भारत में माध्यमिक शिक्षा की समस्याएँ एवं उनके समाधान Problems of Secondary Education in India and their Solutions
सन् 1947 के पश्चात् भारत में माध्यमिक शिक्षा का विकास अत्यन्त तीव्र गति से हुआ। माध्यमिक से शिक्षा; प्राथमिक एवं उच्च शिक्षा के मध्य कड़ी का कार्य करती है, लेकिन यह कड़ी आज तक निर्बल बनी हुई है। इसका मुख्य कारण माध्यमिक शिक्षा के विकास के मध्य अनेक समस्याएँ उत्पन्न होना है। माध्यमिक शिक्षा की समस्याओं का समाधान यदि उचित समय पर नहीं किया गया तो हमारी सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था दूषित एवं व्यर्थ हो जाएगी।
माध्यमिक शिक्षा की प्रमुख समस्याएँ व उनके समाधान निम्नलिखित हैं
1. माध्यमिक विद्यालयों का प्रबन्ध–
वर्तमान भारत में अनेक प्रकार के माध्यमिक विद्यालय हैं; जैसे राजकीय माध्यमिक विद्यालय, निकाय माध्यमिक विद्यालय तथा स्व-संचालित माध्यमिक विद्यालय आदि। उपर्युक्त समस्त प्रकार के विद्यालयों में स्व-संचालित अथवा निजी माध्यमिक विद्यालयों की संख्या सर्वाधिक है। सरकार माध्यमिक शिक्षा का भार अपने ऊपर नहीं लेती, वरन् अनुदान के रूप में निजी संस्थाओं की आर्थिक सहायता करती है तथा इन विद्यालयों के प्रबन्ध का भार उनके प्रबन्धकों पर ही छोड़ देती है। इस सम्बन्ध में मुदालियर आयोग ने लिखा है, “दुर्भाग्यवश इस शिथिलता के कारण अनेक विद्यालय शिक्षा-संस्थाओं के रूप में न चलाए जाकर व्यावसायिक उद्योग के रूप में चलाए जाते हैं। अनेक दिशाओं में व्यक्ति अपनी निजी हैसियत में या व्यक्तियों के समूह बगैर उचित भवन या उपकरणों के छात्रों को दाखिल करके, विद्यालयों को चलाने लगते हैं, जिससे वे ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देते हैं कि शिक्षा विभागों के पास, विद्यालयों के लिए उनको मान्यता प्रदान करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रह जाता है।"
इस समस्या का समाधान; माध्यमिक शिक्षा का राष्ट्रीयकरण करके किया जा सकता है। सरकार समस्त निजी विद्यालयों का प्रबन्ध स्वयं करे तथा उन पर अपना नियन्त्रण रखे।
2. सामुदायिक जीवन का अभाव-
देश के अनेक माध्यमिक विद्यालयों में सामुदायिक जीवन का अभाव पाया जाता है क्योंकि विद्यालयों में सामाजिक कार्यों का आयोजन नहीं किया जाता, फलस्वरूप छात्रों में परस्पर सम्पर्क स्थापित नहीं हो पाता तथा न ही उनमें सामुदायिक जीवन की भावना का विकास हो पाता है। आज हमारे देश में माध्यमिक विद्यालय केवल कारखाने बनकर रह गए हैं। माध्यमिक विद्यालय; छात्रों को उत्तम नागरिक बनाने तथा उनमें सुसंगठित सामुदायिक जीवन व्यतीत करने की भावना का विकास करने में अक्षम है, फलस्वरूप ऐसे विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् छात्र देश के कर्तव्यनिष्ठ आदर्श नागरिक नहीं बन पाते।
इस समस्या के समाधान हेतु यह आवश्यक है कि विद्यालय को सामुदायिक जीवन का केन्द्र बनाया जाए। इस सम्बन्ध में माध्यमिक शिक्षा आयोग ने लिखा है, “विद्यालय एक बड़े समुदाय के अन्तर्गत एक छोटा समुदाय है, जिसमें वैसी ही प्रवृत्तियाँ, धारणाएँ तथा व्यवहार की विधियाँ प्रतिबन्धित होती हैं, जो राष्ट्रीय जीवन में परिलक्षित होती हैं।'' भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ० जाकिर हुसैन के अनुसार, "हमारी समस्त शिक्षा संस्थाएँ सामुदायिक कार्य का केन्द्र होंगी। लेकिन यह कार्य तभी सम्भव हो सकता है, जबकि सरकार, अध्यापक, विद्यार्थी एवं जनता सभी मिलकर इस कार्य को करें तथा समस्त विद्यालयों को सामुदायिक जीवन का केन्द्र बनाने हेतु अपना योगदान दें।
3. अवांछनीय विद्यालयों में वृद्धि–
भारत में सन् 1947 के पश्चात् माध्यमिक शिक्षा का विकास एवं विस्तार अत्यन्त तीव्र गति से हुआ। माध्यमिक शिक्षा के विस्तार के साथ ही आज अवांछनीय निजी शिक्षालयों की संख्या में भी काफी वृद्धि हुई है। ये विद्यालय स्वार्थपूर्ति का साधन बने हुए हैं। इन विद्यालयों में अध्यापकों को कम वेतन दिया जाता है और छात्रों से अत्यधिक मासिक शुल्क लिया जाता है। ऐसे विद्यालय प्रायः किसी व्यक्ति अथवा राजनीतिक दल की निजी सम्पत्ति होते हैं।
इस समस्या के समाधान हेतु यह आवश्यक है कि देश के समस्त अवांछनीय विद्यालयों को बन्द कर दिया जाए तथा सरकार द्वारा माध्यमिक शिक्षा का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए, जिससे इन विद्यालयों के प्रबन्धक अनुचित लाभ न उठा सकें।
4. छात्रों में व्याप्त अनुशासनहीनता-
माध्यमिक विद्यालयों की एक अन्य समस्या; छात्रों में निरन्तर बढ़ती हुई अनुशासनहीनता है। विद्यालयों की अनियमितता, वर्षपर्यन्त प्रवेश की अनुमति, अध्यापकों की अयोग्यता, अभिभावकों द्वारा अपने बालकों पर ध्यान न दे पाना आदि अनेक कारण, विद्यार्थियों में असन्तोष उत्पन्न करके, उन्हें अनुशासनहीनता प्रदर्शित करने वाले कार्यों की दिशा में प्रेरित करते हैं। आज माध्यमिक विद्यालयों में अनुशासनहीनता की समस्या इतनी तीव्र गति से बढ़ रही है कि यदि इसका कुछ समय उपचार न किया गया, तो यह समस्या हमारे देश के लिए बहुत बड़ा सिरदर्द बन जाएगी।
इस समस्या के निराकरण हेतु कुछ सुझाव निम्नलिखित हैं
(i) विद्यालयों में ऐसे योग्य एवं आदर्श शिक्षकों की नियुक्ति की जाए, जो छात्रों के समक्ष उत्तम आदर्श रखने में सफलता प्राप्त कर सकें।
(ii) राजनीतिक दलों से छात्रों को दूर रखा जाए, जिससे वे देश की दूषित राजनीति के दलदल में न फँस सकें।
(iii) शिक्षकों तथा शिक्षार्थियों की आर्थिक कठिनाइयों को समाप्त किया जाए।
(iv) छात्रों को चलचित्र तथा अवांछित उपन्यासों के अध्ययन से दूर रखा जाना चाहिए।
(v) पाठ्यक्रम छात्रों की रुचि के अनुसार होना चाहिए।
(vi) अध्यापन हेतु रोचक अध्यापन विधियों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
(vii) छात्रों में विभिन्न सामाजिक गुणों का विकास करने हेतु उत्तम वातावरण बनाए रखना चाहिए।
5. पाठ्यक्रम की अनुपयुक्तता–
छात्रों के विकास में पाठ्यक्रम का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। पाठ्यक्रम में निहित अनुभव ही बालक के विकास का प्रमुख आधार होते हैं। परन्तु इसके लिए यह आवश्यक है कि छात्र को प्रदान किए जाने वाले अनुभवों का, उसके जीवन से सम्बन्ध हो तथा ये अनुभव इस प्रकार प्रदान किए जाएँ, जिससे बालक उन्हें अपने जीवन का स्थायी अंग बना सकें लेकिन माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम एकमार्गीय है। इसमें विद्यार्थी को अपने चहुंमुखी विकास का अवसर प्राप्त नहीं होता। यह पाठ्यक्रम अवास्तविक तथा अव्यावहारिक है, इसका जीवन में कोई सम्बन्ध नहीं है। मुदालियर आयोग ने पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में कहा है, "हमारे विद्यालयों में प्रदान की जाने वाली शिक्षा जीवन में पूर्णतया पृथक् है। पाठ्यक्रम का निर्माण प्रारम्भिक विधियों से किया जाता है और छात्र का उस संसार से कोई भी सम्बन्ध नहीं रह जाता, जिसमें कि वह रह रहा है।"
पाठ्यक्रम की समस्या के समाधान हेतु कुछ सुझाव हैं—
(i) पाठ्यक्रम को रुचिकर बनाया जाए,
(ii) पाठ्यक्रम में विभिन्न विषयों, व्यवसायों तथा उद्योगों को समाविष्ट किया जाए,
(iii) विद्यार्थियों को अपनी रुचि के अनुसार विषयों के चयन का अवसर प्रदान किया जाए।
मुदालियर आयोग ने पाठ्यक्रम की विभिन्नता पर बल दिया है और अपने सुझावों में कहा है कि
(i) पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिए,
(ii) छात्रों को प्रेरित करने वाला होना चाहिए,
(iii) पाठ्यक्रम के सम्पूर्ण विषय परस्पर सम्बन्धित होने चाहिए व उन समस्त विषयों का सामाजिक जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिए
(iv) पाठ्यक्रम छात्रों की विभिन्न योग्यताओं एवं क्षमताओं का विकास करने वाला होना चाहिए।
6. अपव्यय एवं अवरोधन की समस्या–
प्राथमिक स्तर के अनुरूप ही माध्यमिक स्तर पर भी अपव्यय एवं अवरोधन की समस्या दृष्टिगोचर होती है। विद्यालय की शोचनीय स्थिति, योग्य एवं पर्याप्त शिक्षकों का अभाव तथा अभिभावकों की आर्थिक स्थिति आदि अनेक कारणों से प्रतिवर्ष अनेक छात्र एवं छात्राएँ माध्यमिक शिक्षा से वंचित रह जाते हैं अथवा एक ही कक्षा में कई वर्षों तक अनुत्तीर्ण हो जाते हैं। वर्तमान में हाईस्कूल तथा उसके समान स्तर की परीक्षाओं में बैठने वाले विद्यार्थियों में से 50% से कम विद्यार्थी ही उत्तीर्ण हो पाते हैं तथा आधे से अधिक विद्यार्थियों का समय एवं धन बेकार हो जाता है। इस प्रकार यह अपव्यय एवं अवरोधन, माध्यमिक शिक्षा के लिए एक अभिशाप है।
अपव्यय एवं अवरोधन की समस्या के निराकरण हेतु कुछ सुझाव निम्नलिखित हैं
(i) शिक्षालयों में योग्य एवं प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति की जाए।
(ii) पाठ्यक्रम में परिवर्तन किया जाए।
(iii) विभिन्न शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाए।
(iv) परीक्षा प्रणाली को उपयोगी बनाया जाए।
(v) अध्यापन के समय शिक्षण के उचित साधनों का यथासमय प्रयोग किया जाए।
(vi) विद्यालयी-वातावरण में भी परिवर्तन किया जाए।
7. दोषयुक्त परीक्षा प्रणाली-
माध्यमिक शिक्षा की परीक्षा प्रणाली भी अत्यन्त दोषयुक्त है। सम्पूर्ण सत्र में छात्रों की परीक्षा प्राय: दो बार ली जाती है। मासिक परीक्षाओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता तथा न ही बालक के गृह-कार्य पर अंक प्रदान किए जाते हैं। बालक का मूल्यांकन उसने परीक्षा में क्या व कितना लिखा है। इसी के आधार पर किया जाता है तथा उसे अगली कक्षा में प्रवेश दे दिया जाता है। इसके परिणामस्वरूप छात्र वर्ष भर अध्ययन करने की अपेक्षा केवल परीक्षा के समय ही नोट्स व कुंजियों का आश्रय लेकर तथा कुछ चयनित प्रश्नों को रटकर परीक्षा में प्रश्नों का उत्तर लिख आते हैं। बालकों की निबन्धात्मक परीक्षा लेने से इस बात की पूर्ण रूप से जानकारी नहीं मिल पाती है कि छात्र को विषय का उचित ज्ञान है भी या नहीं। इस प्रकार की परीक्षा-प्रणाली के द्वारा छात्रों के समुचित मानसिक पक्ष का मूल्यांकन सम्भव नहीं हो पाता।
इस समस्या के निराकरण हेतु प्रचलित परीक्षा प्रणाली में सुधार किया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में मुदालियर आयोग द्वारा प्रस्तुत सुझाव अग्रलिखित हैं
(i) परीक्षा में केवल निबन्धात्मक प्रश्न ही नहीं पूछे जाने चाहिए।
(ii) बाह्य परीक्षाएँ कम होनी चाहिए।
(iii) विद्यालय में प्रत्येक विद्यार्थी का एक विद्यालय अभिलेख होना चाहिए, जिसमें विद्यार्थी द्वारा अनेक क्षेत्रों में प्राप्त की गई सफलताओं का उल्लेख किया जाना चाहिए।
(iv) बाह्य एवं आन्तरिक परीक्षाओं के कार्यों का मूल्यांकन; अंकों के स्थान पर ग्रेडों में किया जाना चाहिए।
(v) विद्यार्थियों के कार्यों का मूल्यांकन करते समय, आन्तरिक परीक्षाओं के साथ ही, विद्यालयी अभिलेखों तथा नियतकालीन परीक्षाओं को भी महत्त्व दिया जाना चाहिए।
कोठारी आयोग ने प्रचलित परीक्षा प्रणाली में सुधार हेतु निम्नलिखित सुझाव दिए हैं
(i) निदानात्मक व वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं को विशेष महत्त्व दिया जाए।
(ii) छात्रों का आन्तरिक मूल्यांकन व्यापक रूप से किया जाए।
(iii) छात्रों के समस्त पक्षों का मूल्यांकन किया जाए तथा
(iv) बाह्य परीक्षाओं के साथ ही आन्तरिक मूल्यांकन को भी परीक्षा को उत्तीर्ण करने का आधार माना जाए।
8. उद्देश्यहीनता-
माध्यमिक शिक्षा की प्रमुख समस्या है-शिक्षा का उद्देश्यहीन होना। माध्यमिक शिक्षा को उद्देश्यहीनता के अभाव में अध्यापकों को शिक्षण के उद्देश्यों का स्पष्ट ज्ञान नहीं रहता तथा न वे इसके लिए सुनियोजित प्रयास ही कर पाते हैं। इसी कारण विद्यार्थियों में वांछित परिवर्तन नहीं हो पाता है। उद्देश्यहीनता के वशीभूत हो छात्र भी प्राय: अधर में रह जाते हैं तथा सार्थक अधिगम न हो पाने के कारण प्राय: अपने भविष्य को अन्धकारमय होता हुआ देखते रह जाते हैं।
इस समस्या के समाधान हेतु माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य सुनिश्चित किए जाएँ। इसके अतिरिक्त इस शिक्षा को एक स्वतन्त्र इकाई बनाया जाए।
मुदालियर आयोग द्वारा निर्धारित माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित हैं
(i) बालक के व्यक्तित्व का विकास करना।
(ii) व्यावसायिक कुशलता में वृद्धि करना।
(iii) लोकतान्त्रिक नागरिकता का विकास करना।
(iv) नेतृत्व शक्ति का विकास करना।
9. व्यवसायीकरण का अभाव-
आज हमारे देश की माध्यमिक शिक्षा एकमार्गीय है। उसके पाठ्यक्रम में विभिन्नता का अभाव है तथा उसमें सर्वत्र व्यवसायीकरण का अभाव भी दृष्टिगोचर होता है। मुदालियर आयोग ने पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में यह सुझाव दिया था कि पाठ्यक्रम का विभिन्नीकरण कर दिया जाए तथा बहुउद्देशीय विद्यालयों का गठन किया जाए।
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