Wednesday, March 16, 2022

कानून कैसे बनते हैं How laws are made

कानून अथवा विधि मूलतया आचरण के सिद्धांतों की व्याख्या करने वाले विधान का परिणाम है। विधि के अधीन कोई कार्य करने पर रोक हो सकती है या कोई कार्य करने की अनुमति हो सकती है या ऐसी रीति निर्धारित हो सकती है जिससे वह कार्य किया जाना चाहिए। प्रत्येक विधि के लिए संसद का प्राधिकार होना चाहिए क्योंकि संसद लोगों की सामान्य इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है। लोगों के प्रति अपने दायित्वों को निभाने के लिए संसद को ऐसे विषयों पर विधान बनाने होते हैं जो सामाजिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं को प्रतिबिंबित करते हों और जिनसे उनकी आशाओं एवं आकांक्षाओं की पूर्ति होती हो। 


विधि का निर्माण करना संसद का प्रमुख कृत्य माना जाता है यद्यपि आज संसद का केवल यही एक कृत्य नहीं है और न ही विधि निर्माण का कार्य अकेली संसद करती है। आजकल विधानमंडल का थोड़ा-सा ही समय विधि निर्माण के कार्य पर लगाया जाता है और विधि निर्माण के कार्य में पहल अधिकांशतया कार्यपालिका द्वारा की जाती है। सरकार विधायी प्रस्ताव पेश करती है और उस पर चर्चा तथा वाद-विवाद के पश्चात संसद उस पर अनुमोदन की अपनी मुहर लगाती है। संसद इस कृत्य का पालन अनेक प्रक्रियाओं के माध्यम से करती है। 


सभी विधायी प्रस्ताव विधेयकों के रूप में संसद में पेश किए जाते हैं। विधेयक विधायी प्रस्ताव का मसौदा होता है। विधेयक संसद के किसी एक सदन में सरकार द्वारा या किसी गैर-सरकारी सदस्य द्वारा पेश किया जा सकता है। इस प्रकार मोटे तौर पर, विधेयकं दो प्रकार के होते हैं : (क) सरकारी विधेयक, और (ख) गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयक । तथापि वर्तमान स्थिति यह है कि विधि का रूप लेनेवाले अधिकांश विधेयक सरकारी विधेयक होते हैं। यद्यपि गैर-सरकारी सदस्यों के बहुत कम विधेयक विधि का रूप लेते हैं तथापि उनसे अच्छा प्रयोजन सिद्ध होता है क्योंकि उनके द्वारा यह बात सरकार के और लोगों के ध्यान में लाई जाती है कि वर्तमान विधि में  परिवर्तनशील स्थितियों के प्रकाश में संशोधन करने या कोई आवश्यक विधान बनाने की आवश्यकता है। 


विधेयकों की विषय वस्तु के आधार पर उनका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है : 

• मूल विधेयक जिनमें नए प्रस्तावों, विचारों और नीतियों संबंधी उपबंध होते है 

• संशोधी विधेयक जिनका उद्देश्य वर्तमान अधिनियमों में रूपभेद करना या संशोधन करना होता है; 

• समेकन विधेयक जिनका आशय किसी एक विषय पर वर्तमान विधियों को समेकित करना होता है; 

• ऐसे विधेयक जिनका उद्देश्य व्यपगत होने वाले अधिनियमों को जारी रखना होता है; 

• ऐसे विधेयक जो राष्ट्रपति द्वारा जारी किए जाने वाले अध्यादेशों का स्थान लेते हैं; और 

• संविधान (संशोधन) विधेयक। 


इसके अतिरिक्त, मोटे तौर पर, विधेयकों का वर्गीकरण इस प्रकार भी किया जा सकता है : 

• साधारण विधेयक 

• वित्तीय मामलों संबंधी उपबंधों पर आधारित धन विधेयक; और 

• संविधान संशोधन विधेयक। 


साधारण विधेयक 


ऐसे सभी विधेयक, जो संविधान संशोधन विधेयक और धन विधेयक नहीं होते, साधारण विधेयक होते हैं, अर्थात, साधारण विधान के लिए प्रस्तावों के मसौदे । 


साधारण विधेयकों के बारे में विधायी प्रक्रिया 


(एक) विधेयकों के मसौदे तैयार करना : 


जैसे ही कोई विधायी प्रस्ताव सामने आता है, संबंधित मंत्रालय यह देखता है कि उसके राजनीतिक, प्रशासनिक, वित्तीय और अन्य परिणाम क्या हो सकते हैं। यदि अन्य मंत्रालय या राज्य सरकारें भी उससे संबंधित हों तो उनका परामर्श लिया जाता है। उस प्रस्ताव के वैधिक एवं संवैधानिक पहलुओं के संबंध में विधि मंत्रालय का और भारत के महान्यायवादी का परामर्श लिया जाता है। व्यावसायिकों और विभिन्न हितों वाले ग्रुपों, जैसे व्यापारियों, श्रमिकों, कृषकों और उद्योगपतियों का भी, यदि ऐसा आवश्यक समझा जाए तो, परामर्श लिया जाता है। जब प्रस्ताव के सभी पहलुओं की जांच कर ली जाती है तो उसे अनुमोदन के लिए मंत्रिमंडल के सामने रखा जाता है। मंत्रिमंडल का अनुमोदन हो जाने पर सरकारी प्रारूपकार, विभागीय विशेषज्ञों और अधिकारियों की सहायता से, प्रस्ताव को विधेयक का रूप देता है। उसके बाद विधेयक की प्रशासनिक मंत्रालय द्वारा सभी संबंधित प्राधिकारियों के परामर्श से विस्तृत रूप से जांच की जाती है और उसे अंतिम रूप दिया जाता है 


इस समूची प्रक्रिया के पश्चात विधेयक सदन के समक्ष लाए जाने के लिए तैयार हो जाता है। संबंधित मंत्री द्वारा उसे संसद के दोनों में से किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। विधेयक को पेश करने की अनुमति लेने के लिए मंत्री को सात दिन की सूचना देनी होती है। ऐसी सूचना के साथ विधेयक की विधिवत से शुद्ध की गई दो प्रतियां उस सदन के महासचिव को भेजी जाती हैं जिसमें विधेयक पेश किया जाना हो। सचिवालय द्वारा विधेयक को सभी पहलुओं में पूर्ण पाए जाने के पश्चात, उसे ऐसी तिथि की कार्य सूची में सम्मिलित किया जाता है जो अध्यक्ष या सभापति द्वारा, जैसी भी स्थिति हो, इस प्रयोजन के लिए निश्चित की गई हो। साधारणतया, विधयेक की प्रतियां उस तिथि से कम से कम दो दिन पूर्व जबकि विधेयक पेश करने का विचार हो, सदस्यों को उपलब्ध हो जानी चाहिए।' 


(दो) तीन वाचन : 


अधिनियम का रूप लेने से पूर्व विधेयक को संसद में विभिन्न अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। प्रत्येक विधेयक के प्रत्येक सदन में तीन वाचन होते हैं, अर्थात प्रथम वाचन, द्वितीय वाचन और तृतीय वाचन। 


(क) प्रथम वाचन : 


किसी भी विधेयक को पेश करने के लिए सदन की अनुमति लेना आवश्यक है। विधेयक पेश करने के लिए नियत दिन, प्रश्नकाल के पश्चात विधेयक का प्रभारी मंत्री अध्यक्ष के पुकारे जाने पर अपने स्थान पर खड़ा हो जाता और कहता है, महोदय, मैं प्रस्ताव करता हूं कि ".....विधेयक को पेश करने की अनुमति दी जाए"। आमतौर पर मौखिक मतदान द्वारा अनुमति दे दी जाती है और अनुमति दिए जाने का विरोध कभी-कभार ही किया जाता है। मंत्री फिर खड़ा होकर यह कहता है, “महोदय मैं....विधेयक पेश करता हूं"। 


सामान्यतया, विधेयक “पेश करना", जो कि विधेयक का प्रथम वाचन है, केवल औपचारिकता है और प्रथा के अनुसार इस अवस्था में चर्चा नहीं की जाती है। परंतु यदि विधेयक पेश करने के प्रस्ताव का इस आधार पर विरोध किया जाए कि प्रस्तावित विधान संसद की विधायी क्षमता से बाहर है तो पीठासीन अधिकारी पूर्ण चर्चा की अनुमति दे सकता है जिसमें महान्यायवादी भी भाग ले सकता है।' उसके पश्चात विधेयक सदन के मतदान के लिए रखा जाता है। एक दिन में कितने विधेयक पेश किए जा सकते हैं इस पर कोई रोक न होने के कारण कोई मंत्री जितने चाहे विधेयक पेश कर सकता है। जब विधेयक सदन में पेश हो जाता है तो उसे भारत के राजपत्र में प्रकाशित किया जाता है। विधेयक पेश किए जाने से पूर्व भी अध्यक्ष/सभापति की अनुमति से राजपत्र में प्रकाशित किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में विधेयक पेश करने के लिए सदन की अनुमति लेना आवश्यक नहीं होता। दूसरे शब्दों में, विधेयक को पेश करने की अवस्था से नहीं गुजरना पड़ता। 


(ख) द्वितीय वाचन : 


विधेयक का द्वितीय वाचन सबसे अधिक विस्तृत एवं महत्वपूर्ण अवस्था है क्योंकि इसी अवस्था में इसकी विस्तृत एवं बारीकी से जांच की जाती है। द्वितीय वाचन अथवा विचार करने की अवस्था के दो चरण हैं जिन्हें प्रथम चरण और द्वितीय चरण कहा जा सकता है। 


प्रथम चरण : 


प्रथम चरण में समूचे विधेयक पर सामान्य चर्चा होती है, अर्थात, विधेयक के केवल अंतर्निहित सिद्धांत पर तथा उसके ब्यौरे पर नहीं।' इस चरण में सदन चाहे तो विधेयक को सदन की प्रवर समिति को या दोनों सदनों की संयुक्त समिति को निर्दिष्ट कर सकता है या उस पर राय जानने के लिए परिचालित कर सकता है या यदि चाहे तो सीधे उस पर विचार कर सकता है। 


समिति को निर्दिष्ट करना : 


विधेयक प्रवर समिति को या संयुक्त समिति को निर्दिष्ट किया जा सकता है। प्रवर समिति के सदस्य उस सदन के सदस्यों में से, जिसमें विधेयक पेश किया गया हो, लिए जाते हैं। संयुक्त समिति के मामले में, दोनों सदनों के सदस्यों को प्रतिनिधित्व दिया जाता है; ऐसे मामले में, लोक सभा और राज्य सभा के सदस्यों के बीच अनुपात 2 : 1 का रहेगा। संयुक्त समिति का सभापति उस सदन के पीठासीन अधिकारी द्वारा नियुक्त किया जाता है जिसमें विधेयक पेश किया गया हो। ये तदर्थ समितियां होती हैं जो निर्दिष्ट किए जानेवाले विशेष विधेयकों पर विचार करने के लिए नियुक्त की जाती हैं। 


विधेयक अब प्रत्येक विधेयक की विषय-वस्तु के अनुसार किसी भी सदन या इसके पीठासीन अधिकारी द्वारा दोनों सदनों की विभागों से संबंधित नई संयुक्त स्थायी समितियों को भी भेजे जा सकते हैं। 


समितियां विधेयकों पर वैसे ही खंडवार विचार करती हैं जैसे कि सदन करता है। समिति के सदस्यों द्वारा विभिन्न खंडों में संशोधन पेश किए जा सकते हैं।" समिति विशेषज्ञों का, ऐसे संघों का या सरकारी निकायों का साक्ष्य भी ले सकती है जो उस विधान में रुचि रखते हों।" समितियों में विधेयकों पर विचार करने की प्रक्रिया वही है जो सदन में होती है। समिति द्वारा अलग अलग खंडों, अनुसूचियों आदि पर विचार कर लिए जाने और उन्हें स्वीकृत कर लिए जाने पर, लोक सभा सचिवालय सदन में या सदनों में पेश करने के लिए प्रतिवेदन तैयार करता है फिर सदन समिति द्वारा प्रतिवेदित रूप में विधेयक पर विचार करता है। 


राय जानना : 


यदि किसी विधेयक पर राय जानने के लिए उसे परिचालित करने का प्रस्ताव स्वीकृत होता है तो उस सदन का सचिवालय सभी राज्य सरकारों और संघ-राज्य क्षेत्रों को पत्र भेजकर उनसे कहता है कि वे विधेयक से संबंधित स्थानीय निकायों, संघों, व्यक्तियों या संस्थाओं की राय आमंत्रित, करने के लिए अपने अपने राजपत्रों में उसे प्रकाशित करें। राय जानने की अवधि का उल्लेख सामान्यतया विधेयक को प्रचालित करने संबंधी प्रस्ताव में ही कर दिया जाता है परंतु जहां इस प्रयोजन के लिए कोई तिथि उल्लिखित न हो वहां राज्य सरकारों से कहा जाता है कि वे प्रस्ताव की स्वीकृति की तिथि से तीन मास के भीतर राय भेज दें।" राय प्राप्त हो जाने पर उन्हें सदन के सभा पटल पर रख दिया जाता है जिसके पश्चात विधेयक को प्रवर/संयुक्त समिति को निर्दिष्ट करने का प्रस्ताव पेश किया जाता है। साधारणतया इसकी अनुमति नहीं है कि इस अवस्था में विधेयक पर विचार करने का प्रस्ताव पेश किया जाए। विधेयक फिर समिति अवस्था से गुजरता है और फिर से विधेयक को, प्रतिवेदित रूप में, सदन में पेश किया जाता है। 


विधेयक पर प्रवर या संयुक्त समिति का प्रतिवेदन सदन में पेश किए जाने के पश्चात मंत्री इन तीनों में से कोई प्रस्ताव कर सकता है, अर्थात कि विधेयक पर, प्रतिवेदित रूप में, विचार किया जाए, या कि विधेयक को, प्रतिवेदित रूप में, फिर से उसी समिति के पास या किसी नई समिति के पास भेजा जाए, या कि विधेयक पर राय जानने के लिए या अग्रेतर राय जानने के लिए परिचालित किया जाए या पुनः परिचालित किया जाए, जैसी भी स्थिति हो।" 


यदि मंत्री यह प्रस्ताव पेश करता है कि विधेयक पर, प्रतिवेदित रूप में, विचार तो उस पर वाद-विवाद की अनुमति दी जाती है। तब वाद-विवाद समिति द्वारा प्रतिवेदित रूप में विधेयक तक ही सीमित रहता है और विधेयक के सिद्धांत पर फिर से चर्चा नहीं की जा सकती क्योंकि जब विधेयक समिति को निर्दिष्ट करने का प्रस्ताव स्वीकृत किया जाता है तो सदन विधेयक के सिद्धांत पर वचनबद्ध हो जाता है। 


द्वितीय चरण : 


विधेयक पर या प्रवर/संयुक्त समिति द्वारा प्रतिवेदित रूप में विधेयक पर विचार करने का प्रस्ताव स्वीकृत हो जाने के पश्चात, विधेयक पर खंड वार विचार आरंभ होता है। प्रत्येक खंड चर्चा के लिए अलग से सदन के समक्ष रखा जाता है। खंड सदन के समक्ष रखे जाने के तुरंत पश्चात ग्राह्यता की शर्तों के अध्यधीन उसमें संशोधन पेश किए जा सकते हैं। खंडवार विचार प्रायः लंबा और कठिन होता है क्योंकि प्रत्येक खंड पर साधारणतया अलग से चर्चा की जाती है और प्रत्येक संशोधन पर (सिवाय ऐसे संशोधनों के जो प्रस्तावक द्वारा वापस ले लिए गए हो) भी चर्चा अलग से होती है और उसे सदन द्वारा अलग से स्वीकृत या अस्वीकृत किया जाता है। जो संशोधन स्वीकृत हो जाते हैं वे विधेयक का अंग, बन जाते हैं। 


(ग) तृतीय वाचन : 


जब विधेयक के सभी खंडों पर और अनुसूचियों पर, यदि कोई हों, सदन विचार कर लेता है और उन्हें स्वीकृत कर लेता है तो मंत्री यह प्रस्ताव कर सकता है कि विधेयक को पास किया जाए। इस अवस्था में, विधेयक के समर्थन में या उसे अस्वीकृत किए जाने के लिए तर्क दिए जाने तक ही चर्चा सीमित रहती है और उससे आगे केवल उतने विस्तार से जाने की अनुमति होती है जितना कि पूर्णतया आवश्यक हो। इस अवस्था में केवल शाब्दिक, औपचारिक और आनुषंगिक संशोधन ही पेश किए जा सकते हैं। चूंकि विधेयक के सामान्य सिद्धांतों पर सहमति हो चुकी होती है और उसकी विस्तारपूर्वक जांच भी हो चुकी होती है अतः तृतीय वाचन के दौरान लंबा वाद-विवाद शायद ही कभी होता हो। 


कोई साधारण विधेयक पास करने के लिए उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों का साधारण बहुमत अपेक्षित रहता है। इसलिए संसदीय शासन प्रणाली में, जहां बहुमत के समर्थन से ही सरकार बनती है, कोई भी सरकारी विधेयक आमतौर से आसानी से पास हो जाता है। किंतु यह संभव है कि सरकार को लोक सभा में तो बहुमत प्राप्त हो लेकिन राज्य सभा में ऐसा न हो। ऐसी स्थिति में किसी विवादास्पद विधेयक को पास कराने के लिए सरकार को विपक्ष के कतिपय सदस्यों का समर्थन प्राप्त करना अनिवार्य हो सकता है। 


(तीन) दूसरे सदन में विधेयक : 


जिस सदन में विधेयक पेश किया गया हो उसमें पास किए जाने के पश्चात उसे सहमति के लिए इस आशय के संदेश के साथ दूसरे सदन में भेजा जाता है। वहां विधेयक फिर इन तीनों अवस्थाओं में से गुजरता है। दूसरा सदन इनमें से कोई कार्यवाही कर सकता है। 


(क) वह सदन उस विधेयक को पूर्णतया अस्वीकार कर सकता है जिससे दोनों सदनों के बीच गतिरोध उत्पन्न हो सकता है। 


(ख) वह विधेयक को उसी रूप में या संशोधनों के साथ पास कर सकता है। यदि वह पहले सदन द्वारा भेजे गए रूप में उसे पास कर देता है तो वह विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिए उसके पास भेजा जाता है और यदि विधेयक संशोधनों के साथ पास किया जाता है तो विधेयक पहले सदन के पास वापस भेज दिया जाता है। वहां वह संशोधन विधेयक सभा पटल पर रखा जाता है। उसके दो दिन पश्चात संबंधित मंत्री यह प्रस्ताव कर सकता कि दूसरे सदन द्वारा प्रस्तावित संशोधन या संशोधनों पर विचार किया जाए। यदि पहला सदन दूसरे सदन द्वारा प्रस्तावित संशोधनों से सहमत हो जाता है तो वह विधेयक, संशोधित रूप में, दोनों सदनों द्वारा पास किया गया माना जाता है। परंतु यदि पहला सदन दूसरे सदन द्वारा प्रस्तावित संशोधन से सहमत नहीं होता तो वह विधेयक एक बार फिर दूसरे की सहमति के लिए उसके पास भेजा जाता है। यदि दूसरा सदन अपने संशोधनों पर फिर भी जोर देता है तो एक गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। 


(ग) यह भी हो सकता है कि वह सदन विधेयक पर कोई कार्यवाही न करे, अर्थात उसे सभा पटल पर पड़ा रहने दे। ऐसी स्थिति में, यदि विधेयक प्राप्त होने की तिथि से छह मास वीत जाते हैं तो यह मान लिया जाता है कि गतिरोध उत्पन्न हो गया है। 


(चार) दोनों सदनों की संयुक्त बैठक : 


किसी विधेयक पर दोनों सदनों के बीच असहमति के कारण गतिरोध के मामले में एक असाधारण स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिसका समाधान दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में होता है। संविधान के अधीन राष्ट्रपति को यह शक्ति प्राप्त है कि वह उस विधेयक पर, यदि वह विधेयक लोक सभा के विघटित हो जाने के कारण व्यपगत न हो गया हो तो, विचार करने और मतदान कराने के प्रयोजन से दोनों सदनों को संयुक्त बैठक के लिए आमंत्रित करे। ऐसी संयुक्त बैठक की अध्यक्षता अध्यक्ष द्वारा की जाती है और महासचिव, लोक सभा, उसकी सहायता करता है। संयुक्त बैठक पर लोक सभा के प्रक्रिया नियम लागू होते हैं। संयुक्त बैठक में केवल ऐसे संशोधनों का प्रस्ताव किया जा सकता है जो विधेयक पास करने में विलंब के कारण आवश्यक हो गए हों। ऐसी बैठकों में निर्णय दोनों सदनों के उपस्थित और मतदान करने वाले कुल सदस्यों के बहुमत द्वारा किए जाते हैं। इस प्रकार, लोक सभा की सदस्य-संख्या अधिक होने के कारण उसका निश्चित ही प्रभुत्व रहता है। अब तक केवल तीन विधेयक, अर्थात दहेज निषेध विधेयक, 1961, बैंककारी सेवा आयोग (निरसन) विधेयक, 1978 और आतंकवाद निरोधक विधेयक, 2002 (पोटा) संयुक्त बैठक में पास किए गए हैं। 


(पांच) विधेयकों पर राष्ट्रपति की अनुमति : 


जब दोनों सदनों द्वारा कोई विधेयक अलग अलग या संयुक्त बैठक में पास कर दिया जाता है तो उसे राष्ट्रपति की अनुमति के लिए उसके समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। यदि राष्ट्रपति अनुमति रोक लेता है तो विधेयक का अंत हो जाता है। किंतु चूंकि, राष्ट्रपति एक संवैधानिक प्रधान होता है, जिसे मंत्रिपरिषद के परामर्श पर ही कार्य करना होता है, इसलिए सामान्यतया वह अपने मंत्रियों के परामर्श पर पुनः विचार करने की मांग कर सकता है और इस प्रयोजन के लिए विधेयक को सरकार के पास वापस भेज सकता है। [अनुच्छेद 74 (2) तथा 78 (ख)] । राष्ट्रपति जैल सिंह ने डाक विधेयक के मामले में और राष्ट्रपति वेंकटरामन ने केवल एक वर्ष की सेवा के बाद संसद सदस्यों को पेंशन देने वाले विधेयक के मामले में संभवतया ऐसा ही किया था। 


यदि राष्ट्रपति अनुमति प्रदान कर देता है तो अनुमति की तिथि से विधेयक अधिनियम बन जाता है। अपनी अनुमति देने से इंकार करने या अनुमति प्रदान कर देने के बजाय राष्ट्रपति विधेयक को इस संदेश के साथ वापस कर सकता है कि दोनों सदन उस पर पुनः विचार करें। परंतु यदि सदन विधेयक में संशोधन करके या बिना. संशोधन किए दूसरी बार उसे पास कर देते हैं और विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिए फिर उसके समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तो उसे विधेयक पर अपनी अनु-गति रोक लेने की शक्ति प्राप्त नहीं होगी। 


धन विधेयक 


संविधान के अनुच्छेद 110 में धन विधेयक की विस्तृत परिभाषा की गई है। इस अनुच्छेद के अनुसार कोई विधेयक धन विधेयक माना जाता है यदि उसमें केवल निम्नलिखित सभी या किन्हीं विषयों से संबंधित उपबंध हों, अर्थात


(क) किसी कर का अधिरोपण, परिहार, परिवर्तन 

(ख) सरकार द्वारा धन का विनियमन या ऋण लेना; 

(ग) भारत की संचित निधि या आकस्मिकता निधि में धन जमा करना या उसमें से धन निकालना; 

(घ) किसी नए व्यय को भारत की संचित निधि पर प्रभारित व्यय घोषित करना; और 

(ङ) अनुच्छेद 110 (1) के उपखंड (क) से (च) में उल्लिखित किसी विषय का आनुषंगिक कोई विषय। 


परंतु कोई विधेयक केवल इसीलिए धन विधेयक नहीं माना जाता कि वह लाइसेंस के लिए फीस का या की गई सेवा के लिए फीस की मांग या उनकी अदायगी का उपबंध करता है या इसीलिए कि वह किसी स्थानीय प्राधिकारी या निकाय द्वारा स्थानीय प्रयोजनों के लिए किसी कर के अधिरोपण, उत्सादन और विनियमन आदि का उपबंध करता है। यह याद रखने की बात है कि यदि ऐसा प्रश्न उत्पन्न हो जाए कि कोई विधेयक धन विधेयक है अथवा नहीं तो इस बारे में अध्यक्ष का निर्णय अंतिम होगा। 


धन विधेयकों के बारे में विशेष प्रक्रिया 


कोई धन विधेयक राज्य सभा में पेश नहीं किया जा सकता। वह राष्ट्रपति की सिफारिश पर केवल लोक सभा में ही पेश किया जा सकता है। धन विधेयक लोक सभा द्वारा पास किए जाने के पश्चात, अध्यक्ष के इस आशय के प्रमाण पत्र के 'साथ कि वह धन विधेयक है, राज्य सभा की सिफारिशों के लिए उसके ८ पु भेजा जाता है। राज्य सभा किसी धन विधेयक को न तो रद्द कर सकती है और न ही उसे ऐसे विधेयक में संशोधन करने की शक्ति प्राप्त है। उसके लिए विधेयक की प्राप्ति की तिथि से 14 दिन की अवधि के भीतर उसे अपनी सिफारिशों के साथ लोक सभा को लौटाना अनिवार्य है। तत्पश्चात लोक समा या तो राज्य सभा की किसी एक या सभी सिफारिशों को स्वीकार कर सकती है या रद्द कर सकती है। यदि राज्य सभा द्वारा की गई कोई भी सिफारिश को लोक सभा स्वीकार कर लेती है तो धन विधेयक, राज्य सभा द्वारा की गई और लोक सभा द्वारा स्वीकार की गई सिफारिशों के साथ, दोनों सदनों द्वारा पास किया गया माना जाएगा। यदि राज्य सभा द्वारा की गई कोई भी सिफारिश लोक सभा स्वीकार नहीं करती तो विधेयक, राज्य सभा द्वारा संशोधन की सिफारिश किए जाने से पूर्व लोक सभा द्वारा पास किए गए रूप में, दोनों सदनों द्वारा पास किया गया माना जाएगा। इसके अतिरिक्त, यदि कोई पास किया गया और राज्य सभा की सिफारिश के लिए उसके पास भेजा गया धन विधेयक 14 दिन की उक्त अवधि के भीतर लोक सभा को लौटाया नहीं जाता तो 14 दिन बीत जाने पर उसे दोनों सदनों द्वारा पास किया गया माना जाएगा। धन विधेयक के संबंध में दोनों सदनों के बीच असहमति का कोई प्रश्न नहीं है जैसाकि किसी साधारण विधेयक के मामले में होता है, क्योंकि साधारण विधेयकों के संबंधों में उसे लोक सभा के बराबर शक्ति प्राप्त है। इसीलिए किसी धन विधेयक के मामले में संयुक्त बैठक का कोई उपबंध नहीं है। किसी धन विधेयक पर राज्य सभा का अनुमोदन व्यवहार में मात्र एक औपचारिकता है। 


वित्त विधेयक 


संविधान में धन विधेयकों (मनी बिल) और वित्त विधेयकों (फाइनेंशियल बिल) में भेद किया गया है। सामान्य रूप से, कोई ऐसा विधेयक वित्त विधेयक होता है जो राजस्व या व्यय से संबंधित हो। वित्त विधेयकों में, किसी धन विधेयक के लिए संविधान में उल्लिखित किसी मामले का उपबंध करने के अतिरिक्त, अन्य मामलों का भी उपबंध किया जाता है। सुविधा के लिए, वित्त विधेयकों को निम्नलिखित दो श्रेणियों में रखा जा सकता है : 


श्रेणी क : 


ऐसे विधेयक जिनमें धन विधेयक के लिए अनुच्छेद 110 में उल्लिखित किसी भी मामले के लिए उपबंध किए जाते हैं परंतु केवल उन्हीं मामलों के लिए ही उपबंध नहीं किए जाते, उदाहरणार्थ, कोई विधेयक जिसमें करारोपण का खंड होता है परंतु वह केवल करारोपण के संबंध में ही नहीं होता। 


श्रेणी ख : 


ऐसे विधेयक जिनमें संचित निधि से व्यय संबंधी उपबंध हों। 


धन विधेयक और वित्त विधेयक में अंतर 


धन विधेयक और वित्त विधेयक में अंतर जैसाकि संविधान में उपबंधित है, केवल तकनीकी स्वरूप का है। तदनुसार, सभी वित्त विधेयक धन विधेयक नहीं होते। केवल ऐसे वित्त विधेयक ही धन विधेयक हो सकते हैं जिसमें केवल अनुच्छेद 110 में उल्लिखित मामलों का उपबंध हो और सबसे बड़ी बात यह है कि जिन्हें अध्यक्ष द्वारा धन विधेयक के रूप में प्रमाणित किया जाए। 


इसके अतिरिक्त, दोनों सदनों द्वारा धन विधेयकों और वित्त विधेयकों को पास करने की प्रक्रिया में थोड़ा अंतर है। धन विधेयक, राष्ट्रपति की सिफारिश पर केवल लोक सभा में पेश किया जा सकता है और राज्य सभा को उस पर अपनी सम्पनि को रोकने की शक्ति प्राप्त नहीं है। श्रेणी क के वित्त विधेयक ऐसे विधेयक होने हैं जिनमें किसी धन विधेयक के लिए उल्लिखित किसी मामले का उपबंध हो परन जो केवल ऐसे ही मामलों से संबंध न रखते हों। इस श्रेणी के विधेयक में दो तल ऐसे होते हैं जो किसी धन विधेयक में भी पाए जाते हैं, अर्थात (क) वह राज्य सभा में पेश नहीं किया जा सकता और (ख) वह राष्ट्रपति की सिफारिश पर ही पेश किया जा सकता है। परंतु वित्त विधेयक धन विधेयक न होने के कारण, राज्य सभा को इसे रद्द करने या इसमें संशोधन करने की वैसे ही पूरी शक्ति है जैसे इसे किस भी साधारण विधेयक के मामले में प्राप्त है। सिवाय इस सीमा के कि कर में कर्म करने और कर का उत्सादन करने के अलावा कोई संशोधन राष्ट्रपति की सिफारिश के बिना दोनों में से किसी भी सदन में पेश नहीं किया जा सकता, वित्त विधेयक को एक साधारण विधेयक के समान राज्य सभा में सभी अवस्थाओं से गुजरना पड़ता से है और दोनों सदनों में असहमति होने की स्थिति में गतिरोध के समाधान के लिए, संयुक्त बैठक के उपबंध का पालन किया जाता है। संयुक्त बैठक का उपबंध धन विधेयक के मामले में लागू नहीं होता। 


श्रेणी ख के वित्त विधेयक को जिसमें अन्य बातों के साथ साथ भारत को संचित निधि से व्यय का एक या अधिक प्रस्ताव हों और जिसमें अनुच्छेद 110 में उल्लिखित कोई मामला भी शामिल न हो, एक साधारण विधेयक माना जाता है और इसी कारण वह किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है और राज्य सभा को उसे रद्द करने या उसमें संशोधन करने की पूरी शक्ति प्राप्त है। उसे पेश करने के लिए राष्ट्रपति की सिफारिश अपेक्षित नहीं होती। परंतु किसी भी सदन द्वारा उस पर विचार करने के लिए राष्ट्रपति की सिफारिश आवश्यक है। दूसरे शब्दों में, ऐसा शत नहीं है कि उसे पेश करने से पूर्व राष्ट्रपति उसकी सिफारिश करें जैसाकि किसी धन विधेयक और श्रेणी क के वित्त विधेयक के मामले में है परंतु इस मामले में कोई भी सदन तब तक विधेयक पास नहीं कर सकता जब तक कि ऐसी सिफारिश राष्ट्रपति द्वारा न की जाए। अन्य सभी पहलुओं में, दोनों सदनों स्थिति में असहमति की संयुक्त बैठक के उपबंध सहित, ऐसे विधेयक की प्रक्रिया वही है जो किसी साधारण विधेयक की होती है।  


संविधान (संशोधन) विधेयक 


संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया अनुच्छेद 368 में निर्धारित की गई है। संविधान में किसी पृथक संविधायी निकाय की व्यवस्था नहीं है। संविधान में संशोधन करने की शक्ति संसद में निहित है। संविधान में संशोधन करने के लिए विधेयक संसद के दोनों में से किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। ऐसा विधेयक सरकार द्वारा लाया जा सकता है या किसी गैर-सरकारी सदस्य द्वारा। सामान्यतया, मंत्रियों द्वारा लाए जाने वाले संविधान (संशोधन) विधेयक लोक सभा में पेश किए जाते हैं। किसी गैर-सरकारी सदस्य द्वारा संविधान (संशोधन) विधेयक लाया जाता है तो उसके गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों पर लागू होने वाले साधरण नियमों के अध्यधीन होने के अलावा यह भी आवश्यक है कि गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों तथा संकल्पों संबंधी समिति सदन में विधेयक के पेश किए जाने के लिए उसकी जांच करे और सिफारिश करे। 


संशोधन के प्रयोजनों के लिए संविधान के अनुच्छेदों का तीन श्रेणियों में वर्गीकरण किया गया है, अर्थात


(क) ऐसे अनुच्छेद जिनमें साधारण बहुमत से संशोधन किया जा सकता है; 

(ख) ऐसे अनुच्छेद जिनमें संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत अपेक्षित है; और 

(ग) ऐसे अनुच्छेद जिनमें संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत और साथ ही कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों द्वारा अनुसमर्थन अपेक्षित है। 


साधारण बहुमत द्वारा संशोधन 


संविधान के निम्नलिखित उपबंधों में संशोधन करने वाले विधेयक के लिए साधारण बहुमत का समर्थन अपेक्षित होता है और ऐसा कोई विधेयक संविधान के अनुच्छेद 368 के अधीन संविधान (संशोधन) विधेयक नहीं माना जाता : 


(क) नए राज्यों का प्रवेश या स्थापना; नए राज्यों का निर्माण और वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों में परिवर्तन (अनुच्छेद 2, 3, 4); 

(ख) राज्य में विधान परिषदों के सृजन का उत्सादन (अनुच्छेद 169) 

(ग) अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों का प्रशासन और नियंत्रण (पांचवीं अनुसूची का पैरा 7); और 

(घ) असम, मेघालय और मिजोरम राज्यों में जनजाति क्षेत्रों का प्रशासन (छठी अनुसूची का पैरा 21)। 


नए राज्यों का निर्माण करने के लिए और वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों में परिवर्तन करने के लिए विधेयक राष्ट्रपति की सिफारिश पर ही संसद के दोनों में से किसी एक सदन में पेश किया जा सकता है। सिफारिश करने में पूर्व राष्ट्रपति को संबंधित राज्यों के विचार, उसके द्वारा निर्धारित अवधि में, जानने के लिए विधेयक उन्हें निर्दिष्ट करना होता है। परंतु वह इस प्रकार प्राप्त हुए विचार्ग को मानने के लिए बाध्य नहीं होता।" 


यदि किसी राज्य की विधान सभा अपने उपस्थित और मतदान करने वाले कम से कम दो-तिहाई सदस्यों के बहुमत से राज्य में विधान परिषद के उत्पादन या सृजन के लिए संकल्प पास करती है तो संसद उस राज्य में विधान परिषद के उत्सादन या सृजन के लिए उपबंध करने वाला विधान पास कर सकती है। संसद ऐसे संकल्प का अनुमोदन कर सकती है या निरनुमोदन कर सकती है या यदि चाहे तो उस पर कोई कार्यवाही न करे। 


विशेष बहुमत द्वारा संशोधन 


संविधान के किसी अन्य भाग में संशोधन करने वाला विधेयक विशेष बहुमत द्वारा पास किया जाता है, अर्थात, उस सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा और उस सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले कम से कम दो तिहाई सदस्यों के बहुमत द्वारा । वास्तव में, विशेष बहुमत केवल विधेयक के तृतीय वाचन की अवस्था में मतदान के लिए अपेक्षित है, परंतु पर्याप्त सावधानी के तौर पर विधेयक की सभी प्रभावी अवस्थाओं के संबंध में सदनों के नियमों में विशेष बहुमत का उपबंध किया गया है।" 


विशेष बहुमत द्वारा संशोधन और राज्यों द्वारा अनुसमर्थन 


संविधान के निम्नलिखित उपबंधों में संशोधन करने वाला विधेयक संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत द्वारा पास किया जाना होता है और राष्ट्रपति की अनुमति के लिए विधेयक उसके समक्ष प्रस्तुत करने से पूर्व, कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों द्वारा संकल्प पास करके उसका अनुसमर्थन भी करना होता है।" 


(क) राष्ट्रपति का निर्वाचन (अनुच्छेद 54 और 55); 

(ख) संघ तथा राज्यों की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार (अनुच्छेद 73 और 162); 

(ग) उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय (संविधान का अनुच्छेद 241, भाग 5 का अध्याय 4 और भाग 6 का अध्याय 5); 

(घ) संघ तथा राज्यों के बीच विधायी शक्तियों का वितरण (संविधान के भाग 11 का अध्याय 1 और सातवीं अनुसूची); 

(ङ) संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व; या 

(च) सोवधान में संशोधन करने की प्रक्रिया (अनुच्छेद 368) । 


संविधान में ऐसी समय सीमा निर्धारित नहीं है जिसमें राज्यों के लिए इस प्रयोजन हेतु निर्दिष्ट सविधान (संशोधन) विधेयक पर अपने अनुसमर्थन को सूचना देना अनिवार्य हो। 


गैरसरकारी सदस्यों के विधेयक 


लोगों के प्रतिनिधियों को लोक महत्व के विभिन्न मामलों पर अपने विचार व्यक्त करने का अवसर प्रदान करने और सरकार को कार्यक्रम एवं नीतियों के निर्माण के लिए राजी करने की दृष्टि से संसद के नियमों एवं प्रकियालों में गैर सरकारी सदस्यों द्वास भी विधान की शुरुआत करने का उपबंध किया गया है। 


गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा लाए जाने वाले विधेयकों पर चर्चा करने से सदन को समस्याओं को समझने का और उनके सभी पहलुओं पर विचार करने का अवसर मिलता है। गैर-सरकारी सदस्य का विधेयक अंत में पास हो या न हो परंतु उत चर्चा करने से सदन के सभी प्रकार के मतों से सरकार अवगत हो जाती है। विधेयक में दिए गए विशिष्ट प्रस्तावों की जोर सरकार का और लोगों का ध्यान दिलाने का प्रयोजन सिद्ध जाता है। सरकार विधेयक के विषय के बारे में नीति विषयक निर्णय करती है और अपने विचार सदन के समक्ष रखती है। चर्चा से एक लाभ यह होता है कि सरकार उस विषय पर, यदि आवश्यक हो तो, व्यापक विधेयक स्वयं ला सकती है। 


प्रत्येक अधिवेशन में हर दूसरे शुक्रवार के दिन गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों से संबंधित कार्य निबटाने के लिए ढाई घंटे का समय नियत किया जाता है। मास के अन्य दो शुक्रवारों के दिन गैर-सरकारी सदस्यों के संकल्प लिए जाते हैं। 


जहां तक सदन में गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों की अवस्थाजों और अन्य सामान्य प्रक्रियाओं का संबंध है, सरकारी विधेयकों और गैर-सरकारी विधेयकों में कोई अंतर नहीं है। किसी गैर-सरकारी सदस्य के विधेयक पर भी वैसे ही कार्यवाही की जाती है जैसे कि सरकारी विधेयक पर की जाती है। परंतु विधेयक पेश करने सूचना की अवधि, किसी सदस्य द्वारा एक अधिवेशन में पेश किए जा सकने वाले विधेयकों की संख्या पर प्रतिबंध, संविधान में संशोधन करने वाले विधेयकों, चर्चा के लिए सापेक्ष पूर्ववर्तिता, इत्यादि के संबंध में गैर-सरकारी सदस्यों के विधेपकों से संबंधित कुछ विशिष्ट प्रक्रिया है। 


यदि कोई सदस्य कोई विधेयक पेश करना चाहता हो तो, यदि अध्यक्ष या सभापति, जैसे भी स्थिति हो, अल्प सूचना पर विधेयक पेश करने की अनुमति न दे तो, उसे एक मास की सूचना देनी पड़ती है। विधेयक को सूचना के साथ विशेषक की एक प्रति और उद्देश्यों तथा कारणों का एक व्याख्यात्मक विवरण देना होता है। यदि विधेयक के कारण, उसके अधिनियम की स्थिति में सार्वजनिक निधियों से धन व्यय होने की संभावना हो तो सदस्य द्वारा अंतर्ग्रस्त अनुमानित व्यय दर्शाने वाला एक वित्तीय ज्ञापन विधेयक के साथ लगाना होता है। यदि विधेयक में प्रत्यायोजित (डेलिगेटेड) विधान के लिए प्रस्ताव हों तो प्रत्यायोजित विधान के बारे में एक ज्ञापन भी विधेयक के साथ लगाना होता है। 


गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों के लिए नियत दिन को पेश किए जाने वाले सभी विधेयक उस दिन की गैर-सरकारी सदस्यों की कार्य सूची में सम्मिलित किए जाते हैं। 


लोक सभा में संविधान में संशोधन करने वाले विधेयक गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों पर लागू होने वाले साधारण नियमों के अनुकूल होने चाहिए, परंतु इसके अलावा सदन की एक समिति अर्थात, गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों तथा संकल्पों संबंधी समिति भी उनकी जांच करती है और केवल वही विधेयक पेश किए जाने के लिए कार्य सूची में रखे जाते जिनकी उक्त समिति सिफारिश करे। 


प्रथा के अनुसार, गैर-सरकारी सदस्य के किसी विधेयक को पेश करने के लिए अनुमति के प्रस्ताव का विरोध नहीं किया जाता। यदि उसका विरोध किया जाए तो पीठासीन अधिकारी प्रस्ताव का विरोध करने वाले सदस्य को और प्रस्ताव पेश करने वाले सदस्य को संक्षिप्त वक्तव्य देने की अनुमति दे सकता है और तत्पश्चात प्रस्ताव सदन के निर्णय के लिए मतदान के लिए रख सकता है। यदि विधेयक पेश करने के प्रस्ताव का इस आधार पर विरोध किया जाता है कि वह सदन की विधायी क्षमता से बाहर है, तो पीठासीन अधिकारी उस पर पूर्ण चर्चा की अनुमति दे सकता है और तत्पश्चात प्रस्ताव सदन में मतदान के द्वारा निर्णय के लिए रख सकता है। यदि प्रस्ताव स्वीकृत हो जाता है तो विधेयक का प्रभारी सदस्य विधेयक पेश करता है। साधारणतया, एक सदस्य एक अधिवेशन में चार विधेयक पेश कर सकता है। 


लोक सभा में कोई विधेयक पेश किए जाने के पश्चात और सदन में उसे विचारार्थ लिए जाने से पूर्व, गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों तथा संकल्पों संबंधी समिति विधेयक के स्वरूप, अविलंबनीयता और महत्व की दृष्टि से विधेयकों का वर्गीकरण करके उन्हें दो श्रेणियों में रखती है, अर्थात श्रेणी 'क' तथा श्रेणी 'ख' । समिति उन पर चर्चा के लिए समय भी नियत करती है। सदन में विचार करने के प्रयोजन के लिए श्रेणी 'क' के वर्ग के विधेयक पहले लिए जाते हैं और श्रेणी 'ख' के वर्ग के विधेयक बाद में लिए जाते हैं। लोक सभा में किसी विशिष्ट श्रेणी में विधायकों की सापेक्ष पूर्ववर्तिता बैलट द्वारा निर्धारित की जाती है। विधेयक बैलट द्वारा निर्धारित प्राथमिकता के क्रम में कार्य सूची में सम्मिलित किए जाते हैं। शेष मामलों में विधेयक की अवस्थाएं वही हैं, जो सरकारी विधेयकों के मामले में होती हैं।  


गत 51 वर्षों में आज तक लोक सभा और राज्य सभा में केवल 14 गैर-सरकारी विधेयक पारित हो सके हैं और यह भी 1952-1970 के बीच। पिछले 32-33 सालों में एक भी ऐसा विधेयक विधि नहीं बन सका है। जो 14 विधेयक पारित हुए वे इस प्रकार थे :


1. मुस्लिम वक्फ विधेयक 1952 (1954 में पारित) 

2. भारतीय पंजीकरण (संशोधन) विधेयक 1955 (1956 में पारित) 

3. संसदीय कार्यवाहियां (प्रकाशन सुरक्षा) विधेयक 1956 (1956 में पारित) 

4. आपराधिक प्रक्रिया संहिता (संशोधन) विधेयक 1953 (1956 में पारित) 

5. महिला और बाल संस्थान (लाइसेंस) विधेयक 1954 (1956 में पारित) 

6. प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारक तथा पुरातात्विक स्थल और अवशेष (राष्ट्रीय महत्व का घोषित) विधेयक 1954 (1956 में पारित) 

7. हिंदू विवाह (संशोधन) विधेयक 1956 

8. आपराधिक प्रक्रिया संहिता (संशोधन) विधेयक 1957 (1960 में पारित) 

9. अनाथालय और अन्य धर्मालय (देख-रेख और नियंत्रण) विधेयक 1960 (1960 में पारित) 

10. मैरीन बीमा विधेयक 1959 (1963 में पारित) 

11. सांसद वेतन और भत्ते (संशोधन) विधेयक 1964 (1964 में पारित) 

12. हिंदू विवाह (संशोधन) विधेयक 1963 (1964 में पारित) 

13. भारतीय दंड संहिता (संशोधन) विधेयक 1963 (1969 में पारित) 

14. उच्चतम न्यायालय (आपराधिक अपीलीय क्षेत्राधिकार विस्तार) विधेयक 1968 (1970 में पारित) 


अधीनस्थ विधान (सबोर्डिनेट लेजिस्लेशन) 


आधुनिक सभ्यता की जटिलताओं और तेजी से होने वाले औद्योगीकरण के कारण राज्य के लिए आवश्यक हो गया है कि वह अहस्तक्षेप के सिद्धांत का त्याग करके समाज कल्याण के विचार पर जोर दे। परिणाम यह है कि राज्य सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन का अधिकाधिक माध्यम बन गया है। अब सरकार को जो विधान बनाना पड़ता है उसका दायरा इतना व्यापक और स्वरूप इतना विविध होता है कि उससे मानव उपक्रम का कोई पहलू अछूता नहीं रहता। इसके अतिरिक्त, विधि निर्माण की प्रक्रिया अब सरल नहीं रही है, बल्कि अधिकाधिक जटिल एवं तकनीकी स्वरूप की होती जा रही है। ऐसी स्थिति में, विधानमंडल के पास न तो इतना समय होता है कि वह सभी आवश्यक विधियों पर विचार कर सके, चर्चा कर सके और उसका अनुमोदन कर सके, और न ही अपेक्षित विशेषज्ञता होती है कि वह उनके प्रतिक्रियागत एवं तकनीकी ब्यौरों में जा सके। यद्यपि साधारणतया संसद का अधिवशन वर्ष में छह से सात मास तक चलता है, फिर भी बहुत सा विधान शेष रहता है जिस कार्यवाही नहीं की जा सकती। इसीलिए उपबंध किया गया है कि विधानमंडल किबनाने की अपनी कुछ शक्तियां किसी अधीनस्थ एजेंसी को प्रत्यायोजित का है। इसका परिणाम यह है कि विधानमंडल सामान्य रूप की विधियां बनाता, यह बात सरकार पर छोड़ देता है कि वह उल्लिखित सीमाओं में रहकर विस्तृत नि एवं विनियम बनाए और विधान के उद्देश्यों को पूरा करे और ऐसी नई परिस्थिति का समाधान करे जो विधियां बनाते समय विधानमंडल के समक्ष नहीं थीं। विधानपर द्वारा प्रत्यायोजित प्राधिकार के अधिकार क्षेत्र में रहकर किसी अधीनस्थ एजेंसी , बनाए जाने वाले ऐसे नियमों एवं विनियमों को 'अधीनस्थ विधान' कहा जाता है कभी कभी इसे 'प्रत्यायोजित विधान' भी कहा जाता है। 


भारत में प्रत्यायोजन की यह शक्ति विधायी शक्ति का ही तत्व है। विधानमंडल अपने मूल विधायी कृत्य, अर्थात, विधायी नीति का निर्धारण और आचरण के नियम के रूप में उसके निर्माण के कृत्य कार्यपालिका को या किसी अन्य निकाय का प्रत्यायोजित करने में सक्षम नहीं है। ऐसा तभी अनुज्ञेय है जबकि विधायी नीति एवं सिद्धांत पर्याप्त रूप से निर्धारित हों और प्रत्यायुक्त को केवल इतनी शक्ति दी जाए कि वह विधानमंडल द्वारा निर्धारित मार्गदर्शक सिद्धांतों के दायरे में रहकर उप-नीति को लागू करे। दूसरे शब्दों में विधानमंडल अपने द्वारा निर्धारित मूल सिद्धांतों के दायरे में रहकर ब्यौरे तैयार करने के लिए अन्य निकायों या प्राधिकारियों का मात्र प्रयोग कर सकता है। 


अधीनस्थ विधान की कभी कभी इस आधार पर जोरदार आलोचना की जाती है कि इस प्रक्रिया से संसद की विधायी शक्तियां प्रशासन अनधिकृत रूप से ग्रहण कर लेता है और इसके परिणामस्वरूप सरकारी अफसरों की 'नई सामंतशाही' कायम हो जाती है। वे न तो संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं और न प्रत्यक्ष रूप से लोगों के प्रति। दूसरी ओर, आज के वातावरण में अधीनस्थ विधान से पूर्णतया बचना असंभव है। इसलिए सबसे आवश्यक बात यह है कि अधीनस्थ विधान की शक्ति के प्रयोग पर निरंतर संसदीय निगरानी एवं नियंत्रण रहे। 


इस शक्ति का दुरुपयोग संभव न हो इसके लिए कुछ पूर्वोपायों का उपबंध किया गया है। उदाहरणार्थ, यह निर्धारित है कि "जिस विधेयक में विधायी शक्ति के प्रत्यायोजन के प्रस्ताव सम्मिलित हों उनके साथ अग्रेतर एक ज्ञापन होगा जिसमें ऐसे प्रस्तावों की व्याख्या होगी और उनकी व्याप्ति की ओर ध्यान दिलाया जाएगा तथा यह भी बताया जाएगा कि वे सामान्य रूप की हैं या अपवादस्वरूप की।" इसके अतिरिक्त, यह उपबंध भी किया गया है कि संसद द्वारा किसी अधीनस्थ एजेंसी को प्रत्यायोजित विधायी कृत्यों के अनुसरण में बनाए जाने वाले विनियम, नियम और उपविधियां उस सदन के समक्ष रखे जाएं जहां संशोधन भी पेश किया जा सके। इस प्रकार संसद इन अवस्थाओं में अपने अधिकार का प्रयोग करके छानबीन करती है और नियंत्रण रखती है। इसके अतिरिक्त, ऐसे सभी नियमों और विनियमों की संविधान के उपबंधों के अधिकारातीत होने का तर्क दिए जाने पर न्यायालय जांच कर सकते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि संसद के प्रत्येक सदन की 'अधीनस्थ विधान संबंधी समिति' है जो उस सदन के सदस्यों से बनती है और जो यह देखती है कि क्या संसद द्वारा प्रत्यायोजित शक्तियों का, ऐसी शक्तियां प्रत्यायोजित करनेवाली विधि के दायरे में रहकर, उचित प्रयोग किया गया है और उसके बाद अपने सदन को उस बारे में प्रतिवेदन प्रस्तुत करती है। वास्तव में, अधीनस्थ विधान संबंधी समिति ही है जो समुचित रूप से इस बात का ध्यान रखती है कि प्रशासन मनमानी शक्तियां ग्रहण न कर ले। इस समिति ने सदा यह सुनिश्चित किया है कि इस प्रकार बनाए जाने वाले सभी नियम और विनियम न केवल अविलंब संसद के समक्ष प्रस्तुत किए जाएं बल्कि उन्हें रद्द करके या उनमें रूपभेद करने का कानूनी अधिकार संसद के पास रहे। 

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