कर ले इसके लिए सबसे बड़ी रोक सार्वजनिक वित्त पर संसद का नियंत्रण है, अर्थात कर लगाने या उनमें परिवर्तन करने और आपूर्ति तथा अनुदानों को स्वीकृति देने की संसद की शक्ति। विधि द्वारा विशिष्ट ससंदीय अधिकार के बिना कानूनी तौर पर कोई कर नहीं लगाया जा सकता और न ही राजकोष से कोई खर्च किया जा सकता है।
वास्तव में, बजट पर नियंत्रण या अविश्वास के प्रस्ताव की अंतिम स्वीकृति के सैद्धांतिक अर्थों के सिवाय, सरकार पर संसदीय नियंत्रण एक भ्रम है। कार्यपालिका पर संसदीय नियंत्रण का 19वीं शताब्दी का ब्रिटिश विचार, 'मदर आफ पार्लियामेंट्स' (ब्रिटिश संसद) में भी अब मान्य नहीं है। संसद का सरकार पर नियंत्रण नहीं रहता। व्यावहारिक तथ्य है कि लोक सभा अपने बहुमत के द्वारा और सदन को भंग कर देने और नए चुनाव कराने की अपनी शक्ति के द्वारा सरकार संसद पर नियंत्रण रखती है। जैसाकि एक अन्य स्थान पर कहा गया है :
“आज राजनीति का व्यावहारिक तथ्य यह है कि वास्तविक शक्ति प्रधानमंत्री और उसके मंत्रिमंडल को प्राप्त है न कि संसद को। प्रधानमंत्री लोक सभा में बहुमत का नेता होता है और सरकार का प्रमुख भी होता है। प्रधानमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद, सरकार और विधानमंडल, दोनों पर नियंत्रण रखप्ती है क्योंकि इसे व्यापक मान्यता प्राप्त है और फैसले करने और उन्हें कार्यान्वित करने की शक्ति भी प्राप्त है"।'
और ऐसा होना भी चाहिए
"प्रधानमंत्री के प्राधिकार का खंडन नहीं होना चाहिए क्योंकि उस स्थिति में मंत्रिमंडलीय सरकार कार्य नहीं कर सकती। आखिर प्रधानमंत्री उसकी धुरी है। वह दो या तीन सहयोगियों से मंत्रणा करके कार्यवाही कर सकता है। यही कारण है कि मंत्रिमंडल समितियों की व्यवस्था है। अंततोगत्वा प्रधानमंत्री ही सरकार की नीतियों के लिए संसद और राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार है"।'
प्रशासन की निगरानी (या प्रशासनिक हिसाबदेही) :
प्रशासनिक हिसाबदेही का अर्थ है संसद के प्रति प्रशासन का दायित्व । प्रशासन का कार्य स्थायी सिविल सेवाओं द्वारा चलाया जाता है। संसद प्रशासन के दिन प्रतिदिन के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करती, न ही वह प्रशासन पर नियंत्रण रखती है। दायित्व तकनीकी और अप्रत्यक्ष रूप से, अर्थात मंत्रियों के द्वारा होता है और वह तब होता है जब कार्य किया जा चुका हो। इसके अतिरिक्त, दायित्व के विशिष्ट आधार होते हैं। हमारी व्यवस्था में नीति निर्धारित किए जाने के पश्चात विधेयक पास किया जाता है या धन मंजूर किया जाता है और फिर उसे कार्यरूप देना प्रशासन का काम है। संसद स्वयं तो प्रशासन का काम नहीं कर सकती और न ही मंत्रिगण ऐसा कर सकते हैं। अतः यदि कार्यान्वयन में गलतियां हो जाएं तो मंत्रियों को नहीं बल्कि अधिकारियों को उसका स्पष्टीकरण करना होता है।
संसदीय राजनीतिक व्यवस्था में चूंकि संसद में लोगों की इच्छा निहित होती अतः यह देखना उसी का काम होता है कि सार्वजनिक नीति को किस प्रकार कार्यरूप दिया जाए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वह सामाजिक-आर्थिक प्रगति के उद्देश्यों, कुशल प्रशासन और समूचे तौर पर लोगों की आकांक्षाओं के अनुकूल हो। संक्षेप में, संसद द्वारा प्रशासन की निगरानी का यही उद्देश्य है। संसद को प्रशासन के कार्य-व्यवहार पर निगरानी रखनी ही होती है। वह विगत मामलों के बारे में सकती है और जांच कर सकती है कि प्रशासन ने स्वीकृत नीतियों के अधीन अपने दायित्वों के अनुकूल कार्य किया है और जिस प्रयोजन से उसे शक्तियां प्रदान की गई थीं उसी प्रयोजनार्थ उनका प्रयोग किया गया है और क्या धन संसदीय मंजूरी के अनुसार खर्च किया गया है। इससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि अधिकारी इस बात का ध्यान रखकर ही काम करेंगे कि बाद में उनके काम की संसद द्वारा छानबीन होगी और जो कुछ वह करते हैं या नहीं करते हैं उसके लिए वे उत्तरदायी होंगे। परंतु सार्थक छानबीन करने और प्रशासनिक कृत्यों की निगरानी के लिए संसद के पास तकनीकी संसाधन एवं जानकारी अवश्य होनी चाहिए।
संसदीय समिति प्रणाली, प्रश्नों, ध्यानाकर्षण सूचनाओं, आधे घंटे की चर्चाओं आदि जैसे विभिन्न प्रक्रियागत साधन भी प्रशासनिक कार्यों पर संसदीय निगरानी रखने के लिए बहुत सशक्त माध्यम हैं जिनके द्वारा संसद को तरह तरह की जानकारी प्राप्त होती है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव, बजट की मांगों और सरकारी नीति और स्थितियों के विशिष्ट पहलुओं पर चर्चाओं के दौरान प्रशासनिक पुनर्विलोकन के महत्वपूर्ण अवसर मिले हैं। इसके अतिरिक्त अविलंबनीय लोक महत्व के विषयों संबंधी प्रस्तावों, गैर-सरकारी सदस्यों के संकल्पों और अन्य मूल प्रस्तावों के द्वारा भी विशिष्ट मामलों पर चर्चा हो सकती है।
जानकारी प्राप्त करने का अधिकार :
जानकारी संसद के लिए बहुत महत्व रखती है। इसके किसी भी कृत्य के प्रभावी निर्वहन के लिए यह सबसे पहली आवश्यकता है। संसद को अनेक प्रकार से, विभिन्न स्रोतों से जानकारी प्राप्त होती है, परंतु सरकार क्योंकि जानकारी का सबसे बड़ा स्रोत है अतः संसद एवं इसके सदस्यों को जानकारी की अपनी आवश्यकताओं के लिए सरकारी विभागों पर काफी निर्भर रहना पड़ता है। जानकारी प्राप्त करना संसद की शायद सबसे बड़ी शक्ति है। संसद का जानकारी प्राप्त करने का अधिकार असीम है, सिवाय इसके कि यदि किसी जानकारी को जाहिर करने से महत्वपूर्ण राष्ट्रीय हित पर या राज्य की सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो तो उस पर जोर नहीं दिया जा सकता। जहां तक सरकार के क्रियाकलापों का संबंध है, वह स्वयं सरकार का ही कर्तव्य है कि वह समय पर पूरी, सही सही और स्पष्ट जानकारी संसद को उपलब्ध कराए। यह जानकारी मंत्रियों द्वारा सदन में वक्तव्य देकर, प्रतिवदेन और पत्र सभा पटल पर रखकर या दस्तावेज संसद ग्रंथालय में रखकर उपलब्ध कराई जाती है। उपर्युक्त सारी जानकारी महत्वपूर्ण होती है तो तुरंत ही प्रकाशित कर दी जाती है और उसका प्रयोग सदन में चर्चाएं उठाने के लिए किया जा सकता है।
सबसे अधिक प्रसिद्ध एवं प्रभावी माध्यम जिसके द्वारा सदस्य स्वयं जानकारी प्राप्त करते हैं वह है संसद के सदनों में प्रश्न पूछा जाना। यह ठीक ही कहा गया है कि संसद में प्रश्नकाल के दौरान "विशाल प्रशासनिक व्यवस्था के प्रत्येक विभाग के प्रत्येक क्रियाकलाप की बारीकी से जांच होती है और कोई भी क्षेत्र संसद की छानबीन से अछूता नहीं रहता' । जानकारी मांगने वाले अनुपूरक प्रश्नों के माध्यम से, जो इस तरह पूछे जाते हैं कि प्रशासन की कमियां प्रकाश में आ जाएं, मंत्रियों का कड़ा परीक्षण होता है। कभी कभी तो मंत्री सदस्यों के प्रश्नों द्वारा जान पाते हैं कि उनके अधीन विभागों की स्थिति क्या है और उनमें कौन सी त्रुटियां हैं जिनकी ओर ध्यान देना आवश्यक है। किसी प्रश्न के अधूरे उत्तर की अनुवती कार्यवाही के तौर पर कोई भी सदस्य आधे घंटे की चर्चा की मांग कर सकता। सदस्य अविलंबनीय लोक महत्व के विषयों पर मौखिक उत्तर के लिए अल्प सूचना प्रश्न पूछ सकते हैं। इनके अलावा, एक अन्य प्रक्रियागत उपाय ध्यानाकर्षण सूचनाओं मामले की ओर मंत्री का ध्यान दिला सकता है और उससे अनुरोध कर सकता है का है। कोई सदस्य, अध्यक्ष की पूर्व अनुमति से, अविलंबनीय लोक महत्व के किसी कि वह उस मामले पर वक्तव्य दे। सदस्य संबंधित मंत्री को लिखकर भी ऐसी जानकारी मांग सकते हैं जिसकी कि उन्हें आवश्यकता हो और ऐसी जानकारी आमतौर पर दे दी जाती है।
संस्थागत स्तर पर, जानकारी प्राप्त करने का एक अन्य माध्यम विभिन्न संसदीय समितियों के प्रतिवेदन हैं। अपनी छानबीन की प्रक्रिया में समितियां खोजी प्रश्न करके सरकार के परीक्षणाधीन मंत्रालयों एवं विभागों, सरकारी उपक्रमों इत्यादि से विस्तृत एवं बहुमूल्य जानकारी एकत्र करती हैं। यह प्रक्रियागत उपाय अविलंबनीय लोक महत्व के मामलों पर जानकारी प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण साधन बन गया है और इसका सदन के दोनों पक्षों के सदस्य बहुत प्रयोग करते हैं।
कुछ राजनीतिक दलों के शोध एवं संदर्भ के लिए अपने कर्मचारी हैं जो विशेषकर दल की स्थिति की दृष्टि से आवश्यक जानकारी अपने सदस्यों को देते रहते हैं। निर्वाचन क्षेत्रों में तथा अन्य स्थानों पर जाने, निर्वाचकों और अन्य लोगों से पत्र व्यवहार करने, सरकारी मंत्रणा या अन्य समितियों, बोर्डों आदि का सदस्य बनने, सरकारी एवं गैर-सरकारी प्रकाशनों, सामयिक साहित्य तथा रेडियो, टेलीविजन, समाचारपत्रों जैसे जन-संचार माध्यमों से भी सदस्यों को नवीनतम घटनाओं की जानकारी रहती है और वे प्रशासन तथा सार्वजनिक नीतियों संबंधी मामलों से सुपरिचित रहते हैं।
प्रेस संसदीय जीवन में विशेष रूप से महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराने की भूमिका निभाता है। परंतु इससे प्रेस पर भारी दायित्व भी आ जाता है कि वह स्वयं अपनी आचरण संहिता का पालन करे, सनसनीखेज बातें लिखने के प्रलोभन में नहीं सर्वोच्च कर्तव्य को याद रखे, समाचारों का तथ्यात्मक आधार पर सही होना और आए, पत्रकारिता से तुच्छ लाभों के लिए राष्ट्रीय हित का बलिदान न करने के अपने विश्वसनीय होना सुनिश्चित करे और सर्वोपरि, ईमानदार और निष्पक्ष रहे तथा जनता की सेवा के लिए समर्पित रहे। प्रायः प्रेस प्रशासनिक त्रुटियों, घोटालों और कमियों का पता लगाने के लिए उन परिश्रम करता है, लोगों की शिकायतें और कठिनाइयां व्यक्त करता है और यह बताता है कि नीतियों को किस तरह कार्यरूप दिया जा रहा है। संसदीय प्रश्नों, प्रस्तावों और वाद-विवाद के लिए अधिकांश जानकारी दैनिक समाचारपत्रों से प्राप्त होती है और यह एक महत्वपूर्ण माध्यम है जिस पर सदस्य निर्भर करते हैं। इसके साथ साथ, प्रेस लोगों को जानकारी देता रहता है कि संसद में क्या हो रहा है। इस आदान प्रदान से प्रेस लोगों और संसद के बीच महत्वपूर्ण तथा मजबूत संपर्क बनाए रखने में समर्थ होता है। इन मामलों को जितना स्थान दिया जाता है और जितनी जानकारी दी जाती है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि हमारे देश में प्रेस उस आवश्यकता की पूर्ति करता है जो संसद सदस्यों तथा लोगों द्वारा समान रूप से महसूस की जाती है।
विभिन्न स्रोतों से संसद के लिए इतनी अधिक जानकारी उपलब्ध होने पर भी यह पर्याप्त नहीं है। सरकारी स्रोतों द्वारा उपलब्ध की जाने वाली जानकारी कुशल ढंग से एकत्रित की जाती है और तैयार की जाती है परंतु यह जानबूझकर या अनजाने में कभी कभी एकतरफा या पक्षपातपूर्ण हो सकती है और हो सकता है कि वह सदा पूर्ण, तथ्यात्मक और निष्पक्ष हो। जनसंचार माध्यम, राजनीतिक दलों, निहित स्वार्थ वाले ग्रुपों या लॉबी खड़ी करने वालों जैसे अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी तो उससे भी कम तथ्यात्मक या निष्पक्ष होगी। अतः आवश्यकता इस बात की है कि संसद जानकारी के लिए स्वयं अपना संस्थागत स्रोत विकसित करे जो स्वतंत्र जानकारी का रक्षित भंडार हो, और विशिष्ट प्रसार प्रक्रियाओं का भी विकास करे। संसद ग्रंथालय और इसकी शोध, संदर्भ, प्रलेखन तथा सूचना सेवाओं का यही उद्देश्य होता है। ये सेवाएं सदस्यों के लिए उपलब्ध रहती हैं और जब भी वे चाहें, निष्पक्ष एवं बिल्कुल संगत जानकारी अल्प सूचना पर प्राप्त कर सकते हैं। उनकी भावी आवश्यकताओं का भी ध्यान रखा जाता है। विधायकगण चूंकि बहुत व्यस्त रहते हैं और उनके पास समय बहुत कम होता है अतः जानकारी ठीक ठीक होनी चाहिए, संक्षिप्त, आसानी से समझी जा सकने वाली और तुंरत प्रयोग में लाए जा सकने योग्य होनी चाहिए।"
प्रतिनिधित्व करना, शिकायतें व्यक्त करना, शिक्षित करना तथा मंत्रणा देना :
आधुनिक लोकतंत्र में संसद का मुख्य कृत्य लोगों का प्रतिनिधित्व करना है। पिछली कुछ दशाब्दियों में, संसद की प्रतिनिधित्व करने और शिकायतें व्यक्त करने की भूमिका पर अधिकाधिक बल दिया गया है। संसद लोगों की सर्वोत्कृष्ट संस्था है। यह सर्वोच्च मंच है जिसके द्वारा वे अपनी आशाओं, इच्छाओं एवं आकांक्षाओं की पूर्ति करना चाहते हैं, अपनी शिकायतों, कठिनाइयों और यहां तक कि अपनी भावनाओं, चिंताओं और निराशाओं को भी व्यक्त करना चाहते हैं। संसद लोगों की परिवर्तनशील भावनाओं एवं आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व करती है। यह लोगों का दर्पण ही नहीं बल्कि उनकी दिलों की धड़कन का मापदंड भी है।
संसद सदस्यों की भूमिका के बारे में उनके अपने विचारों का अध्ययन करना, अथवा इस बात की जांच करना दिलचस्प बात होगी कि संसद सदस्य स्वयं क्या सोचते हैं कि उनकी उचित भूपिका क्या होनी चाहिए और यह भी कि क्या संसद संबंधी विचारों में और सदनों के वास्तविक कार्यकरण में दिखाई देता है। या नहीं। के सदनों के बदलते हुए स्वरूप का कोई प्रतिबिंब संसद सदस्यों की अपनी भूमिका अनुभव पर आधारित सामग्री के विश्लेषण के अनुसार, स्वतंत्रता पूर्व का केंद्रीय विधानमंडल विशिष्ट वर्ग के लोगों का निकाय था। किंतु, प्रत्येक निर्वाचन के बाद लोक सभा अधिकाधिक प्रतिनिधि निकाय का रूप लेती रही। पहले एक अध्ययन में किए गए विश्लेषण के अनुसार :
"...भारतीय संसद बहुमुखी भारतीय समाज का सच्चा दर्पण है। संसद में भारत के लोगों का, उनकी राजनीतिक जागति के स्तर का, उनके सीधे सादे जीवन का और उनकी समस्याओं, आशाओं एवं आकांक्षाओं का अधिक प्रतिनिधि स्वरूप दिखाई देने लगा है। विशिष्ट वर्ग की राजनीति का स्थान धीरे धीरे ग्रामोन्मुख राजनीति ले रही है। नगरीय वकील जो कानून और संसदीय प्रक्रिया की बारीकियों को समझता था, उसका स्थान ग्रामीण किसान या राजनीतिक/सामाजिक कार्यकर्ताले रहा है जिसकी अंतर्जात सहज बुद्धि है और जो यह पूरी तरह समझता है कि लोगों की आवश्यकता क्या है। अब विदेशी शिक्षा प्राप्त, पब्लिक या कान्वेंट स्कूलों में पढ़े, उच्च-मध्यम श्रेणी के नगरीय विशिष्ट लोगों का स्थान गांवों के शिक्षित साधारण लोग ले रहे है
इसके अतिरिक्त, एक औसत संसद सदस्य समझता है कि उसका प्रमुख कर्तव्य अपने लोगों का प्रतिनिधित्व करना और उनकी समस्याओं, कठिनाइयों तथा शिकायतों को व्यक्त करना और उन्हें दूर करने का प्रयास करना है। क्योंकि, यदि कार्यपालिका संसद के प्रति उन्हें उत्तरदायी है तो संसद और इसके सदस्य भी लोगों के प्रति उत्तरदायी हैं। सदस्य जिन लोगों का प्रतिनिधित्व करता है उनके और संसद एवं सरकार के बीच वह संचार की मुख्य कड़ी है। इसके अतिरिक्त, सदस्य की शैक्षिक भूमिका भी है। जो कुछ संसद में हो रहा हो सदस्य को उसे समझना और उसमें अंतर्ग्रस्त होना होता है ताकि वह संसद के बारे में लोगों को शिक्षित कर सके और उन्हें जानकारी दे सके। इसका कारण यह है कि यदि उसे संसद में लोगों का प्रतिनिधित्व करना है तो उसके लिए भी आवश्यक है कि वह संसद की, इसके कार्यकरण की और इसकी समस्याओं की सही तस्वीर लोगों के सामने पेश करे। उसे अपने निर्वाचकों, उनकी समस्याओं और आवश्यकताओं का ज्ञान अवश्य होना चाहिए और उनके कल्याण के लिए सदस्य को अधिक से अधिक योगदान करना चाहिए। सदस्य उपलब्ध विभिन्न प्रक्रियागत उपायों का पूर्ण उपयोग करके और सदन में इस हेतु हर संभव अवसर का लाभ उठाकर और याचिका समिति तथा अन्य संसदीय समितियों के द्वारा ऐसा कर सकता है।
विधायी प्रस्तावों या वित्तीय विधेयकों पर, सरकार की नीतियों पर विचार करने और उन्हें स्वीकृति प्रदान करने के प्रस्ताव पर, राष्ट्रपति के अभिभाषण पर, धन्यवाद प्रस्ताव पर, बजट इत्यादि पर वाद-विवाद एवं चर्चा के दौरान सदस्य अपने विचार व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हैं और वे कह सकते हैं कि देश की बेहतरी किस में है और वर्तमान नीति में क्या रूपमेद करना अपेक्षित है। सरकार संसद की राय के प्रति संवेदनशील रहती है; अधिकांश मामलों में वह पहले से सब कुछ जानती है; कुछ मामलों में वह झुक जाती है और कुछ मामलों में वह महसूस करती है कि वह अपने वचनों, दायित्वों और राजनीतिक विचारधारा के अनुसार कोई परिवर्तन नहीं कर सकती। तथापि चर्चाओं के दौरान सदस्यों को प्रशासन के कार्य निष्पादन के लिए उसकी आलोचना करने और इस बारे में सुझाव देने की पूरी स्वतंत्रता है कि भविष्य में वह कैसे कार्य करे या किसी उपाय विशेष को किस प्रकार कार्यरूप दे। चर्चाएं महत्वपूर्ण होती हैं क्योंकि उनसे पता चलता है कि संसद का क्या दृष्टिकोण है। चर्चाओं से प्रशासनिक तंत्र पर लोगों के विचारों का प्रभाव पड़ता है और यदि ऐसा न हो तो प्रशासन लोगों की भावनाओं से अनभिज्ञ रहे। संसदीय वाद-विवाद प्रशासन को उसके कर्तव्यों एवं दायित्वों की याद दिलाते हैं। संसदीय वाद-विवाद विभिन्न प्रकार से प्रशासन की विचारधारा और कार्यों को प्रभावित करता है और ऐसा सूक्ष्म प्रभाव प्रशासन के उच्च एवं निम्न, सभी स्तरों पर रहता है जिसका स्पष्ट रूप से अनुमान नहीं लगाया जा सकता। यद्यपि प्रशासकों के लिए संसद द्वारा स्वीकृत नीतियों को यथासंभव बेहतर से बेहतर तरीके से कार्यान्वित करने की पूर्ण स्वतंत्रता रहती है, तथापि सदन में व्यक्त किए गए विभिन्न विचारों का उन पर गहरा प्रभाव रहता है और उनसे उनका मार्गदर्शन होता है। और इसी को संसद की मंत्रणादाता की भूमिका कहा जा सकता है।
संघर्षों का समाधान करना और राष्ट्रीय एकता सुनिश्चित करना :
व्यक्ति के जीवन में टकराव होना स्वाभाविक है, विचारों एवं हितों का टकराव और विभिन्न स्पर्धी शक्तियों द्वारा शक्ति के लिए संघर्ष । राष्ट्रीय राजनीति में टकरावों के समाधान के सशक्त माध्यम और प्रमुख मध्यस्थता शक्ति के रूप में संसद का उद्भव भारतीय राजनीतिक जीवन का अब एक सर्वमान्य तथ्य है। संसदीय लोकतंत्र को बेहतर एवं अधिक सभ्य शासन प्रणाली माना जाता है क्योंकि इसमें गली गली में लड़ाइयां युद्ध क्षेत्रों में लड़ाई का स्थान विधानमंडलों में वाद-विवाद तथा चर्चाएं ले लेती हैं। वाद-विवाद और चर्चाओं से समाज के भीतर के तनाव और असंतोष प्रकाश में आ जाते हैं। संसद, शक्ति संघर्ष के लिए, राजनीतिक गतिविधि को स्पष्ट करने के लिए या परस्पर विरोधी भूमिकाएं अदा करने के लिए वैध रूप से मैदान बन जाता है और संसदीय नियम तथा प्रक्रियाओं के कारण अंत में समझौता करना संभव हो जाता है। एक-दूसरे को मिटाने हेतु लड़ाई करने के बजाय, दल कम से कम असहमति के लिए और एक-दूसरे को सहन करने के लिए सहमत हो जाते हैं। कुछ सूक्ष्म समस्याओं का समाधान संसद में ही हो जाता है। स्पर्धी शक्तियां अपनी बात मनवाने के लिए प्रयास करती हैं और अंत में मेल मिलाप कर लेती हैं। टकराव के समाधान की यह भूमिका निभाते हुए संसदीय संस्था राष्ट्रीय एकता लाने वाली और मध्यस्थता करने वाली महान संस्था का काम करती है। हमारे अनेक मतमतांतरों वाले समाज के प्रसंग में, टकरावों का समाधान करने और एकता लाने वाली संसद की भूमिका विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।
औपचारिक संसदीय मंचों तथा संसदीय प्रक्रियाओं द्वारा अदा की जाने वाली भूमिका के अतिरिक्त, संसद भवन का सेंट्रल हाल अपने आपमें एक संस्था है। यह बहुत बड़े क्लब की तरह है और अपने विचारों तथा भावनाओं को व्यक्त करने की महत्वपूर्ण स्थान है। यहां देश के सभी भागों के संसद सदस्य, चाहे उनकी जाति, मत, क्षेत्र या धर्म कोई भी हो, औपचारिक रूप से मिलते हैं और सारे देश को प्रभावित करने वाली समस्याओं पर व्यक्तिगत रूप से या ग्रुपों में विचार करते हैं। इससे राष्ट्रीय एकता की इतनी अधिक भावना पैदा हो जाती है जो अन्यत्र पैदा नहीं हो सकती। जो सदस्य यां प्रवेश करने से पहले पृथकतावादी या क्षेत्रीय विचार रखते हों वे भी सेंट्रल हाल में आकर अपने को एक ही देश के नागरिक महसूस करने लगते हैं। विखंडनकारी प्रवृत्तियों का तीखापन छूट जाता है। जो बात किन्हीं राज्यों की राजधानियों में बिल्कुल ठीक प्रतीत होती है और बिल्कुल स्वीकार्य और यहां तक कि सराहनीय लगती है, वह बात सेंट्रल हाल में हंसी का विषय बन जाती है, वहां वातावरण ही ऐसा होता है जो बृहत राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य के पक्ष में सभी को बाध्य कर देता है।
विधि-निर्माण, विकास, सामाजिक परियोजना तथा वैधीकरण :
विधि-निर्माण विधानमंडल का परंपरागत कृत्य है। भारत के संविधान के अधीन राष्ट्रीय स्तर पर संसद सर्वोच्च विधायी निकाय है। संविधान की सातवीं अनुसूची में संघ तथा समवर्ती सूचियों में इसके लिए आवंटित अनेक विषयों पर यह विधान बना सकती है। अवशिष्ट शक्ति चूंकि संसद में निहित है अतः यह उन विषयों पर भी विधान बना सकती है जो विशिष्टतया राज्यों को न सौंपे गए हों। राज्यों को राज्य सूची में विशेष रूप से सौंपे गए विषयों के संबंध में भी, कुछ परिस्थितियों संसद विधान बना सकती है।
विधान का सबसे महत्वपूर्ण पहलू उसके महत्वपूर्ण सामाजिक परिणाम होते हैं। कानून शांति और विधि तथा व्यवस्था बनाए रखने, विदेशी खतरों और आंतरिक उपद्रवों से देश की रक्षा करने और मजबूत तथा कुशल प्रशासन व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए ही आवश्यक नहीं होते बल्कि आर्थिक तथा सामाजिक परिवर्तन द्वारा लोगों के कल्याण के लिए भी जरूरी हैं। समाज में विशेषकर हमारे जैसे परिवर्तनशील समाज में, सामाजिक परिवर्तन के लिए आधार एवं माध्यम की व्यवस्था केवल संसद ही कर सकती है। अतः सामाजिक विधान विधि-निर्माण का प्रमुख क्षेत्र है, ऐसा विधान जिसका उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन लाना तथा आर्थिक विकास करना हो। सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन को ठोस रूप देने के लिए वर्तमान संस्थाओं का पुनर्गठन करना होगा और विभिन्न सामाजिक शक्तियों और ग्रुपों के परस्पर विरोधी हितों के बीच एक नया संतुलन लाना होगा। ऐसा संसद द्वारा विधान बनाकर ही किया जा सकता है। वास्तव में संसद सामाजिक सुधार लाने में सबसे आगे रही है। संविधान के प्रारंभ में संसद द्वारा समाज सुधार के अनेक विधान बनाए गए हैं अर्थात ऐसे विधान जिनमें समाज के पिछड़े, पद-दलित या परंपरागत रूप से दुर्व्यवहार के शिकार वर्गों के लिए आरक्षण, सामाजिक सुरक्षा, निर्योग्यताओं के निवारण, न्यूनतम मजदूरी, वृद्धावस्था पेंशन, आवास आदि के रूप में गारंटी और लाभों के विशेष उपबंध दिए गए हैं।
विधि का निर्माण करने में संसद की भूमिका, अर्थात प्रस्तावित विधान का पुनरीक्षण, निरीक्षण और उस पर चर्चा करने और संभवतया अंतिम रूप में उसे प्रभावित करने का अवसर प्रदान करने की भूमिका यद्यपि बहुत महत्व रखती है तथापि तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। संसद विधियों का निर्माण नहीं करती। इस प्रयोजन के लिए न तो उसके पास समय है और न ही आवश्यक जानकारी। जैसाकि अन्य मामलों में होता है, विधान के मामले में भी पहल पूर्णतया कार्यपालिका और प्रशासनिक विभागों द्वारा की जाती है।
"विधायी प्रस्ताव सूत्रबद्ध करने का अर्थ है तकनीक स्तर पर तैयार करना और विभिन्न स्पर्धी दावों तथा आधारों में तालमेल बैठाना। यह कार्य, इसके स्वरूप को देखते हुए, विधानमंडल में नहीं किया जा सकता क्योंकि तकनीकी सामग्री तथा आंकड़े, लंबा प्रशासनिक अनुभव एवं विशेषज्ञता जैसे विधान के लिए महत्वपूर्ण संसाधन केवल कार्यपालिका को ही उपलब्ध होते हैं"।
कार्यपालिका द्वारा सूत्रबद्ध विधायी प्रस्तावों, अर्थात विधेयकों, नियमों तथा विनियमों आदि पर संसद केवल विचार करती है, छानबीन करती है और उन पर स्वीकृति की अपनी मुहर लगाकर उन्हें वैध बनाती है। अतः संसद की भूमिका विधि-निर्माण की भूमिका न होकर ज्यादा वैधीकरण की है।
एक ओर संसद बहुत-सा ऐसा कार्य करती है जो विधि-निर्माण का कार्य नहीं है, संसद के समय का केवल 1/5वां भाग विधान कार्य पर लगता है, तो दूसरी ओर विधि-निर्माण के कार्य में अकेले संसद ही भूमिका नहीं निभाती। संसद ऐसे बहुत से निकायों में से एक है जो उस भूमिका में भागीदार हैं। विधि के बारे में आधुनिक विचार यह नहीं है कि यह सामान्य रूप से लागू किए जाने वाला नियमों का समूह है इत्यादि । विधि एक प्रक्रिया है, एक लंबी और जटिल प्रक्रिया, जो प्रारंभिक सामाजिक प्रवृत्तियों से आरंभ होती है, फिर महसूस की जाने वाली पहली आवश्यकता और कार्यवाही ही मांग, फिर नीति निर्माताओं की धारणा और राजनीतिक शक्तियों और विभिन्न हितों वाले ग्रुपों की भूमिका, फिर विधेयक का प्रारूप तैयार करने वाले विधि एवं अन्य विभागों की भूमिका, फिर सत्ताधारी दल, संबद्ध मंत्रिमंडल, संसद के दोनों सदनों और उसकी समितियों और फिर राष्ट्रपति की भूमिका, और फिर नियम तथा विनियम बनाया जाना; फिर प्रशासन द्वारा वास्तविक क्रियान्वयन और विवाद की स्थिति में न्यायालयों द्वारा व्याख्या और न्यायिक पुनर्विलोकन। प्रत्येक अवस्था में वास्तव में विधि का निर्माण हो रहा है और उसमें रूपभेद हो रहा है। इस प्रकार यह नहीं कहा जा सकता कि विधि-निर्माण का कार्य व्यक्तियों का कोई एक निकाय या राज्य का कोई अंग करता है, राज्य के तीन अंग, कार्यपालिका, विधानमंडल और न्यायपालिका, मिलकर विधान-निर्माण की भूमिका निभाते हैं।
संविधायी भूमिका (संविधान में संशोधन करना) :
संविधान के अनुच्छेद 368 के अधीन, जिसमें संविधान में संशोधन संबंधी विशिष्ट उपबंध किया गया है, संघ की संविधायी शक्ति संसद को प्राप्त है। संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया के कुछ विशेष तत्व हैं जिनसे संसद की एक विधानमंडल के रूप साधारण भूमिका से उसकी संविधायी क्षमता का स्पष्ट भेद किया गया है। प्रथम, संविधान में संशोधन की शुरुआत 'केवल' संसद के किसी एक सदन में विधेयक पेश करके की जा सकती है, क्योंकि संविधान में संशोधन करने की पहल केवल संसद के लिए रक्षित है। दूसरे, अधिकांशतया संसद द्वारा संविधान के उपबंध में संशोधन विशेष बहुमत से किया जा सकता है, अर्थात प्रत्येक सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थिति और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा। केवल सीमित श्रेणी के संवैधानिक उपबंधों के मामले में ही (अर्थात सातवीं अनुसूची की सूचियों, संसद में राज्यों के प्रतिनिधित्व, अनुच्छेद 368 आदि से संबंधित उपबंध) संसद के प्रत्येक सदन द्वारा निर्धारित विशेष बहुमत से संशोधन विधेयक पास किए जाने के पश्चात कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों द्वारा उनके अनुसमर्थन की आवश्यकता होती है। तीसरे, संविधान संशोधन विधेयक को विधिवत रूप से पास/अनुसमर्थित किए जाने के पश्चात राष्ट्रपति के समक्ष पेश किए जाने पर उसे उस पर अपनी अनुमति प्रदान करनी पड़ती है और राष्ट्रपति के पास अनुमति रोकने या विधेयक पर पुनर्विचार के लिए उसे सदन को लौटाने का कोई विकल्प नहीं है, जैसाकि साधारण विधेयकों के मामले में होता है।" अंततः, यह महत्व की बात है कि संविधान का ऐसा कोई भी उपबंध नहीं है जिसमें संशोधन न किया जा सके क्योंकि संसद संविधान के किसी भी उपबंध का किसी भी प्रकार का संशोधन, परिवर्तन या निरसन कर सकती है और ऐसे संशोधन को किसी भी आधार र किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती, यदि उससे संविधान के मूल त्वों में परिवर्तन या उनका हनन नहीं होता।
1950 से 1972 तक की अवधि के दौरान, मूल अधिकारों में संशोधन कर सकने का प्रश्न तीन अलग अलग मामलों में उच्चतम न्यायालय के समक्ष अन्या, अर्थात शंकरी प्रसाद बनाम भारतीय संघ", सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य और गोलक नाय बनाम पंजाब राज्य में। गोलक नाव के मामले में उच्चतम न्यायालय का फैसला होने तक, विधि इस प्रकार थी:
(1) संविधान संशोधन अधिनियम साधारण विधि नहीं होता और उसे संसद द्वारा साधारण विधायी शक्तियों के बजाय अपनी संविधायी शक्तियों का प्रयोग करते हुए पास किया जाता है। संविधायी शक्ति 'संसद में ही निहित होने के कारण संविधान में संशोधन के प्रयोजनार्थ कोई पृथक संविधायी निकाय नहीं है।
(2) संशोधन करने की शक्ति पर कोई निबंध नहीं है, अर्थात संविधान का कोई ऐसा उपबंध नहीं है जिसमें संशोधन न किया जा सकता हो। अनुच्छेद 368 पूर्णतया सामान्य है और उसके द्वारा संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति प्राप्त है और ऐसी शक्ति बिना किसी अपवाद के है।
(3) संविधान (भाग 3) के अधीन जिन मूल अधिकारों की गारंटी दी गई हैं, वे संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति के अध्यधीन हैं।
गोलक नाथ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने 6:5 के बहुमत से अपने पहले के फैसलों को उलट दिया और यह फैसला सुनाया कि सम्मिलित मूल अधिकार अपरिवर्तनीय हैं, कि संविधान के अनुच्छेद 368 में केवत संशोधन करने की प्रक्रिया ही निर्धारित है और उसके द्वारा संविधान में संशोधन करने की कोई मूत शक्ति अथवा साधारण विधायी शक्ति से अलग कोई संविधायी शक्ति संसद को प्रदान नहीं की गई है, कि संविधान संशोधन अधिनियम भी अनुच्छेद 13 के अर्थों में एक विधि है और इस प्रकार संसद अनुच्छेद 368 के अधीन पास किए गए किसी संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा भी मूल अधिकार समाप्त नहीं कर सकती या इनमें कोई कमी नहीं कर सकती।
1973 में, केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने गोलक नाथ के मामले में अपने फैसले का पुनर्विलोकन किया। 13 न्यायाधीशों में से 10 ने यह फैसला दिया कि स्वयं अनुच्छेद 368 में ही संविधान में संशोधन करने की शक्ति अंतर्निष्ट है और अनुच्छेद 13 (2) में 'विधि' का अभिप्राय अनुच्छेद 368 के अधीन सवैधानिक संशोधन से नहीं है। तदनुसार गोलक नाथ के मामले में घोषित विधि रद्द कर दी गई। इस प्रश्न पर कि क्या अनुच्देद 368 के अधीन संशोधन शक्ति पूर्ण है और असीम है, सात न्यायाधीशों ने, जिनका बहुमत था, यह निर्णय दिया कि अनुच्छेद 368 के अधीन संशोधन शक्ति एक अंतर्निहित सीमा के अध्यधीन है; ऐसी सीमा जो इसके ‘संविधान में संशोधन' करने की शक्ति होने के कारण आवश्यक अंतर्निहित अर्थों द्वारा उत्पन्न हुई। 7:6 के बहुमत से न्यायालय ने निर्णय दिया कि “अनुच्छेद 368 से संसद को संविधान के 'मूल ढांचे' को बदलने की शक्ति प्राप्त नहीं होती" परंतु मूल ढांचा क्या है इसकी स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई और यह एक खुला प्रश्न रहा।
केशवानंद के मामले में इस फैसले के बाद संसद की संशोधन की शक्तियों के 'मूल तत्व' की सीमा का प्रभाव कम करने के लिए संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा अनुच्छेद 368 में खंड (4) तथा (5) सम्मिलित कर दिए गए। उपरोक्त खंडों में कहा गया है कि (क) अनुच्छेद 368 (1) के अधीन संविधान की संशोधन शक्ति, जो एक 'संविधायी शक्ति' है, की स्पष्ट अथवा अंतनिर्हित कोई सीमाएं नहीं हैं और कि (ख) इसलिए किसी भी संविधान संशोधन अधिनियम का किसी भी आधार पर न्यायिक पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता। परंतु उच्चतम न्यायालय द्वारा खंड (4) तथा (5) को शून्य करार देकर मिनर्वा मिल्स बनाम भारतीय संघ के मामले में मूल ढांचे के सिद्धांत के लागू होने की बात की फिर पुष्टि की गई और उसका आधार यह था कि इस संशोधन द्वारा न्यायिक पुनर्विलोकन को पूर्णतया समाप्त किया जा रहा था, जो संविधान का 'मूल तत्व' है।
मूल तत्व के सिद्धांत की वर्तमान स्थिति यह है कि जब तक केशवानंद के मामले के फैसले को उच्चतम न्यायालय की एक अन्य पूर्ण पीठ द्वारा रद्द नहीं कर दिया जाता तब तक संविधान के किसी भी संशोधन में न्यायालय इस आधार पर हस्तक्षेप कर सकता है कि उससे संविधान के एक या दूसरे मूल तत्व पर प्रभाव पड़ता है।
केशवानंद के मामले में न्यायाधीश सीकरी ने संविधान के मूल तत्वों को इस प्रकार सारणीबद्ध करने का प्रयास किया था :
(1) संविधान की सर्वोच्चता;
(2) गणतंत्रात्मक और लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली;
(3) संविधान का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप;
(4) शक्तियों का पृथक्करण; और
(5) संविधान का संघीय स्वरूप
उसी मामले में, न्यायाधीश हेगड़ें और न्यायाधीश मुखर्जी ने भारत की प्रभुसत्ता एवं एकता, हमारी राजनीतिक व्यवस्था के लोकतंत्रात्मक स्वरूप और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को संविधान के मूल ढांचे के तत्वों में जोड़ दिया। उनका विश्वास था कि कल्याणकारी राज्य और समतावादी समाज का निर्माण करने के लिए जनादेश को समाप्त करने की शक्ति संसद को प्राप्त नहीं है। न्यायाधीश खन्ना ने भी कहा कि संसद हमारी लोकतंत्रात्मक सरकार को तानाशाही सरकार में या वंशागत राजतंत्र में नहीं बदल सकती, न ही लोक सभा और राज्य सभा का उत्सादन करने की अनुमति है। इसी प्रकार राज्य का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप समाप्त नहीं किया जा सकता
इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण के मामले में न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने निम्न तत्त्वों को संविधान के मूल ढांचे का मूल तत्व पाया :
(1) प्रभुसत्ता संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य के रूप में भारत,
(2) दर्जे और अवसर की समानता;
(3) धर्मनिरपेक्षता और अंतःकरण की स्वतंत्रता; और
(4) विधि द्वारा शासन
उसी न्यायाधीश ने मिनर्वा मिल्स के मामले में "संसद की संशोधी शक्तियों", "न्यायिक पुनर्विलोकन” और “मूल अधिकारों तथा निदेशक सिद्धांतों के बीच संतुलन” को संविधान के मूल तत्वों की सूची में जोड़ दिया।"
कुछ मामलों में न्यायोधीशों में मतभेद है कि कोई तत्व विशेष मूल तत्व है या नहीं। उदाहरणार्थ, मुख्य न्यायाधीश राय ने निर्बाध एवं निष्पक्ष निर्वाचन के सिद्धांत को मूल ढांचे का तत्व नहीं माना, जबकि न्यायाधीश खन्ना ने उस मामले में इस सिद्धांत को संविधान का मूल तत्व माना। न्यायाधीश चंद्रचूड़ इस विचार पर सहमत नहीं हुए कि संविधान की उद्देशिका मूल ढांचे की कुंजी है। दूसरी ओर, न्यायाधीश बेग ने कहा कि न्यायालय सवैधानिक वैधता का परीक्षण मुख्यतया संविधान की उद्देशिका से कर सकता है। उनका विश्वास था कि उद्देशिका एक ऐसा मापदंड है जिसे सवैधानिक संशोधनों पर भी लागू किया जा सकता है।"
मध्य प्रदेश, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश के भारतीय जनता पार्टी की तीन सरकारों की बर्खास्तगी के संबंध में एस. आर. बोम्मई के मामले में न्यायमूर्ति जीवन रेड्डी तथा न्यायमूर्ति रामास्वामी ने दोहराया कि अन्य बातों के साथ साथ संघवाद संविधान का मूल तत्व है। न्यायमूर्ति रामास्वामी ने कहा :
“संविधान की उद्देशिका संविधान का एक अभिन्न अंग है। लोकतांत्रिक स्वरूप की सरकार, संघीय ढांचा, राष्ट्र की एकता तथा अखंडता, धर्म निरपेक्षता, समाजवाद, सामाजिक न्याय और न्यायिक पुनर्विलोकन संविधान के मूल तत्व हैं।"
यह स्पष्ट है कि अब तक इस बारे में न्यायाधीशों में मतैक्य नहीं रहा है और बहुमत का कोई ऐसा निर्णय उपलब्ध नहीं है जिसमें निर्धारित किया गया हो कि संविधान के कौन कौन से तत्वों को 'मूल तत्व' माना जाए। न्यायालय द्वारा ऐसा कुछ नहीं किया गया है कि मूल तत्वों की सूची में और तत्व नहीं जोड़े जाएं, जैसाकि विभिन्न मामलों में विभिन्न न्यायाधीशों ने कहा भी है। इंदिरा गांधी के मामले में न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा है कि “मूल ढांचे के सिद्धांत पर प्रत्येक मामले के प्रसंग में विचार किया जाना चाहिए; इस पर विचार अमूर्त रूप से नहीं बल्कि ठोस समस्या के प्रसंग में किया जाना चाहिए"।
1950 में संविधान के प्रारंभ के पश्चात संविधान में 86 संशोधन किए जा चुके हैं। और ये कुछ संसद की संविधायी शक्तियों का प्रयोग करते हुए और प्रायः न्यायालयों के फैसलों और उनकी सवैधानिक उपबंधों की व्याख्याओं के परिणामस्वरूप पैदा हुई अप्रत्याशित कठिनाइयों और स्थितियों का सामना करने के लिए किया गया है। कभी कभी संविधान के विशेष उपबंधों के पीछे संविधान के निर्माताओं के आशय को स्पष्ट करने के लिए और संविधान के पाठ को स्वीकृति राष्ट्रीय लक्ष्यों एवं उद्देश्यों के निकट लाने के लिए उसमें संशोधन करना आवश्यक हो जाता है।
नेतृत्व (भर्ती एवं प्रशिक्षण) :
संसद का अंतिम और महत्वपूर्ण कृत्य है कि वह प्रतिभा के राष्ट्रीय रक्षित भंडार के रूप में कार्य करती है जहां से कि राजनीतिक नेता उभरते हैं। संसद एक ऐसा मंच है जहां मंत्रीगण कार्य क्षेत्र में प्रवेश करते हैं और प्रशिक्षण पाते हैं। दोनों सदनों में और उनकी समितियों में सदस्यों के कार्य निष्पादन को देखकर प्रधानमंत्री को अधिकतम योग्यता रखने वालों का चयन करने में सहायता मिलती है। विभिन्न संसदीय समितियों में काम करते हुए सदस्यगण विशिष्ट क्षेत्रों में काफी जानकारी और विशेषज्ञता प्राप्त कर लेते हैं और वे आमतौर पर योग्य मंत्री सिद्ध होते हैं। ।
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