Sunday, February 27, 2022

भारत में प्राथमिक शिक्षा की प्रमुख समस्याएँ Major problems of primary education in India

भारत में प्राथमिक शिक्षा की प्रमुख समस्याएँ Major problems of primary education in India 


निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत प्राथमिक शिक्षा से सम्बन्धित समस्याओं का उल्लेख संक्षेप में किया गया है


1. अपव्यय एवं अवरोध की समस्या–


प्राथमिक शिक्षा के विकास में बाधक विभिन्न समस्याओं में अपव्यय एवं अवरोध एक सर्वाधिक गम्भीर समस्या है। अपव्यय से तात्पर्य; छात्रों पर किए जाने वाले उस धन, शक्ति एवं समय से है, जो प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने वाले बालकों के लिए किसी भी प्रकार से लाभदायी सिद्ध नहीं होता है। साथ ही जब एक बालक, एक ही कक्षा में कई वर्ष तक अनुत्तीर्ण होता है, तब उसे अवरोधन की समस्या कहा जाता है। यह समस्या भारत में काफी समय से निरन्तर चली आ रही है तथा इस समस्या के समाधान हेतु किए गए प्रयास इस दिशा में पूर्णतया असफल रहे हैं। अभिभावकों की रूढ़िवादिता एवं अशिक्षा भी, इस समस्या का एक प्रमुख कारण है। इस प्रकार के अभिभावक; अपने बालकों को शिक्षा प्राप्त कराना आवश्यक नहीं समझते हैं। विशेषकर बालिकाओं की शिक्षा की वे पूर्ण उपेक्षा करते हैं। अधिकांश अभिभावकों की करुणाजन्य आर्थिक दशा एवं वर्तमान प्राथमिक विद्यालयों में व्याप्त अनैतिकतापूर्ण वातावरण भी इसके लिए उत्तरदायी हैं। प्राय: अधिकांश बालक; इसी कारण शैक्षिक सत्र के मध्य में ही प्राथमिक शिक्षा से वंचित हो जाते हैं, एक ही कक्षा में निरन्तर अनुत्तीर्ण होते रहते हैं अथवा प्राथमिक विद्यालयों में प्रवेश ही नहीं ले पाते। यह समस्या अत्यन्त गम्भीर है, जिसका निराकरण; यथाशीघ्र किया जाना चाहिए। इसके लिए यह आवश्यक है कि प्राथमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम को, स्थानीय आवश्यकताओं एवं बालकों की रुचियों के अनुरूप निर्धारित किया जाए। शिक्षण विधि एवं परीक्षा प्रणाली में अपेक्षित सुधार किया जाए, प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क बनाया जाए, विद्यालय एवं परिवार के सम्बन्धों को वांछित स्तर तक विकसित किया जाए, विद्यालय के भौगोलिक एवं सामाजिक वातावरण में अपेक्षित परिवर्तन किया जाए तथा जनसंख्या के अनुपात के अनुसार प्राथमिक विद्यालयों की पर्याप्त व्यवस्था की जाए। सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध जन-आन्दोलन, प्रौढ़ शिक्षा का प्रसार तथा अभिभावकों की आय में सन्तोषजनक वृद्धि आदि भी; इस दृष्टि से विशेष सहायक हो सकते हैं। 


2. दोषपूर्ण शिक्षा प्रशासन-


शिक्षा के समुचित विकास एवं नियन्त्रण का सर्वाधिक उत्तरदायित्व शैक्षिक प्रशासन के अधीन होता है। वस्तुतः शिक्षा प्रशासन की अयोग्यता ही; प्राथमिक शिक्षा के दोषपूर्ण होने का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण है। प्राथमिक विद्यालयों के प्रधानाध्यापक तथा शिक्षा विभाग के पदाधिकारी इस सन्दर्भ में पूर्ण उपेक्षायुक्त व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, जिससे प्राथमिक शिक्षा का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता चला जा रहा है। साधारणतया स्थानीय संस्थाओं के पास इन विद्यालयों की दशा में सुधार करने हेतु पर्याप्त धन का भी अभाव रहता है, परन्तु यह कहना भी असंगत न होगा कि प्राप्त धन का सदुपयोग करने के स्थान पर उसका दुरुपयोग ही अधिक किया जाता है। शैक्षिक प्रशासन के साथ-साथ, शिक्षा-निरीक्षकों एवं पर्यवेक्षकों का भी, शिक्षा के स्तर में सुधार करने की दृष्टि से प्रमुख योगदान रहता है, परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से इन विद्यालयों के निरीक्षण हेतु पर्याप्त निरीक्षकों एवं पर्यवेक्षकों की नियुक्ति नहीं की गई है। जिन पर्यवेक्षकों एवं निरीक्षकों को इस उद्देश्य हेतु नियुक्त किया भी गया है, वे अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह ईमानदारी से करने के स्थान पर केवल कुछ औपचारिकताओं का ही निर्वाह करते हैं। 


स्थानीय संस्थाओं पर शिक्षा का उत्तरदायित्व सौंपने के स्थान पर केन्द्र सरकार अथवा राज्य सरकारों को प्राथमिक शिक्षा के विकास में स्वयं रुचि लेनी चाहिए तथा इसका समस्त उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेना चाहिए। विगत अनुभवों के आधार पर यह स्पष्ट रूप से विदित हो चुका है कि ये संस्थाएँ शिक्षा की निर्धारित नीतियों के अनुरूप कार्य करने में पूर्णतया अक्षम सिद्ध हुई हैं। प्राथमिक शिक्षा के नियन्त्रण हेतु एक ऐसी केन्द्रीय समिति की स्थापना भी होनी चाहिए, जो प्राथमिक शिक्षा के प्रसार एवं विकास पर समग्र रूप से ध्यान दे सके। इसके अतिरिक्त प्राथमिक विद्यालयों में केवल योग्य एवं अनुभवी प्रधानाध्यापक ही नियुक्त किए जाने चाहिए तथा पर्याप्त शिक्षा निरीक्षकों एवं पर्यवेक्षकों के द्वारा समय-समय पर इन विद्यालयों की प्रगति अथवा अवनति का वस्तुनिष्ठ निरीक्षण एवं पर्यवेक्षण होना चाहिए। 


3. प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति-


यदि सम्पूर्ण भारत में संचालित प्राथमिक विद्यालयों का निष्पक्ष सर्वेक्षण किया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि इन विद्यालयों की दशा अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है। विद्यालयों में पर्याप्त कक्षाओं की व्यवस्था तथा फर्नीचर का, इन विद्यालयों में पूर्ण अभाव है। बालकों के शारीरिक विकास हेतु आवश्यक खेल-सामग्री एवं खेलों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। इसके अतिरिक्त अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से भी इन विद्यालयों में पूर्ण उदासीनतायुक्त मनोवृत्ति परिलक्षित होती है। 


बालकों के विकास हेतु इन विद्यालयों की वर्तमान दशाओं में परिवर्तन करना अत्यन्त आवश्यक है। अत: केन्द्र एवं राज्य सरकारों तथा शिक्षा का प्रबन्ध करने वाली अन्य स्थानीय संस्थाओं का यह परम उत्तरदायित्व कि वे इन विद्यालयों में छात्रों के अनुपात के अनुसार आवश्यक कक्षा-भवनों का निर्माण कराएँ तथा प्रत्येक विद्यालय हेतु खेल के मैदान की उपयुक्त व्यवस्था करें। बालकों के बैठने की समुचित व्यवस्था हेतु टाट-पट्टियों अथवा फर्नीचर का भी प्रबन्ध किया जाना चाहिए। विद्यालय-भवनों का निर्माण इस प्रकार किया जाना चाहिए, जिससे बालकों को पर्याप्त वायु, प्रकाश अथवा धूप उपलब्ध हो सके। बालकों के शारीरिक विकास हेतु मध्यान्तर के समय पौष्टिक खाद्य-पदार्थों की व्यवस्था, रोगों की रोकथाम हेतु दवाइयों का वितरण तथा पर्याप्त खेल-सामग्री पर भी यथावश्यक व्यय किया जाना चाहिए। 


4. प्राथमिक शिक्षा का दोषपूर्ण पाठ्यक्रम-


प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम; बालकों की आवश्यकताओं एवं रुचियों के अनुरूप निर्धारित नहीं किया गया है। प्रायः अधिकांश विद्यालयों में पाठ्यक्रम को अधिकाधिक विशद बनाने पर तो ध्यान दिया गया है परन्तु उसे बालकों के जीवन से सम्बद्ध करने की पूर्ण अवहेलना की गई है। इसके अतिरिक्त वर्षपर्यन्त बालकों का विकास केवल सैद्धान्तिक ज्ञान के द्वारा ही करने का प्रयास किया जाता है। उनकी सृजनात्मक शक्तियों के विकास हेतु पाठ्य-सहगामी क्रियाओं की कोई व्यवस्था नहीं है। केवल सैद्धान्तिक ज्ञान को रटने के कारण बालकों की स्वाभाविक शक्तियों का पर्याप्त विकास; इस प्रकार के पाठ्यक्रम के द्वारा नहीं हो पाता है तथा वे  पाठ्यक्रम में वांछित रुचि एवं उत्साह प्रदर्शित नहीं करते हैं। 


प्राथमिक स्तर के बालकों को ‘करके सीखने के सिद्धान्त के द्वारा पाठ्यक्रम में निहित ज्ञान का अपेक्षाकृत अधिक सुगमतापूर्वक ज्ञान कराया जा सकता है। अत: यह आवश्यक है कि इस स्तर के पाठ्यक्रम में पाठ्य-सहगामी क्रियाओं एवं हस्तकला आदि का प्रावधान किया जाए। हस्तकला में प्रवीण शिक्षकों की नियुक्ति; प्राथमिक विद्यालयों में यथाशीघ्र की जाए। इसके अतिरिक्त पाठ्यक्रम को अधिक विस्तृत बनाने के स्थान पर, उसमें उतने ही अनुभवों को संकलित किया जाए, जिनका ज्ञान बालकों को निर्धारित अवधि में सहजतापूर्वक प्रदान किया जा सके। 


5. राजनीतिक स्तर पर वांछित प्रयास का अभाव-


शिक्षा के समस्त स्तरों में प्राथमिक स्तर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्तर है। संख्यात्मक दृष्टि से भी इस स्तर से सम्बन्धित विद्यालयों की संख्या सर्वाधिक होती है। भारत जैसे विशाल देश में सर्वाधिक प्रयासों के अभाव में अधिसंख्य प्राथमिक विद्यालयों की समुचित व्यवस्था सम्भव नहीं हो सकती। इस स्तर पर आवश्यक प्रगति हेतु यह आवश्यक है कि राष्ट्रीय सरकार द्वारा उचित शिक्षा नीति का निर्माण किया जाए तथा निर्धारित नीतियों को यथासमय क्रियान्वित किया जाए। परन्तु प्राथमिक शिक्षा के सम्बन्ध में विभिन्न उल्लेखनीय नीतियों का निर्धारण करने के उपरान्त भी क्रियान्वयन की दृष्टि से जो प्रयास भारतीय सरकार द्वारा किए गए हैं, वे प्रायः नगण्य हैं। प्राथमिक शिक्षा के विकास में सम्बन्धित समय-समय पर प्राप्त आँकड़े इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि भारत में प्राथमिक शिक्षा के विकास की गति सुनिश्चित रूप से मन्द रही है। प्रारम्भ में भारतीय सरकार ने बेसिक शिक्षा को प्राथमिक विद्यालयों की शिक्षा का आधार बनाया, परन्तु आर्थिक अभाव के कारण यह योजना पूर्णतया असफल रही तथा समय एवं धन का दुरुपयोग हुआ। शिक्षा के प्रति भारतीय राजनीतिजा का उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण तथा वोट की राजनीति में संलग्न रहना भी, इस दिशा में असफलता का प्रमुख कारण रहा। 


इस समस्या का समाधान केवल उसी दशा में हो सकता है, जब भारतीय राजनीति में शिक्षित, योग्य एवं निष्ठापूर्ण राजनीतिज्ञों का आविर्भाव हो तथा वे शिक्षा के महत्त्व से भली-भाँति अवगत हों। स्वतन्त्रता प्राप्ति से लेकर अभी तक इस दिशा में प्राप्त सफलताओं की नगण्यता का विश्लेषण करने के उपरान्त यह स्पष्टतः कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीतिज्ञों की अधिकांश संख्या शिक्षा के महत्त्व को आत्मसात् करने में सर्वथा विफल रही है। देश की अनेक आन्तरिक एवं बाह्य समस्याओं तथा स्वार्थ-प्रेरित संकीर्ण प्रवृत्तियों के कारण भी राजनीतिज्ञों ने अपनी क्षमता एवं समय व्यर्थ नष्ट किया है। 


6. सामाजिक चेतना का अभाव-


प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक विभिन्न समाज-सुधारकों के निरन्तर प्रयास के पश्चात् भी भारत में अपेक्षित सामाजिक चेतना का पर्याप्त अभाव रहा है। अनेक सामाजिक कुरीतियाँ आज भी पूर्ववत् विद्यमान हैं। अस्पृश्यता, धर्मान्धता, परदा-प्रथा, बाल-विवाह आदि इसी प्रकार की कुरीतियों के कारण समाज के अधिकांश व्यक्ति, संकीर्ण भावनाओं एवं अन्धविश्वासों में आबद्ध हैं तथा वे बालक-बालिकाओं की शिक्षा को यथावश्यक महत्त्व प्रदान नहीं करते हैं। भारतवर्ष के अधिकांश राज्यों में वर्तमान युग में भी ऐसे अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं, जहाँ बालिकाओं का अल्पायु में विवाह कर दिया जाता है तथा परदा-प्रथा के कारण बालिकाओं को विद्यालय भेजने में अभिभावक संकोच करते हैं। अस्पृश्यता के कारण भी अनेक बालक व बालिकाएँ; प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं। 


उपर्युक्त समस्या का समाधान केवल उसी दशा में सम्भव हो सकता है, जब राज्य, विद्यालय एवं समाज द्वारा, समाज में व्याप्त कुरीतियों का उन्मूलन करने का निष्ठापूर्ण प्रयास किया जाए तथा समाज में इन बुराइयों के प्रति पर्याप्त सामाजिक चेतना उत्पन्न की जाए। शिक्षा के माध्यम से विद्यालय में अध्ययन करने वाले छात्र एवं छात्राओं के मस्तिष्क में प्रारम्भ से ही ऐसी मनोवृत्ति का विकास किया जाना चाहिए, जिससे वे अपने भाजी जीवन में अभिभावक बनने पर इस प्रकार के अन्धविश्वासों से सर्वथा दूर रहते हुए अपने बालकों को शिक्षा का वांछित अवसर सुलभ करा सकें। केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकार; विभिन्न श्रव्य-दृश्य सहायक सामग्री द्वारा निरन्तर प्रचार के माध्यम से भी, समाज की प्रगति में घातक; इस प्रकार की मनोवृत्तियों एव भावनाओं का उन्मूलन करने में सहायक हो सकती हैं। समाज के बुद्धिजीवी-वर्ग, साहित्यकारों, अध्यापकों आदि का भी यह कर्त्तव्य है कि वे इस दिशा में सामाजिक जागृति हेतु यथासम्भव प्रयास करें। 


7. भौगोलिक एवं आर्थिक समस्याएँ-


जनसंख्या एवं क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत एक विशाल देश है। भौगोलिक दृष्टि से यहाँ के विभिन्न क्षेत्र एवं जलवायु में पर्याप्त विभिन्नता है। अनेक रेगिस्तानी एव पर्वतीय क्षेत्रों में प्राथमिक शिक्षा को सर्वसुलभ कराना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। जलवायु परिवर्तन, आवागमन के साधनों का अभाव आदि अनेक कारण; इस दिशा में बाधक सिद्ध होते हैं। दूसरी ओर मैदानी क्षेत्रों की जनसंख्या इतनी अधिक है कि वहाँ प्रत्येक एक किलोमीटर पर प्राथमिक विद्यालयों की आवश्यकता होती है। प्राथमिक विद्यालयों की आवश्यकता; व्यावहारिक दृष्टि से एक अत्यन्त दुष्कर कार्य है। साथ ही धन का अभाव भी प्राथमिक शिक्षा के अभाव में अत्यन्त अवरोधक है। प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था का उत्तरदायित्व; अधिकांशतया स्थानीय संस्थाओं पर होता है, जिनकी आय के स्रोत अत्यन्त सीमित होते हैं तथा शिक्षा के साथ-साथ अन्य अनेक उत्तरदायित्वों का निर्वाह भी उन्हें करना पड़ता है। इस कारण प्राथमिक शिक्षा की उपेक्षा होती है। 


इस समस्या के निवारण हेतु देश की सरकार के द्वारा किए गए प्रयास विशेष महत्त्व रखते हैं। सरकारी प्रयासों के अभाव में इस समस्या का समाधान आवश्यक है। इस दृष्टि से यह आवश्यक है कि केन्द्र एवं राज्य सरकारें, प्राथमिक शिक्षा के विकास का उत्तरदायित्व स्वमेव स्वीकार करें अथवा विभिन्न स्थानीय संस्थाओं को पर्याप्त अनुदान उपलब्ध कराएँ। अभिभावकों की आर्थिक दशा में यथोचित परिवर्तन के लिए भी सरकार को प्रयास करना चाहिए। 


8. भाषा की समस्या-


भाषा की समस्या प्राथमिक शिक्षा के विकास में निरन्तर बाधा उत्पन्न कर रही है। विभिन्न आयोगों द्वारा इस समस्या पर विचार करने के उपरान्त भी व्यावहारिक दृष्टि से इसका समाधान नहीं हो सका है। प्राथमिक स्तर पर बालकों को शिक्षित करने के माध्यम के रूप में केवल मातृभाषा ही प्रभावी रूप से प्रयोग में लायी जा सकती है, परन्तु भारत के प्रत्येक जिले की भाषा में पर्याप्त भिन्नता पायी जाती है। अत: व्यावहारिक रूप से यह समस्या उत्पन्न होती है कि क्षेत्रीय भाषा में कुशल अध्यापकों की नियुक्ति की व्यवस्था किस प्रकार की जाए। 


वस्तुत: शिक्षा के माध्यम की समस्या; सर्वाधिक गम्भीर समस्या है, जिसके निवारण के अभाव में बालकों को सुशिक्षित करने की कल्पना व्यर्थ है। अत: यह नितान्त आवश्यक है कि पूर्व स्थापित आयोगों द्वारा प्रस्तुत सुझावों की शीघ्र क्रियान्विति की जाए अथवा किसी नवीन आयोग की स्थापना करके इस सम्बन्ध में तत्काल निर्णय लिया जाए। यदि क्षेत्रीय भाषाओं में निपुण अध्यापकों की नियुक्ति द्वारा ही इस समस्या का हल निकल सकता है तो शीघ्रातिशीघ्र क्षेत्रीय भाषाओं में अध्यापकों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। 


9. शिक्षकों का अभाव-


भारत के समस्त बालकों की शिक्षा व्यवस्था हेतु, जहाँ पर्याप्त विद्यालयों की स्थापना करना अत्यन्त दुष्कर है, वहीं इन समस्त विद्यालयों में पर्याप्त अध्यापकों एवं अध्यापिकाओं की व्यवस्था अति दुष्कर है। भारत के लगभग 8 लाख गाँवों में इस प्रकार की व्यवस्था करना सहज कार्य नहीं है। इस प्रकार प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों की वांछित संख्या का अभाव, प्राथमिक स्तर के बालकों के विकास की उपेक्षा का प्रमुख कारण बन रहा है। जहाँ पर्याप्त संख्या में अध्यापक कार्यरत हैं, वहाँ उन अध्यापकों में पर्याप्त प्रशिक्षण के अभाव में वांछित योग्यता का पूर्णतया अभाव है। योग्य एवं प्रशिक्षित अध्यापक एवं अध्यापिकाएँ; या तो प्राथमिक विद्यालयों में नियुक्ति हेतु अपना आवेदन-पत्र ही नहीं भेजते हैं अथवा प्राथमिक विद्यालयों में नियुक्ति के कुछ समय उपरान्त अन्यत्र नियुक्त हो जाने पर अपना त्याग-पत्र देकर चले जाते हैं। प्राथमिक विद्यालयों के अध्यापकों हेतु अल्प-वेतनमान तथा अध्यापिकाओं हेतु आवासीय व्यवस्था का अभाव भी इस स्तर पर अध्यापक एवं अध्यापिकाओं को आकर्षित नहीं कर पाता। 


प्राथमिक स्तर की शिक्षा; समस्त स्तरों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। साथ ही पर्याप्त एवं योग्य शिक्षकों के अभाव में इस शिक्षा के विकास में किया गया कोई भी प्रयास सफल नहीं हो सकता है। अत: यह आवश्यक है कि प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों के वेतनमान में मन्तोषजनक वृद्धि की जाए तथा उन्हें आवश्यक सुविधाओं को सुलभ कराया जाए। साथ ही ग्रामीण अथवा दूरस्थ क्षेत्रों में कार्यरत महिला शिक्षकों हेतु आवासीय व्यवस्था का अनिवार्य रूप से प्रबन्ध किया जाए। प्राथमिक शिक्षा के विकास में संलग्न अध्यापिकाओं को विशाल स्तर पर शीघ्र प्रशिक्षित करने के प्रबन्ध करने चाहिए तथा उन्हें ग्रीष्मकालीन प्रशिक्षणों एवं सेवारत शैक्षिक कार्यक्रमों में भाग लेने हेतु प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

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