Sunday, February 27, 2022

भारत में अध्यापक शिक्षा की प्रगति Progress of Teacher Education in India

भारत में अध्यापक शिक्षा की प्रगति Progress of Teacher Education in India


अध्यापक के अभाव में शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। श्री एन०सी० छागला के अनुसार, "प्रशिक्षित एवं योग्य शिक्षकों की सहायता के बिना कोई भी शिक्षा-क्रम उन्नति नहीं कर सकता। योग्य शिक्षकों का देश एक उज्ज्वल भविष्य का देश है।'' शिक्षा की उन्नति अध्यापकों पर ही निर्भर करती है। इसलिए शिक्षा हेतु योग्य एवं कुशल शिक्षकों की आवश्यकता है।" 


अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित शिक्षक संघ की कॉन्फ्रेंस के अनुसार, “अच्छा अध्यापन, अच्छे अध्यापकों पर निर्भर है। अध्यापक की गुणात्मक उन्नति करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए।" 


अध्यापक शिक्षा की प्रगति का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है


I. प्राचीन एवं मध्य काल में 


प्राचीन भारत की शिक्षा व्यवस्था में अध्यापक शिक्षा की उत्तम व्यवस्था थी। प्राचीन काल में आचार्य; उच्च कक्षा के विद्यार्थियों की सहायता से शिक्षण कार्य करते थे। इन विद्यार्थियों को पित्ति-आचार्य कहा जाता था, जो भविष्य में शिक्षक का कार्य करते थे। 


मध्य काल में अध्यापक शिक्षा पर कोई विशेष बल नहीं दिया गया; अर्थात् उस काल में अध्यापक शिक्षा नगण्य थी। शिक्षक द्वारा अपनी सहायतार्थ कुछ योग्य विद्यार्थियों को कक्षा का मॉनीटर चुना जाता था तथा यह मॉनीटर ही, शिक्षण में शिक्षक की सहायता करते थे। 


II. ब्रिटिश काल में 


वास्तव में, अध्यापक शिक्षा का विकास; इस काल में ही प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम बम्बई, मद्रास तथा कलकत्ता की शिक्षा परिषदों ने शिक्षकों की शिक्षा की आवश्यकता को अनुभव किया तथा कुछ समय के लिए प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना की गई। बम्बई में स्थापित देशी शिक्षा परिषद् ने 24 शिक्षकों को प्रशिक्षित किया। कलकत्ता में सन् 1819 में 'कलकत्ता विद्यालय परिषद्' की स्थापना की गई तथा सन् 1826 में मद्रास में शिक्षकों के प्रशिक्षण हेतु एक विश्वविद्यालय खोलने का प्रावधान रखा गया। सन् 1845 तथा सन् 1859 में वुड के घोषणा-पत्र तथा लॉर्ड स्टेनले ने भी प्रशिक्षण विद्यालयों की स्थापना के आदेश दिए। में बम्बई में सन् 1882 तक 9 प्रशिक्षण विद्यालय स्थापित किए गए, जिनमें 7 पुरुषों के लिए तथा 2 स्त्रियों के लिए थे। 


समस्त देश में सन् 1882 तक केवल दो प्रशिक्षण महाविद्यालय थे


1. मद्रास में-

यहाँ सन् 1856 में प्रशिक्षण महाविद्यालय की स्थापना की गई। 


2. लाहौर में 

यहाँ पर सन् 1881 में प्रशिक्षण महाविद्यालय स्थापित किया गया। 


भारतीय शिक्षा आयोग 1882 ई० द्वारा प्रारम्भिक एवं माध्यमिक शिक्षालयों के अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए प्रस्तुत सुझाव निम्नलिखित हैं


(i) प्रशिक्षण विद्यालयों की स्थापना किन्हीं मुख्य स्थानों पर की जानी चाहिए। 


(ii) इन विद्यालयों की स्थापना, उन्हीं स्थानों पर की जानी चाहिए, जहाँ पर प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना अवश्य की जा सके। 


(iii) प्रान्तीय सरकारों द्वारा इन विद्यालयों हेतु धनराशि प्रदान की जानी चाहिए। 


इस आयोग द्वारा प्रस्तुत सुझावों के आधार पर 19वीं शताब्दी के अन्त में समस्त देश में कुल 6 प्रशिक्षण महाविद्यालय स्थापित किए गए। ये 6 प्रशिक्षण महाविद्यालय, मद्रास, लाहौर, इलाहाबाद, जबलपुर, राजमुन्दरी तथा कुरसांग में थे। 


सन् 1904 ई० में लॉर्ड कर्जन ने भारतीय शिक्षा सेवा-विभाग हेतु योग्य तथा अनुभवी शिक्षकों के प्रशिक्षण का प्रबन्ध किया। लॉर्ड कर्जन द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव के आधार पर प्रशिक्षण विद्यालयों में स्नातकों तथा उपस्नातकों हेतु पृथक्-पृथक् पाठ्यक्रम की व्यवस्था की गई तथा प्रशिक्षण विद्यालयों की संख्या में भी वृद्धि हुई। 


सरकारी प्रस्ताव 1913 ई० में भी शिक्षक प्रशिक्षण को महत्त्व दिया गया। कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग 1919 ई० ने यह सुझाव दिया–


(i) शिक्षित शिक्षकों की संख्या में वृद्धि की जाए, 


(ii) ढाका तथा कलकत्ता विश्वविद्यालयों में शिक्षा विभाग स्थापित किए जाएँ तथा 


(iii) प्रत्येक प्रशिक्षण महाविद्यालय में एक प्रदर्शनात्मक विद्यालय सम्बद्ध किया जाए। 


हर्तांग समिति 1929 ई० ने भी प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों के प्रशिक्षण पर बल दिया तथा शिक्षकों के प्रशिक्षण हेतु अभिनव-पाठ्यक्रम की व्यवस्था करने का सुझाव दिया। 


उपर्युक्त विभिन्न समितियों द्वारा प्रस्तुत सुझावों के परिणामस्वरूप शिक्षक प्रशिक्षण के क्षेत्र में अनेक सुधार किए गए। सन् 1922 में 12 प्रशिक्षण महाविद्यालय तथा 1,072 नॉर्मल स्कूल थे। सन् 1937 में नॉर्मल विद्यालयों की संख्या 1,346 हो गई तथा सन् 1941 में 25 प्रशिक्षण महाविद्यालय हो गए। भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय तीन प्रकार की प्रशिक्षण संस्थाएँ कार्यरत थीं


(i) नॉर्मल विद्यालय - जिनमें प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाता था। 


(ii) सेकेण्डरी प्रशिक्षण विद्यालय - इनमें मिडिल विद्यालय के शिक्षकों को प्रशिक्षण दिया जाता था। 


(iii) ट्रेनिंग महाविद्यालय - इनमें हाईस्कूल के विद्यार्थियों को पढ़ाने हेतु अध्यापकों को प्रशिक्षित किया जाता है। 


III. स्वतन्त्र भारत में 


स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में अध्यापक प्रशिक्षण के सम्बन्ध में विभिन्न आयोगों द्वारा प्रस्तुत सुझाव निम्नलिखित हैं


(क) विश्वविद्यालय आयोग (सन् 1949)–


विश्वविद्यालय आयोग द्वारा प्रस्तुत सुझाव निम्नलिखित हैं


(1) प्रशिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रम में सुधार किया जाए। 


(2) एम०एड० के अध्ययन हेतु केवल उन्हीं व्यक्तियों को प्रोत्साहित किया जाए, जिन्हें 6 वर्ष का शिक्षण-अनुभव प्राप्त हो, 


(3) इन विद्यालयों का पाठ्यक्रम लचीला तथा स्थानीय वातावरण के अनुकूल होना चाहिए। 


(ख) मुदालियर आयोग (सन् 1954)—


इस आयोग द्वारा प्रस्तुत सुझाव निम्नलिखित हैं


(1) प्रशिक्षण महाविद्यालय दो प्रकार के होने चाहिए–

(i) माध्यमिक स्तर की शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों के लिए इनका प्रशिक्षण काल 2 वर्ष का होना चाहिए। 

(ii) स्नातक की शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों के लिए, इनका प्रशिक्षण का समय प्रारम्भ में एक वर्ष तथा कुछ समय उपरान्त दो वर्ष का कर दिया जाना चाहिए। 


(2) इन विद्यालयों में लघु-गहन पाठ्यक्रम तथा अभिनव-पाठ्यक्रम की भी व्यवस्था की जानी चाहिए। 


(3) व्यावहारिक प्रशिक्षण की सुविधा प्रदान की जानी चाहिए। 


(4) छात्राध्यापिकाओं को निःशुल्क प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। 


(5) अध्यापिकाओं के अभाव की पूर्ति हेतु अंशकालिक प्रशिक्षण-पाठ्यक्रम की व्यवस्था की जानी चाहिए। 


(ग) कोठारी आयोग 1966 ई० द्वारा प्रस्तुत सुझाव-


कोठारी आयोग ने अध्यापक शिक्षा के सन्दर्भ में निम्नलिखित सुझाव दिए


(1) प्रत्येक राज्य में अध्यापक शिक्षा स्टेट बोर्ड की स्थापना की जानी चाहिए। 


(2) प्राथमिक शिक्षा के अध्यापकों की प्रशिक्षण अवधि दो वर्ष होनी चाहिए। 


(3) माध्यमिक शिक्षा के स्नातक अध्यापकों का प्रशिक्षण काल; कुछ वर्ष तक एक वर्ष का तथा तदुपरान्त दो वर्ष का कर दिया जाना चाहिए। 


(4) प्रशिक्षण संस्थाओं में अध्ययनरत प्रशिक्षणार्थियों को नि:शुल्क पढ़ाया जाना चाहिए। 


(5) अंशकालिक प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए। 


स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् अध्यापक शिक्षा की प्रगति तीव्र गति से हुई। सन् 1949 में भारत में प्रशिक्षण विद्यालयों की कुल संख्या 48 थी, जिनमें 4,761 छात्र एवं छात्राएँ अध्ययनरत थे। सन् 1961 में इन महाविद्यालयों की संख्या 331 हो गई तथा छात्रों की संख्या में भी वृद्धि हुई। सन् 1975 तक सम्पूर्ण भारत में सभी प्रकार के प्रशिक्षण विद्यालयों की संख्या लगभग 3,000 हो गई। इसके उपरान्त प्रशिक्षण विद्यालयों की संख्या में अबाध गति से वृद्धि होती चली गई। 


भारत में शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालयों के विभिन्न प्रकार Different Types of Teacher Training Colleges in India


भारत में सामान्यत: चार प्रकार के शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय हैं


1. पूर्व प्राथमिक स्तर के प्रशिक्षण महाविद्यालय-


पूर्व प्राथमिक स्तर के प्रशिक्षण विद्यालय; निजी एजेन्सियों द्वारा संचालित होते हैं। इन विद्यालयों में नर्सरी, किण्डरगार्टन तथा मॉण्टेसरी प्रशिक्षण की व्यवस्था होती है। 


2. प्रारम्भिक तथा बेसिक प्रशिक्षण महाविद्यालय-


इन विद्यालयों में प्राथमिक स्तर के शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाता है। इनमें प्रवेश हेतु जूनियर हाईस्कूल अथवा माध्यमिक विद्यालय आठवीं कक्षा उत्तीर्ण करना आवश्यक है। इन विद्यालयों को 'नॉर्मल विद्यालय' कहा जाता है तथा प्रत्येक जिले में इस प्रकार का विद्यालय होता है। इन विद्यालयों का पाठ्यक्रम दो वर्ष का होता है। 


3. जूनियर प्रशिक्षण महाविद्यालय-


जूनियर हाईस्कूल में कार्य करने वाले शिक्षकों हेतु सरकारी मान्यता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं के प्रशिक्षण को मान्यता प्रदान की जाती है। जूनियर प्रशिक्षण विद्यालय का पाठ्यक्रम दो वर्ष का होता है तथा प्रशिक्षण प्राप्त करने के पश्चात् शिक्षा विभाग द्वारा 'जूनियर टीचर्स सर्टीफिकेट' का प्रमाण-पत्र प्रदान किया जाता है। 


4. हायर सेकेण्डरी विद्यालयों के शिक्षकों के प्रशिक्षण महाविद्यालय-


माध्यमिक शिक्षा को सुचारु रूप से चलाने हेतु हायर सेकेण्डरी विद्यालयों के शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाता है। इसमें प्रवेश हेतु स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करना आवश्यक है। इन विद्यालयों के पाठ्यक्रम की अवधि केवल नौ महीने होती है। इस प्रकार के प्रशिक्षण महाविद्यालयों में प्रशिक्षणार्थियों को सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ व्यावहारिक अध्यापन की शिक्षा भी प्रदान की जाती है। ऐसे विद्यालय शिक्षा विभाग द्वारा स्थापित किए गए हैं। इनमें प्रशिक्षण प्राप्त करने के पश्चात् एल०टी० का प्रमाण पत्र दिया जाता है। लखनऊ तथा काशी विश्वविद्यालयों में इनका नाम बी०एड० तथा आगरा व अलीगढ़ विश्वविद्यालय में बीटी० है। 


5. एम०एड० स्तरीय महाविद्यालय-


इनमें शिक्षा के पाठ्यक्रम के अन्तर्गत शैक्षिक अनुसन्धान पर विशेष बल दिया जाता है। 


6. विशेष प्रशिक्षण महाविद्यालय-


इसके अन्तर्गत गृह-विज्ञान, उद्योग-कला तथा शारीरिक शिक्षा हेतु अध्यापकों को प्रशिक्षित किया जाता है। 


प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने 29 जुलाई 2020 को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को मंजूरी दे दी है जिससे स्कूली और उच्च शिक्षा दोनों क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर रूपान्तरकारी सुधार के रास्ते खुल गए हैं। यह 20वीं सदी की पहली शिक्षा नीति है और यह 34 साल पुरानी राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनपीई), 1986 की जगह लेगी, सबके लिए आसान पहुँच, इक्विटी, गुणवत्ता, वहनीयता और जवाबदेही के आधारभूत स्तभों पर निर्मित यह नई शिक्षा नीति सतत विकास के लिए एजेण्डा 2030 के अनुकूल है और इसका उद्देश्य 21वीं सदी की जरूरतों के अनुकूल स्कूल और कॉलेज की शिक्षा को अधिक समग्र, लचीला बताते हुए भारत को एक ज्ञान आधारित जीवन्त समाज और ज्ञान की वैश्विक महाशक्ति में बदलना और प्रत्येक छात्र में निहित अद्वितीय क्षमताओं को सामने लाना है। 


प्रमुख प्रावधान एवं तथ्य 


• नई नीति का उद्देश्य 2030 तक स्कूली शिक्षा में 100% सकल नामांकन अनुपात (GER) के साथ पूर्व-विद्यालय से माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा के सार्वभौमिकरण का लक्ष्य। 


• एनईपी 2020 स्कूल से दूर रह रहे 2 करोड़ बच्चों को फिर से मुख्य धारा में लाएगा। 


• 12 साल की स्कूली शिक्षा और 3 साल की आंगनबाड़ी/प्री-स्कूलिंग के साथ नये 5 + 3 + 3 +4 स्कूली पाठ्यक्रम पढ़ने-लिखने और गणना करने की बुनियादी योग्यता पर जोर। 


• स्कूलों में शैक्षणिक धाराओं, पाठ्येतर गतिविधियों और व्यावसायिक शिक्षा के बीच खास अन्तर नहीं। 


• इन्टर्नशिप के साथ कक्षा 6 से व्यावसायिक शिक्षा शुरू में कम-से-कम 6वीं कक्षा तक मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई; समग्र विकास कार्ड के साथ मूल्यांकन प्रक्रिया में पूरी तरह सुधार। 


• सीखने की प्रक्रिया में छात्रों की प्रगति पर पूरी नजर रखना। 


• उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात (GER) को 2035 तक 50% तक बढ़ाया जाना। 


• उच्च शिक्षा में 3.5 करोड़ नई सीटें जोड़ी जाएंगी। 


• उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम में विषयों की विविधता होगी; उपयुक्त प्रमाणीकरण के साथ पाठ्यक्रम के बीच में नामांकन/निकास की अनुमति होगी। 


• ट्रांसफर ऑफ क्रेडिट की सुविधा के लिए अकादमिक बैंक ऑफ क्रेडिट की स्थापना की जाएगी। 


• ठोस अनुसन्धान संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय अनुसन्धान फाउण्डेशन की स्थापना की जाएगी। 


• उच्च शिक्षा के आसान मगर सख्त विनियमन, विभिन्न कार्यों के लिए चार अलग-अलग कामों पर एक नियामक होगा। 


• महाविद्यालयों को 15 वर्षों में चरणबद्ध स्वायत्तता के साथ सम्बद्धता प्रणाली पूरी की जाएगी। 


• एनईपी 2020 में जरूरत के हिसाब से प्रौद्योगिकी के उपयोग पर जोर, राष्ट्रीय शिक्षा प्रोद्योगिकी मंच की स्थापना की जाएगी। 


• एनईपी 2020 में लैंगिक समावेशन कोष और वंचित इलाकों तथा समूहों के लिए विशेष शिक्षा क्षेत्र को स्थापना पर जोर। 


• नई शिक्षा नीति स्कूली और उच्च शिक्षा दोनों में बहुभाषावाद को बढ़ावा देती है; पाली फारसी और प्राकृत के लिए राष्ट्रीय संस्थान, भारतीय अनुवाद और व्याख्या संस्थान की स्थापना की जाएगी। 

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