प्रतिनिधिक संसदीय लोकतंत्र
हमने प्रतिनिधिक ससंदीय लोकतंत्र की प्रणाली अपनाई है। तीन शब्द, अर्थात प्रतिनिधिक, संसदीय एवं लोकतंत्र हमारी राजनीतिक व्यवस्था के मूल तत्व हैं।
लोकतंत्र का निहित अर्थ है आत्मनिर्णय का लोगों का अधिकार और मानव की तर्कसंगतता में आस्था। सच्चे लोकतंत्र की मूल बात यह है कि प्रत्येक व्यक्ति, चाहे उसकी जाति, धर्म, रंग अथवा लिंग कोई भी हो और शिक्षा का स्तर, आर्थिक अथवा व्यावसायिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो, स्वशासन के और, जैसे वह उचित समझे वैसे, अपने कार्यों को करने के योग्य है। लोकतंत्र में लोग अपने स्वामी स्वयं होते हैं।
भारत के संविधान में, इसकी उद्देशिका के महान शब्दों में कहा गया है कि “हम, भारत के लोग, दृढ़ संकल्प होकर इस संविधान को अंगीकृत करते हैं", जिससे निस्संदेह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में प्रभुसत्ता केवल जनता में निहित है किंतु लोगों के हाथों में प्रभुसत्ता वैसे ही है जैसे भीषण पहाड़ी नदी के जल की शक्ति। उसे उपयोगी बनाने के लिए संयत करना होता है। लोगों को किसी संस्था की आवश्यकता होती है, एक माध्यम की आवश्यकता होती है जिसके द्वारा वे अपनी प्रभुसत्ता की अभिव्यक्ति कर सकें और उसका प्रयोग कर सकें। हमारे संविधान की योजना और सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की इसकी व्यवस्था के अंतर्गत लोग संघीय संसद के लिए प्रतिनिधि चुनने हेतु मतदान करते समय अपनी प्रभुसत्ता का प्रयोग करते हैं। संसद लोगों की सर्वोत्कृष्ट संस्था बन जाती है जिसके माध्यम से लोगों की प्रभुसत्ता को अभिव्यक्ति मिलती है।
प्रारंभ में, प्राचीन यूनानी 'सिटी स्टेट्स' अथवा नगर राज्यों में और भारत में वैदिक काल में लोग शासन संबंधी मामलों का फैसला करने के लिए स्वयं समवेत हुआ करते थे। इस प्रकार लोग राज्य के मामलों का फैसला करने के लिए प्रत्यक्ष रूप से अपनी शक्ति का प्रयोग करते थे और इस प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था को प्रत्यक्ष लोकतंत्र कहा जा सकता है। परंतु धीरे धीरे राजनीतिक ईकाइयों के आकार एवं जनसंख्या में वृद्धि होने से और अंततोगत्वा आधुनिक राष्ट्र-राज्यों के बनने से, राज्य के मामलों पर विचार करने और सुचारु रूप से निर्णय पर पहुंचने के लिए लोगों के लिए एक स्थान पर समवेत होने का प्रबंध करना असंभव हो गया। इसीलिए सभी प्रकार का प्रत्यक्ष लोकतंत्र शीघ्र ही संसार भर में समाप्त हो गया, सिवाय स्विट्जरलैंड के कुछ ‘कैंटनों' के जहां अब भी विभिन्न मामलों पर लोगों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से मतदान के द्वारा फैसले हो सकते हैं। आधुनिक लोकतंत्र के लिए आवश्यक हो गया है कि वह ऐसा प्रतिनिधिक लोकतंत्र हो जहां लोग अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से अपनी प्रभुसत्ता का प्रयोग करें।
'संसदीय' शब्द का अर्थ विशेष रूप से एक प्रकार की लोकतंत्रात्मक राजनीतिक व्यवस्था है जहां सर्वोच्च शक्ति लोगों के प्रतिनिधियों के निकाय में निहित है जिसे 'संसद' कहते हैं। संसदीय प्रणाली ऐसी प्रणाली है जिसमें राज्य के शासन में संसद का प्रमुख स्थान है। भारत के संविधान के अधीन संघीय विधानमंडल को 'संसद' कहा जाता है। यह वह धुरी है, जो देश की राजनीतिक व्यवस्था की नींव है।
संसद का गठन
भारतीय संसद राष्ट्रपति और दो सदनों-राज्य सभा (कौंसिल आफ स्टेट्स) और लोक सभा (हाउस आफ द पीपुल)-रो मिलकर बनती है।
राष्ट्रपति :
गणराज्य के राष्ट्रपति का निर्वाचन प्रत्यक्ष रूप से ऐसे निर्वाचन मंडल द्वारा किया जाता है जिसमें संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य और राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य होते हैं ! यद्यपि भारत का राष्ट्रपति संसद का अंग होता है तथापि वह दोनों में से किसी भी सदन में न तो बैठता है न ही उसकी चर्चाओं में भाग लेता है। संसद में संबंधित कुछ ऐसे सवैधानिक कृत्य हैं जिनका उसे निर्वहन करना होता है। राष्ट्रपति समय समय पर संसद के दोनों सदनों को बैठक के लिए आमंत्रित करता । वह संसद के दोनों सदनों का सत्रावसान कर सकता है और लोक सभा को भंग कर सकता है। दोनों सदनों द्वारा पास किया गया कोई विधेयक तभी कानून बन सकता है जब राष्ट्रपति उस पर अपनी अनुमति है प्रदान कर दे। इतना ही नहीं, जब संसद के दोनों सदनों का अधिवेशन न चल रहा हो और राष्ट्रपति का समाधान हो जाए कि ऐसी परिस्थितियां विद्यमान हैं जिनके कारण उसके लिए आवश्यक है कि वह तुरंत कार्यवाही करे तो वह अध्यादेश प्रख्यापित कर सकता है जिसकी शक्ति एवं प्रभाव वही होता है जो ससंद द्वारा पास की गई विधि का होता है।
लोक सभा के लिए प्रत्येक आम चुनाव के पश्चात प्रथम अधिवेशन के प्रारंभ में और प्रत्येक वर्ष के प्रथम अधिवेशन के प्रारंभ में राष्ट्रपति एक साथ समवेत संसद के दोनों सदनों के समक्ष अभिभाषण करता है और सदनों की बैठक के लिए आमंत्रित करने के लिए कारणों की ससंद को सूचना देता है। इसके अतिरिक्त, वह संसद के किसी एक सदन के समक्ष अथवा एक साथ समवेत दोनों सदनों के समक्ष अभिभाषण कर सकता है और इस प्रयोजन के लिए सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा कर सकता है। उसे संसद में उस समय लंबित किसी विधेयक के संबंध में संदेश या कोई अन्य संदेश किसी भी सदन को भेजने का अधिकार है। जिस सदन को कोई संदेश इस प्रकार भेजा गया हो वह सदन उस संदेश द्वारा जिस विषय पर विचार करना अपेक्षित हो, उस पर सुविधानुसार शीघ्रता से विचार करता है । कुछ प्रकार के विधेयक राष्ट्रपति की सिफारिश प्राप्त करने के पश्चात ही पेश किए जा सकते हैं अथवा उन पर आगे कोई कार्यवाही की जा सकती है।
संविधान के अनुसार ससंद संबंधी कुछ अन्य कृत्य भी हैं जिनका निर्वहन राष्ट्रपति से अपेक्षित है। जब कभी आवश्यक हो, तो वह लोक सभा का अस्थायी (प्रो-टेम) अध्यक्ष और राज्य सभा का कार्यकारी सभापति नियुक्त करता है। किसी विधेयक पर दोनों सदनों के बीच असहमति होने की स्थिति में उनकी संयुक्त बैठक बुलाता है। राष्ट्रपति प्रत्येक वर्ष सरकार का बजट, जिसे संविधान में 'वार्षिक वित्तीय विवरण' कहा गया है, और भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक, वित्त आयोग, संघ लोक सेवा आयोग, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष अधिकारी तथा पिछड़े वर्ग आयोग जैसे सवैधानिक प्राधिकरणों के कुछ अन्य प्रतिवेदन संसद के समक्ष रखवाता है। यदि उसकी राय हो कि आंग्ल-भारतीय समुदाय का लोक सभा में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह सदन के लिए दो से अनधिक सदस्य मनोनीत कर सकता है। राष्ट्रपति साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा जैसे मामलों के विषय में विशेष ज्ञान अथवा व्यावहारिक अनुभव रखने वाले व्यक्तियों में से 12 सदस्य राज्य सभा के लिए मनोनीत करता है। इसके अतिरिक्त, उसे निर्वाचन आयोग की राय प्राप्त करने के पश्चात फैसला करने की शक्ति प्राप्त है कि क्या विधिवत निर्वाचित कोई सदस्य संविधान के अनुच्छेद 108 में निर्धारित अनर्हताओं से ग्रस्त होता है अथवा नहीं। इस विषय में उसका फैसला अंतिम होता है
राज्य सभा :
राज्य सभा, जैसाकि इसके नाम से पता चलता है, राज्यों की परिषद अथवा कौंसिल आफ स्टेट्स है। यह अप्रत्यक्ष रीति से लोगों का प्रतिनिधित्व करती है क्योंकि राज्य सभा के सदस्य राज्य विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा आनुपातिक पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा चुने जाते हैं। संघ के विभिन्न राज्यों को राज्य सभा में समान प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है। भारत में प्रत्येक राज्य के प्रतिनिधियों की संख्या ज्यादातर उसकी जनसंख्या पर निर्भर करती । इस प्रकार, उत्तर प्रदेश के जबकि राज्य सभा में 31 सदस्य हैं, मणिपुर, मिजोरम, सिक्किम, त्रिपुरा आदि जैसे अपेक्षतया छोटे राज्यों का केवल एक एक सदस्य है। अंडमान तथा निकोबार द्वीप समूह, चडीगढ़, दादर तथा नागर हवेली, दमन तथा दीव में उनका प्रतिनिधित्व नहीं हो सकता। संविधान के अधीन राज्य सभा के 250 से और लक्षद्वीप जैसे कुछ संघ-राज्य क्षेत्रों की जनसंख्या इतनी कम है कि राज्य सभा अनधिक सदस्य हो सकते हैं। इनमें राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत 12 सदस्य तथा 298 राज्यों और संघ-राज्य क्षेत्रों द्वारा चुने सदस्य होते हैं। इस समय राज्य समा के 245 सदस्य हैं। (देखिए परिशिष्ट 1 और रेखाचित्र 4)
लोक सभा की निर्धारित कार्यावधि 5 वर्ष की है, पर वह राष्ट्रपति द्वारा किसी भी समय भंग की जा सकती है, इसके विपरीत राज्य सभा एक स्थायी निकाय है और उसे भंग नहीं किया जा सकता। राज्य सभा के प्रत्येक सदस्य की कार्यावधि छह वर्षों की है, उसके सदस्यों में से यथासंभव एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक द्वितीय वर्ष की समाप्ति पर निवृत्त हो जाते हैं। सदस्यों की पदावधि उस तिथि से आरंभ हो जाती है जब भारत सरकार सरकार द्वारा सदस्यों के नाम राजपत्र में अधिसूचित किए जाते हैं। उपराष्ट्रपति, जो संसद के दोनों सदनों के सदस्यों द्वारा निर्वाचित किया जाता है, राज्य सभा का पदेन सभापति होता है, जबकि उपसभापति पद के लिए राज्य सभा के सदस्यों द्वारा अपने में से किसी सदस्य को निर्वाचित किया जाता है।
लोक सभा :
दूसरा सदन, लोक सभा, हाउस आफ द पीपुल है। इसे जनता द्वारा प्रत्यक्ष रीति से चुना जाता है। भारत का नागरिक, जो 18 वर्ष से अन्यून आयु का हो, लोक सभा के लिए निर्वाचनों में मतदान करने का हकदार होगा, यदि उसे कानून के अधीन अन्यथा अनर्ह न कर दिया जाए। संविधान में उपबंध है कि लोक सभा के 530 से अनधिक सदस्य राज्यों में प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों से प्रत्यक्ष रीति से चुने जाएंगे और 20 से अनधिक सदस्य संघ राज्य क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करेंगे, जिनका निर्वाचन ऐसी रीति से होगा जिसे संसद विधि द्वारा उपबंधित करे। इसके अतिरिक्त, राष्ट्रपति, आंग्ल-भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए दो से अनधिक सदस्य मनोनीत कर सकता है। इस प्रकार सदन की अधिकतम सदस्य संख्या 552 हो, ऐसी संविधान में परिकल्पना की गई है। निर्वाचित किए जाने वाले । सदस्यों की कुल संख्या को राज्यों के बीच ऐसी रीति से वितरित किया जाता है जिससे कि प्रत्येक राज्य के लिए आवंटित स्थानों की संख्या और राज्य की जनसंख्या के बीच यथासंभव ऐसा अनुपात रहे जो सब राज्यों के लिए समान हो। इस प्रयोजन के लिए जनसंख्या का आशय है वह जनसंख्या जो 1971 की जनगणना द्वारा सुनिश्चित की गई है। सन् 2026 तक लोक सभा में स्थानों की संख्या में कोई परिवर्तन नहीं होगा। [अनुच्छेद 81 (3)] लोक सभा में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए जनसंख्या-अनुपात के आधार पर स्थान आरक्षित हैं। आरंभ में यह आरक्षण दस वर्ष के लिए था किंतु हर बार इसे दस वर्ष के लिए बढ़ा दिया जाता था। नवीनतम संशोधन के अंतर्गत अब यह साठ वर्ष के लिए अर्थात सन् 2010 तक के लिए है। (देखिए परिशिष्ट 2 तथा रेखाचित्र 5)
लोक सभा की कार्यावधि निर्धारित है जैसाकि संयुक्त राज्य अमेरिका में लोगों द्वारा निर्वाचित हाउस आफ रिप्रेजेंटिब्ज की और यूनाइटेड किंगडम में हाउस आफ कामस की है। प्रतिनिधिक लोकतंत्र का उद्देश्य यह है कि सरकार वैध रूप से सत्तारूढ़ रहने के लिए समय समय पर जनादेश प्राप्त करती रहे। भारत में सदन की कार्यावधि उसकी प्रथम बैठक के लिए नियत तिथि से पांच वर्षों की है। पांच वर्षों की अवधि समाप्त हो जाने पर सदन स्वतः भंग हो जाता है। कुछ परिस्थितियों में सदन की पूर्ण कार्यावधि समाप्त होने से पूर्व ही इसे भंग किया जा सकता है। जब आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में हो तब संसद लोक सभा की कार्यावधि ऐसी अवधि के लिए बढ़ा सकती है जो एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं हो और उद्घोषणा के प्रवृत्त न रहने के पश्चात किसी भी दशा में उसकी कार्यावधि छह माह से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती।
वस्तुतया हुआ यह है कि प्रथम लोक सभा से लेकर बारहवीं लोक सभा तक किसी भी सदन ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया है। प्रत्येक सदन का कुछ समय पूर्व ही विघटन होता रहा है। आपातकाल में जब लोक सभा का कार्यकाल बढ़ा दिया गया था तब वह बढ़ा हुआ कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी।
दोनों सदनों की सापेक्ष भूमिका
संसद के दोनों सदनों को, सिवाय वित्तीय और मंत्रिमंडल के उत्तरदायित्व के मामलों के जो पूर्णतया लोक सभा के अधिकार क्षेत्र में हैं, सभी क्षेत्रों में समान शक्तियां एवं दर्जा प्राप्त है। राज्य सभा की शक्तियां निम्न प्रकार सीमित हैं
(1) कोई धन विधेयक राज्य सभा में पेश नहीं किया जा सकता।
(2) राज्य सभा किसी धन विधेयक को अस्वीकृत करने अथवा उसमें संशोधन करने की सिफारिश ही कर सकती है। यदि ऐसा विधेयक चौदह दिनों की अवधि के भीतर लोक सभा को लौटाया नहीं जाता तो उसे उक्त अवधि के समाप्त हो जाने पर लोक सभा द्वारा पास किए गए रूप : में दोनों सदनों द्वारा पास किया गया माना जाता है।
(3) कोई विधेयक धन विधेयक है अथवा नहीं, इसका फैसला लोक सभा के अध्यक्ष द्वारा किया जाता है।
(4) राज्य सभा वार्षिक वित्तीय विवरण पर विचार कर सकती है। इसे अनुदानों की मांगों को अस्वीकृत करने की शक्ति प्राप्त नहीं है।
(5) राज्य सभा को मंत्रिपरिषद में अविश्वास का प्रस्ताव पास करने की शक्ति प्राप्त नहीं है। परंतु इसका यह अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए कि लोक सभा की तुलना में राज्य सभा कम महत्व रखती है अथवा इसे द्वितीय स्थान दिया जाता है। धन विधेयकों को छोड़कर अन्य सब प्रकार के विधेयकों के मामले में राज्य सभा की शक्तियां लोक सभा के बराबर हैं। कोई भी गैर-वित्तीय विधेयक अधिनियम बनने से पूर्व दोनों में से प्रत्येक सदन द्वारा पास किया जाना आवश्यक है। राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने, उपराष्ट्रपति को हटाने, संविधान में संशोधन करने और उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को हटाने जैसे महत्वपूर्ण मामलों में राज्य सभा को लोक सभा के समान शक्तियां प्राप्त हैं। राष्ट्रपति के अध्यादेशों, आपात की उद्घोषणा और किसी राज्य में संवैधानिक व्यवस्था के विफल हो जाने की उद्घोषणा को संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखना अनिवार्य है। किसी धन विधेयक और संविधान संशोधन विधेयक को छोड़कर अन्य किसी भी विधेयक पर दोनों सदनों के बीच असहमति को दोनों सदनों द्वारा संयुक्त बैठक में दूर किया जाता है जिसमें मामले बहुमत द्वारा तय किए जाते हैं। दोनों सदनों की ऐसी संयुक्त बैठक का पीठासीन अधिकारी लोक सभा का अध्यक्ष होता है इसके अतिरिक्त संविधान के अधीन राज्य सभा को कुछ विशेष शक्तियां सौंपी गई है। यह घोषणा करने की शक्ति केवल राज्य सभा को प्राप्त है कि ससंद के लिए राज्य सूची में वर्णित किसी विषय के संबंध में विधान बनाना राष्ट्रीय हित में होगा। यदि राज्य सभा इस आशय का संकल्प दो-तिहाई बहुमत से पास कर देती है तो संघीय संसद राज्य सूची' में वर्णित किसी विषय के संबंध में भी संपूर्ण देश के लिए अथवा देश के किती भाग के लिए विधान बना सकती है। इसके अतिरिक्त यदि राज्य सभा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्यों द्वारा समर्थित संकल्प द्वारा घोषणा करती है कि राष्ट्रीय हित में ऐसा करना आवश्यक या समीचीन है तो संविधान के अधीन संसद को, विधि द्वारा संघ और राज्यों के लिए सम्मिलित एक या अधिक अखिल भारतीय सेवाओं के सृजन के लिए उपबंध करने की शक्ति प्राप्त है। ।
संसद तथा कार्यपालिका
'कार्यपालिका' शब्द का प्रयोग ढीले ढंग से किया जाता है और इसके अनेक भिन्न भिन्न अर्थ निकलते हैं। भारतीय संविधान के अधीन कार्यपालिका का प्रमुख राष्ट्रपति है। सभी कार्यकारी शक्तियां राष्ट्रपति में निहित हैं और वह इनका प्रयोग स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करता है। अतः कार्यपालिका के सभी कार्य राष्ट्रपति के नाम से किए जाते हैं। परंतु उसके लिए यह अपेक्षित है कि वह मंत्रिपरिषद की सहायता और परामर्श से ही कार्य करे। इस प्रकार, राष्ट्रपति केवल औपचारिक, संवैधानिक या नाममात्र प्रमुख होता है। वास्तविक या राजनीतिक कार्यपालिका मंत्रिपरिषद है। भारत सरकार मंत्रियों से बनती है और सरकार का प्रमुख प्रधानमंत्री है। इसके अतिरिक्त, स्थायी प्रशासन है जिसमें सिविल सेवाएं हैं, भारी संख्या में प्रशासकों का कर्मचारी वर्ग है, तकनीकी विशेषज्ञ हैं और अन्य प्रशासनिक अमला है जो वास्तव में नीतियों के निर्माण एवं कार्यान्वयन में मंत्रियों की सहायता करता है। अतः विचार के स्पष्टीकरण के लिए 'कार्यपालिका' शब्द का प्रयोग राजनीतिक कार्यपालिका को अर्थात मंत्रिपरिषद को निर्दिष्ट करने हेतु किया जा सकता है, जबकि 'प्रशासन' या 'प्रशासनिक' का अर्थ स्थायी सेवाएं या प्रशासनिक व्यवस्था है।
नई लोक सभा के विधिवत निर्वाचन और गठन के पश्चात राष्ट्रपति ऐसे दल या दलों के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करता है जिसे लोक सभा में आधे से अधिक सदस्यों का समर्थन प्राप्त हो। इस प्रकार, प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। अन्य मंत्री राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की मंत्रणा से नियुक्त किए जाते हैं। यहां बता दिया जाना संगत होगा कि राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री नियुक्त करने में निजी इच्छा का प्रयोग करने का प्रायः कोई अवसर नहीं मिलता। परंतु यदि ऐसी स्थिति पैदा हो जाए कि किसी भी दल को लोक सभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो तो राष्ट्रपति किसी ऐसे नेता का चयन करने में स्वविवेक का प्रयोग कर सकता है जिसे उसकी राय में, सदन में बहुमत का समर्थन प्राप्त होने की संभावना हो।
प्रधानमंत्री आमतौर पर लोक सभा का सदस्य होता है परंतु मंत्री संसद के दोनों सदनों के लिए जाते हैं। किसी ऐसे व्यक्ति को भी मंत्री नियुक्त किया जा सकता है जो संसद के किसी भी सदन का सदस्य न हो; परंतु उसे छह मास के पश्चात पद छोड़ना पड़ता है, यदि इस बीच, वह दोनों में से किसी सदन के लिए निर्वाचित न हो जाए। मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोक सभा के प्रति उत्तरदायी है अतः उसके लिए यह जरूरी है कि लोक सभा का विश्वास खोते ही पद-त्याग कर दे। साथ ही, प्रत्येक मंत्री राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है और उसके (दे द्वारा उसे बर्खास्त किया जा सकता है। परंतु राष्ट्रपति चूंकि प्रधानमंत्री की मंत्रणा से ही ऐसा करता है अतः यह शक्ति वास्तव में प्रधानमंत्री को प्राप्त है।
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में कार्यपालिका एवं विधानमंडल का वास्तविक सम्मिश्रण है। कार्यपालिका तथा विधानमंडल के आपस में घनिष्ठ संबंध रहते हैं और उनमें किसी प्रकार के विरोध अथवा विभाजन की गुंजाइश नहीं है। दोनों की शक्ति के लिए स्पर्धा करने वाले दो भिन्न केंद्रों के रूप में कल्पना नहीं की जाती बल्कि सरकार के कार्यों में अलग न हो सकने वाले भागीदारों या सह-भागीदारों के रूप में ही उन्हें देखा जाना चाहिए। संसद एक बृहत निकाय है। संसद स्वयं शासन नहीं कस्ती और न ही कर सकती है। मंत्रिपरिषद के बारे में एक तरह से कहा जा सकता है कि यह संसद की महान कार्यपालिका समिति होती है जिसे मूल निकाय की ओर से शासन करने का उत्तरदायित्व सौंपा जाता है। दूसरे शब्दों में, कार्यपालिका कोई पृथक या बाह्य निकाय नहीं है। वह संसद का अंग है। क्योंकि मंत्रिपरिषद का मूल संसद है और वह संसद का भाग बनी रहती है और लोक सभा के प्रति उत्तरदायी रहती है। उनका संबंध ऐसा है जैसे बूंद का सागर से होता है, उनका संबंध परस्पर निर्भरता का है। परंतु कार्यपालिका के कृत्यों और संसद के कृत्यों में स्पष्ट अंतर है। संसद का कार्य विधान बनाना, मंत्रणा देना, आलोचना करना और लोगों की शिकायतों को व्यक्त करना है। कार्यपालिका का कृत्य शासन करना है, यद्यपि वह संसद की ओर से ही शासन करती है।
भारतीय संसद के प्रथम सचिव के शब्दों में :
"संसद को सरकार के उत्तरदायित्वों में किसी भी समय हिस्सा नहीं लेना चाहिए क्योंकि यदि संसद एक बार ऐसा करना आरंभ कर देती है तो संसद के तथा कार्यपालिका के उत्तरदायित्व अस्पष्ट हो जाते हैं, संसद कमजोर होने लगती है और आलोचना करने की अपनी पूर्ण शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकती।
यदि कार्यपालिका को विधाय और वित्तीय प्रस्ताव तैयार करने और उन्हें संसद के समक्ष रखने तथा स्वीकृत नीतियों को, संसद द्वारा किसी भी प्रकार की अड़चन पैदा किए बिना, कार्यरूप देने का लगभग असीमित अधिकार प्राप्त है तो संसद को सूचना प्राप्त करने, चर्चा करने, छानबीन करने और कार्यपालिका द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावों पर जन-प्रतिनिधियों की स्वीकृति की मुहर लगाने की असीम शक्तियां प्राप्त हैं। कार्यपालिका तथा प्रशासन संसद के प्रति उत्तरदायी रहते हैं। संसद का कृत्य कार्यपालिका पर राजनीतिक एवं वित्तीय नियंत्रण रखना और प्रशासन पर संसदीय निगरानी सुनिश्चित करना है।
संसद तथा न्यायपालिका
भारत में न्यायपालिका, विधानमंडल तथा कार्यपालिका के साथ एक समन्वयकारी प्राधिकरण है। भारत का उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय मिलकर एकीकृत न्यायपालिका बनती है। उच्चतम न्यायालय को न्यायिक व्यवस्था में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। वह देश का उच्चतम न्यायाधिकरण है।
संसद को न्यायालयों के गठन, संगठन, अधिकार क्षेत्र एवं शक्तियां विनियमित करने वाले विधान बनाने की शक्ति प्राप्त है। भारत का उच्चतम न्यायालय मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों से मिलकर बनता है। संविधान में यह निर्धारित था कि मुख्य न्यायाधीश के अलावा न्यायाधीशों की संख्या सात से अधिक नहीं होगी। परंतु संसद को शक्ति दी गई थी कि वह विधि द्वारा अधिक संख्या में न्यायाधीश निर्धारित करे। इस उपबंध के अधीन, संसद ने उच्चतम न्यायालय (न्यायाधीशों की संख्या) अधिनियम पास किया जिसके अनुसार अन्य न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाकर दस कर दी गई और बाद में इस अधिनियम के अनेक संशोधनों द्वारा 25 कर दी गई। इस प्रकार इस समय उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या मुख्य न्यायाधीश सहित, 26 है।
प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय है जो मुख्य न्यायाधीश तथा ऐसे अन्य न्यायाधीशों से बनता है जो राष्ट्रपति समय समय पर नियुक्त करना आवश्यक समझे। संविधान के अधीन, संसद, विधि द्वारा
(क) किसी संघ-राज्य क्षेत्र पर किसी उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का विस्तार कर सकती है या किसी संघ-राज्य क्षेत्र को किसी उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से निकाल सकती है;
(ख) दो या दो से अधिक राज्यों के लिए या दो या दो से अधिक राज्यों तथा संघ-राज्य क्षेत्र के लिए एक ही उच्च न्यायालय स्थापित कर सकती है; और
(ग) किसी संघ-राज्य क्षेत्र के लिए उच्च न्यायालय का गठन कर सकती है या किसी ऐसे राज्य क्षेत्र में किसी न्यायालय को संविधान के सभी या किसी एक प्रयोजनार्थ उच्च न्यायालय घोषित कर सकती है।
संविधान कहता है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश, राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश और उच्चतम न्यायालय के और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से, जैसे वह आवश्यक समझे, परामर्श करने के पश्चात नियुक्त किए जाएंगे। उच्च न्यायालय के न्यायाधीश राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश, संबंधित राज्य के राज्यपाल तथा उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ परामर्श करने के पश्चात नियुक्त किए जाएंगे। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने जजों संबंधी मामलों में जो निर्णय दिए हैं उनके अनुसार न्यायाधीशों की नियुक्ति उच्चतम न्यायालय के अपने अधिकार क्षेत्र में ही रहेगी। किसी भी न्यायालय का न्यायाधीश अपने हाथ से लिखकर, राष्ट्रपति को संबोधित करके, अपने पद से त्यागपत्र दे सकता है परंतु उसे सिवाय संविधान में निर्धारित प्रक्रिया के द्वारा अपने पद से हटाया नहीं जा सकता। आम धारणा यह है कि न्यायाधीशों को हटाने के लिए 'महाभियोग' का प्रस्ताव लाना होता है। वस्तुतया ऐसा नहीं है। संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। 'महाभियोग' की प्रक्रिया केवल राष्ट्रपति के लिए है। किसी न्यायाधीश को अपने पद से तभी हटाया जा सकता है यदि संसद के दोनों सदनों द्वारा एक विशेष बहुमत से (अर्थात उस सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा प्रत्येक सदन के उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा) पास किया गया संयुक्त समावेदन संसद के उसी सत्र में राष्ट्रपति के समक्ष रखा जाए। उच्चतम न्यायालय या किसी उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के उसके कर्तव्यों के निर्वहन में आचरण के विषय में, सिवाय उस न्यायाधीश को हटाने । की प्रार्थना करने वाले समावेदन को राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करने के प्रस्ताव के अन्य किसी प्रकार चर्म करने की संसद को शक्ति प्राप्त नहीं है। ऐसा उपबंध स्पष्टतया इसलिए रखा गया है कि न्यायाधीश कार्यपालिका तथा विधानमंडल के प्रभाव से मुक्त रहें। परंतु इस संबंध में न्यायाधीश को प्राप्त संरक्षण रसके न्यायिक कर्तव्यों तक सीमित है, उसके निजी आचरण के लिए नहीं।
संसद, विधि द्वारा, संघ के लिए एक प्रशासनिक अधिकरण (एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल) और प्रत्येक राज्य के लिए या दो या दो से अधिक राज्यों के लिए एक पृथक प्रशासनिक अधिकरण की स्थापना के लिए उपबंध कर सकती है। इस उपबंध के अधीन बनाए गए कानून में यह उल्लेख किया जाता है कि अधिकरणों के अधिकार क्षेत्र क्या क्या होंगे और शक्तियां क्या क्या होंगी। ऐसे कानून में, उच्चतम न्यायालय के अनुच्छेद 136 के अधीन कार्यक्षेत्र के सिवाय, सभी न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र का कुछ उल्लिखित मामलों के संबंध में अपवर्जन किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, संविधान के अधीन संसद को एक अखिल भारतीय न्यायिक सेवा बनाने की शक्ति प्राप्त है जिसमें जिला न्यायाधीश से छोटा कोई पद न हो। संसद के किसी भी सदन की किसी कार्यवाही की विधिमान्यता को, प्रक्रिया की किसी कथित अनियमितता के आधार पर, किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। प्रत्येक सदन का पीठासीन अधिकारी या कोई अन्य अधिकारी या संसद सदस्य जिसमें प्रक्रिया को विनियमित करने या संसद के किसी भी सदन के निर्णय को करने या कार्यरूप देने की शक्तियां निहित की गई हों, उन शक्तियों का प्रयोग करने में न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। सदन के आंतरिक मामलों को प्रभावित करने वाले किसी मामले के संबंध में 'रिट', निदेश या आदेश जारी करना न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र से परे है। ऐसे संविधान के ढांचे में जो व्यक्तिगत मूल अधिकारों की गारंटी देता है, संघ तथा राज्यों की अलग अलग शक्तियों का उपबंध करता है और संसद सहित राज्य के प्रत्येक निकाय की शक्तियों एवं कृत्यों की स्पष्ट परिभाषा करता है और उनका परिसीमन करता है, न्यायपालिका न्यायिक पुनर्विलोकन की अपनी शक्तियों के अधीन बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। संसद द्वारा बनाए गए किसी भी विधान को न्यायालय संविधान की शक्तियों से बाहर और इस कारण शून्य एवं अप्रवर्तनीय घोषित कर सकते हैं। संविधान के अनुच्देद 13 में यह स्पष्ट उपबंध है कि संसद, राज्य विधानमंडल या कोई भी अन्य प्राधिकरण ऐसा विधान न बनाए जो संविधान के भाग 3 में वर्णित किसी भी मूल अधिकार से असंगत हो, या उसे न्यून करता हो। अनुच्छेद 32 और 226 द्वारा इन अधिकारों के प्रवर्तन के लिए क्रमशः उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को शक्ति प्रदान की है। इस प्रकार, भारत में किसी विधान की संवैधानिक वैधता को इस आधार पर चुनौती दी जा लागू । सकती है कि विधान का विषय :
(क) उस विधानमंडल के अधिकार क्षेत्र में नहीं है जिसने इसे पास किया है;
(ख) संविधान के उपायों के प्रतिकूल है; या
(ग) मूल अधिकरों में से किसी का हनन करता है।
कभी कभी ऐसा मान लिया जाता है और प्रायः कहा जाता है कि जैसे विधानमंडल का काम विधान बनाना और कार्यपालिका का काम उसे कार्यान्वित करना है, उसी तरह न्यायालयों का काम संविधान एवं विधियों की व्याख्या करना है। ऐसी धारणा बहुत ही भ्रामक एवं गलत है। हमारी राजनीतिक व्यवस्था में केवल न्यायपालिका ही व्याख्या नहीं करती है। अनेक ऐसे प्राधिकरण हैं जो लगभग प्रतिदिन अपने कृत्यों का निर्वहन करते हुए वैधता से संविधान की व्याख्या करते हैं। उदाहरणार्थ संसद के दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों को अपने विनिर्णय देते हुए, जो उनके अपने अपने सदनों में अंतिम होते हैं, संविधान के उपबंधों की व्याख्या करनी पड़ती है। न्यायालयों का मूल कृत्य व्यक्तियों के बीच, व्यक्तियों और राज्यों के बीच, एक राज्य तथा दूसरे राज्य के बीच तथा संघ और राज्यों के बीच विवादों का न्यायनिर्णय करना है और न्यायनिर्णय करते हुए न्यायालयों के लिए संविधान तथा विधियों की व्याख्या करना अपेक्षित हो सकता है। और जो व्याख्या उच्चतम न्यायालय द्वारा की जाती है वह विधान बन जाती है जिसे देश के सभी न्यायालय मानते हैं। उच्चतम न्यायालय के फैसले के विरुद्ध कोई अपील नहीं है। वह तब तक देश के कानून के रूप में बना रहता है जब तक कि स्वयं उच्चतम न्यायालय उस व्याख्या का पुनर्विलोकन न करे या उसको बदल न दे या जब तक संसद द्वारा उस कानून में या संविधान में उपयुक्त संशोधन न कर दिया जाए। यदि संसद का कोई अधिनियम न्यायपालिका द्वारा रद्द कर दिया जाता है तो संसद उसकी ऐसी त्रुटियों को दूर करके, जिनके कारण वह रद्द किया गया हो, उसे फिर से अधिनियमित कर सकती है। इसके अतिरिक्त संसद अपनी सवैधानिक शक्तियों की सीमा में रहते हुए संविधान में ऐसी रीति से संशोधन कर सकती है जिससे कि वह कानून असवैधानिक न रहे।
भारतीय संसद इतनी सर्वशक्ति संपन्न नहीं है जितनी कि ब्रिटिश संसद है जहां विधान के न्यायिक पुनर्विलोकन की अनुमति नहीं है। साथ ही, भारतीय न्यायपालिका इतनी सर्वशक्ति संपन्न नहीं है जितनी कि संयुक्त राज्य अमेरिका में है जहां न्यायिक पुनर्विलोकन की वस्तुतया कोई सीमा ही नहीं है।
संसद तथा राज्य विधानमंडल
भारतीय संविधान द्वारा देश में संघीय शासन प्रणाली स्थापित की गई है क्योंकि संघ तथा राज्यों के बीच विधायी, कार्यपालिका एवं वित्तीय शक्तियों का वितरण किया गया है। परंतु भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को संघीय अथवा फेडरल कहना बड़ी संदेहास्पद बात है। संविधान के पाठ में फेडरेशन शब्द का प्रयोग कहीं नहीं किया गया है। वास्तव में, भारत को फेडरेशन का नाम देने का प्रस्ताव संविधान सभा में विशिष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया गया था। संविधान के अनुच्छेद 1 मैं भारत को ‘राज्यों का संघ', (यूनियन आफ स्टेट्स) कहा गया है। संविधान में ऐसे बहुत से तत्व हैं और इसके अनेक ऐसे उपबंध हैं जो बहुत स्पष्ट रूप में इसके फेडरल संविधान होने के विरुद्ध हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत भारत में नागरिकता एक है; ध्वज एक है; संविधान एक है। न्यायपालिका भी एकीकृत है और संघ तथा राज्यों में विभाजित नहीं है। परंतु संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि इस बारे में मतभेद हो सकता है कि क्या भारतीय राजनीतिक व्यवस्था संघीय स्वरूप की है, एकात्मक है या अर्द्धसंघीय है या कि यह एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था है जो भावना से तो एकात्मक है परंतु जिसका ढांचा संघीय स्वरूप का है।
भारतीय संघ में इस समय 28 राज्य हैं और सात संघ-राज्य क्षेत्र हैं, जैसाकि संविधान की पहली अनुसूची में उल्लिखित है। संघ का राज्य क्षेत्र राज्यों और संघ-राज्य क्षेत्रों में बंटा हुआ है। किसी राज्य द्वारा बनाया गया विधान उस राज्य के राज्य क्षेत्र में ही लागू हो सकता है। संघ की संसद भारत के संपूर्ण राज्य क्षेत्र या उसके किसी भी भाग के लिए विधान बना सकती है। संसद को राज्यक्षेत्रातीत विधान बनाने की शक्ति भी प्राप्त है, अर्थात इसके द्वारा बनाया गया कोई विधान केवल भारतीय राज्य क्षेत्र के लोगों की संपत्ति पर ही लागू नहीं होगा बल्कि विदेशों में रह रहे भारतीय नागरिकों पर भी लागू होगा। राज्यों को ऐसा विधान बनाने की शक्ति प्राप्त नहीं है।
संविधान में संघ और राज्यों के बीच विधायी शक्ति का वितरण तीन प्रकार से करने का उपबंध किया गया है। सूची 1 अथवा संघ सूची में 97 विषय हैं जिनके बारे में केवल संसद ही विधान बना सकता है। सूची 2 या राज्य सूची में 66 विषय हैं जिनके बारे में केवल राज्य विधानमंडल ही विधान बना सकते हैं। सूची 3 या समवर्ती सूची में 47 मदें हैं जिनके बारे में संसद और राज्य विधानमंडल, दोनों ही विधान बना सकते हैं। यद्यपि संविधान द्वारा आवंटित अपने अपने क्षेत्रों में, संसद और राज्य विधानमंडलों को पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त है, तथापि शक्तियों के वितरण की योजना में विधायी क्षेत्र में संसद के सामान्य प्रभुत्व पर बल दिया गया है।
संघ सूची में, जो तीन सूचियों में सबसे लंबी है, रक्षा, वैदेशिक कार्य, रेलवे, संचार, बैंकिंग, मुद्रा आदि जैसे महत्वपूर्ण विषय हैं। अवशिष्ट शक्तियां, अर्थात ऐसे विषय के संबंध में विधान की शक्ति जो तीनों में से किसी भी सूची में वर्णित न हो, संसद को प्राप्त है। इसके अतिरिक्त, समवर्ती सूची में, एक ही विषय के संबंध में संघ के और राज्य के विज्ञान में टकराव होने की स्थिति में, संघ का विधान मान्य होता है, दूसरे शब्दों में, इस संबंध में संघ के विधान का स्थान पहला है। समवर्ती क्षेत्र के किसी विषय में राज्य की विधि के पक्ष में इस नियम का अपवाद है कि संसद के पहले के किसी विधान के साथ टकराव होने के मामले में राज्य का विधान मान्य रहता है, यदि उसे विचारार्थ रक्षित रखा गया हो और राष्ट्रपति की अनुमति उस पर प्राप्त हो चुकी हो। परंतु इस उपबंध में संसद के लिए ऐसी कोई रोक नहीं है कि वह राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए विधान में बाद में संशोधन नहीं कर सकती, उसे बदल नहीं सकती या निरस्त नहीं कर सकती। प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग इस प्रकार किया जाना अपेक्षित है जिससे संसद द्वारा बनाए गए विधान का अनुपालन सुनिश्चित हो।
राज्यों के लिए पूर्णतया रक्षित क्षेत्रों में भी, संसद को कुछ परिस्थितियों में विधान बनाने की शक्ति प्राप्त है। इस प्रकार, जब कभी राज्य सभा एक संकल्प पास करके, जिसे विशेष बहुमत प्राप्त हो, यह घोषणा करती है कि ऐसा करना राष्ट्रीय हित में आवश्यक या समीचीन है तो संसद राज्य सूची में उल्लिखित किसी विषय पर विधान बना सकती है। इसके अतिरिक्त जब आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में हो तो संसद की विधान बनाने की शक्ति का विस्तार हो जाता है जिससे वह राज्य सूची के किसी विषय पर विधान बना सकती है। यद्यपि संसद द्वारा राष्ट्रीय हित में या आपात स्थिति के दौरान प्रयोग की गई किसी शक्ति से किसी राज्य के विधानमंडल की सामान्य विधायी शक्ति प्रतिबंधित नहीं होती, तथापि टकराव की स्थिति में संसद द्वारा बनाया गया विधान प्रवर्तन में रहता है और जब तक वह प्रवर्तन में रहता है तब तक राज्य विधान, जहां तक संसद के विधान से उसके टकराव का संबंध है, अप्रवर्तनीय रहता है।
किसी देश के साथ की गई संधि, समझौते या अभिसमय को या किसी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन, एसोसिएशन या अन्य निकाय में किसी विषय पर, यदि वह विषय राज्य सूची में हो तो भी, किए गए फैसले को कार्यान्वित करने के लिए विधान बनाने की शक्ति भी संसद को प्राप्त है।
संसद से निवेदन किए जाने पर भी वह राज्य सूची के किसी विषय पर विधान बना सकती है। यदि दो या दो से अधिक राज्य विधानमंडल ऐसा वांछनीय समझते हैं कि उनके अधिकार क्षेत्र वाले किसी विषय का विनियमन संसद के विधान द्वारा होना चाहिए और इस आशय का संकल्प पास करते हैं तो संसद आवश्यक विधान बना सकती है। परंतु इस प्रकार बनाया गया विधान उन्हीं राज्यों में प्रभावित रहता है जिन्होंने इस हेतु निवेदन किया हो और अन्य उन राज्यों में भी जो इस बारे में संकल्प पास करके बाद में उसे अपना लें। संघ सूची की कुछ प्रविष्टियों से भी संसद को शक्ति प्रदान हो जाती है कि वह विधि द्वारा अपेक्षित घोषणा करके, कुछ क्षेत्र और विषय राज्य के क्षेत्र से अपने अधिकार में ले ले।
संविधान में उपबंध है कि यदि राष्ट्रपति का, किसी राज्य के राज्यपाल से रिपोर्ट मिलने पर या अन्यथा यह समाधान हो जाता है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें उस राज्य का शासन संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता तो राष्ट्रपति उद्घोषणा द्वारा उस राज्य की सरकार के सभी या कोई कृत्य अपने हाथ में ले सकता है और यह घोषणा कर सकता है कि राज्य के विधानमंडल की शक्तियों का प्रयोग संसद द्वारा या उसके प्राधिकार के अधीन किया जाएगा।
नए राज्यों की स्थापना एवं गठन के मामलों से भी संसद के प्रभुत्व का संकेत मिलता है। संसद को यह शक्ति प्राप्त है कि वह
(क) किसी राज्य में से उसका राज्य क्षेत्र अलग करके अथवा दो या अधिक राज्यों को मिलाकर नए राज्य का निर्माण कर सकती है;
(ख) किसी राज्य का क्षेत्र बढ़ा या घटा सकती है;
(ग) किसी राज्य की सीमाओं में परिवर्तन कर सकती है; और
(घ) किसी राज्य के नाम में परिवर्तन कर सकती है।
ये परिवर्तन संविधान में संशोधनों की तरह न होकर ऐसे संशोधन हैं जो राष्ट्रपति की सिफारिश पर संसद द्वारा साधारण बहुमत से विधेयक पास करके किए जा सकते हैं। ऐसे विधेयकों पर संबंधित राज्यों के विधानमंडलों के, इस प्रयोजनार्थ निर्धारित अवधि में विचार जानने के लिए उनके पास भेजना अपेक्षित है। परंतु विधेयक इस प्रकार विधानमंडलों के पास भेजने से संसद की जैसा वह उचित समझे वैसा परिवर्तन करने की शक्ति कम नहीं होती। इसके अतिरिक्त, संसद को किसी राज्य में विधान परिषद का साधारण प्रक्रिया द्वारा उत्सादन या सृजन करने की शक्ति प्राप्त है जिसके लिए संविधान में संशोधन करना अपेक्षित नहीं है। यदि किसी राज्य की विधान सभा विशेष बहुमत से इस आशय का संकल्प पास कर देती है, तो संसद के अधिनियम द्वारा ही ऐसा हो सकता है।
अंतिम परतु महत्वपूर्ण बात यह है कि संसद राज्यपाल के द्वारा राज्यों पर कुछ नियंत्रण रखती है। जैसाकि हम जानते हैं, राष्ट्रपति संसद का एक अंग है और साथ ही वह संघ की कार्यपालिका का प्रमुख भी है। राज्यों के राज्यपाल उसके द्वारा नियुक्त किए जाते हैं और वे राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करते हैं। इसके अतिरिक्त, राष्ट्रपति ऐसी किसी आकस्मिकता में जिसके लिए संविधान में उपबंध न किया गया हो, राज्य के राज्यपाल के कृत्यों के निर्वहन के लिए ऐसे उपबंध कर सकता है जो वह ठीक समझे।
परंतु इन सब तथ्यों से यह अभिप्राय नहीं है कि भारत में राज्य संघ के मात्र प्रशासनिक एजेंट हो । संविधान में निर्धारित सीमाओं में रहकर संघ और राज्य एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं। अपने क्षेत्र में कोई एक-दूसरे के अधीन नहीं है। अंबेडकर के शब्दों में, “संविधान द्वारा नियत किए गए अपने क्षेत्र में राज्य उतने ही संपन्न हैं जितना कि केंद्र संविधान द्वारा सौंपे गए अपने क्षेत्र में है"। एक का प्राधिकार दूसरे के प्राधिकार से समन्वयकारी है। वास्तव में, भारत में संघ और राज्यों का संबंध निम्नलिखित दो विरोधी विचारों में समझौते का प्रतीक है :
(1) शक्तियों का सामान्य विभाजन जिसके अनुसार राज्य अपने क्षेत्रों में स्वायत्त है;
(2) विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता और मजबूत संघ की आवश्यकता।
इस प्रकार, व्यवहार में भारत में, जैसे कि नविल्ल आस्टिन द्वारा कहा गया है, “एक सहकारी संघ विद्यमान है जिसमें संसद का प्रभुत्व तो है परंतु इस कारण राज्य कमजोर नहीं है"।
निष्कर्ष
निष्कर्ष यह है कि हमारी व्यवस्था में, सभी वयस्क लोग, अर्थात जिन्होंने 18 वर्ष की आयु प्राप्त कर ली हो, मतदाता हैं; वे अपने राज्यों में लोक सभा के और विधान सभाओं के सदस्य चुनते हैं। राज्यों की विधान सभाएं फिर राज्य सभा के सदस्य चुनती हैं। राष्ट्रपति का निर्वाचन एक निर्वाचक मंडल द्वारा किया जाता है जिसमें राज्य सभा, लोक सभा और राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य होते हैं। वह नाममात्र अथवा संवैधानिक कार्यपालिका है, वास्तविक अथवा राजनीतिक कार्यपालिका मंत्रिपरिषद होती है। मंत्रिगण संसद सदस्य अवश्य होने चाहिए और वे सामूहिक रूप से लोक सभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं। उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए जाते हैं।
आदर्श रूप से हमारी राजनीतिक व्यवस्था में संसद और अन्य निकायों के बीच संघर्ष का प्रश्न कदापि उत्पन्न नहीं होना चाहिए क्योंकि यहां संबंध ऐसा है जैसे पूर्ण का उसके अंगों से होता है। जहां तक कार्यपालिका और विधानमंडल के संबंधों का प्रश्न है, उनकी स्थिति विरोधात्मक नहीं है। ये दोनों जनता की सेवा में भागीदार हैं।
भारत की संसद, राष्ट्रीय स्तर पर संवैधानिक रूप से संगठित सभी लोगों के विचारों का प्रतिनिधित्व करती है, उसका देश की राजनीतिक व्यवस्था में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें जनता की 'प्रभुसत्ता' का समावेश एवं सार है; यह राष्ट्र की आवाज और उसका दर्पण है। संविधान की उद्देशिका में यह पूरी तरह स्पष्ट किया गया है कि संपूर्ण शक्ति का अंतिम स्रोत भारत के लोग हैं जिनमें प्रभुसत्ता निहित है।
संविधान जो इस देश की मूल विधि है उसे “हम, भारत के लोग अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं", ऐसा संविधान की उद्देशिका में कहा गया है। अतः संसद को सर्वोपरि यह देखना होता है कि लोगों की जिन इच्छाओं एवं आकांक्षाओं का प्रतिपादन इसके सदनों में किया जाता है उनकी यथासंभव उत्तम रीति से पूर्ति हो। लोगों के निर्वाचित प्रतिनिधियों के रूप में संसद सदस्य लोगों की 1 विभिन्न मामलों पर शिकायतों और विचारों को संसद के सदनों में व्यक्त करते । सरकार के कार्यकरण की छानबीन करते हैं और विधान बनाते हैं। संसद “राष्ट्र की जांच-पड़ताल करने वाली एवं प्रहरी महान संस्था" के रूप में कार्य करती है।
इसके विधायी अधिकार क्षेत्र की सीमा से, संविधान निर्माण की इसकी शक्तियों से, आपात की स्थितियों में इसकी भूमिका से और न्यायपालिका, कार्यपालिका, राज्य विधानमंडलों और संविधान के अधीन अन्य प्राधिकरणों के साथ इसके संबंधों से पता चलता है कि संसद की शक्ति एवं अधिकार क्षेत्र कितना अधिक और विस्तृत है। परंतु यहां यह जान लेना महत्वपूर्ण है कि भारतीय संसद को उस प्रकार प्रभुसत्ता संपन्न निकाय नहीं कहा जा सकता जिस प्रकार कि ब्रिटिश संसद को जाना जाता है। इसकी शक्ति बहुत अधिक है परंतु असीम नहीं है। हमारी संसद का प्राधिकार और अधिकार क्षेत्र अन्य निकायों की शक्तियों द्वारा, संघ और राज्यों में विधायी शक्तियों के विभाजन द्वारा, वादयोग्य मूल अधिकारों द्वारा, न्यायिक पुनर्विलोकन के लिए सामान्य उपबंध द्वारा और स्वतंत्र न्यायपालिका होने के कारण सीमित है। इसके प्राधिकार की इन सीमाओं के बावजूद, संविधान के अधीन जो शक्तियां इसे प्राप्त हैं, वे इतनी पर्याप्त कि जो भूमिका इसके लिए निहित है उसे वह भली-भांति निभा सकती है।
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