संसदीय शासन प्रणाली में विधानमंडल को सरकार की नीतियां निर्धारित करनी होती हैं, विधि निर्माण का कार्य करना होता है और प्रशासन पर निगरानी रखनी होती है। परंतु आधुनिक राज्य में विधान के तथा प्रशासनिक कृत्यों के व्यापक क्षेत्र और उसकी जटिलता के कारण विधानमंडल के लिए विधायी प्रस्तावों की पर्याप्त छानबीन करना और प्रशासन के कार्यों पर निगरानी रखना असंभव हो जाता है। सरकार के पास तो अपने जटिल कार्य करने के लिए विशाल और उन्नत प्रशासन तंत्र और संगठन उपलब्ध होते हैं, जिनमें विशेषज्ञ और अनुभवी सिविल कर्मचारीगण होते हैं, परंतु विधानमंडल में इन सबका नितांत अभाव होता है। प्रश्नों और वाद-विवाद जैसे संसदीय उपायों के द्वारा वह प्रशासन पर कहीं कहीं पर ही निगरानी रख सकती है। संसदीय निगरानी अधिक प्रभावी एवं सार्थक हो इस दृष्टि से संसद को ऐसी एजेंसी की आवश्यकता होती है जिसमें संपूर्ण सदन का विश्वास हो। अन्य बातों के साथ साथ, इस उद्देश्य की प्राप्ति संसद अपनी समितियों के माध्यम से करती है जिनमें उसके अपने कुछ सदस्य कार्य करते हैं। भारत में विशेष रूप से यही स्थिति है।
प्रशासनिक कार्य का पुनरीक्षण करने और विविध एवं जटिल विधायी प्रस्तावों और अधीनस्थ विधान की जांच करने के लिए विशेषज्ञता होना एवं बारीकी से छानबीन करना अपेक्षित है जो लोक सभा में होना संभव नहीं है क्योंकि इसके 545 सदस्य हैं। दूसरे, सदन का कार्यभार बहुत अधिक है। इसके पास इतना समय नहीं होता कि वह प्रत्येक मामले की विस्तृत जांच कर सके या उस पर पर्याप्त चर्चा कर सके। समितियों द्वारा तकनीकी एवं अन्य मामलों की पूरी पूरी और व्यापक जांच किए जाने से सदन के समय की बचत होती है और वही समय संसद महत्वपूर्ण मामलों पर चर्चा करने पर लगा सकती है और ब्यौरां में खोकर नीति संबंधी तथा व्यापक सिद्धांतों संबंधी मामलों में संसद की नजर ओझल नहीं होती। तीसरे, समिति के द्वारा प्रायः ऐसे मामलों के संबंध में कार्य किया जाता है जिन पर अधिक गहराई से, सावधानी और शीघ्रता से, प्रचार के जगत से दूर रहकर, शांत और यथासंभव दलगत राजनीति रहित वातावरण में विचार करने की आवश्यकता होती है। भिन्न भिन्न विचारों को स्थान देना और आदान-प्रदान की प्रक्रिया द्वारा समझौते करना समितियों के वातावरण में सदन की अपेक्षा, जहां सदस्य दलगत निष्ठाओं के आधार पर कार्य करते हैं और जहां स्वभावतया सदस्यों में अपनी छवि बनाने की चिंता रहती है, अधिक आसान होता है। चौथी बात यह है कि भारतीय संसद के दोनों सदनों के वास्तविक गठन में अंतर न होने के कारण, राज्य सभा लगभग बराबर का सदन बन गया है। यदि ऐसा न भी होता तो यह भी नहीं कहा जा सकता कि राज्य सभा वातावरण को 'शांत' करने वाला या पुनरीक्षण करने वाला परंपरागत सदन है, या वरिष्ठ व्यक्तियों अथवा विशेषज्ञों का सदन है जो जल्दबाजी में या त्रुटिपूर्ण विधान बनाने की रोकथाम करता है। इन परिस्थितियों में विधान संबंधी प्रवर समितियां और संयुक्त समितियां, अन्य बातों के साथ साथ, परंपरागत द्वितीय सदन की भूमिका निभा सकती हैं। पांचवीं बात यह है कि दलीय प्रणाली में, जैसी भारतीय संसद में है, कुछ समितियां ऐसे कृत्यों का पालन करती हैं जो अन्यथा विपक्ष के होते हैं, अर्थात वे कार्यपालिका को सदा सतर्क रखती हैं और मनमानी करने से रोकती हैं। विपक्ष के सदस्य भी अपनी वास्तविक संख्या के बावजूद, सदन की अपेक्षा समितियों में आसानी से कहीं अधिक प्रभावी हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त, समितियों में सरकार विपक्ष के सदस्यों की कुछ बातें और रचनात्मक सुझाव मानने के लिए आसानी से तैयार हो जाती है। समितियों में सदन के सभी पक्षों का प्रतिनिधित्व होने के बावजूद सदन की अपेक्षा उनकी कार्यवाहियां कम औपचारिक होती हैं और प्रक्रिया अधिक लचीली होती है। इस कारण भी समितियों को सौंपे जाने वाले मामलों पर विचार अधिक व्यापक रूप से विवेकपूर्ण ढंग से होता है। अंतिम बात यह है कि समितियां ऐसे उपयोगी मंचों का काम करती हैं जहां अनुभव एवं योग्यता का प्रयोग होता है जो अन्यथा अप्रयुक्त रह सकते हैं। समितियां भावी मंत्रियों और पीठासीन अधिकारियों के लिए बहुमूल्य प्रशिक्षण का साधन भी होती हैं। वे अनेक सदस्यों को केवल इस बारे में ही प्रशिक्षित नहीं करतीं कि प्रशासन किस प्रकार चलाया जाता है बल्कि दिन प्रतिदिन के कार्यकरण में प्रशासकों के समक्ष आने वाली समस्याओं से भी उन्हें अवगत कराती हैं।
हमारी समिति प्रणाली का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि समितियां एक ओर संसद और लोगों के बीच कड़ी का काम करती हैं तो दूसरी ओर सरकार और लोगों के बीच। समितियों के कारण आम लोगों के लिए, संस्थाओं के लिए और यहां तक कि व्यक्तिगत रूप से नागरिकों के लिए भी संभव है कि लोगों को सीधे प्रभावित करने वाले मामलों पर संसद द्वारा विचार-विमर्श में प्रत्यक्ष एवं प्रभावी रूप से भाग ले सकें। समितियों द्वारा विशेषज्ञों से, निकार्यों और संगठनों से, या समितियों के विचाराधीन उपायों से प्रभावित होने वाले हितों से, ज्ञापन और अभ्यावेदन आमात्रेत करने से, संबंधित पक्षों के प्रतिनिधियों का मौखिक साक्ष्य लेने से और विचाराधीन मामलों को मौके पर अध्ययन करने के लिए दौरे आयोजित करने से संसद के कार में लोग भाग ले सकते हैं। इस प्रक्रिया से संसदीय प्रणाली के कार्यकरण के बा में लोगों को शिक्षित करने और महत्वपूर्ण सार्वजनिक मामलों की ओर उनका ध्यान आकर्षित करने में सहायता मिलती है।
भारत के संविधान में तो संसदीय समितियों के बारे में विशेष रूप से को उपबंध नहीं किया गया है परंतु अनेक अनुच्छेदों में इनका उल्लेख है। यह सर है कि संविधान के निर्माताओं ने संसदीय समितियों के अस्तित्व को स्वाभाविक लिया था और यह बात सदनों पर छोड़ दी थी कि वे अपने-अपने प्रक्रिया निवमें उनके लिए उपबंध करें। लोक सभा के नियमों के अधीन ऐसी प्रत्येक सामने केवल इसी कारण संसदीय समिति नहीं होती कि वह संसद के सदस्यों से बनी है संसदीय समिति वह है जो
(क) सदन द्वारा नियुक्त या निर्वाचित की जाए या अध्यक्ष सभापति मनोनीत की जाए;
(ख) अध्यक्ष/सभापति के निदेशाधीन कार्य करती हो;
(ग) अपना प्रतिवेदन सदन को या अध्यक्ष/सभापति को पेश करती हो; और
(घ) लोक सभा अथवा राज्य सभा सचिवालय द्वारा उपलब्ध किए गर कर्मचारीवृंद द्वारा सेवित हो।
ऐसी अन्य समितियां हो सकती हैं जो संसद सदस्यों से बनती हों या जिनमें संसद सदस्य सम्मिलित हों परंतु उपर्युक्त शर्ते पूरी न करने के कारण उन्हें संतदी समितियां नहीं कहा जा सकता। उदाहरणार्थ, विभिन्न मंत्रालयों और विभागों से तंगन परामर्शदाता समितियां पूर्णतया संसद सदस्यों से बनती हैं परंतु न तो अध्यक्ष अर सभापति द्वारा उनकी नियुक्त की जाती है और न ही सदन अथवा सदनों द्वारा उनक निर्वाचन किया जाता है; उनके लिए कर्मचारीवृंद भी सदन अथवा सदनों के सचिवाल द्वारा उपलब्ध नहीं किए जाते और वे अध्यक्षा सभापति को प्रतिवेदन प्रस्तुत नई करतीं। वास्तव में, परामर्शदाता समितियां प्रतिवेदन किसी को भी पेश नहीं करते बल्कि मंत्रियों के नियंत्रणाधीन विभागों के कार्यकरण में रुचि रखने वाले संसद सदस्यों और मंत्रियों के बीच विचारों के अनौपचारिक आदान प्रदान के लिए केवल मंच का काम करती हैं। इस प्रकार, वे संसदीय समितियां नहीं होती।
कुल मिलाकर, दोनों सदनों की 45 स्थायी समितियां हैं। इनमें से 24 दोनों सदनों की संयुक्त समितियां हैं। इनके अतिरिक्त A एक सदनीय समितियां हैं9 राज्य सभा की और 12 लोक सभा की। 17 विभागीय समितियों में से 11 का सचिवीय सेवाएं लोक सभा सचिवालय और 6 को राज्य सभा सचिवालय से मिलती महिला सशक्तीकरण समिति सबसे नई संयुक्त समिति है। 21 एक सदनीय समितियों के कार्य क्षेत्र दोनों सदनों में लगभग एक जैसे ही रहते हैं। बारहवीं लोक सभा के कार्यकाल में दो नई तदर्थ समितियां बनाई गईं :
(i) संसद सदस्य स्थानीय क्षेत्र विकास योजना समिति, और
(ii) अनिवार्य वस्तु (संशोधन) विधेयक पर संयुक्त समिति।
विभिन्न प्रकार की समितियां
भारत में दो प्रकार की संसदीय समितियां हैं, अर्थात (एक) स्थायी समितियां और (दो) तदर्थ समितियां। स्थायी समितियां वे समितियां हैं जो प्रत्येक वर्ष या समय समय पर, जैसी भी स्थिति हो, सदन द्वारा निर्वाचित की जाती हैं या अध्यक्ष/सभापति द्वारा मनोनीत की जाती हैं और जो स्थायी स्वरूप की होती हैं। तदर्थ समितियां वे समितियां हैं जो सदन द्वारा या अध्यक्ष/सभापति द्वारा किन्हीं विशिष्ट मामलों पर विचार करने और प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के लिए गठित की जाती हैं और उन मामलों पर अपना कार्य पूरा करते ही समाप्त हो जाती हैं।
स्थायी समितियां :
प्रत्येक सदन में स्थायी समितियां (और कुछ संयुक्त समितिया) उनके कृत्यों के अनुसार इस प्रकार श्रेणीबद्ध की जा सकती हैं :
1. वित्तीय समितियां (उदाहरणार्थ, लोक सभा की प्राक्कलन समिति, सरकारी उपक्रमों संबंधी समिति और लोक लेखा समिति);
2. दोनों सदनों की विभागों से संबंधित स्थायी संयुक्त समितियां;
3. सदन संबंधी समितियां, अर्थात सदन के दिन प्रतिदिन के कार्य से संबंधित समितियां (उदाहरणार्थ, सभा की बैठकों से सदस्यों की अनुपस्थिति संबंधी समिति, कार्य मंत्रणा समिति, गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों तथा संकल्पों संबंधी समिति और नियम समिति);
4. जांच समितियां (उदाहरणार्थ, याचिका समिति और विशेषाधिकार समिति);
5. छानबीन समितियां (उदाहरणार्थ, सरकारी आश्वासनों संबंधी समिति, अधीनस्थ विधान संबंधी समिति, सभा पटल पर रखे गए पत्रों संबंधी समिति और अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण संबंधी समिति)
6. सेवा समितियां, अर्थात सदस्यों के लिए सेवाएं और सुविधाएं उपलब्ध करने संबंधी समितियां (उदाहरणार्थ, सामान्य प्रयोजन समिति, आवास समिति, ग्रंथालय समिति और संसद सदस्यों के वेतन तथा भत्तों संबंधी संयुक्त समिति)।
तदर्थ समितियां :
ऐसी समितियां मोटे तौर पर दो श्रेणियों में रखी जा सकती हैं :
(क) विधेयकों संबंधी प्रवर या संयुक्त समितियां जो विशिष्ट विधेयकों पर विचार करने और प्रतिवेदन देने के लिए नियुक्त की जाती हैं। ये समितियां अन्य तदर्थ समितियों से इस कारण भिन्न होती हैं कि इनका संबंध विधेयकों से होता है और इनके द्वारा जिस प्रक्रिया का पालन किया जाता है वह प्रक्रिया नियमों और अध्यक्ष/सभापति द्वारा दिए गए निर्देशों में निर्धारित है।
(ख) वे समितियां जो किसी विशिष्ट मामलों की जांच करने और प्रतिवेदन देने के लिए दोनों सदनों द्वारा इस आशय को स्वीकृत करके या अध्यक्ष/सभापति द्वारा समय समय पर गठित की जाती हैं। उदाहरणार्थ, लोक सभा द्वारा प्रस्ताव स्वीकृत किए जाने पर एक सदस्य श्री एच. जी. मुद्गल के आचरण की जांच करने के लिए 1951 में एक समिति गठित की गई थी। समय समय पर नियुक्त रेलवे अभिसमय समिति, लाभ के पदों संबंधी संयुक्त समिति और किसी विशिष्ट प्रयोजन के लिए सदन द्वारा या अध्यक्ष द्वारा या सभापति द्वारा नियुक्त कोई अन्य समिति भी ऐसी समितियों के अन्य उदाहरण हैं। सदस्यों के लिए वेतन, भत्ते और पेंशन, बोफोर्स तोप सौदा और बैंक प्रतिभूति घोटाला जैसे मामलों के संबंध में दोनों सदनों की प्रमुख संयुक्त समितियां गठित की गईं।
समितियों का गठन
संसदीय समितियों के सदस्य सदन द्वारा प्रस्ताव स्वीकृत करके नियुक्त या निर्वाचित किए जाते हैं या अध्यक्ष द्वारा अथवा सभापति द्वारा, जैसी भी स्थिति हो, मनोनीत किए जाते हैं। किसी विधेयक पर प्रवर या संयुक्त समितियां सदन द्वारा प्रस्ताव स्वीकृत करके नियुक्त की जाती हैं। सभी वित्तीय समितियों (अर्थात लोक लेखा समिति, प्राक्कलन समिति, सरकारी उपक्रमों संबंधी समिति), अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के कल्याण संबंधी समिति और लाभ के पदों संबंधी समिति के सदस्य प्रत्येक वर्ष सदस्यों द्वारा अनुपाती प्रतिनिधित्व की पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय के मत द्वारा निवाचित किए जाते हैं। शेष समितियां संबंधित सदन के पीठासीन अधिकारी द्वारा मनोनीत की जाती हैं।
कुछ समितियां प्रत्येक सदन द्वारा अलग से गठित की जाती हैं जबकि अन्य समितियां दोनों सदनों द्वारा संयुक्त रूप से गठित की जाती हैं। जैसाकि संयुक्त समितियों के मामले में होता है, लोक लेखा समिति, सरकारी उपक्रमों संबंधी तथा अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के कल्याण संबंधी समिति और सरकारी आश्वासनों संबंधी समिति के सदस्य दोनों सदनों में से लिए जाते हैं, लोक सभा से और राज्य सभा से।
सदन में या सदनों में विभिन्न दलों और ग्रुपों की सदस्य संख्या के यथासंभव अनुपात में इनका प्रतिनिधित्व संसदीय समितियों में होता है। आमतौर पर दलों अथवा ग्रुपों के नेताओं द्वारा सुझाए जाने वाले पीठासीन अधिकारियों द्वारा चुने जाने वाले सदस्यों के नामों के आधार पर प्रत्येक वर्ष समितियों का पुनर्गठन किया जाता है।
संसदीय समिति का सभापति उस सदन के पीठासीन अधिकारी द्वारा जिस सदन की वह समिति हो, समिति के सदस्यों में से नियुक्त किया जाता है। यदि पीठासीन अधिकारी स्वयं उस समिति का सदस्य न हो परंतु उपाध्यक्ष अथवा उपसभापति, जैसी भी स्थिति हो, उसका सदस्य हो तो उसी को समिति का सभापति नियुक्त किया जाता है।
समितियों की कार्यावधि
संसदीय समिति एक वर्ष से अनधिक अवधि के लिए या अध्यक्ष द्वारा निर्धारित अवधि के लिए या नई समिति मनोनीत होने तक पद धारण करती है। कार्य मंत्रणा समिति, याचिका समिति, विशेषाधिकार समिति और नियम समिति पुनर्गठित होने तक कार्य करती रहती है जबकि अन्य स्थायी समितियां एक वर्ष से अनधिक अवधि के लिए पद धारण करती हैं। यदि अध्यक्ष/सभापति द्वारा किसी तदर्थ समिति की कार्यावधि निर्धारित न की गई हो तो वह समिति कार्य पूरा होने तक और प्रतिवेदन, यदि कोई हो तो, पेश होने तक पद धारण करती है।
समितियों की प्रक्रिया
समितियों की बैठक संसद भवन में या संसदीय सौध में होती है परंतु विशेष मामलों में अध्यक्ष/सभापति की, जैसी भी स्थिति हो, अनुमति से उनकी बैठकें बाहर भी हो सकती हैं। समिति को मौखिक या लिखित साक्ष्य लेने की शक्ति प्राप्त होती है। समिति व्यक्तियों को साक्ष्य के लिए बुला सकती है, दस्तावेज और अभिलेख मंगा सकती है परंतु यदि कोई प्रश्न उठता है कि किसी व्यक्ति या साक्ष्य या किसी दस्तावेज का पेश किया जाना समिति के प्रयोजनों के लिए संगत है या नहीं, तो वह प्रश्न अध्यक्ष को निर्दिष्ट किया जाता है जिसका निर्णय अंतिम होता है। समिति को निर्दिष्ट मामलों की जांच के लिए मुख्य समिति उपसमितियां भी नियुक्त कर सकती है। उपसमिति का प्रतिवेदन मुख्य समिति को पेश किया जाता है।"
समिति की बैठकें गोपनीय होती हैं। कोई सार्वजनिक सुनवाई नहीं होती। समितियों में कार्यवाहियों का संचालन मुख्यतया वैसे ही होता है जैसे सदन में होता है परंतु समितियों में कार्यवाहियां अधिक अनौपचारिक वातावरण में और दलगत भावना रहित आधार पर होती हैं। समिति में विचार-विमर्श के दौरान कोई सदस्य किसी विचाराधीन प्रश्न पर एक से अधिक बार बोल सकता है। सभी प्रश्नों का निर्णय उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यों के बहुमत से होता है। किसी मामले पर दोनों पक्षों से समान मत होने की स्थिति में सभापति का दूसरा या निर्णायक मत होता है। उसके पश्चात समिति की बैठकों के कार्यवाही सारांशों के आधार पर, जिनमें समिति के विचार-विमर्शों का सार और साथ ही सिफारिशें दी होती हैं, समिति प्रतिवेदन नैयार करती है। प्रतिवेदन प्रारंभिक हो सकता है या अंतिम । समिति किसी ऐसे विषय पर विशेष प्रतिवेदन दे सकती है जो उसके कार्य के दौरान प्रकाश में आए और जिसे समिति अध्यक्ष के या सदन के ध्यान में लाना आवश्यक समझे, यद्यपि ऐसा विषय समिति के निर्देश-पदों में सम्मिलित न हो।
समिति का प्रतिवदेन उसके सभापति द्वारा या इस प्रयोजन से प्राधिकृत समिति के किसी अन्य सदस्य द्वारा सदन में पेश किया जाता है। जब तक प्रतिवेदन सदन में पेश न हो जाए तब तक उसे गोपनीय माना जाता है; सदन में पेश किए जाने के बाद ही वह सार्वजनिक दस्तावेज बनता है।
(एक) वित्तीय समितियां
संसद का उत्तरदायित्व है वह सरकार द्वारा तैयार किए गए करारोपण के प्रस्तावों और व्यय के अनुमानों की जांच करे और उनका अनुमोदन करे। यद्यपि 'बजट अधिवेशन' के लगभग दो मास इस प्रयोजन के लिए लगाए जाते हैं फिर भी चर्चाए न तो ज्यादा व्यापक होती हैं और न ही गहन । संपूर्ण कार्यकलापों पर विचार करने की उत्सुकता के कारण, संसद की टिप्पणियां, और आलोचना सामान्य और औपचारिक रूप ले लेती है और एक ही बात को दोहराने की प्रवृत्ति बन जाती है। समय चूंकि कम होता है, प्रायः अनेक मंत्रालयों और विभागों संबंधी मांगों पर चर्चा हो ही नहीं पाती और 'गिलोटिन' का प्रयोग कर दिया जाता है। इसी अधूरे काम को वित्तीय समितियां पूरा करती हैं। संसद की वित्तीय समितियां सरकार के खर्चे की और कार्य निष्पादन की विस्तृत छानबीन करने का काम करती हैं और इस प्रकार वित्तीय मामलों में प्रशासन का संसद के प्रति उत्तरदायित्व सुनिश्चित होता है।
नीति का निर्माण करने की अपेक्षा नीति को कार्य रूप देना कहीं अधिक महत्व रखता है। यदि नीति को उचित ढंग से कार्य रूप नहीं दिया जाता तो नीति का प्रयोजन ही विफल हो सकता है। नीति प्रशासनिक अकुशलता के कारण या उसे कार्य रूप देने के लिए उपलब्ध मशीनरी के उचित संगठन के अभाव के कारण इच्छित उद्देश्यों को प्राप्त करने में विफल रह सकती है। अतः यह सदा आवश्यक होता है कि कोई ऐसा निकाय हो जो कार्य रूप में नीति की जांच करे और सारी संगठन की, उनकी प्रक्रियाओं और प्रथाओं की छानबीन करे। उनकी कार्यकुशलता और मितव्ययता को देखकर ही उनके कार्य निष्पादन का मूल्यांकन किया जा सकता है क्योंकि दोनों परस्पर निर्भर होते हैं। इसके अतिरिक्त, कोई प्रशासन व्यवस्था नहीं है जो शक्ति के दुरुपयोग, लापरवाही, विलंब, उपेक्षा, पक्षपात आदि जैसे दोषों से शतप्रतिशत मुक्त । अनुसंधान पर आधारित अध्ययन के बिना, व्यवस्थित जांच के बिना, संबंधित मंत्रालय या उपक्रम के अधिकारियों के पूर्ण परीक्षाण के बिना, प्रशासन के इन पहलुओं और तथ्यों को जानना संभव नहीं होता।
वित्तीय समितियां संसद के प्रहरी के रूप में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। संसद के प्रति प्रशासन का उत्तरदायित्व प्रत्यक्ष नहीं होता, वह मंत्रियों के माध्यम से होता है परंतु समितियों में सिविल अधिकारियों का समितियों से आमना सामना होता है। इस प्रकार इन समितियों का नियंत्रण निरंतर, पूर्ण एवं प्रत्यक्ष होता है जिसमें छानबीन करने के सभी साधन प्रयोग में लाए जाते हैं, जैसे प्रश्नावलियां जारी करना, प्रतिनिधि और गैर-सरकारी संगठनों और जानकारी रखने वाले व्यक्तियों से ज्ञापन मांगना, संगठनों का मौके पर अध्ययन करना और गैर-सरकारी व्यक्तियों एवं अधिकारियों के साथ अनौपचारिक रूप से चर्चा करना और उनका मौखिक साक्ष्य लेना।
तीनों वित्तीय समितियां संसद द्वारा अनुमोदित नीतियों और कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में अकुशलताओं, अपव्यय और असावधानी को प्रकाश में लाती हैं। उनकी सिफारिशों का उद्देश्य इन नीतियों और कार्यक्रमों को मितव्ययता से, कुशलता से और शीघ्रता से कार्य रूप देने के लिए प्रशासन को सदा सतर्क बनाए रखना है। इन समितियों के प्रतिवेदनों के कारण इन्हें समाज के सरकारी और गैर-सरकारी सभी वर्गों से पर्याप्त सम्मान मिला है। सरकार द्वारा इनका कितना सम्मान किया जाता है यह इस तथ्य स्पष्ट है कि सरकार इनकी अधिकांश सिफारिशें स्वीकार कर लेती है। प्रत्येक सिफारिश का सावधानी से विश्लेषण किया जाता है और प्रशासन का सदा यह प्रयास रहता है कि समितियों द्वारा प्रकाश में लाई गई त्रुटियों और कमियों को दूर किया जाए और समितियों द्वारा की गई सिफारिशों के अनुसार कार्य किया जाए।
वित्तीय समितियों ने यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त प्रक्रियाएं विकसित कर ली हैं कि सरकार उनकी सिफारिशों पर उचित ध्यान दे और जो सिफारिशें स्वीकार न की जाएं उन्हें स्वीकार न करने के कारणों से समितियों को अवगत कराया जाए। सिफारिशों को कार्य रूप देने में प्रगति को और समितियों तथा सरकार में जिन मतभेदों का समाधान नहीं होता उनको 'की गई कार्यवाही प्रतिवेदन' के माध्यम से सदन के ध्यान में लाया जाता है। इन समितियों द्वारा की गई सिफारिशों की अनुवर्ती कार्यवाही की विस्तृत एवं प्रभावी प्रक्रिया अन्यत्र विद्यमान संसदीय प्रक्रियाओं को मूल रूप से भारतीय देन है।
तीनों वित्तीय समितियां एक वर्ष के लिए सदन द्वारा निर्वाचित की जाती हैं। मंत्रीगण न तो इन समितियों के सदस्य बन सकते हैं और न ही उन्हें साक्ष्य देने के लिए इनके समक्ष उपस्थित होने के लिए कहा जा सकता है। इनके सभापति अध्यक्ष द्वारा मनोनीत किए जाते हैं। वे प्रक्रिया के आंतरिक नियम स्वयं बना सकती हैं जिनका अध्यक्ष द्वारा अनुमोदन आवश्यक होता है। ये समितियां साधारणतया नीति के प्रश्नों में नहीं जाती क्योंकि नीतियों का निर्माण करना पूर्णतया संसद के अधिकार क्षेत्र की बात है और किसी समिति से यह आशा नहीं की जाती कि वह संसद द्वाग पहले से अनुमोदित किसी नीति के बारे में निर्णय दे। एक अन्य महत्वपूर्ण तत्व जो तीनों वित्तीय समितियों में पाया जाता है कि वे कार्य हो चुकने वह यह पर प्रशासन की जांच करती हैं। प्रशासन के दिन-प्रतिदिन के कार्यों में हस्तक्षेप की संभावना न रहे इस कारण समितियां केवल उन्हीं कार्यों की जांच करती हैं जो पहले से किए जा चुके हों या ऐसे कार्यों की जो किए नहीं गए परंतु जो अन्यथा किए जाने चाहिए थे।
समितियों की सिफारिशों में न तो सरकार को निदेश देने की शक्ति होती है और न वे बंधनकारी होती हैं। यही कारण है कि समितियों के निष्कर्ष केवल सिफारिशों के रूप में होते हैं। परंतु समितियों के गठन एवं प्राधिकार के कारण कोई भी मंत्री या अधिकारी उनकी उपेक्षा नहीं कर सकता।
प्राक्कलन समिति :
इस समिति में लोक सभा के 30 सदस्य होते हैं। लोक लेखा समिति और सरकारी उपक्रमों संबंधी समिति के समान, राज्य सभा के सदस्य इसके साथ सहयोजित नहीं किए जाते। यह समिति 'स्थायी मितव्ययता समिति' के रूप में कार्य करती है और इसकी आलोचना और सुझाव सरकारी फिजूलखर्ची पर रोक लगाने का काम करते हैं। यह समिति वार्षिक अनुमानों की विस्तृत जांच करती है ताकि यह
(क) बताए कि अनुमानों की अंतर्निहित नीति से क्या संगत मितव्ययता, संगठन में सुधार, कार्यकुशलता या प्रशासनिक सुधार लाए जा सकते हैं;
(ख) सुझाव दे कि प्रशासन में कुशलता एवं मितव्ययता लाने के लिए क्या वैकल्पिक नीतियां अपनाई जा सकती हैं।
(ग) जांच करे कि क्या अनुमानों में अंतर्निहित नीति की सीमाओं में रहकर धन ठीक ढंग से लगाया गया है और
(घ) सुझाव दे कि अनुमान संसद के समक्ष किस रूप में पेश किया जाए।
स्पष्टीकरण के लिए यह स्मरण रहे कि संसद द्वारा अनुमोदित नीति संबंधी मामलों की समितियों में चुनौती नहीं दी जा सकती। इस बारे में प्राक्कलन समिति की स्थिति अन्य दो वित्तीय समितियों से थोड़ी भिन्न है। इस मामले में “संसद द्वारा, विधि के द्वारा, या विशिष्ट संकल्पों के द्वारा निर्धारित नीति" और सभी अन्य नीतियों में, जो इस प्रकार निर्धारित नहीं हो, भेद किया गया 1 बाद वाले मामलों के संबंध में, समिति किसी ऐसे मामले की जांच खुलकर कर सकती है जो सरकार द्वारा अपने कार्यपालिका कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए नीति के रूप में तय किया गया हो। समिति नीति के कार्यकरण की जांच कर सकती है, संसद द्वारा अनुमोदिन नीति की नहीं। इस प्रकार जहां यह पाया जाए कि किसी विशेष नीति के इच्छित परिणाम नहीं निकल रहे हैं और उसके कारण अपव्यय हो रहा है, वहां प्राक्कलन समिति का यह कर्तव्य बनता है कि वह कमियों को प्रकाश में लाए और यह बात संसद के ध्यान में लाए कि नीति में परिवर्तन करने की आवश्यकता है।
लोक लेखा समिति :
यह सबसे पुरानी वित्तीय समिति है। इसके 22 सदस्य होते हैं (15 लोक सभा के और 7 राज्य सभा के)। वर्ष 1967 से चली आ रही प्रथा के अनुसार विपक्ष के किसी सदस्य को इस समिति का सभापति नियुक्त किया जाता है।"
लोक लेखा समिति को कभी कभी प्राक्कलन समिति की 'जुड़वां बहन' कहा जाता है क्योंकि इन दो समितियों के कार्य एक-दूसरे के पूरक हैं। प्राक्कलन समिति सार्वजनिक व्यय के अनुमानों संबंधी कार्य करती है, और लोक लेखा समिति मुख्यतया भारत सरकार के व्यय के लिए सदन द्वारा प्रदान की गई राशियों का विनियोग दशनि वाले लेखाओं की जांच करती है जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना होता है कि क्या धन संसद द्वारा प्राधिकृत रूप से खर्च किया गया है और उसी प्रयोजन के लिए खर्च किया गया है जिसके लिए वह प्रदान किया गया था। यदि किसी वित्त वर्ष के दौरान किसी सेवा पर उसके प्रयोजन के लिए सदन द्वारा प्रदान की गई राशि से अतिरिक्त राशि खर्च की गई हो तो समिति उन परिस्थितियों की जांच करती है जिनके कारण ऐसा अतिरिक्त व्यय करना पड़ा हो और उसके बारे में ऐसी सिफारिश करती है जो वह उचित समझे। ऐसे अतिरिक्त व्यय के विनियमन के लिए सरकार द्वारा उसे सदन के समक्ष लाना अपेक्षित होता है।"
समिति केवल तकनीकी अनियमितताओं का पता लगाने में ही रुचि नहीं रखती बल्कि राष्ट्र के वित्तीय मामलों के संचालन में अपव्यय, भ्रष्टाचार, अकुशलता या कार्यचालन में कमी के किसी प्रमाण को प्रकाश में लाने में भी रुचि रखती है। यह संबंधित मंत्रालय या विभाग द्वारा की गई फिजूलखर्ची या उचित नियंत्रण के अभाव के निरनुमोदन के रूप में अपनी राय भी व्यक्त कर सकती है या उसकी निंदा कर सकती है।
समिति जांच करने के लिए विषयों का चयन संघ के लेखाओं से संबंधित भारत के नियंत्रक महालेखापरीक्षक के लेखा परीक्षा प्रतिवेदनों में से करती है जो संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखे जाते हैं। भारत का नियंत्रक महालेखापरीक्षक, जो समिति की बैठकों में भाग लेता है, समिति की सहायता करता है। इस समिति की मोटे तौर पर दो सीमाएं हैं : पहली यह कि नीति के प्रश्न से इसका कोई सरोकार नहीं होता और दूसरी यह कि इसके निष्कर्ष कार्योपरांत होते हैं। दूसरे शब्दों में, समिति अनियमितताएं तभी प्रकाश में ला सकती है जब वे हो चुकी हों और जब क्षति पहुंच चुकी हो। तथापि, समिति की जांच को अधिकारी बहुत गंभीर रूप में लेते हैं। ऐसी समिति का अस्तित्व में होना ही संभाव्य प्रशासनिक अपव्यय और फिजूलखर्ची के लिए रोकात्मक प्रभाव रखता है। समिति की सिफारिशों के परिणामस्वरूप, जिनमें नीति को कार्यरूप देने में प्रशासनिक त्रुटियां प्रकाश में लाई जाती हैं, वित्तीय व्यवस्था में महत्वपूर्ण सुधार हुए हैं।
सरकारी उपक्रमों संबंधी समितिः
हमारे देश के लिए योजनाबद्ध आर्थिक विकास का मार्ग चुनने से अनेक औद्योगिक, कृषि, वाणिज्यिक आदि उपक्रम स्थापित करना आवश्यक हो गया जिनका नियंत्रण एवं प्रबंध भारत सरकार द्वारा किया जाता है। इस प्रकार अनेक निगम और सरकारी कंपनियां, जिन्हें आमतौर पर 'सार्वजनिक उपक्रम' कहा जाता है, अस्तित्व में आई हैं जिनमें भारी धनराशियां लगी हुई हैं। उन पर लगाई गई धनराशियां चूंकि भारत की संचित निधि से ली गई हैं अतः लोक सभा का यह दायित्व हो जाता कि वह उनके कार्यों पर पर्याप्त नियंत्रण रखे। इस प्रयोजन के लिए संसद द्वारा सरकारी उपक्रमों संबंधी समिति गठित की गई है जिसके 22 सदस्य हैं, जिनमें से 15 सदस्य लोक सभा द्वारा निर्वाचित हैं और 7 सदस्य राज्य सभा द्वारा। समिति का सभापति अध्यक्ष द्वारा समिति के लोक सभा से निर्वाचित हुए सदस्यों में से नियुक्त किया जाता है
समिति के कृत्य इस प्रकार हैं : प्रक्रिया नियमों में उल्लिखित सरकारी उपक्रमों के प्रतिवदेनों और लेखाओं की और उन पर नियंत्रक महालेखापरीक्षक के प्रतिवेदनों की, यदि कोई हों तो, जांच करना और देखना कि क्या सरकारी उपक्रमों की स्वायत्तता और कार्यकुशलता के संदर्भ में सरकारी उपक्रमों के कार्य समुचित व्यापार सिद्धांतों और विवेकपूर्ण वाणिज्यिक प्रथाओं के अनुसार चलाए जा रहे हैं। समिति ऐसे विषयों या मामलों की भी जांच कर सकती है जो सदन द्वारा या अध्यक्ष द्वारा विशेष रूप से इसे निर्दिष्ट किए जाएं। परंतु समिति ऐसे प्रमुख सरकारी नीति संबंधी मामलों की, जो सरकारी उपक्रमों के व्यापार या वाणिज्यिक कृत्यों से भिन्न हों, या प्रशासन के दिन प्रतिदिन के मामलों की या ऐसे मामलों की जिन पर विचार करने के लिए उस विशेष संविधि द्वारा तंत्र स्थापित किया गया हो जिसके अधीन उपक्रम स्थापित किया गया है, जांच और छानबीन नहीं कर सकती।"
समिति द्वारा जांच सामान्य रूप से उपक्रम के मूल्यांकन के स्वरूप की होती है जिसमें सभी पहलू आ जाते हैं, जैसे उत्पादन, सामान्य अर्थव्यवस्था में अंशदान, रोजगार के अवसर पैदा करना, सहायक उद्योगों का विकास, उपभोक्ता के हितों का संरक्षण, इत्यादि। समिति ने विगत काल में परियोजना संबंधी योजना बनाने, सभी क्षेत्रों में प्रबंध व्यवस्था करने, नियंत्रण व्यवस्थाओं, विदेशी सहयोग और उनकी भूमिका एवं उपलब्धियां, इत्यादि जैसे विभिन्न पहलुओं व्यापक अध्ययन किए हैं। उन अध्ययनों के परिणामस्वरूप ये तथ्य संसद के और लोगों के ध्यान में लाए गए हैं कि उपक्रमों द्वारा किस प्रकार नगर-क्षेत्र के और कार्यालयों के भवनों पर, अतिथि गृहों पर, जलपान और अधिकारियों के विदेशी दौरों पर भारी धनराशियां खर्च की गईं।
(दो) विभागीय समितियां
लोक सभा की नियम समिति ने 1989 में विषयगत विभाग संबंधित स्थायी समितियों के गठन की सिफारिश की। 18 अगस्त, 1989 से पहली बार तीन ऐसी समितियां स्थापित की. गईं। ये थीं कृषि समिति, पर्यावरण और वन समिति तथा विज्ञान और प्रौद्योगिकी समिति । नवीं लोक सभा के कार्यकाल (1989-91) में नियम समिति ने सुझाव दिया कि सभी सरकारी विभागों में प्रशासनिक उत्तरदायित्व को प्रशस्त करने के लिए विभिन्न विषयगत समितियों का गठन किया जाए ताकि कोई भी क्षेत्र संसदीय जांच के क्षेत्र से बाहर न रहे। पहले की तीन समितियों के अतिरिक्त सात और विषयगत समितियों का प्रस्ताव नियम समिति ने रखा।
1989 में तीन विषयगत समितियां स्थापित की गई थीं। जिन्होंने दसवीं लोक सभा के कार्यकाल के दौरान विभागों से संबंधित 17 स्थायी समितियों की एक पूर्णांग प्रणाली का रूप ले लिया, जिनके अंतर्गत भारत सरकार के सभी मंत्रालय तथा विभाग आ जाते हैं, उनके कार्य निम्नलिखित हैं :
(i) संबंधित मंत्रालयों'/विभागों की अनुदानों की मांगों पर विचार करना,
(ii) राज्य सभा के सभापति/लोक सभा के अध्यक्ष द्वारा भेजे गए विधेयकों का निरीक्षण करना,
(iii) मंत्रालयों की वार्षिक रिपोर्टों पर विचार करना, और
(iv) सभापति/अध्यक्ष द्वारा भेजे गए किन्हीं नीति विषयक प्रलेखों पर विचार करना।
(तीन) सदन संबंधी समितियां
कार्य मंत्रणा समिति :
प्रत्येक सदन में एक कार्य मंत्रणा समिति है। लोक सभा में अध्यक्ष सहित इस समिति के 15 सदस्य हैं। अध्यक्ष इस समिति का पदेन सभापति होता है। राज्य सभा में उपसभापति सहित इसके ग्यारह सदस्य हैं। राज्य सभा का सभापति समिति का पदेन सभापति होता है। अध्यक्ष या सभापति, जैसी भी स्थिति हो, समिति को मनोनीत करता है और समिति तब तक कार्य करती है जब तक वह पुनर्गठित न हो जाए।
समिति का कृत्य यह सिफारिश करना है कि सरकार द्वारा लाए जाने वाले विधायी तथा अन्य कार्य को निपटाने के लिए कितना समय नियत किया जाए। परंतु राज्य सभा में समिति यह भी सिफारिश करती है कि गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों तथा संकल्पों पर चर्चा के लिए कितना समय नियत किया जाए। समिति ऐसे अन्य कृत्यों का निर्वहन करती है जो उसे अध्यक्ष द्वारा या राज्य सभा के सभापति द्वारा, जैसी भी स्थिति हो, समय समय पर सौंपे जाएं। समिति अपने आप भी सरकार से सिफारिश कर सकती है कि किसी विशेष विषय को सदन में चर्चा के लिए लिया जाए और ऐसी चर्चा के लिए समय नियत कर सकती है।
विभिन्न कार्यों के लिए समय नियत करने में सदन की सहायता करने की समिति की भूमिका सदा बहुत महत्वपूर्ण रही है। समिति की बैठकों में वातावरण सौहार्दपूर्ण होता है और सत्ता पक्ष तथा विरोधी पक्ष के बीच आदान-प्रदान की भावना बहुत स्पष्ट रही है। यद्यपि समिति में सामान्यतया सभी मतों वाले सदस्यों का प्रतिनिधित्व रहता है तथापि उसमें निर्णय सदा सर्वसम्मति से लिए गए हैं और समूचा सदन सामान्यतया उनसे सहमत रहा है।
गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों तथा संकल्पों संबंधी समिति :
लोक सभा की इस समिति में 15 सदस्य हैं और उपाध्यक्ष इसका सभापति होता है। इस समिति के कृत्य इस प्रकार हैं : गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों के लोक सभा में पेश किए जाने से पूर्व उनकी जांच करना और ऐसे गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों की जांच करना जिनके मामले में सदन की विधायी क्षमता को चुनौती दी गई हो। इस प्रकार यह समिति गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों तथा संकल्पों के संबंध में उसी कृत्य का पालन करती है जिसका कि कार्य मंत्रणा समिति द्वारा सरकारी कार्य के संबंध में पालन किया जाता है। राज्य सभा में ऐसी कोई समिति नहीं है।
सभा की बैठकों से सदस्यों की अनुपस्थिति संबंधी समिति :
संविधान में उपबंध किया गया है कि यदि दोनों सदनों में से किसी भी सदन का कोई सदस्य बिना अनुमति के सदन की सभी बैठकों में 60 दिन की अवधि तक अनुपस्थित रहे तो सदन उसका स्थान रिक्त घोषित कर सकता है। सुविधा की दृष्टि से, लोक सभा ने 15 सदस्यों की एक समिति बनाई जो सदन से अनुपस्थिति की अनुमति के लिए सदस्यों के प्रार्थना पत्रों पर विचार करती है। राज्य सभा में ऐसे मामलों पर सदन स्वयं विचार करता है।
इस समिति के कृत्य इस प्रकार हैं : (एक) सदन की बैठकों से अनुपस्थिति की अनुमति के लिए सदस्यों से प्राप्त सभी प्रार्थनाओं पर विचार करना, और (दो) ऐसे प्रत्येक मामले की जांच करना जहां कोई सदस्य सदन की बैठकों से, बिना अनुमति के, 60 दिन या इससे अधिक अवधि तक अनुपस्थित रहा हो और इस बारे में प्रतिवेदन देना कि क्या अनुपस्थिति माफ की जानी चाहिए या नहीं अथवा मामले की परिस्थितियों को देखते हुए उचित है कि सदन सदस्य का स्थान रिक्त घोषित करे। समिति सदन के सदस्यों की उपस्थिति के संबंध में ऐसे अन्य कृत्यों का भी पालन करती है जो अध्यक्ष द्वारा समय समय पर उसे सौंपे जाएं।
नियम समिति :
प्रत्येक सदन की एक नियम समिति है। लोक सभा में नियम समिति के 15 सदस्य हैं जिनमें अध्यक्ष भी सम्मिलित है जो समिति का पदेन सभापति होता है। राज्य सभा में सभापति और उपसभापति समेत इस समिति के 16 सदस्य हैं। राज्य सभा का सभापति इस समिति का पदेन सभापति होता है।
इस समिति के कृत्य इस प्रकार हैं : (एक) सदन में प्रक्रिया तथा कार्य-संचालन के मामलों पर विचार करना; और (दो) नियमों में ऐसे किन्हीं संशोधनों की या परिवर्धनों की सिफारिश करना जो आवश्यक समझे जाएं। नियमों में संशोधनों या परिवर्तनों के लिए सुझाव सदन के किसी भी सदस्य द्वारा, किसी मंत्री द्वारा या स्वयं समिति द्वारा दिए जा सकते हैं।
(चार) जांच समितियां
याचिका समिति :
संसदीय लोकतंत्र में, जैसा हमारे यहां है, शिकायतें व्यक्त करने और उनका समाधान कराने और लोक महत्व के मामलों पर रचनात्पक सुझाव देने की दृष्टि से संसद में याचिका पेश करने का लोगों का अंतर्निहित अधिकार होता है। इस अधिकार का प्रयोग याचिका समिति के माध्यम से किया जाता है।
प्रत्येक सदन की एक याचिका समिति है। लोक सभा में इस समिति के 15 सदस्य हैं और राज्य सभा में 10 सदस्य। याचिका समिति का कृत्य ऐसी प्रत्येक याचिका की जांच करना है जो सदन में पेश किए जाने के पश्चात समिति को निर्दिष्ट हो जाती है। समिति ऐसा साक्ष्य लेने के उपरांत, जो वह उचित समझे, याचिका में की गई विशिष्ट शिकायतों पर सदन में प्रतिवेदन पेश करती है। समिति या तो समीक्षाधीन विशिष्ट मामले में या भविष्य में ऐसे मामलों की रोकथाम के लिए सामान्य रूप में उपचारात्मक उपायों का सुझाव देती है।
समिति विभिन्न व्यक्तियों से और संघों से प्राप्त पत्रों एवं तारों सहित उन अभ्यावेदनों पर भी विचार करती है जो याचिकाओं संबंधी नियमों के अंतर्गत न आते हों उनके उचित निबटारे के लिए निर्देश देती है। यह समिति आम आदमी की न्यायोचित शिकायतों को दूर करने के मामले में उसे संसदीय समर्थन प्रदान करने में महत्वपूर्ण कार्य कर चुकी है। यह उन पीड़ित और दमन के शिकार नागरिकों के लिए वास्तविक राहत का साधन सिद्ध हो चुकी है जिन्हें अन्यत्र कोई उपचार या राहत नहीं मिलती। इस प्रकार यह समिति ‘आम्बुड्समैन' या ‘सार्वजनिक शिकायत समिति' का रूप लेने की क्षमता रखती है।
विशेषाधिकार समिति :
संसद के प्रत्येक सदन के सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से और सदन को सामूहिक रूप कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हैं जिनसे वे कुछ ऐसे वे अधिकारों और उन्मुक्तियों के पात्र हैं जिनके बिना सदन और उसके सदस्य अपने कृत्यों का निर्वहन प्रभावी और सुचारु रूप से नहीं कर सकते। जब किसी विशेषाधिकार के भंग होने का प्रश्न उत्पन्न होता है, सदन के उससे निबटने के लिए सक्षम होते हुए भी, उसे सामान्यता जांच के लिए, छानबीन के लिए और प्रतिवेदन देने के लिए विशेषाधिकार समिति को निर्दिष्ट किया जाता है। यह समिति प्रत्येक सदन में गठित की गई है।
विशेषाधिकार समिति आमतौर पर दोनों सदनों में उनके पीठासीन अधिकारियों द्वारा आमतौर पर प्रत्येक वर्ष गठित की जाती है। लोक सभा में इसके 15 सदस्य हैं और राज्य सभा में 10 सदस्य हैं।
इस समिति के कृत्य अर्द्ध-न्यायिक स्वरूप के हैं और इसमें व्यापक शक्तियां निहित हैं। यद्यपि इसके निष्कर्ष अंततोगत्वा सदन के निर्णय के अध्यधीन होते हैं फिर भी इसे सदन का विश्वास प्राप्त होता है और इसकी सिफारिशें शायद ही कभी अस्वीकार की जाएं। यह समिति संसद और संसद सदस्यों की शक्तियों और उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
(पांच) छानबीन समितियां
सरकारी आश्वासनों संबंधी समिति :
सदन में प्रश्नों के उत्तर देते समय या विधेयकों, संकल्पों, आदि पर चर्चाओं के दौरान मंत्रीगण प्रायः आश्वासन देते हैं या वचन देते हैं कि वे मामले पर विचार करेंगे या उस पर कार्यवाही करेंगे या बाद में सदन को पूरी जानकारी देंगे। ऐसे आश्वासनों की क्रियान्विति पर निगरानी रखने के लिए संसद के प्रत्येक सदन में सरकारी आश्वासनों संबंधी समिति गठित की गई है। लोक सभा में इस समिति के 15 सदस्य और राज्य सभा में 10 सदस्य हैं।
समिति का काम सदन में मंत्रियों द्वारा इस प्रकार दिए गए आश्वासनों को छानबीन करना और सदन को इस बारे में प्रतिवेदन देना है कि ऐसे आश्वासन कहां तक क्रियान्वित किए गए हैं, क्या क्रियान्वयन इस प्रयोजन के लिए आवश्यक कमसे-कम समय में हुआ है।
अधीनस्थ विधान संबंधी समिति :
संसद इस बारे में पूरी निगरानी रखना चाहती है कि जो शक्तियां किसी अधीनस्थ एजेंसी को या किसी प्रशासनिक अधिकारी को प्रत्यायोजित की गई हैं उनका प्रयोग किस तरह किया गया है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रशासन द्वारा ऐसी शक्ति के दुरुपयोग की संभावना पर प्रभावी एवं निरंतर रोक रहे, सदन के प्रत्येक सदन की अपनी अधीनस्थ विधान संबंधी समिति है। प्रत्येक सदन की समिति के 15 सदस्य हैं जो अध्यक्ष/सभापति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं। साधारणतया, समिति प्रत्येक वर्ष पुनर्गठित की जाती है।
समिति का मुख्य कार्य इस बारे में छानबीन करना और सदन को प्रतिवेदन देना है कि क्या संविधान द्वारा प्रदत्त या संसद द्वारा संविधि के माध्यम से प्रत्यायोजित नियम, उपनियम, विनियम, उपविधियां आदि बनाने की शक्तियों का, प्रदत्त या प्रत्यायोजित शक्तियों, जैसी भी स्थिति हो, के दायरे में रहकर प्रयोग किया गया है। समिति ऐसे सभी विधेयकों की भी जांच करती है जिनका उद्देश्य किसी अधीनस्थ प्राधिकारी को विधान बनाने की शक्तियां प्रत्यायोजित करना हो। समिति उनकी जांच यह देखने के लिए करती है कि क्या उनमें नियमों या आदेशों को सभा पटल पर रखने के लिए उपयुक्त उपबंध किए गए हैं। इस प्रकार प्रत्यायोजित प्राधिकार के अधीन पास किए गए नियमों या आदेशों की जांच करते समय समिति का काम अन्य बातों के साथ साथ यह सुनिश्चित करना होता है कि उन नियमों या आदेशों द्वारा कोई कर तो नहीं लगाया जा रहा है और संचित निधि में से किसी व्यय का प्रस्ताव तो नहीं किया जा रहा है; उनसे न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रुकावटें तो नहीं आ रहीं; और उनके प्रकाशन में या उन्हें संसद के समक्ष रखने में अनुचित विलंब तो नहीं हुआ।
यदि समिति इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि विधायी शक्तियां प्रत्यायोजित करने वाले विधेयक में किए गए उपबंध पूर्णतया या अंशतया रद्द कर दिए जाने चाहिए या उनमें कोई संशोधन किया जाना चाहिए तो वह विधेयक पर विचार आरंभ किए जाने से पूर्व सदन को इस आशय का प्रतिवेदन दे सकती है। समिति यह सुनिश्चित करने के लिए बराबर नजर रखती है कि सरकार उसकी सिफारिशों को कार्यान्वित करे।
अपने प्रतिवेदनों के द्वारा समिति ने प्रशासन द्वारा अधिकार के दुरुपयोग के विरुद्ध नागरिकों की रक्षा करने के मुख्य उद्देश्य से प्रशासन को प्राप्त विशाल विवेकाधिकारों को नियंत्रित और विनियमित करने का प्रयास किया है। भारतीय संसद के प्रथम अध्यक्ष श्री मावलंकर का विचार था कि अधीनस्थ विधान संबंधी समिति “सदन के कर्तव्यों की रक्षक" है और वह संसद के आशयों के अनुसार प्रशासन को सीमाओं के भीतर रखती है।
सभा पटल पर रखे गए पत्रों संबंधी समिति :
प्रत्येक अधिवेशन में सरकार संवैधानिक उपबंधों के अनुसरण या प्रश्नों के उत्तर में या विभिन्न मामलों पर संसद सदस्यों को जानकारी देने के लिए स्वतः ही उनके वक्तव्य विवरण, प्रतिवेदन सौर पत्र संसद के समक्ष रखती है। इनमें से कुछ प्रतिवेदन/पत्र तो अधीनस्थ विधान संबंधी समिति सहित विभिन्न संसदीय समितियों को निर्दिष्ट हो जाते हैं परंतु ज्यादातर सभा पटल पर रखे गए पत्रों संबंधी समिति द्वारा विस्तृत जांच के लिए रह जाते हैं। यह समिति संसद के प्रत्येक सदन द्वारा गठित की जाती है। लोक सभा में इस समिति के 15 सदस्य और राज्य सभा में 10 सदस्य हैं।
यह समिति सभा पटल पर रखे गए सभी पत्रों की जांच करती है और संविधान के जिस उपबंध के अधीन या अधिनियम, नियम या विनियम के अधीन पत्र सभा पटल पर रखे गए हों उनके अनुपालन में यदि कोई त्रुटि पाई जाए तो उसके बारे में, या यदि ऐसे पत्र संसद के समक्ष रखने में अनुचित विलंब हुआ हो तो उसके बारे में, सदन को प्रतिवेदन देती है। इस प्रकार, सामान्य रूप से समिति का उद्देश्य प्रशासन के उन क्षेत्रों में संसदीय नियंत्रण लागू करना है जिनमें 1975 में इस समिति का गठन होने तक वह नहीं था।
अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के कल्याण संबंधी समिति :
भारत के संविधान में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए अनेक रक्षा उपायों का और उनकी कार्यान्विति पर निगरानी रखने के लिए तंत्र का उपबंध किया गया है। अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों का आयुक्त, राष्ट्रपति को इस बारे में नियमित रूप से प्रतिवेदन प्रस्तुत करता है जिन्हें बाद में संसद में चर्चा करने के लिए उसके समक्ष रखा जाता है। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के आयुक्त द्वारा की गई सिफारिशों को संसद प्रभावी ढंग से कार्यरूप देना सुनिश्चित कर सके, इस दृष्टि से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण संबंधी समिति स्थापित की जाती है।
इस समिति के 30 सदस्य हैं, 20 लोक सभा के और 10 राज्य सभा के और ये सदस्य संसद के अलग-अलग सदनों द्वारा अपने सदस्यों में से निर्वाचित किए जाते हैं।
समिति के मुख्य कृत्य अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के आयुक्त के प्रतिवेदन पर विचार करना और संसद में इस बारे में प्रतिवेदन पेश करना है कि उन पर सरकार द्वारा क्या उपाय किए गए हैं या करने अपेक्षित हैं। वास्तव में समिति विभिन्न सेवाओं में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधित्व, उनके कल्याण संबंधी कार्यक्रम के कार्यकरण इत्यादि सहित इन जातियों के कल्याण से संबंधित सभी मामलों की जांच करती है और उनके बारे में प्रतिवेदन पेश करती है। समिति यह भी सुनिश्चित करती है कि इन पिछड़े समुदायों के लिए सवैधानिक रक्षा को प्रभावी ढंग से कार्यरूप दिया जाए।
(छह) सेवाएं उपलब्ध कराने वाली समितियां
संसद की कुछ ऐसी भी समितियां हैं जो सदस्यों को उपलब्ध की जाने वाली विभिन्न प्रकार की सुविधोओं और सेवाओं और संसद के दोनों सदनों के सदस्यों के कार्यकरण से संबंधित अन्य मामलों की जांच करती हैं। वे समितियां इस प्रकार हैं : सामान्य प्रयोजन समिति, आवास समिति, ग्रंथालय समिति और संसद सदस्यों के वेतन तथा भत्तों संबंधी संयुक्त समिति।
सामान्य प्रयोजन समिति :
प्रत्येक सदन की एक सामान्य प्रयोजन समिति है। संबंधित सदन का पीठासीन अधिकारी समिति का पदेन सभापति होता है। इस समिति में उपाध्यक्ष या उपसभापति, जैसी भी स्थिति हो, सभापति तालिका के सदस्य, उस सदन की सभी स्थायी समितियों के सभापति, मान्यता प्राप्त दलों गुपों के नेता और ऐसे अन्य सदस्य होते हैं जो पीठासीन अधिकारी द्वारा मनोनीत किए जाएं।
यह समिति सदन के और सदन के कार्यों से संबंधित ऐसे तदर्थ मामलों पर जो किसी अन्य संसदीय समिति के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते और जो समय समय पर इसे निर्दिष्ट किए जाएं, परामर्श देने के लिए गठित की जाती है।
आवास समिति :
संसद के प्रत्येक सदन की एक आवास समिति है जो सदस्यों के रिहायशी स्थानों संबंधी और खान-पान, चिकित्सा सहायता आदि जैसी अन्य सुविधाओं से संबंधित मामलों के बारे में कार्य करती है।
ग्रंथालय समिति :
यह समिति दोनों सदनों की संयुक्त समिति है जिसमें लोक सभा के 6 सदस्य हैं (उपाध्यक्ष सहित) जो अध्यक्ष द्वारा मनोनीत किए जाते हैं और राज्य सभा के सदस्य हैं जो उसके सभापति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं। यह समिति प्रत्येक वर्ष गठित की जाती है। इस समिति का मुख्य कृत्य ग्रंथालय और उसकी सहायता सेवाओं, अर्थात संदर्भ शोध तथा प्रलेखन सेवाओं के प्रयोग में सदस्यों की सहायता करना है। यह पुस्तकों के चयन, ग्रंथालय के लिए नियम बनाने और इसकी भावी योजना आदि से संबंधित मामलों में अध्यक्ष को परामर्श देती है।
संसद सदस्यों के वेतन तथा भत्ते संबंधी संयुक्त समिति :
संसद सदस्यों के वेतन तथा भत्ते अधिनियम, 1954 के अधीन नियम बनाने के लिए वह संयुक्त समिति गठित की गई थी। इसमें लोक सभा के 10 और राज्य सभा के 5 सदस्य हैं।
इस समिति के कृत्य इस प्रकार हैं : दोनों सदनों के सदस्यों के लिए चिकित्सा, आवास, टेलीफोन और डाक सुविधाओं जैसे मामलों के लिए भारत सरकार से परामर्श करके सामान्य रूप से उनके दैनिक और यात्रा भत्तों आदि की अदायगी को विनियमित करने के लिए उपबंध कराने वाले नियम बनाना।
निष्कर्ष
इस तथ्य के होते हुए भी कि बोफोर्स तोप सौदे के संबंध में संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट कुछ विवादों और प्रश्नों से घिरी रही तथा प्रतिभूति घोटाले के संबंध में संयुक्त संसदीय रिपोर्ट पर की गई कार्यवाही की रिपोर्ट के संबंध में भी घोर विवाद उठ खड़े हुए, सामान्यतया सरकार संसदीय समितियों की सिफारिशों को महत्वपूर्ण मानती है और प्रायः अधिकांश सिफारिशों को स्वीकार करती है। समितियों के प्रतिवेदन प्रशासन में सम्मान की भावना पैदा करते हैं। संसदीय समिति द्वारा बारीकी से छानबीन की संभावना ही प्रशासन पर पर्याप्त प्रभाव रखती है। लापरवाही के, पक्षपात के और अपव्यय के बहुत से काम केवल इसी भय से नहीं किए जाते कि किसी संसदीय समिति द्वारा उनकी जांच की जा सकती है और लोगों के सामने उनका पर्दाफाश किया जा सकता है। समितियों के प्रतिवेदन सदस्यों और आम लोगों के लिए बहुत शैक्षिक महत्व के रहे हैं।
इसमें संदेह नहीं है लोक सभा की समितियां भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की सहायक अंग सिद्ध हुई हैं। निरंतर सतर्क रहकर और सरकारी विभागों के कार्यकरण के न्यायोचित एवं रचनात्मक मूल्यांकन से समितियों ने संसद के प्रभावी कार्यकरण में विशिष्ट योगदान किया है और देश में संसदीय संस्थानों को सामान्य रूप से सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
इधर काफी समय से विभिन्न क्षेत्रों में यह विचार रखा जा रहा था कि भारतीय संसद की समिति व्यवस्था में और सुधार करने तथा उसे सक्षम और सशक्त बनाने की आवश्यकता थी। आधुनिक राज्य के कार्य क्षेत्र की बढ़ती हुई व्यापकता और जटिलता के कारण यह और भी जरूरी हो गया। 1989 तक हमारी संसद में विषयगत अथवा विभागीय समितियों जैसी कोई चीज नहीं थी। इसी प्रकार की समितियों के माध्यम से संसद सरकारी कार्यकलापों पर तीखी नजर रख सकती है और मा. विषय क्षेत्र के अंदर आने वाले कार्यपालिका के विधायी, बजट और अन्य सभी प्रस्ता। पर विचार विनिमय कर सकती है। जो 17 विभागीय समितियां बनी हैं और कार कर रही हैं, उनका प्रथम संकल्पन और गठन संसद के इतिहास में एक प्रमुख घटना माना जाएगा। आशा की जा सकती है कि इन समितियों के कारण प्रशासन । जवाबदेही और संसद की निगरानी प्रक्रिया और जांच व्यवस्था को नया बल और नई दिशा मिलेगी।
मंत्रिमंडलीय उत्तरदायित्व की संकल्पना अथवा संसद की स्थिति को किसी प्रका भी कमजोर किए बिना सभी विषयों, मंत्रालयों और विभागों के लिए संसदीय समितिका की संपूर्ण एकीकृत व्यवस्था स्वयं सरकार को अधिक प्रभावी बना सकती है क्योंकि नीतियों के वास्तविक कार्यकरण में आने वाली कठिनाइयों को उजागर कर, ये समितिया सरकार को एक नई अंतर्दृष्टि दे सकती हैं, संसद को प्रशासनिक कार्यकलापों की जांच पड़ताल के लिए अधिक सक्षम और पैने उपकरण उपलब्ध करा सकती हैं तथा संसद की विधायी एवं पर्यालोचन भूमिका तथा प्रतिनिधिक भूमिका के बीच आवश्यक तालमेल बैठा सकती हैं। साथ ही संसद और सरकार दोनों के लिए लाभकारी बहुमूल्य समय की बचत करा सकती हैं।
सदन के वाद-विवाद में प्रचार माध्यमों का विशेष महत्व रहता है किंतु समितिया अधिक शांतिपूर्ण, गंभीर और चकाचौंध से मुक्त वातावरण में, दलगत राजनीति में ऊपर उठकर, कुछ ठोस विचार करने और सार्थक सुझाव पेश करने में सफल हो सकती हैं। समितियों में विभिन्न दलों के सदस्य एक-दूसरे के दृष्टिकोणों को अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं और आवश्यक आदान-प्रदान के द्वारा परस्पर-विरोधी हितों के बीच उचित सामंजस्य और समझौता स्थापित कर प्रभावी निर्णय ले सकते हैं, किंतु, इन समितियों की और संसद के प्रति प्रशासन की जवाबदेही की व्यवस्था की सफलता अंततः निर्भर करती है सरकार के द्वारा सहयोग और समिति को यथासमय पूरे तथ्य और सूचना देने पर, समिति सचिवालय के कर्मचारियों की निष्ठा, योग्यता और निष्पक्षता पर तथा सदस्यों के समिति कार्य में यथेष्ट रुचि लेने पर।
सरकार के समस्त कार्यकलाप 17 विभागीय समितियों के अंतर्गत आ जाते है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि इन समितियों की वजह से सरकार के कार्यकलाप की छानबीन सुनिश्चित करने के विद्यमान साधनों में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। थे इस बात के संकेत हैं कि हमारी संसदीय प्रणाली में प्रभावी परिवर्तन की संभावना है। आशा की जाती है कि आने वाले समय में, ये समितियां अपनी उद्दिष्ट भूमिका को पूरा करेंगी तथा संसदीय चौकसी को एक सजीव वास्तविकता बना देंगी।
भारत की संसदीय समिति प्रणाली में आगे और सुधार लाते समय याद रखने की सबसे बड़ी बात यह है कि संसदीय राजनीतिक व्यवस्था में समितियां स्थापित करने का यह उद्देश्य नहीं होता और न ही कभी होना चाहिए कि वे विधानमंडल अथवा कार्यपालिका के मुकाबले में शक्ति के सुदृढ़ अथवा स्वतंत्र केंद्र बनें । समितियों की भूमिका पूरक और सहायक होती है और एक मित्रतापूर्ण समालोचक की या आंतरिक प्रबंध लेखापरीक्षा की होती है। समिति व्यवस्था में सुधार इस उद्देश्य से किए जाने चाहिए कि वे उनको सौंपे जाने वाले इस कार्य को प्रभावी ढंग से कर सकें।
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