Thursday, March 24, 2022

स्वामी विवेकानंद की जीवनी Biography of Swami Vivekananda

विवेकानन्द स्वामी विवेकानन्द का जन्म सन् 1862 ई० की जनवरी की छठी तारीख को कलकत्ते के निकट 'सियूलिया' नामक गाँव में एक कुलीन कायस्थ के घर हुआ था। आपके पिता का नाम बाबू विश्वनाथ दत्त था। आप परम बुद्धिमान् तथा चतुर पुरुष थे। जब आपने अपने पुरुषर्थ से कलकत्ते के हाईकोर्ट में एटार्नी का पद प्राप्त किया, उसी समय आपके वृद्ध पिता ने संन्यास ले लिया। संन्यास वृत्ति की इस परम्परा की कुछ झलक स्वामी जी में जन्म से ही दीखने लगी थी। स्वामी जी का जन्म नाम 'वीरेश्वर' था। परन्तु माता, पिता और गुरुजन आपको नरेन्द्र कह कर पुकारते थे। इससे आगे भी आप नरेन्द्रनाथ के नाम से ही प्रसिद्ध हुए। नरेन्द्र की आँखें सुन्दर, शरीर गोरा, माथा सुडौल और चेहरा प्रकाशमय था। उनका चित्त कभी पढ़ने में नहीं लगता था। उनका स्वभाव चंचल था, परन्तु उनके गुरुजन उसकी तीव्र बुद्धि से बड़े प्रसन्न रहते थे। नरेन्द्र अपने सहपाठियों में सबसे अच्छे थे। जब वे 14 वर्ष के हुए तो उन्होंने एन्ट्रेन्स की परीक्षा पास की और 18 वर्ष की अवस्था में बी०ए० । दर्शन में आपकी बुद्धि इतनी चलती थी कि जब आप बी०ए० में पढ़ते थे उस समय आप तत्कालीन इंग्लैण्ड के सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक हर्बर्ट स्पेन्सर से लेखबद्ध शास्त्रार्थ किया करते थे। वह आपकी विद्धता पर मुग्ध रहता था और उसने एक बार कहा था कि यह विद्यार्थी संसार में एक दिन अपना जौहर दिखायेगा। 


जब नरेन्द्र ने अपना संस्कृत और अंगरेजी का अध्ययन समाप्त लिना उसी समय उनके पिता का देहान्त हो गया। अतएव कुटुम्ब पालन का सारा भार इनके सिर पर आ पड़ा। फलस्वरूप नरेन्द्र ने 60/- की कहीं नौकरी कर ली। परन्तु नौकरी में उनकी तबीयत नहीं लगती थी, क्योंकि इसमें उनका बहुत-सा समय लग जाता था और उन्हें अपने प्रिय विषय तत्वज्ञान के अध्ययन का मौका नहीं मिलता था। नरेन्द्र की माता ने बहुत चाहा कि यह अपना विवाह कर लें परन्तु उन्होंने संसार की असारता को समझकर विवाह करना स्वीकार नहीं किया। नरेन्द्र की इच्छा थी कि आजन्म ब्रह्मचारी रहकर देश तथा धर्म का कार्य किया जाये। अतएव उन्होंने विवाह न कर अपने प्रिय-विषय तत्वज्ञान का अध्ययन बड़े लगन से प्रारम्भ किया। 


जिस समय नरेन्द्र ने अपना अध्ययन प्रारम्भ किया उस समय बंगाल में ब्रह्म-समाज में बड़े-बड़े विद्वान् थे। नरेन्द्र की धर्म के तत्त्व को जानने की बड़ी इच्छा थी। वे सनातनियों की पुरानी लीक को पीटना नहीं चाहते थे। किसी बात पर अन्ध विश्वास रखना तो आप जानते ही न थे। आप सर्वदा असली धर्म की खोज में रहते थे। आप जिस किसी विद्वान् से मिलते अपना सन्देह उनसे कह सुनाते थे, परन्तु जब वे महाशय आपके प्रश्नों का कुछ उत्तर नहीं दे सकते थे तो कहते थे कि तुम नास्तिक हो। जब अपने प्रश्न का उत्तर आपको नहीं मिलता तो आपकी उस पुरुष से श्रद्धा हट जाती थी। आप कुछ दिनों तक ब्रह्म-समाज में रहे परन्तु जब आपको उस धर्म से सन्तुष्टि नहीं हुई तो आपने उसे बिल्कुल छोड़ दिया। आपने ईसाई और मुसलमानी धर्म का अध्ययन किया। परन्तु ये धर्म भी आपको ठीक न अँचे। अब आपने वेदों और उपनिषदों का अध्ययन प्रारम्भ किया। सनातन धर्म के सिद्धान्त आपको बहुत अच्छे अँचे और आपने निश्चित किया कि यदि संसार का कल्याण करने की सामर्थ्य यदि किसी धर्म में है तो वह सनातन वैदिक धर्म ही है। इसके अटूट सिद्धान्त त्रिकाल में भी सत्य हैं। अतः यही धर्म सर्वोपरि है। 


स्वामी विवेकानंद की जीवनी Biography of Swami Vivekananda



अब नरेन्द्र एक ऐसा योग्य गुरु चाहते थे जो इन्हें सनातन धर्म के रहस्यों को समझाता और परमेश्वर के बारे में कुछ बोध कराता। जब ये में किसी योगी या साधु का नाम सुनते थे कि अमुक बड़े महात्मा हैं, तो आप उनके पास उत्सुकतापूर्वक जाते और अपने सन्देह को प्रकाशित करते। परन्तु जब कुछ ठीक उत्तर न मिलता तो निराश होकर लौट आते थे। किसी संयोग से आपका एक दिन श्री रामकृष्ण परमहंस से साक्षात् हो गया। नरेन्द्र उनकी प्रशंसा सुन चुके थे। नरेन्द्र के जाते ही रामकृष्ण ने समझा कि यह कोई विशेष आदमी है। नरेन्द्र ने पूछा 'आपने ईश्वर को देखा है? क्या आप मुझे दिखा सकते हैं?' उत्तर मिला 'हाँ'। रामकृष्ण ने नरेन्द्र को एक कमरे में ले जाकर काली की मूर्ति साक्षात् दिखा दी। उस प्रतिमा को देख नरेन्द्र के मन में बड़ा विस्मय हुआ और उन्होंने समझा ईश्वर का साक्षात्कार हो सकता है। अब नरेन्द्र ने समझा कि ये ही मेरे योग्य गुरु हैं और वे उनके चेला बन गये। अब से उन्होंने अपना नाम 'विवेकानन्द' रख लिया। रामकृष्ण के सम्पर्क में आने से विवेकानन्द में बड़ा परिवर्तन हुआ। आप बिल्कुल बदल गये। आपके विचारों की धारा पलट गई। अब आप तेज-पुंज सा दिखाई पड़ने लगे। आपमें एक विचित्र वाग्मिता आ गई। 


सन् 1886 ई० में श्री रामकृष्ण का देहावसान हो गया। गुरुजी की मृत्यु से विवेकानन्द बड़े दुःखी हुए। कई दिनों तक आपने अन्न ग्रहण नहीं किया। आपका पहले से ही विचार गृहस्थी में फँसने का नहीं था। अब गुरु के मरने से उदासीन हो आपने संन्यास ले लिया। अब आपने गुरु के धर्म का प्रचार करना प्रारम्भ किया। स्वामी जी ने आत्मानुभव करने के लिये बहुत दिनों तक हिमालय की गुफा में वास किया। बनारस, प्रयाग, पूना, बेलगाँव और धारवाड़ आदि शहरों में आप धर्म का प्रचार करने लगे और इन स्थानों में घूमते हुए आपको विदेशोंइंग्लैण्ड और अमेरिका में जाकर धर्म प्रचार करने की स्फूर्ति हुई। 


इन्हीं दिनों में अमेरिका में अखिल-धर्म-समिति की बैठक होने वाली थी। भारत से भी प्रतिनिधि बुलाये गये। भारतवासियों ने स्वामी जी को इस कार्य के लिये योग्य समझा और इनको चन्दा करके अमेरिका भेजा। वहाँ पर स्वामी जी की विचित्र वेशभूषा को देखकर लोग बड़े आश्चर्यित हुए। सब लोगों ने आपके व्याख्यान सुनने की बड़ी उत्सुकता प्रकट की। आप महासभा के सभापति से मिले। आपको सभा में बोलने के लिये केवल पाँच मिनट समय दिया गया। परन्तु जब आपने अपने विषय पर व्याख्यान देना प्रारम्भ किया उस समय उतने ही अल्पकाल में आपका भाषण इतना चित्ताकर्षक हुआ कि श्रोताओं के आग्रह से सभापति ने आपको और समय दिया। सभी में आपने बड़ा विद्वत्तापूर्ण और सारगर्भित व्याख्यान दिया। आपके व्याख्यान से अनेकों आदमी प्रभावान्वित हो आपके शिष्य बन गये और बहुतों पर हिन्दूधर्म की गहरी छाप पड़ी। सभा का कार्य समाप्त कर लेने पर आपने अमेरिका के भिन्न-भिन्न शहरों में व्याख्यान देना प्रारम्भ किया। वहाँ आपने वेदान्त - समिति स्थापित की और इस तरह वेदान्त के सिद्धान्तों को आपने समझना प्रारम्भ किया। इस तरह से आपने हिन्दूधर्म की विजय पताका वहाँ फहराई और अपना उद्देश्य पूरा कर आप स्वदेश इंग्लैण्ड होते हुए लौट आये। इंग्लैण्ड में भी आपने तत्त्वज्ञान के ऊपर बहुत से व्याख्यान दिये। विदेश में आपके कार्यों का समाचार सुनकर भारतवासी बड़े प्रसन्न हुए और आपके यहाँ आने पर लोगों ने आपका बड़ा स्वागत किया। तारीख 15 फरवरी सन् 1897 ई० को आप कोलम्बो आये। वहाँ पर भी आपका शानदार स्वागत हुआ। 


भारत में आने पर फिर आप कार्य में लीन हो गये। यू०पी०, सी०पी०, बंगाल और आसाम में फिर आप धर्म का प्रचार करते हुए चक्कर लगाने लगे। अपने फिर शोर जोर से कार्य करना प्रारम्भ किया, परन्तु धर्म प्रचार के लिये पुनः आपने 10 जून सन् 1899 ई० में मद्रास होते हुए अमेरिका के लिए प्रस्थान कर दिया। वहाँ पर भी आपको चैन कहाँ? कैलिफोर्निया आदि शहरों में आपने पुनः अपना व्याख्यान देना प्रारम्भ किया। चारों ओर घूम-घूम कर आपने हिन्दूधर्म का अर्थ लोगों को समझाया। वेदान्त समिति स्थापित कर आपने वहाँ के लोगों की रुचि वेदान्त की ओर लगाई। अभी आप अपना कार्य समाप्त भी न कर पाये थे कि इतने में पेरिस से सर्व-धर्म-समिति का बुलावा आया। आपने चटपट फ्रान्सीसी भाषा सीखकर वहाँ की परिषद् में सन् 1890 ई० में अपना व्याख्यान फ्रान्सीसी भाषा में दिया। वहाँ पर भी जनता में आपका बड़ा प्रभाव पड़ा। अपना प्रचार अच्छी तरह से करके आपने स्वदेश के लिये प्रस्थान किया। यहाँ आने पर पुनः आपका अपूर्व स्वागत हुआ। इस समय तक आपका यश देश-विदेश में चारों तरफ फैल गया था। आपने काफी ख्याति प्राप्त कर ली थी। भारत में आने पर भी स्वामी जी ने अपना कार्य बन्द नहीं किया। पुनः जोरशोर से आपने धर्म का प्रचार शुरू किया। आपने ‘रामकृष्ण पाठशाला' 'रामकृष्णसेवाश्रम' 'विवेकानन्द सोसाइटी' और 'रामकृष्ण-सेवा-सदन' आदि अनेक संस्थाएँ स्थापित की। 


अमेरिका तथा फ्रान्स में लगातार परिश्रम पूर्वक कार्य करने से स्वामी जी के स्वास्थ्य को बहुत बड़ा धक्का लगा था। आपका स्वास्थ्य वहाँ पर ही खराब हो रहा था। लगातार आपका स्वास्थ्य खराब होने लगा। भारत आने पर भी कार्य लगातार करने से आपका स्वास्थ्य और भी नष्ट हो गया और तारीख 4 जुलाई सन् 1902 ई० को केवल 40 वर्ष की अल्पावस्थ्या में ही भारतमाता का यह अपूर्व अनमोल लाल सदा के लिये अनन्त की गोद में सो गया। 


बालकों, तुमने स्वामी विवेकानन्द के बारे में सब कुछ पढ़ लिया। समझा, इनमें कितने गुण थे। देश-सेवा के लिये आप आजन्म ब्रह्मचारी रहे। अपना सारा जीवन ही आपने देश सेवा और धर्म प्रचार में व्यतीत कर दिया। आपमें अपूर्व स्वार्थ त्याग था। आपमें सबसे बड़ा गुण थाउद्योगप्रियता। आप कभी भी सुस्त या आलसी होकर बैठना पसंद नहीं करते थे। सुस्त बैठे रहना आप पाप समझते थे। अमेरिका आदि देशों में रात-दिन व्याख्यान देते फिरना और अविश्रान्त धर्म का प्रचार करते रहना आपकी अपूर्व उद्योगप्रियता का द्योतक है। आप सर्वदा कार्य में लीन रहते थे। जब तक आपमें दम था, आप विश्राम लेना नहीं जानते थे। यही कारण है कि इतनी अल्पावस्था में ही आप इतना अधिक असाधारण काम कर सके। आपकी अकाल मृत्यु का कारण भी आपकी अति अधिक कार्यशीलता ही थी। आप इतने तीव्र थे कि बी०ए० में पढ़ते समय हर्बर्ट स्पेन्सर से शास्त्रार्थ करते थे। पाँच या छः महीने के अल्पकाल में ही आपने फ्रेंच सीखकर पेरिस में धारा प्रवाह व्याख्यान दिया था। आप उदारचेता और समान द्रष्टा थे। संकीर्णता को आप फटकने नहीं देते थे। ऊँच-नीच सबको आप बराबर दृष्टि से देखते थे। बालकों, यदि तुम उद्योग-शील बनोगे, ऊँच-नीच में भेद नहीं मानोगे, स्वार्थ त्याग करोगे और उदार हृदय से काम करोगे, तो तुम भी एक दिन स्वामी विवेकानन्द के समान आदर्श व्यक्ति बन सकते हो।

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