उचित होगा कि संसद के 50 वर्षों से अधिक के कार्यकरण पर एक विहंगम दृष्टि डाली जाए और उसकी उपलब्धियों तथा सफलता-विफलताओं का लेखा-जोखा तैयार करने का प्रयास किया जाए। भारत की संसद की कहानी बड़ी रोचक और प्रभावशाली है।
भारत की पहली संसद बनी 26 जनवरी, 1950 को, जब संविधान लागू हुआ और हमारे लोकतंत्रात्मक गणराज्य का जन्म हुआ। यह एक अस्थायी संसद थी। संविधान के अंतर्गत विधिवत प्रथम निर्वाचन 1951-52 में हुए। इस द्विसदनीय संसद के दो सदन थे-लोक सभा और राज्य सभा। प्रथम लोक सभा का गठन 17 अप्रैल, 1952 में हुआ और उसकी पहली बैठक 13 मई, 1952 को हुई।
प्रथम लोक सभा में कांग्रेस को 364 अर्थात 70 प्रतिशत से अधिक स्थान मिले थे। उसके अतिरिक्त और कोई भी दल इस स्थिति में नहीं था कि उसे संसदीय दल के रूप में या विपक्ष के रूप में मान्यता दी जा सकती।
हालांकि प्रथम लोक सभा सार्वभौम मताधिकार से चुनी गई थी, उसके अधिसंख्य सदस्य नहीं, तो कम-से-कम नेतृत्व अभिजात वर्ग से था। वे प्रायः शहरों में पले, विदेशों में अथवा कान्वेंट और महंगे पब्लिक स्कूलों में पढ़े-लिखे लोग थे। सबसे बड़ा अकेला व्यावसायिक समूह सदस्यों में वकीलों-बैरिस्टरों का था। शिक्षा के नाम पर 37 प्रतिशत स्नातक थे और 23.2 प्रतिशत दसवीं तक भी नहीं पढ़े थे। सदस्यों की औसत आयु 45 वर्ष 8 माह थी। महिलाओं की संख्या केवल 4.4 प्रतिशत थी। उनमें से कुछ बड़ी प्रभावशाली वक्ता थीं। रेणु चक्रवर्ती साम्यवादी थीं, बड़े धडल्ले से बोलती थीं और अकेले उन्होंने सदन का सबसे अधिक समय लिया।
सत्ताधारी कांग्रेस दल में कुछ बड़े गौरवशाली और प्रबुद्ध सांसद थे, जो अच्छे वक्ता होने के साथ-साथ संसदीय प्रक्रिया के मर्मज्ञ थे और अपने विषय पर साधिकार बोल सकते थे। जवाहरलाल नेहरू के अतिरिक्त इनमें थे पुरुषोत्तमदास टंडन, हरे कृष्ण मेहताब, एस. के. पाटिल, एन. पी. गाडगिल, स्वर्ण सिंह, आर. वी. वेंकटरमण, प्रो. एन. जी. रंगा, सेठ गोविंद दारा, ठाकर वारा भार्गव जैसे अनेक दिग्गज।
विपक्ष संखा में कमजोर और कोर कसोटे टुकड़ों में बँट रहा किंतु यह नहीं कहा जा सका कि विपक्ष प्रभानी नहीं रहा आशया उसकी पूमिका सशक्त नहीं रही। विपक्ष की तरफ से सदस्यों में कई प्रमुख स्वाधीनता सेनानी, शक्तिशाली वक्ता और कुशल संसदज्ञ थे जैसे आचार्य कृपलानी, अशोक मेहता, डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, ए.के. गोपालन, हीरेन मुखर्जी, एन.सी. चटर्जी, रेणु, चक्रवर्ती, एस.एस. मोरे, डा. लंका सुंदरम, मेघनाथ साहा, एच. वी. कामथ, सरदार हुकम सिंह आदि। विपक्ष ने सभी महत्वपूर्ण अवसरों पर अपनी उपस्थिति का पूरा मान कराया। विपक्ष द्वारा किए गए विरोध और प्रहारों के कारण ही 1956 में टी. टी. कृष्णमाचारी को मंत्री पद छोड़ना पड़ा।
दूसरी लोक सभा में भी कांग्रेस दल की भारी प्रधानता रही और कोई भी दल मान्यता प्राप्त विपक्ष न बन सका। कांग्रेस को 371 स्थान मिले जो प्रथम लोक सभा से 7 अधिक थे। दूसरी लोक सभा की एक विशेषता यह रही कि इसमें अनेक सामाजिक सुधार अधिनियम पारित हुए। संविधान में चार संशोधन हुए और इनमें से एक के द्वारा गोआ भारत संघ में शामिल हुआ। पहली बार लोक सभा और राज्य सभा की एक संयुक्त बैठक दहेज निरोधक विधेयक पर हुई। हालांकि संख्या की दृष्टि से विपक्ष कमजोर ही रहा, गुणात्मक स्तर पर देखें तो उसके सदस्य बड़ी उच्च कोटि की प्रतिभा वाले थे जिन्होंने संसदीय लोकतंत्र के सतर्क प्रहरी की भूमिका निभाने में कोई कमजोरी नहीं दिखाई।
संसद में शक्तिशाली विरोध और दबाव के कारण ही सरकार को बेरूबारी वाला मामला उच्चतम न्यायालय में राय के लिए भेजना पड़ा था। इस बीच कांग्रेस के भीतर भी एक विपक्ष था, जो नेतृत्व को परेशान रखता था। नेहरू जी के अनुसार वह अपने दल के लोगों से आई आलोचना का स्वागत करते थे और कहते थे कि कांग्रेस के अंदर सरकार की नीतियों की आलोचना करने का पूरा अवसर मिलता है। प्रसिद्ध मूंदा कांड कांग्रेस सदस्यों ने ही उजागर किया था जिसमें कांग्रेस के एक वरिष्ठ मंत्री को अपना पद छोड़ना पड़ा।
दूसरी लोक सभा के कार्यकाल की एक प्रमुख घटना थी केरल की निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार की बर्खास्तगी और राष्ट्रपति शासन का राज्य पर थोपा जाना। जब संसद में इस लोकतंत्र विरोधी कदम पर क्षोभ प्रकट किया गया तो नेहरू जी ने कहा कि वह स्वयं नहीं चाहते कि ऐसी स्थिति फिर कभी आए।
जब अटल बिहारी वाजपेयी ने जवाहरलाल नेहरू के एक पूर्व सचिव एम. ओ. मथाई के विरुद्ध विशेषाधिकार हनन की एक शिकायत पेश की तो स्वयं जवाहरलाल - नेहरू ने सिफारिश की कि मामले को रफा-दफा करने की कोई कोशिश न की जाए और उसे विशेषाधिकार समिति को सौंप दिया जाए। उन्होंने कहा :
"जब सदन का एक अंग चाहता है कि कुछ किया जाना चाहिए तो फिर यह मामला ऐसा नहीं रह जाता, जिसे बहुमत से तय किया जाए और उन भावनाओं की अवहेलना कर दी जाए।"
जब आचार्य कृपलानी की एक पाक्षिक पत्रिका 'ब्लिट्ज' में 'कृपलानी महाभियोग-बुरे, काले, नंगे झूठ' के शीर्षक से खिल्ली उड़ाई गई तो पूरे सदन ने उसकी भर्त्सना की, मामला विशेषाधिकार समिति को सौंपा गया और अंत में ब्लिट्ज के संपादक और संवाददाता को सदन के सामने बुलाकर लताड़ा गया।
लगातार तीसरी बार कांग्रेस की प्रधानता तीसरी लोक सभा में भी कायम रही। उसे 361 स्थान मिले जो 73 प्रतिशत से अधिक थे।
महिला सदस्यों की संख्या 34 हो गई थी जबकि पहली दो लोक सभा में यह केवल 27 और 22 थी। इसी काल में श्रीमती इंदिरा गांधी भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री बनीं। शिक्षा की दृष्टि से स्नातकों की संख्या में वृद्धि हुई। वकील-बैरिस्टर व्यावसायिक समूह अब पहले स्थान से गिरकर दूसरे पर आ गया। सबसे बड़े समूह के रूप में अब प्रतिष्ठित हुआ कृषक वर्ग। शासक दल में कई मेधावी संसदज्ञ और सक्षम वक्ता थे जो सरकार की आलोचना करने से भी नहीं चूकते थे।
1962 में चीन का आक्रमण, प्रधानमंत्री नेहरू और फिर प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु, 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध आदि तीसरी लोक सभा के कार्यकाल की प्रमुख घटनाएं थीं। इतने थोड़े अंतराल से, दो-दो युद्धों की त्रासदी और दो-दो प्रधानमंत्रियों की मृत्यु की विपदा के बावजूद राष्ट्र एकजुट रहा, संसद ने सही नेतृत्व और अत्यंत कुशल उत्तरदायित्व का परिचय दिया।
तीसरी लोक सभा में दोनों तरह के सांसद थे, कुछ अपने गले की शक्ति पर निर्भर और कुछ अपनी कुशाग्र बुद्धि और विद्वत्ता पर। कुछ दोनों ही तरह से विशिष्ट थे। मधु लिमये प्रक्रिया संबंधी नियमों और संविधान की धाराओं में पारंगत थे और संसद में अपने मंतव्य के लिए उनका समुचित प्रयोग करना जानते थे।
डा. लोहिया के कटीले तर्कों के सामने जवाहरलाल नेहरू तक को कई बार चुप हो जाना पड़ता था। उनके तीखे कटाक्ष तीर की तरह अपना काम करते थे।
ऐसे कितने ही ऐतिहासिक दृश्य याद आते हैं जब डा. लोहिया ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को अपनी क्रूर और कठोर आलोचनाओं और कटाक्षों का निशाना बनाया। तीन आने बनाम पंद्रह आने नामक वाद-विवाद में उन्होंने ठोस तर्क देकर सिद्ध किया कि देश के आम आदमी की दैनिक आय केवल साढ़े तीन आने या चार आने थी। पंडित जी की ओर इशारा करते हुए डा. लोहिया एक बार तो बोले, इन हजरत को देखिए, इनके कुत्ते का रोज का खर्च 25 रुपये और देश के आम आदमी की रोजाना आय 25 पैसे। डा. लोहिया ने प्रधानमंत्री की निजी सुरक्षा और सुविधाओं पर होने वाले भारी व्यय की भी आलोचना की। यह दूसरी दान है कि लोहिया जी के पूरे भाषण के बीच पंडित नेहरू अपने बाएं हाथ पर ठोड़ी टेके हुए चुपचाप बैठे रहे और मुस्कुराते हुए अपनी आलोचना सुनते रहे
मनीराम बागड़ी सदन के फर्श पर निडर भावना से, सभी कायदे-कानूनों की बोंदेश तोड़, सरकार को सताने और रास्ते पर लाने के लिए कुछ भी कर सकते थे अतः बड़े से बड़े मंत्री उनसे घबराते थे। हीरेन मुकर्जी, कृपलानी, रेणु चक्रवर्ती आदि की उच्चकोटि की वक्तृता सरकार की नीतियों और कृत्यों की बखिया उधेड़कर रख देती थी। ऐसे कुशल विपक्ष की अनदेखी करना सरकार के लिए असंभव था। साथ ही कांग्रेस के भीतर भी विरोध के स्वरों को नेतृत्व दबाकर नहीं रख सकता था।
नतीजा यह हुआ कि तीसरी लोक सभा के कार्यकाल में कई मंत्रियों को अपने पदों से हाथ धोना पड़ा। पूरे मंत्रिमंडल पर भी पहली बार अविश्वास का प्रस्ताव आया। रक्षामंत्री कृष्ण मेनन को प्रधानमंत्री की अनिच्छा के बावजूद मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देना पड़ा क्योंकि वह देश के सैन्यबलों को चीन के आक्रमण के विरुद्ध तैयार रखने में असफल रहे थे, बेकार की योजनाओं पर उन्होंने रक्षा मंत्रालय का धन व्यय किया था और सैन्यबलों का ध्यान उनके मुख्य क्षेत्र से हटाया था और उनको उच्च श्रेणियों में मतभेद और गुटबाजी पैदाकर सैन्यबलों का मनोबल गिराया था। गुलजारी लाल नंदा को गृहमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी क्योंकि वह दिल्ली में गोहत्या पिरोधी आंदोलन के समय कानून और व्यवस्था सुरक्षित नहीं रख सके थे। केशवदेव मालवीय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश से जांच करानी पड़ी और उनका मंत्री पद से त्यागपत्र लेना पड़ा क्योंकि उन पर किसी कंपनी के साय पक्षपात करने और उससे कुछ रुपया लेने का आरोप था। टी. टी. कृष्णमाचारी को भी मंत्री पद एक बार फिर छोड़ना पड़ा, जब 10 सांसदों ने उनके विरुद्ध एक ज्ञापन राष्ट्रपति को भेजा जिसमें उनके द्वारा अपने मंत्री पद के दुरुपयोग के आरोप थे।
चौथी लोक सभा में विपक्ष बड़ा भारी भरकम, योग्य और प्रभावशाली था। उनके प्रमुख सदस्यों की सूची देश की बड़ी से बड़ी राजनैतिक हस्तियों का परिचय फ-सा लगती थी। उनमें कुछ नाम :: आचार्य कृपलानी, डा. लोहिया, मधु लिमये, प्रोफेसर हीरेन मुकर्जी, एस. एम. बनर्जी, विजयलक्ष्मी पंडित, प्रकाशवीर शास्त्री, अटल बिहारी वाजपेयी, पीलू मोदी, एम. आर. मसानी, कंवर लाल गुप्त, सुरेन्द्रनाथ द्विवेदी, ज्योतिर्मय बसु. प्रोफेसर एन. जी. रंगा, सुचेता कृपलानी, ए. के. गोपालन, जॉर्ज फनांडीस, इंद्रजीत गुप्त, बलराज मधोक, हेम बरुआ और अंतिम किंतु बहुत महत्वपूर्ण माय पाई। यह सब ऐसे नाम थे जिनसे देश का घर-घर, जन-जन परिचित था और ले जनहित के लिए लड्ने तथा संसदीय जीवन और संस्थाओं में अपने परी योगदान के लिए व्यापक रूप से जाने जाते थे।
सत्ताधारी कांग्रेस दल में भी कुशल सांसदों की कमी नहीं थी। इनमें कई वरिष्ठ विधिवेता, राजनेता और अनुपयी प्रशासक थे जैसे टा. त्रिगुण सेन, यी. के. आर. वी. राव, हुमायूं कवीर, एम. सी. चागला, ए. एन. पुल्ला, अशोक मेहता और के. एल. राव । उभरते हुए नए युवा चेहरे थे दिनेश सिंह, आई. के. गुजराल, के. सी. पंत, डा. कर्ण सिंह, डी. पी. चट्टोपाध्याय, नुरुल हसन और तारकेश्वरी सिन्हा।
चौथी लोक सभा के सदस्यों में 66 प्रतिशत स्नातक या उससे भी अधिक शिक्षित थे। व्यावसायिक समूह की दृष्टि से कृपक वर्ग अव भी प्रमुख बना रहा । वकील-बैरिस्टर अब तीसरे स्थान पर पहुंच गए और दूसरे नंबर पर आए. राजनैतिक और सामाजिक कार्यकर्ता। संसदीय कार्यवाही में बढ़ती हुई अनुशासनहीनता और शोरगुल की नई बढ़ती संस्कृति के प्रति लोक सभा में चिंता प्रकट की गई। संविधान में तीन संशोधन और किए गए। राजा-महाराजों की पेंशन आदि समाप्त करने से संबंधित विधेयक राज्य सभा में पास न हो सका और लोक सभा को भंग कर ताजा चुनाव कराए गए।
इसी बीच कांग्रेस के भीतर भी सैद्धांतिक, व्यक्तिपरक और सत्तागत संघर्ष पनप रहा था और किसी समय भी, किसी तरह भी विस्फोट हो सकता था।
राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव आया तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के अपने मनोनीत प्रत्याशी संजीव रेड्डी के विरुद्ध काम किया, स्वतंत्र प्रत्याशी वी. वी. गिरी का समर्थन किया। गिरी जीत गए। इंदिरा गांधी और कांग्रेस सिंडीकेट के बीच लड़ाई ‘आत्मा बनाम अनुशासन' के नारे के नीचे लड़ी गई। चौथी लोक सभा के नवें सेशन (नवंबर-दिसंबर 1969) के बीच विशालकाय कांग्रेस दल का विभाजन हो गया। कांग्रेस संसदीय दल के 62 सदस्य दल जोड़कर बाहर चले गए और उन्होंने कांग्रेस (ओ) नाम से विपक्ष में बैठना तय किया। सरकार का पूर्ण बहुमत समाप्त हो गया। सत्ताधारी कांग्रेस अल्पमत में आ गई और कांग्रेस (ओ) अथवा कांग्रेस (संगठन) 55 सदस्यों के साथ एक नए संसदीय पार्टी और संसदीय इतिहास में पहली बार मान्यता प्राप्त विपक्ष बन गई। डा. राम सुभग सिंह को इस संसदीय दल का नेता होने के नाते विपक्ष का नेता भी माना गया।
पांचवीं लोक सभा में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस एक बार फिर भारी बहुमत के साथ लौटी। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस (ओ) को लज्जाजनक हार का मुंह देखना पड़ा। क्षेत्रीय दलों की भी काफी क्षति हुई। बहुत से प्रमुख विपक्षी नेता वापस से नहीं आए। जो बचे उनमें विशेष थे-ज्योतिर्मय बसु, अटल बिहारी वाजपेयी, पीलू मोदी, मधु लिमये, पी. जी. मावलंकर आदि। महिला सदस्यों की संख्या में भी पुनः भारी कमी आई। केवल 22 महिला सदस्य चुनकर आ पाईं।
पांचवीं लोक सभा कई प्रकार से बहुत महत्वपूर्ण रही। कई ऐसी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाएं हुईं जिनको लेकर संसद में गंभीर वाद-विवाद हुए। कई बार तो सदन के वातावरण में इतना तनाव हो जाता था कि तत्कालीन अध्यक्ष डा. ढिल्लो के अनुसार उन्हें एस्परीन की गोलियां खाकर आना पड़ता था। नागरवाला मामले में स्टेट बैंक द्वारा मौखिक आदेश पर 60 लाख रुपया दिए जाने का मामला उठाने और अध्यक्ष के आदेशों की अवहेलना करने पर संसद में विपक्षी सदस्य ज्योतिर्मय बसु को सदन से निलंबित किया गया। आंतरिक सुरक्षा विधेयक को लेकर लंबी बहस हुई। मधु लिमये आदि ने न्यायाधीशों की वरीयता इंदिरा गांधी द्वारा अनदेखी किए जाने का मामला उठाया। रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र का पांडिचेरी लाइसेंस केस उठाया गया।
भारत-सोवियत समझौता, सिक्किम का भारत में विलय, भारत-पाक युद्ध और बंगला देश की आजादी, शिमला समझौता आदि के लिए भी पांचवी लोक सभा को याद किया जाएगा। इसके काल में संसद सदस्यों के लिए पेंशन योजना प्रारंभ हुई तथा 19 संविधान संशोधन और 482 अन्य अधिनियम पारित हुए, जो किसी भी लोक सभा के लिए एक रिकार्ड था।
जून, 1975 में आंतरिक आपातकाल की उद्घोषणा की गई जिसकी संसदीय विपक्ष द्वारा कड़ी आलोचना की गई किंतु साम्यवादी नेता श्री इंद्रजीत गुप्त ने पूरा समर्थन किया। 14 घंटे की लंबी बहस के बाद उद्घोषणा संबंधी संकल्प स्वीकृत हो गया। सबसे अधिक आलोचना हुई दो बार, एक-एक वर्ष के लिए, लोक सभा का कार्यकाल बढ़ाने की और संविधान में 24वें संशोधन की। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन तथा आपातकाल में हुई ज्यादतियों के विरोध में असंतोष से कांग्रेस सरकार की स्थिति कमजोर हुई। पांचवीं लोक सभा में विपक्ष के कई प्रमुख नेताओं को कारावास भोगना पड़ा। संसद की कार्यवाही के समाचारपत्रों में प्रकाशन पर सेंसर लगाया गया। संसद के भीतर विपक्ष बहुत कमजोर था, शायद इसीलिए वह सड़कों पर उतर आया, देश भर में बंद हुए। लोक सभा और राज्य सभा के प्रक्रिया संबंधी नियमों में व्यापक परिवर्तन किए गए जिनसे सांसदों और विपक्ष के अधिकारों का अतिक्रमण हुआ।
1977 में छठी लोक सभा के लिए निर्वाचनों में कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई। आपातकालीन ज्यादतियों के विरोध में जनता ने अपना गुस्सा निकाला और उत्तरी भारत में तो बिहार, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश और दिल्ली से कांग्रेस को लोक सभा की एक सीट भी नहीं मिली। मध्य प्रदेश और राजस्थान से केवल एक-एक सीट मिली। दक्षिण में फिर भी कांग्रेस को ऐसी मात नहीं खानी पड़ी। कांग्रेस का 30 साल का आधिपत्य खत्म हुआ और मोरारजी के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी और कांग्रेस मान्यताप्राप्त विपक्ष बन गया। इंदिरा गांधी को लोक सभा की सदस्यता से निकाल दिया गया और जेल भी भेजा गया। किंतु जल्दी ही नेताओं की अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं के कारण जनता पार्टी में फूट पड़ गई। विपक्ष कांग्रेस की ओर से 10 जुलाई, 1979 को यशवंतराव चहाण ने मोरारजी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रखा और 15 जुलाई को मोरारजी ने त्यागपत्र दे दिया। दिन के लिए कांग्रेस की मदद से चरण सिंह की सरकार बनी और फिर ताजा चुनाव कराने पड़े। जनता पार्टी की सरकार ने मिले हुए स्वर्णिम मौके को गंवा दिया। पहली गैर कांग्रेस (जनता पार्टी की सरकार असफल हो गई थी।
छठी लोक सभा में सदस्यों की औसत आयु 52.1 थी। इसके अनुसार यह लोक सभा अब तक की सबसे अधिक आयु वाली लोक सभा थी। शिक्षा की दृष्टि से यह लोक सभा सबसे अधिक शिक्षित थी क्योंकि स्नातकों की संख्या सबसे अधिक और दसवीं से कम पढ़े लोगों की संख्या सबसे कम थी। महिलाओं की संख्या अबतक की लोक सभाओं में सबसे कम थी
1980 में इंदिरा गांधी और कांग्रेस एक बार फिर भारी बहुमत से लोक सभा में सत्ता पक्ष के रूप में वापस आए। कांग्रेस को 353, जनता पार्टी के दो गुटों को और 41, सी. पी. आई. को 11, सी. पी. एम. को 36 और कांग्रेस (यू) को 15 स्थान मिले। जनता पार्टियां और आगे विभाजित होकर चार दलों में बंट गईं और एक बार फिर लोक सभा में कांग्रेस के अतिरिक्त किसी दल को मान्यता प्राप्ति में के लिए जरूरी 50 स्थान प्राप्त नहीं थे अतः छठी लोक सभा में कोई मान्य विपक्ष नहीं बन सका। किंतु, गुणात्मक दृष्टि से विपक्ष इतना दुर्बल नहीं था।
सातवीं लोक सभा के लगभग पूरे कार्यकाल में विशेषकर सत्तापक्ष और विपक्ष में पंजाब की स्थिति को लेकर झड़पें होती रहीं। मंडल कमीशन की रिपोर्ट जिसमें पिछड़ों के लिए 27 प्रतिशत स्थानों के आरक्षण की सिफारिश की गई थी, देर रात तक वाद-विवाद का विषय बनी रही।
इंदिरा गांधी की हत्या की पृष्ठभूमि में हुए आठवें आम चुनावों में कांग्रेस एक बार फिर भारी बहुमत से जीती। 513 में से 402 स्थान उसे मिले । भारतीय जनता पार्टी को केवल 2 स्थान मिले और एक समय कांग्रेस को उखाड़ने वाली जनता पार्टी को केवल 14 स्थानों से संतोष करना पड़ा। किंतु, लोक सभा में आए विपक्ष के सदस्यों में योग्यता और अनुभव की कमी नहीं थी।
अंतर्राष्ट्रीय युवा वर्ष 1984 में भारत में अब तक के सबसे युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी बने। लोक सभा में कई चोटी के फिल्मी सितारे-अमिताभ बच्चन, वैजन्तीमाला और सुनील दत्त सदस्य बनकर आए। एक खास बात यह थी कि आठवीं लोक सभा के अधिसंख्य सदस्य एकदम नए थे। पढ़े-लिखे सदस्यों की संख्या में और वृद्धि हुई थी। 71 प्रतिशत सदस्य स्नातक या उससे और अधिक शिक्षित थे। केवल 7.9 प्रतिशत मैट्रिक से कम पढ़े थे। कृषक वर्ग और वकील वर्ग, व्यावसायिक समूहों में पहले और दूसरे नंबर पर थे।
गिनती में दुर्बल होते हुए भी विपक्ष ने जो भूमिका निभाई वह तो सरकारी विधेयकों के उदाहरण से स्पष्ट जाएगी। पोस्टल बिल (डाक विधेयक) का संसद के दोनों सदनों में जमकर विरोध हुआ। लोक सभा में विशेषकर काफी शोरगुल भी हुआ किंतु सरकार ने अपने भारी बहुमत के सहारे इसे पारित करा लिया। जनमत इसके विरुद्ध हो चुका था और विभिन्न मंचों पर इसका विरोध हुआ। अंत में स्वाधीन भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ जब सरकार की सलाह के बावजूद राष्ट्रपति डाक विधेयक को अपनी अनुमति नहीं दी और वह कानन न बन सका।
समाचारपत्रों की स्वाधीनता पर आघात करने वाले डिफेमेशन बिल का भी कुछ ऐसा ही हाल हुआ। भारी विरोध के विपरीत लोक सभा में उसे पास करा लिया गया लेकिन राज्य सभा में पहुंचते-पहुंचते सरकार को व्यापक आलोचना और विरोध के सामने झुकना पड़ा और यह विधेयक भी अधिनियम न बन सका।
आठवीं लोक सभा के दौरान 13 संविधान संशोधन पारित हुए। इनमें एक के द्वारा दल बदल पर रोक लगाने का और दूसरे में मतदान की आयु 21 से कम करके 18 करने का प्रावधान किया गया। 333 अन्य विधेयक भी पारित हुए।
आठवीं लोक सभा में जिन विषयों का बोलबाला रहा, वे थे पंजाव में आतंकवाद और अव्यवस्था, इंदिरा गांधी की हत्या पर ठक्कर समिति की रपट और हत्या के बाद हुई हिंसा पर रंगनाथ मिश्रा समिति की रपट, राष्ट्रपति जैल सिंह और प्रधानमंत्री के संबंधों को लेकर जिक्र, पनडुब्बी घोटाला, श्रीलंका की स्थिति और भारतीय शांति सेना की भूमिका, गोरखालैंड आंदोलन, शाहबानो का मामला आदि। भारी विरोध के बावजूद मुस्लिम (तलाक के अधिकार की सुरक्षा) विधेयक पास करा लिया गया यद्यपि बहस प्रातः पौने तीन बजे तक चली।
आठवीं लोक सभा के कार्यकाल में विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच बहुत सी तीखी झड़पें, गर्मागर्म वाद-विवाद और सदन से बहिर्गमन (वाक आउट) की घटनाएं हुईं किंतु, जिम्' मामले को उठाने में और लगातार चरम सीमा पर रखने में विपक्ष ने सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी भूमिका निभाई वह था बोफोर्स दलाली का मामला। कुल मिलाकर इस मामले में 64 घंटे और 16 मिनट की बहस हुई।
15 मार्च, 1989 को अनुशासनहीनता और पीठासीन अधिकारी की अवज्ञा के लिए 63 विपक्ष के सदस्यों का एक साथ निलंबित किया जाना भी एक अभूतपूर्व घटना थी।
20 जुलाई, 1989 को नियंत्रक महालेखापरीक्षक की रपट को लेकर विपक्ष को बोफोर्स के मामले में सत्तारूढ़ दल पर तीखा प्रहार करने का अवसर मिला। विपक्षी दलों ने अपनी संख्या की दुर्बलता के कारण संसद के दोनों सदनों में भारी हंगामा करने का सहारा लिया। एक दिन में आठ बार सदन को स्थगित करना पड़ा। तीन दिन तक सदन की कार्यवाही नहीं चलने दी गई। प्रमुख विपक्षी नेताओं ने स्वच भी इस हुल्लड़ में भाग लिया। इसके बाद विपक्ष के सामूहिक त्यागपत्र पर फैसला हुआ। क्योंकि 3-4 माह बाद आम चुनाव होने ही वाले थे अतः त्यागपत्र देने में कोई विशेष त्याग की बात नहीं थी। किंतु एक नया दृष्टांत अवश्य स्थापित हुआ जब इतिहास में पहली बार 24 जुलाई, 1989 को, एक ही सत्र (चौदहवें सत्र) में 107 विपक्ष के सदस्यों ने लोक सभा से त्यागपत्र दिया। 73 त्यागपत्र तो एक ही दिन में दिए गए।
आठवी लोक सभा के कार्यकाल में सदन से त्यागपत्र देने वालों की कुल संख्या 124 तक पहुंची, जो अपने आप में किसी भी लोक सभा के लिए एक रिकार्ड था।
इसके बाद जितने दिन भी सदन चला, विपक्ष का भाग सूना ही पड़ा रहा। यह दूसरी बात है कि जो रूठकर गए थे, वे नवीं लोक सभा में, न केवल वापस आए अपितु सरकारी पंक्तियों में बैठे।
नवीं लोक सभा के लिए हुए चुनावों में कांग्रेस की भारी हार हुई। 197 स्थान पाकर वह अब भी सबसे बड़ा दल बनी रही। सबसे बड़ा दल होते हुए भी कांग्रेस ने सरकार बनाने में पहल करने का कोई प्रयास नहीं किया। कांग्रेस (आई) को सरकारी विपक्ष और राजीव गांधी को विपक्ष के नेता के रूप में मान्यता मिली। राजीव गांधी विपक्ष के नेता के रूप में बैठने वाले पहले पूर्व प्रधानमंत्री थे। उन्होंने कहा वह सरकार के प्रहरी की भूमिका निभाने का प्रयास करेंगे।
नवीं लोक सभा में 74 प्रतिशत सदस्य स्नातक या स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त थे। नए सदस्यों में उत्तर प्रदेश से बसपा की सुश्री मायावती, माकपा की सुभाषिनी अली, मध्य प्रदेश से भाजपा की उमा भारती, आंध्रप्रदेश से कांग्रेस के एम. जे. अकबर और पंजाब से अतिंदरपाल सिंह, सिमरनजीत सिंह और इंदिरा गांधी की हत्या के दोषी बेअंत सिंह की विधवा विमल खालसा जोतकर आए थे।
पहली बार राष्ट्रपति के अभिभाषणों को दूरदर्शन और आकाशवाणी पर प्रसारित किया गया। यह लोक सभा और राज्य सभा की कार्यवाहियों के सीधे प्रसारित किए जाने की दिशा में पहल थी।
प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह ने अचानक लोक सभा और राज्य सभा में मंडल कमीशन की आरक्षण संबंधी सिफारिशें लागू किए जाने की घोषणा कर डाली। इसके विरोध में भयंकर आंदोलन फैला जिसमें अनेक युवकों ने सड़कों पर अपने को जला डाला।
भाजपा द्वारा समर्थन वापस लिए जाने से विश्वनाथ प्रतापसिंह की संयुक्त मोर्चा सरकार लोक सभा में अविश्वास प्रस्ताव पर हार गई और उसे त्यागपत्र देना पड़ा। यह पहला अवसर था जब लोक सभा में किसी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास हुआ और विपक्ष को सरकार को सत्ताच्युत करने का अवसर मिला। स्पष्ट था कि वी. पी. सिंह नेतृत्व देने में असफल रहे । कांग्रेस के समर्थन के आश्वासन से चंद्रशेखर नए प्रधानमंत्री बनाए गए किंतु कांग्रेस द्वारा समर्थन वापस लिए जाने पर उन्हें भी त्यागपत्र देना पड़ा और फिर ताजा चुनाव कराने पड़े।
नवीं लोक सभा में सांसदों ने जिन मुद्दों पर विशेष ध्यान खींचा, वे थे जम्मू और कश्मीर, पंजाब और असम की स्थिति तथा राष्ट्रविरोधी, विघटनकारी तत्वों और सीमा पार से उन्हें मिलने वाली सहायता । एक प्रमुख घटना रही भाजपा नेता लालकृष्ण आडवानी द्वारा रखा गया चुनावों में सुधार का संकल्प जिसमें धन, शक्ति और बाहुबल के दुरुपयोग पर पाबंदी लगाने की बात कही गई थी। संकल्प सर्वसम्मति से पारित हो गया। यह दूसरी बात है कि कोई भी दल ऐसा न हो, जो इस संकल्प के पारित होने से पहले या उसके बाद निर्वाचनों में इन दुरुपयोगों का दोषी न रहा हो।
नवीं लोक सभा में विपक्ष ने कई बार विषम स्थितियां पैदा की, शोरगुल, वाक-आउट, नारेबाजी सब कुछ हुआ लेकिन मुख्य बात यह रही कि सत्तापक्ष ने इस बहस में और भी आगे बढ़कर भाग लिया। नियमों, परंपराओं और संस्थाओं को विदा दे दी गई। जब 13 मार्च, 1991 को नवीं लोक सभा विघटित हुई तो प्रमुख संसदज्ञ और समाजवादी नेता मधु लिमये ने इसके कार्यकरण की कड़ी आलोचना की और नवीं लोक सभा की अंतिम बैठक के दिन को 'राष्ट्रीय लज्जा' का दिन बताया क्योंकि इस दिन संसद सदस्यों ने अपने लिए बढ़ी हुई पेंशन, भत्ते और ताजा सुभीते मंजूर करने का विधेयक सर्वसम्मति से पास कर डाला था। देश की गिरती हुई आर्थिक स्थिति की कोई चिंता किए बगैर दो घंटे के अंदर अरबों रुपये की मागें और बजट, 18 विधेयक और एक राज्य में राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा सब पारित कर दिए गए। सबसे लज्जाजनक था संसद सदस्यों को केवल एक साल सदस्य रहने के बाद पेंशन का प्रावधान। यह दूसरी बात है कि इस विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी नहीं मिली और यह कानून न बन सका, पर इसमें संसद की कोई भूमिका नहीं थी। यह लड़ाई संसद से बाहर जनता की ओर से समाचार माध्यमों और राष्ट्रपति भवन में लड़ी गई जिसकी एक अलग दिलचस्प कहानी है।
लोक सभा के दसवें आम चुनाव अब तक के सब चुनावों से अधिक हिंसा प्रधान रहे। पहली बार ऐसा हुआ कि एक प्रमुखतम विपक्षी नेता, कांग्रेस अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की निर्वाचन काल के बीच हत्या कर दी गई। संसद में विपक्ष की भूमिका के सिलसिले में इस हिंसा का विशेष महत्व था क्योंकि यदि कांग्रेस की विजय होती तो राजीव गांधी के ही प्रधानमंत्री बनने की पूरी आशा थी और यदि ऐसा न होता तो अवश्य ही वह विपक्ष के नेता होते। निर्वाचन के परिणाम आए तो पता चला कि किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था किंतु कांग्रेस सबसे बड़े संसदीय दल के रूप में उभरी थी। कांग्रेस ने राव के नेतृत्व में अपनी सरकार बनाई। गैर भाजपावाद का बोलबाला शुरू हुआ। भाजपा मान्यताप्राप्त विपक्ष बनी और लालकृष्ण आडवाणी नेता प्रतिपक्ष बने। बाद में यह दायित्व अटल बिहारी वाजपेयी ने संभाला। नरसिंह राव के मंत्रिमंडल के विरुद्ध बार बार अविश्वास प्रस्ताव आए किंतु हर बार नरसिंह राव मंत्रिमंडल अधिक सक्षम होकर सामने आया और विपक्ष कमजोर होता चला गया। जनता दल कई बार टुकड़ों में विभाजित हआ और हर बार दल बदलुओ ने कांग्रेस में आकर नरसिंह राव को बहुमत प्रदान कर दिया और उनके प्रधानमंत्रित्व को पांच साल के कार्यकाल के लिए पक्का कर दिया।
दसवीं लोक सभा में विपक्ष के प्रमुख संसदज्ञों में अटल बिहारी वाजपेयी चंद्रशेखर, लालकृष्ण आडवाणी, इंद्रजीत गुप्त, जसवंत सिंह, वी. पी. सिंह, सोमनाथ चटर्जी आदि थे |
संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में दसवीं लोक सभा अनेक आर्थिक घोटालों के लिए, राजनीति के अभूतपूर्व अपराधीकरण के लिए तथा जातिवाद और सांप्रदायिकता के कुत्सित प्रभाव के लिए सबसे अधिक जानी जाएगी। विपक्ष संसद में शोरगुल मचाकर चुप हो गया और राव सरकार को सत्ताच्युत करने में असफल रहा। कारण थे उसका निकम्मापन, दुर्भाग्य अथवा राव के साथ किन्हीं निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए मिलीभगत |
व्यापक भ्रष्टाचार और देश हित को गिरवी रखने के लिए सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना करने, उसके कारनामों का पर्दाफाश कर उसे उखाड़ने के बजाय, नेता एक-दूसरे की ही आलोचना करते रहे। किसी के लिए भाजपा अछूत थी, तो किसी के लिए साम्यवादी दल। इस सबके बीच सदन की स्वस्थ और सशक्त क्रियाशीलता बलि हो गई। कारण जो भी रहे हों, दसवीं लोक सभा के कार्यकाल में ससंद ने अपनी छवि खोई । सरकार और विपक्ष की तुलना में सदन से बाहर जनता और बुद्धिजीवी अधिक मुखर और प्रभावी रहे जिसका परिणाम हुआ 11वें आम चुनावों का नतीजा और उसके बाद पूर्व प्रधानमंत्री राव तथा अन्य मंत्रियों की स्थिति । संसदीय प्रकिया की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण काम 17 विभागीय स्थायी समितियों की स्थापना का हुआ। यद्यपि इस प्रकार की समितियों का प्रारंभ तो आठवीं लोक सभा में गठित तीन विशेष समितियों से ही हो गया था।
ग्यारहवीं लोक सभा में 28 राजनीतिक दलों को प्रतिनिधित्व मिला किंतु किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण सरकारों की अस्थिरता का दौर शुरू हुआ। तीन सरकारें और तीन प्रधानमंत्री आए गए। पहले अटल बिहारी वाजपेयी और फिर देवगौड़ा तथा गुजराल ! चार विश्वास प्रस्ताव आए। वाजपेयी सरकार को 13 दिन बाद ही त्यागपत्र देना पड़ा । एक विशेषता यह रही कि दो प्रधानमंत्री-देवगौड़ा और गुजराल-राज्य सभा के सदस्य थे।
11वीं लोक सभा के सदस्यों की औसत आयु 52.82 वर्ष थी। महिलाओं की भागीदारी 7.36 प्रतिशत थी। शिक्षा की दृष्टि से 77.36 प्रतिशत सदस्य स्नातक स्तर या उससे अधिक थे। व्यवसाय की पृष्ठभूमि के अनुसार सबसे बड़ा समूह 11वीं भी कृषकों का ही रहा।
लोक सभा के कार्यकरण में अनुशासनहीनता और शोरगुल मचाकर कार्यवाही को न चलने देने की विपक्ष की रणनीति का और सदन को बार-बार स्थगित किए जाने का बोलबाला रहा और अंत में केवल 18 महीने के भीतर ही सदन का विघटन और ताजा चुनाव अनिवार्य हो गए।
11वीं लोक सभा को जिन बातों के लिए सदैव स्मरण किया जाएगा उनमें से एक यह थी कि भारतीय संसद के इतिहास में पहती बार प्रतिपक्ष के एक सदस्य, पूर्णो संगमा को अध्यक्ष पद के लिए चुना गया। संगमा लोक सभा के सबसे अध्यक्ष थे। उनकी पहल पर देश की स्वाधीनता की स्वर्ण जयंती के उपलक्ष में संसद के दोनों सदनों का एक 6-दिवसीय विशेष अधिवेशन बुलाया गया। पहली बार किसी लोक सभा अध्यक्ष ने सदन में भाषण दिया। संगमा ने अपने भाषण में एक दूसरे स्वाधीनता संग्राम का आहान किया। यह एक रोचक संयोग था कि उनकी 50वीं वर्षगांठ के दिन ही, सितंबर 1997 को विशेष सत्र के अंतिम दिन एक एतिहासिक संकल्प पारित हुआ जिसमें दोनों सदनों में सर्वसम्मति से देश के लिए एक एजेंडा निर्धारित किया गया जिसके मुख्य मुद्दे थे कि निर्वाचन व्यवस्था में सुधार हो, राजनीतिक जीवन में पारदर्शिता, निष्ठा और जवाबदेही आए, संसदीय अधिकार क्षेत्र एवं गरिमा की रक्षा हो तथा राज्य व्यवस्था से अपराधीकरण मिटाने तथा बढ़ती हुई आबादी पर रोक लगाने के लिए सभी राजनीतिक दलों द्वारा एक प्रभावशाली राष्ट्रीय अभियान शुरू किया जाए।
12वीं लोक सभा में भी किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। भाजपा के नेतृत्व में अटल बिहारी वाजपेयी ने मिली-जुली सरकार बनाई जो लगभग 13 माह ही चल सकी। यह सदन अब तक का सबसे कम आयु का सदन रहा और एक बार फिर आम चुनाव कराने पड़े। सदन की कार्यवाही में व्यवधान, हल्लाबाजी, अव्यवस्था और बारंबार स्थगन का सिलसिला चलता रहा। लगभग 10 प्रतिशत सदन का समय इसी में बीता।
12वीं लोक सभा के 77 प्रतिशत सदस्य स्नातक या उससे अधिक शिक्षा प्राप्त थे। महिला सदस्यों की संख्या 44 यानी 8 प्रतिशत से अधिक । सदस्यों में खेतिहरों का बहुमत था। पहली बार लोक सभा के अध्यक्ष पद पर अनुसूचित जाति का कोई सदस्य बैठा। जी. एम. सी. बालयोगी की एक और विशेषता यह थी कि वह पहले ऐसे अध्यक्ष थे जो किसी क्षेत्रीय राजनीतिक दल के सदस्य थे। उनका दल सत्ता में अर्थात मिली-जुली सरकार में भागीदार भी नहीं था। तेलुगु देशम बाहर से ही वाजपेयी सरकार का समर्थन कर रहा था।
वर्तमान 13वीं लोक सभा के प्रारंभ में बालयोगी को पुनः अध्यक्ष चुना गया किंतु दुर्भाग्यवश वह दुर्घटनाग्रस्त हुए और कार्यकाल पूरा न कर सके। अटल बिहारी वाजपेयी ने 23-24 दलों की मिली-जुली सरकार बनाई जो अनेक उतार-चढ़ाव बावजूद चल रही है और स्थिर है। पहले आतंकवाद विरोधी विधेयक को लेकर और फिर गजरात के मसले को लेकर कठोर शक्ति परीक्षण हुए और परिणाम सरकार के पक्ष में रहे। इस लोक सभा में दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलानी पड़ी क्योंकि आतंकवाद पर लोक सभा द्वारा पारित विधेयक राज्य सभा में पारित नहीं हो सका था। संसद के इतिहास में यह तीसरा ही अवसर था जब ऐसी संयुक्त बैठक बुलानी पड़ी।
यद्यपि देश भयंकर परिस्थितियों से गुजर रहा था और भयावह समस्याओं का सामना करना था किंतु फिर भी लोक सभा में विभिन्न दल अपनी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते नजर आए। अव्यवस्था, अनुशासनहीनता, सदन को चलने ही न देना, संविधान और नियमों की निस्संकोच और बारंबार अवहेलना यही सब चलता रहा। किंतु, नए अध्यक्ष श्री मनोहर जोशी की अध्यक्षता में 2002 का शीतकालीन सत्र एक सुखद अपवाद रहा।
इस प्रकार लोक सभा के 50 वर्ष के इतिहास के पूरे काल को छह अध्यायों में बांटा जा सकता है : पहला 1952 से 1969 तक जब विपक्ष दुर्बल किंतु गुणात्मक रूप से तथा सदस्यों की उच्च नैतिकता और योग्यता की दृष्टि से प्रभावी रहा। उसका योगदान महत्वपूर्ण रहा।
दूसरा 1969-70 जब कांग्रेस दो धड़ों में बंट गई और कांग्रेस का ही एक गुट सत्ता में रहा और दूसरा प्रमुख विपक्ष बना। वस्तुतः पहला औपचारिक मान्यताप्राप्त विपक्ष सत्ता पक्ष से ही निकला। वह प्रभावी नहीं रहा और यह स्थिति अधिक नहीं चली। अल्पमत में आ जाने के बावजूद कुछ विपक्षी दलों की सहायता से इंदिरा गांधी सरकार सुरक्षित रही।
तीसरा अध्याय 1971-1977 इंदिरा गांधी के व्यक्तिगत प्रभुत्व का काल माना जा सकता है। जवाहरलाल नेहरू की तरह इंदिरा गांधी विपक्ष पर मेहरबान हीं थीं। स्वयं विपक्ष का स्वरूप भी बदल चुका था। न तो गुणात्मक और न ही गणनात्मक रूप से वह सशक्त भूमिका निभाने की स्थिति में था। आपातकाल के निरंकुश शासन ने उसकी सार्थकता पर और चोट की।
चौथा अध्याय 1977-79 के बीच द्विदलीय व्यवस्था के जन्मने और उसके पनपने की संभावनाओं के लिए स्मरणीय रहेगा। किंतु जनता पार्टी ने यह सुनहरा मौका बुरी तरह गंवा दिया और गैर-कांग्रेसवाद का प्रयोग बहुत अल्पकालीन रहा और शीघ्र ही आशाएं समाप्त हो गईं। पांचवा अध्याय 1980-1989 के बीच एक बार फिर कांग्रेस के एकछत्र आधिपत्य और इंदिरा गांधी तथा राजीव गांधी के राज का माना जाएगा। इसमें भी विपक्ष विशेष प्रभावी नहीं रहा। छठा अध्याय 1989 में त्रिशंकु संसद और बहुदलीय व्यवस्था के साथ प्रारंभ होता है। गैर-कांग्रेसवाद का स्थान गैर-भाजपावाद लेता है किंतु गैर-कांग्रेसवाद भी मरता नहीं। यहां तक कि कभी गाजमोतिक अछूत कहे जाने वाले भाजपा के साथ 23-24 दल मिलकर कांग्रेस विरोधी गठबंधन बनाते हैं और सरकार बनाते हैं, चलाते हैं। यह दूसरी बात है कि इस स्थिति में छोटे-से-छोटे दल भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं और अपनी कीमत मांगते हैं। सिद्धांतों, राजनीतिज्ञों और . विचारों और कार्यक्रमों का कोई महत्व नहीं रह जाता। विभिन्न दलों का समर्थन , और विरोध समय-समय पर बदलती हुई राजनीतिक दलों की, उनके वोट बैंकों की और उनके नेताओं की निहित स्वार्थों की मजबूरी पर निर्भर हो गया है।
भारतीय संसद के संबंध में इधर जो बात सबसे अधिक कही जाती है और जिससे समाचारपत्रों की सुर्खियां बनती हैं, वह है सदन में सदस्यों का एक-दूसरे के ऊपर चिल्लाना, घूसे दिखाना, कागज-छीनना, फाड़ना और कागज के प्रक्षेपास्त्र बनाकर मंत्रियों पर फेंकना, यदा-कदा हिंसा पर उतर आना, कितने ही अन्य प्रकार की अव्ययस्था, नारेबाजी, शोरगुल, हंगामा, अनुशासनहीनता, पीठासीन अधिकारी की अवज्ञा, अध्यक्ष के आसन के पास आकर धरना और कार्यवाही को न चलने देना।
इसमें कोई छिपी बात नहीं कि इधर कुछ वर्षों में जनता सांसदों में आस्था और उनके प्रति सम्मान में भारी कमी आई है। सदनों की कार्यवाही को दूरदर्शन पर देखकर आम नागरिक की प्रतिक्रिया कुछ सुखद नहीं होती।
पिछले 50 वर्षों पर विहंगम दृष्टि डालें तो देखेंगे कि पहली लोक सभा के काल से तेरहवीं लोक सभा तक आते-आते संसदीय-संस्थाओं के कार्यकरण, स्वरूप और आयामों में भारी फेर-बदल हुआ। नए चेहरे और नई पहचान सामने आई।
- संसद जिसे विशेषकर विधि बनाने वाली संस्था समझा जाता था, उसके लिए विधि निर्माण कार्य गौण हो गया। जहां प्रथम लोक सभा में 48.74 प्रतिशत समय विधि निर्माण पर लगा था अब 13 प्रतिशत से कम इस काम पर लगने लगा।
- सदस्यों की पृष्ठभूमि और पहचान में भारी परिवर्तन हुए। 1947-1962 के बीच संसद काफी कुछ अभिजात, समृद्ध शहरी परिवारों से आए अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े-पनपे लोगों से भरी थी। वकीलों बैरिस्टरों का व्यावसायिक समूह सबसे बड़ा था। संभवतः यही कुछ कारण थे कि संसद के दोनों सदनों में वाद-विवाद का स्तर बहुत ऊंचा रहता था।
- गत 50 वर्षों में हमारी संसद में कितने ही ऐसे विशिष्ट और गुणी पुरुष और महिला सांसद हुए हैं, जो संसदीय वाद-विवाद में पटुता, प्रक्रिया संबंधी नियमों पर अधिकार, वाक्-कौशल, संसदीय संस्कृति और परंपराओं के प्रति निष्ठा तथा व्यक्तिगत शालीनता के लिए जाने जाते रहे। हम उन पर गर्व कर सकते थे। विश्व की किसी भी संसद के वे गौरव होते। जब पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री धीरे-धीरे दबे पांवों से सदन में प्रवेश करते थे और बड़े विनम्र भाव से और बड़ी गरिमा के साथ अध्यक्ष का और पूरे सदन का सिर झुकाकर अभिवादन करते थे तो दृश्य दर्शनीय होता था। वह घंटों संसद में बिताते और संसद की कार्यवाही को ध्यानपूर्वक सुनते थे। कभी कभी अपनी कटु आलोचना और प्रहारों को भी यह मुस्कुराकर सुनते रहते थे। नेहरू जी संसदीय गरिमा और गौरव स्थापित करने वालों में अग्रणी माने जाएंगे। जब डा. अम्बेडकर, डा. लोहिया, आचार्य कृपलानी, कृष्ण मेनन जैसे किन्हीं दिग्गज हस्तियों के सदन में बोलने की बात फैलती तो मिनटों में सदन और उसकी दीर्धाएं लबालब भर जाती थीं। कामथ और मधु लिमये प्रक्रिया के मास्टर थे तो कुंजरू और पटनायक जिन विषयों पर बोलते, उनके विशेषज्ञ थे। गोविंद बल्लभ पंत की अपनी अलग ही शैली थी। वह पहले प्रतिद्वंद्वी की प्रशंसा करते, उनकी कही बातों में अच्छाइयों की ओर संकेत करते और फिर इतनी कोमलता और दक्षता के साथ उसके एक-एक तर्क को काटते कि लोग हतप्रभ रह जाते। वाद-विवाद में पंत से हारने में भी सुख मिलता था। पीलू मोदी, ढिल्लो, कृपलानी, डा. लोहिया और फिरोज गांधी जैसे कई लोगों को उनके अन्य संसदीय गुणों के अतिरिक्त हास्य विनोद की प्रतिभा के लिए संसद के इतिहास में सदैव याद किया जाएगा।
- विशेषकर 1967 के बाद संसद के सदस्यों की पहचान बहुत बदली। यद्यपि शिक्षा की दृष्टि से और जहां तक डिग्री आदि का संबंध है, पढ़े-लिखों की, उच्च शिक्षा प्राप्त सदस्यों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई, इसके बावजूद वाद-विवाद का स्तर और संसदीय कार्यों में सदस्यों की रुचि का स्तर गिरा। कतिपय सदस्यों के आचरण पर भी बारंबार प्रश्न चिह्न लगे। संस्थाओं और अपने प्रतिनिधियों से जनता का विश्वास उठा।
- सदस्यों में जो सबसे बड़े व्यावसायिक समूह उभरे, वे थे कृषकों के और राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं के।
- संसदीय लोकतंत्र के लिए एक सैद्धांतिक द्विदलीय व्यवस्था नितांत आवश्यक है किंतु भारत में एक स्वस्थ द्विदलीय राजनीतिक व्यवस्था अभी तक नहीं उभर सकी है। बड़ी रोचक बात है कि प्रारंभ के दशकों में जब विपक्ष संख्या में बहुत कमजोर था तब वह बहुत अधिक सक्षम और प्रभावी सिद्ध हुआ और बाद में जब वह भारी संख्याओं में जीतकर आया तो नितांत निष्प्रभावी सिद्ध हुआ।
- दल-बदल निरोधक कानून के कारण भी संभवतः सदस्यों के चरित्र, कार्यकरण और दृष्टिकोण में बदलाव आया। कानून मूलतः निरर्थक सिद्ध हुआ क्योंकि अब दल-बदल केवल व्यक्तियों का न होकर समूहों में होने लगा।
- जो दशक बीते हैं उनमें संसद के सदनों के चरित्र, गठन, वाद-विवाद और कार्यकरण में जो परिवर्तन हुए उनसे सारी संसदीय संस्कृति ही बदल गई। पहले अंतर्राष्ट्रीय और फिर राष्ट्रीय विषयों पर बहस को वरीयता मिलती थी तो बाद में क्षेत्रीय और स्थानीय मामले ही अधिक महत्वपूर्ण हो. गए, भले ही वह राज्यों की विधानपालिकाओं अथवा नगरपालिकाओं के लिए ही अधिक उचित क्यों न रहे हों। पहले क्षेत्रीय और स्थानीय समस्याओं को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा समझा जाता था तो अब राष्ट्रीय समस्याओं को भी क्षेत्रीय, जातिगत, भाषाई, सांप्रदायिक तथा अन्य ऐसे ही संकुचित आधारों पर जांचा-सुलटा जाने लगा। यह राष्ट्र के लिए चिंता का विषय है।
- जिसे त्रिशंकु लोक सभा की संज्ञा दी जाने लगी है उसने संसदीय संस्कृति और देश की राजनीति को और भी क्षेत्रीय और संकुचित बना दिया प्रधानमंत्री कौन हो, राष्ट्रपति कौन हो, किस प्रदेश का, किस संप्रदाय का. किस जाति का हो, यह सब निर्णय करते हैं छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों के नेता और राज्यों के मुख्यमंत्री।
- संसदीय लोकतंत्र एक सभ्य और सुसंस्कृत शासन प्रणाली है। उसकी अपनी एक संस्कृति है, जो निर्णय करती है कि क्या कृत्य संसदीय अथवा असंसदीय है।
स्वाधीनता और संसद दोनों ही अत्यंत कोमल पौधे हैं। यदि इन्हें ध्यानपूर्वक सींचा-संजोया न जाए तो ये शीघ्र ही मुरझा जाते हैं। यदि हमें संसद और संसदीय लोकतंत्र को मजबूत बनाना है, तो सबसे पहले ऐसा कुछ करना होगा जिससे संसद और सांसदों की पारंपरिक गरिमा पुनर्स्थापित हो और फिर से उन्हें जनमत में आदर और स्नेह का स्थान मिल सके।
यह हमारा दुर्भाग्य है कि आज संसदीय जीवन को भी एक लाभकारी व्यवसाय के रूप में देखा जाता है। आदर्श रूप में सांसद समाज को कुछ देने के लिए आगे आता है न कि समाज से अधिकाधिक लेने के लिए। कहते हैं रोमन साम्राज्य का अभ्युदय हुआ और वह चरम शिखर पर पहुंचा जब उसके लोग अपना सब कुछ रोम को देना चाहते थे और रोमन साम्राज्य का पतन हो गया जैसे ही उन्होंने समाज से ज्यादा से ज्यादा लेना शुरू कर दिया। आशा करनी चाहिए कि आने वाले वर्षों में संसद को एक नई दिशा मिलेगी, संसदीय संस्थाओं का गौरव और सम्मान लौटेगा, राजनीति सांप्रदायिकता, अपराधीकरण, भ्रष्टाचार जैसे दानवों से मुक्ति पाएगी तथा हमारा लोकतंत्र और गणतंत्र अधिक प्रशस्त होंगे।
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