Sunday, February 27, 2022

भारत में उच्च शिक्षा की समस्याएँ एवं उनके समाधान Problems of Higher Education in India and their Solutions

भारत में उच्च शिक्षा की समस्याएँ एवं उनके समाधान Problems of Higher Education in India and their Solutions 


प्राथमिक शिक्षा के समान ही उच्च शिक्षा का भी, देश के योग्य नागरिकों का निर्माण करने की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व है। इस स्तर पर विविध अनिवार्य, ऐच्छिक अथवा विशिष्टीकरण पर आधारित पाठ्यक्रमों का अध्ययन करने के उपरान्त ही, अधिकांश विद्यार्थी, राष्ट्र के अनेक महत्त्वपूर्ण एवं उच्च पदों के योग्य बनते हैं, इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए ही उच्च शिक्षा आयोग एवं कोठारी आयोग के द्वारा, भारतीय सरकार को उच्च शिक्षा में सुधार करने हेतु अनेक सुझाव दिए गए थे। इन सुझावों को स्वीकार करके, यद्यपि सरकार ने, समय-समय पर अनेक प्रयास किए भी हैं, परन्तु इसके उपरान्त भी, भारतीय उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अनेक समस्याएँ यथावत् दृष्टिगोचर होती हैं। इन समस्याओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित पंक्तियों में प्रस्तुत किया गया है


1.शिक्षा के माध्यम की समस्या-


स्वतन्त्र भारत में आज भी हमारे देश में अनेक विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही है। आज के नवयुवक अंग्रेजी को छोड़ना ही नहीं चाहते, वे अंग्रेजी भाषा से होने वाली हानि अथवा अहित को समझ नहीं पा रहे हैं। अंग्रेजी भाषा के माध्यम के सम्बन्ध में महात्मा गांधी ने कहा था, “विदेशी माध्यम ने राष्ट्र की शक्ति को क्षीण कर दिया है। उसने व्यक्तियों की आय को कम कर दिया है। उसने उन्हें जनसाधारण से अलग कर दिया है तथा उसने शिक्षा को अनावश्यक रूप से महँगा बना दिया है।" 


इस समस्या के निराकरण हेतु यह आवश्यक है कि अंग्रेजी भाषा को उच्च शिक्षा का माध्यम न बनाने हेतु प्रयास किया जाए। विश्वविद्यालय आयोग ने प्रादेशिक अथवा संघीय भाषा को उच्च शिक्षा का माध्यम बनाने का सुझाव रखा तथा कोठारी आयोग ने भी क्षेत्रीय भाषाओं को उच्च शिक्षा का माध्यम बनाने का सुझाव प्रस्तुत किया। अनेक विश्वविद्यालयों में क्षेत्रीय भाषाओं को उच्च शिक्षा के रूप में मान्यता दे दी है, लेकिन अनेक क्षेत्रीय भाषाओं को उच्च शिक्षा का माध्यम बनाने में अनेक कठिनाइयाँ हैं। अत: आज आवश्यकता इस बात की है कि अधिकाधिक व्यक्तियों को संघीय भाषा-हिन्दी का ज्ञान कराया जाए तथा शनैः शनै: हिन्दी को ही सम्पूर्ण देश में उच्च शिक्षा का माध्यम बनाया जाए। 


2.विस्तार की समस्या-


च्च शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं तथा विकास-क्रम के कारण, विभिन्न महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई है, फलस्वरूप दिन-प्रतिदिन उच्च शिक्षा के प्रसार की समस्या बढ़ती ही जा रही है। इस अनियन्त्रित शिक्षा के विस्तार से अनेक दुष्परिणाम सामने आए हैं; यथा-शिक्षित बेरोजगारी, उच्च शिक्षा के स्तर में गिरावट आना, उपयुक्त शैक्षणिक प्रशिक्षण का अभाव आदि। 


3. दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली-


उच्च शिक्षा की समस्त समस्याओं में सर्वाधिक भीषण समस्या परीक्षा प्रणाली की है। राधाकृष्णन आयोग ने इस सम्बन्ध में लिखा था, “यदि हम विश्वविद्यालय शिक्षा के केवल एक विषय में सुधार का सुझाव दें, तो वह परीक्षाओं के सम्बन्ध में होना चाहिए।" 


अधिकांश विश्वविद्यालयों में निबन्धात्मक परीक्षाएँ आयोजित की जाती हैं, इनके आधार पर विद्यार्थियों की योग्यता की पूर्ण जानकारी नहीं हो पाती क्योंकि इन परीक्षाओं में छात्र केवल रटकर प्रश्नों का उत्तर लिख देते हैं तथा परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हैं, जिससे शिक्षित बेरोजगारी का जन्म होता है। 


इस समस्या के निराकरण हेतु प्रचलित परीक्षा प्रणाली में सुधार करना आवश्यक है। निबन्धात्मक परीक्षाओं के स्थान पर वस्तुनिष्ठ परीक्षाएँ आयोजित की जानी चाहिए। इसके साथ में 50% से कम अंक प्राप्त करने वाले छात्रों को उच्च कक्षा में प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिए। कोठारी आयोग ने प्रचलित परीक्षा प्रणाली के सम्बन्ध में यह सुझाव दिया कि मूल्यांकन के नवीन दृष्टिकोण के आधार पर परीक्षाओं को सुधारने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। विद्यार्थियों के विकास से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों के मूल्यांकन हेतु उपयुक्त मूल्यांकन विधियों को खोजा जाना चाहिए। साथ ही बाह्य परीक्षाओं के प्रश्न-पत्रों में प्रश्नों को वस्तुनिष्ठ बनाने का प्रयत्न भी करना चाहिए। 


विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा केन्द्रीय परीक्षा सुधार यूनिट की स्थापना की जानी चाहिए। विश्वविद्यालय के प्रवक्ताओं को मूल्यांकन की नवीन रीतियों से परिचित कराया जाए तथा एक परीक्षक द्वारा जाँची जाने वाली उत्तर-पुस्तकों की संख्या, वर्ष में कुल 500 से अधिक नहीं होनी चाहिए। 


4. छात्र-संघ अथवा छात्र-समितियों की समस्या 


उच्च शिक्षा के क्षेत्र में छात्र-समितियाँ; प्रधानाचार्यो तथा प्रबन्धकों के कार्यों में हस्तक्षेप करती हैं। वर्तमान युग में ये समितियाँ; उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अभिशाप सिद्ध हुई है। इनके सम्बन्ध में वी०के०आर०वी० राव ने लिखा है, "छात्र समितियों के प्रश्न पर वे अपने सहयोगियों के विचार और अपने विचारों को अनुकूल बनाने के लिए विशेष रूप से चिन्तित हैं। हमारे विश्वविद्यालयों में इस प्रकार की समितियों की संख्या अत्यधिक है, जिसमें अनेक पंजीकृत भी नहीं होतीं। हम यह भी नहीं जानते कि उनको अपना फण्ड कहाँ से प्राप्त होता है या वे इनका किस प्रकार उपयोग करते हैं। हम यह कह सकते हैं कि कभी-कभी हमें चिन्ता में डाल देने वाले विशाल विदेशी फण्ड भी उनको मिल जाते हैं। हमारा विचार यह है कि ऐसी समितियों को मौजूदगी के कारण ही, छात्र-राजनीतिज्ञों का निर्माण होता है।' 


इस समस्या के समाधान हेतु छात्र-समितियों का इस प्रकार से गठन किया जाए कि वे विद्यार्थियों में नेतृत्व के गुणों का विकास करें तथा विद्यार्थियों को राष्ट्रोपयोगी कार्यों को करने हेतु प्रेरित करें। इसके अतिरिक्त सभी छात्र-समितियों का पंजीकरण किया जाना चाहिए तथा इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि ये समितियाँ देश एवं विद्यार्थियों के लिए अहितकारी कार्य न करें। छात्र-समितियों का प्रमुख कार्य; शैक्षिक जीवन को उच्च बनाना होना चाहिए। इन समितियों में बाहरी तत्त्वों अथवा शक्तियों द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए तथा उनके उद्देश्य निश्चित होने चाहिए।


5. अनुशासनहीनता की समस्या


विश्वविद्यालयों में अनुशासनहीनता प्रमुख समस्या है। इस अनुशासनहीनता के लिए छात्र एवं शिक्षक; दोनों ही समान रूप से उत्तरदायी हैं। प्रवेश को लेकर कुलपति का घेराव तथा विश्वविद्यालय में तोड़-फोड़ आदि की घटनाएँ प्रायः घटित होती रहती हैं, जिससे महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों को कभी-कभी अनिश्चित समय तक के लिए बन्द करना पड़ता है। अध्यापकों से दुर्व्यवहार तथा परीक्षा में नकल करना अब सामान्य बातें हो गई हैं। इस अनुशासनहीनता के लिए किसी एक कारण को मुख्य रूप से उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता, अपितु इसके लिए अनेक कारण उत्तरदायी हैं; यथा-


(i) दोषपूर्ण शिक्षण विधियाँ, 


(ii) जटिल एवं अव्यावहारिक पाठ्यक्रम, 


(iii) सामूहिक जीवन पर आधारित कार्यों का अभाव, 


(iv) शिक्षित बेरोजगारी आदि। 


अनुशासनहीनता की समस्या के समाधान के सम्बन्ध में कोठारी आयोग का यह मत है कि अनुशासनहीनता के निराकरण हेतु केवल अध्यापकों को ही नहीं, वरन् विद्यार्थियों, अभिभावकों, समाज, सरकार तथा राजनीतिक दलों को मिलकर कार्य करना चाहिए। शिक्षा प्रणाली के दोषों को समाप्त किया जाए तथा छात्रों के समक्ष रचनात्मक कार्यक्रमों को प्रस्तुत किया जाए, जिससे उनमें अनुशासन की भावना का विकास हो सके। इसके अतिरिक्त विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए केवल योग्य छात्रों को ही प्रवेश दिया जाए। 


6. उद्देश्यहीनता की समस्या 


उद्देश्यहीनता की समस्या; उच्च शिक्षा की एक अन्य प्रमुख समस्या है। उद्देश्यहीनता के कारण, आज विद्यार्थियों का भविष्य अन्धकारमय प्रतीत हो रहा है। आज का विद्यार्थी, समाज का केवल चेतनाविहीन सदस्य बनकर रह गया है। इसका सर्वप्रमुख कारण यह है कि विद्यार्थी किसी विशेष उद्देश्य को लेकर शिक्षा प्राप्त नहीं करते। इस सम्बन्ध में गुन्नार मिडिल ने उचित ही लिखा है, “विश्वविद्यालयों की उपाधियाँ, सरकारी नौकरियों के लिए पासपोर्ट थीं। शिक्षा छात्रों को नौकरी के लिए, न कि जीवन के लिए तैयार करने के सीमित उद्देश्य से प्रदान की जाती है।" 


इस समस्या के निराकरण हेतु यह आवश्यक है कि छात्रों के समक्ष एक निश्चित उद्देश्य रखा जाए। लेकिन वास्तविकता यह है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था का कोई निश्चित उद्देश्य नहीं है; अर्थात् वह उद्देश्यहीन है। सन् 1852 में न्यूमैन ने उच्च शिक्षा के उद्देश्य के सम्बन्ध में लिखा था, “यदि विश्वविद्यालयों की शिक्षा का कोई व्यावहारिक उद्देश्य है, तो मैं कह सकता हूँ कि वह समाज के उत्तम सदस्यों को प्रशिक्षित करना है।" 


विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग द्वारा निर्धारित उच्च शिक्षा के उद्देश्य आदर्शवादी अधिक थे तथा कोठारी आयोग द्वारा सुझाए गए उद्देश्य अधिक व्यावहारिक हैं। इस आयोग ने बताया कि छात्रों के समक्ष एक निश्चित लक्ष्य होना चाहिए और उसी के अनुसार छात्रों को उच्च शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए। 


7.शिक्षा में विशिष्टीकरण की समस्या-


उच्च शिक्षा के अन्तर्गत अनेक विषयों के विशिष्टीकरण पर बल दिया जाता है, परिणामस्वरूप छात्र उच्च शिक्षा प्राप्ति पश्चात् किसी विषय में दक्षता तो प्राप्त कर लेता है लेकिन उसका दृष्टिकोण अत्यन्त संकीर्ण हो जाता है। शिक्षा में विशिष्टीकरण की आलोचना करते हुए सैयदन ने लिखा है, “विशिष्टीकरण में एक प्रकार की संकीर्णता एवं अकाल्पनिकता होती है, जिसका फल यह होता है कि विज्ञान-वर्ग के विद्यार्थियों को कला, कविता तथा सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं का कोई ज्ञान नहीं होता। विज्ञान तथा वैज्ञानिक विधियों ने इस विश्व को, जिसमें वे रहते हैं, किस प्रकार परिवर्तित कर दिया है।" 


इस समस्या का निराकरण, ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में समन्वय स्थापित करके किया जा सकता है क्योंकि ज्ञान एक अखण्ड इकाई है, जिसे विभिन्न भागों में विभक्त करके नहीं पढ़ाया जा सकता है। विज्ञान वर्ग के छात्रों के लिए राजनीतिक एवं सामाजिक समस्याओं का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। विज्ञान वर्ग के छात्रों को, कला वर्ग के विषयों तथा कला व साहित्य वर्ग के छात्रों को, विज्ञान के विषयों का ज्ञान कराया जाए। इसके अतिरिक्त विशिष्टीकरण पर आधारित शिक्षा तथा सामान्य शिक्षा के मध्य समन्वय स्थापित किया जाए तथा सामान्य शिक्षा का पाठ्यक्रम इस प्रकार का होना चाहिए, जिससे समस्त विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्त हो सके। 


8. दोषपूर्ण पाठ्यक्रम-


पाठ्यक्रम की समस्या; उच्च शिक्षा से सम्बन्धित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समस्या है। पर्याप्त तर्क-वितर्क एवं आलोचना के उपरान्त भी, भारतीय शिक्षाविद् एवं भारतीय सरकार इस समस्या का व्यावहारिक समाधान खोजकर, उसे क्रियान्वित नहीं कर सके हैं। पाठ्यक्रम में निहित अनुभव ही वे माध्यम होते हैं, जिनके द्वारा छात्रों का बहुमुखी विकास सम्भव होता है तथा यह बहुमुखी विकास ही देश की प्रगति में सहायक होता है। इसलिए पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए, जिससे छात्रों को व्यावहारिक जीवन के अनुभव भी प्राप्त हो सकें तथा उनका व्यावहारिक जीवन में महत्त्व हो। उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम विद्यार्थियों की अभिरुचि एवं मनोवृत्ति के अनुरूप नहीं है। 


इस समस्या के निराकरण हेतु, पाठ्यक्रम का चयन विद्यार्थियों की अभिरुचि के अनुसार किया जाए। उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में विभिन्नता होनी चाहिए तथा पाठ्यक्रम का निर्धारण, व्यावहारिकता को दृष्टिगत रखते हुए ही किया जाना चाहिए। इसके साथ ही पाठ्यक्रम लचीला एवं परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशील होना चाहिए। पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है, “शिक्षा प्रणालियों का निर्माण; कुछ समय के लिए नहीं, वरन् सदैव के लिए किया जाता है। व्यक्ति को शिक्षा प्रदान करने हेतु कोई स्थायी शिक्षण विधियाँ नहीं हैं जो पाठ्यक्रम वैदिक काल अथवा पुनरुत्थान-काल में उपयोगी था, उसे 20वीं शताब्दी में बिना परिवर्तन किए, नहीं अपनाया जा सकता।'' 


अतएव आवश्यकता इस बात की है कि उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में यथासमय परिवर्तित परिस्थितियों में के अनुसार परिवर्तन किया जाए। वर्तमान युग वैज्ञानिक युग है। आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति हो रही है; उदाहरणार्थ-मानव का चन्द्रमा पर पदार्पण करना आदि। यदि ऐसी स्थिति में भी हम परम्परागत पाठ्यक्रम पढ़ाते रहे, तो बालक का विकास अवरुद्ध हो जाएगा। 


9. अपव्यय की समस्या 


प्राथमिक शिक्षा के समान ही उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी अत्यधिक अपव्यय होता है क्योंकि उस स्तर की परीक्षाओं में प्रतिवर्ष कुछ विद्यार्थी ही उत्तीर्ण हो पाते हैं, फलस्वरूप उनके अभिभावकों को आर्थिक कष्ट का सामना करना पड़ता है। राधाकृष्णन आयोग ने इस सम्बन्ध में लिखा है, “सार्वजनिक धन का प्रतिवर्ष अत्यधिक अपव्यय हो रहा है। लेकिन इससे भी अधिक दुःख इस बात का है कि सार्वजनिक धन का दुरुपयोग होने के प्रति उतनी ही उदासीनता है, जितनी कि विद्यार्थियों और अभिभावकों के समय, शक्ति तथा धन के नाश और उनकी आशाओं तथा अभिभावकों के ऊपर भयंकर तुषारापात के प्रति।” 


इसलिए अपव्यय की समस्या का शीघ्रमेव समाधान किया जाना आवश्यक है। 


अपव्यय की समस्या के समाधान हेतु यह आवश्यक है कि विश्वविद्यालय में केवल योग्य विद्यार्थियों को ही प्रवेश दिया जाए तथा कोठारी आयोग द्वारा प्रस्तावित प्रवेश-चयनात्मक प्रणाली को अपनाया जाए। इसके अतिरिक्त परीक्षा प्रणाली में सुधार किया जाए तथा पाठ्यक्रम को व्यावहारिक बनाया जाए। यदि ऐसा नहीं किया गया तो अपव्यय की समस्या का समाधान, किसी भी दशा में नहीं किया जा सकता है। 


10. शिक्षा का गिरता हुआ स्तर-


उच्च शिक्षा की एक अन्य महत्त्वपूर्ण समस्या है-शिक्षा का गिरता हुआ स्तर। शिक्षा के स्तर के गिरने के अनेक कारण हैं; यथा


(i) छात्रों की संख्या अत्यधिक होना। 


(ii) शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों पर ध्यान न दिया जाना। 


(iii) पुस्तकालयों में अध्ययन की उचित व्यवस्था का अभाव। 


(iv) शिक्षा का व्यावहारिक जीवन से कोई सम्बन्ध न होना। 


(v) पाठ्यक्रम का रुचिकर न होना। 


(vi) अध्यापकों का वेतन कम होने के कारण उनका अध्यापन-कार्य में रुचि न लेना इत्यादि। 


इस सम्बन्ध में श्री आयंगर ने लिखा है, “हमारे ज्ञान तथा शिक्षण का स्तर कभी भी उच्च नहीं था, अपितु अब वह अत्यन्त तेजी से नीचे की ओर जा रहा है।" 


शिक्षा के गिरते हुए स्तर के सम्बन्ध में एक समाचार-पत्र में प्रकाशित लेख में कहा गया है, “शिक्षा का स्तर गिरने में छात्र व शिक्षक दोनों वर्ग जिम्मेदार हैं। शिक्षा स्तर गिरने की प्रमुख दोषी हमारी सरकार है, जिसने परिवर्तित दौर में भी भारत के गले से मैकाले शिक्षा पद्धति का जुआ नहीं उतारा है।” इस समस्या के निराकरण हेतु यह आवश्यक है कि सर्वप्रथम शिक्षकों के वेतनमान बढ़ाए जाएँ तथा उनसे एक सप्ताह में अठारह घण्टे से अधिक अध्यापन कार्य न करवाया जाए, उनके सेवा-प्रतिबन्धों में परिष्करण किया जाए। इसके अतिरिक्त कक्षाओं की उचित व्यवस्था की जाए, प्रयोगशाला एवं पुस्तकालय को सुसंगठित किया जाए, पाठ्यक्रम को व्यावहारिक बनाया जाए तथा यथासमय आवश्यकतानुसार विचार-विमर्श गोष्ठियों का आयोजन किया जाए। 


कोठारी आयोग ने इस समस्या के समाधान हेतु दो प्रमुख सुझाव प्रस्तुत किए 


(i) जूनियर प्रवक्ताओं को व्यावसायिक शिक्षा प्रदान की जाए तथा 


(ii) नवीन प्रवक्ताओं हेतु एक निश्चित पाठ्यक्रम का गठन किया जाए। 


11. मार्ग-प्रदर्शन एवं समुपदेशन की समस्या 


हमारे देश में उच्च शिक्षा में छात्रों हेतु पथ-प्रदर्शन एवं परामर्श की कोई व्यवस्था नहीं है। मार्ग-प्रदर्शन एवं परामर्श के अभाव में छात्र अक्सर ऐसे विषयों का चयन कर लेते हैं, जो उनकी प्रकृति के अनुकूल नहीं होते, फलस्वरूप उनका अधिकांश "समय व्यर्थ हो जाता है तथा वे उचित ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते। उचित ज्ञान के अभाव में वे परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाते हैं और अनुत्तीर्ण होने के कारण उनमें निराशा की भावना घर कर जाती है। इस सम्बन्ध में पाक्षिक धर्मयुग में प्रकाशित एक लेख में कहा गया था, “हमारे देश में एक तो यह जानने की सुविधा बहुत कम है कि कौन बालक, किस विषय का अध्ययन करने की क्षमता रखता है। इस प्रकार के परीक्षण, हमारे देश में उच्च शिक्षा में नहीं हैं। दूसरे, अभिभावक इस प्रकार का परामर्श मानने को तैयार नहीं हैं। लड़के की सामर्थ्य को बिना समझे ही यह निश्चित कर लिया जाता है कि उसे क्या बनाएँगे?" 


मार्ग-प्रदर्शन एवं समुपदेशन की समस्या के समाधान हेतु यह आवश्यक है कि


(i) विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में अनुभवी व प्रशिक्षित व्यक्तियों द्वारा विद्यार्थियों को परामर्श एवं मार्ग-प्रदर्शन प्रदान किया जाए। 


(ii) प्राध्यापकों को मनोविज्ञान का ज्ञान होना चाहिए। 


(iii) महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालय में ऐसे प्राध्यापकों का चयन किया जाना चाहिए, जो छात्रों की रुचि का पता लगाकर उन्हें यथासमय उचित परामर्श दे सकें। 


12. अनुसन्धान की समस्या-


आज अनेक विश्वविद्यालयों में अनुसन्धान की समस्या अत्यन्त गम्भीर है। विभिन्न विश्वविद्यालयों में प्रयोगशालाओं, पुस्तकालयों एवं कार्यशालाओं का अभाव है। आज सामाजिक विज्ञानों में अनुसन्धान की समस्या भी अत्यन्त गम्भीर होती जा रही है। स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् आज प्रत्येक छात्र अनुसन्धान कार्य करना चाहता है, जिससे अनुसन्धान की समस्या ने गम्भीर रूप धारण कर लिया है। 


उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आज उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अनेक समस्याएँ विद्यमान हैं। विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग तथा कोठारी आयोग ने उच्च शिक्षा की समस्याओं के समाधान हेतु अनेक सुझाव प्रस्तुत किए। यदि कोठारी कमीशन द्वारा प्रस्तुत सुझावों को शीघ्रता से लागू किया गया तो उच्च शिक्षा की अनेक समस्याओं का निराकरण शीघ्रमेव हो जाएगा तथा विद्यार्थी देश के सुयोग्य नागरिक बनकर, देश के विकास एवं नव-निर्माण में अपना सहयोग प्रदान कर सकेंगे।

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