जस्टिस रानाडे जस्टिस रानाडे का पूरा नाम महादेव गोविन्द रानाडे था। आपका जन्म सन् 1842 ई० की 18वीं जनवरी को हुआ था। आपके पूर्वजों के विषय में बहुत कुछ पता नहीं है। आपके प्रपितामह पूना में साँगली स्टेट के वकील थे। आपके पितामह पूना जिले में मामलदार थे। आपके पूज्य पिता का नाम गोविन्द अमृत रानाडे था। आप नासिक जिले में किसी मामलदार के प्रधान क्लर्क थे। आपके पूर्वजों की आर्थिक अवस्था कोई अच्छी नहीं थी। रानाडे के पिता एक साधारण आदमी थे। आप किसी तरह से अपना पारिवारिक खर्च चला लेते थे। ऐसी ही अवस्था में रानाडे का जन्म हुआ था। वास्तव में प्रतिभा-सम्पन्न पुरुष मध्यम श्रेणी में ही पैदा होते हैं।
जीवन चरित
जब रानाडे कुछ बड़े हुए तब वे स्थानीय ग्रामीण पाठशाला में पढ़ने के लिये भेजे गये। कुछ दिनों तक आपने वहीं कोल्हापूर हाईस्कूल में अध्ययन किया। कुछ वर्षों के अन्दर ही आपने यहाँ की सर्वोच्च परीक्षा पास कर ली और आप एलिफिन्स्टन कालेज में पढ़ने के लिये बम्बई चले आये। आपने सन् 1851 से लेकर 1856 तक कोल्हापुर में विद्याभ्यास किया। जब आप एलिफिन्स्टन कालेज में अध्ययन करने के लिये आये, उस समय वहाँ के तत्कालीन प्रिन्सिपल सर एलेक्जेन्डर ग्रान्ट थे। आप बड़े ही सुयोग्य शिक्षक तथा अद्वितीय विद्वान् थे। आदर्श शिक्षक भी थे ।
अध्यापक के सुयोग्य होने से ही विद्यार्थी भी अच्छे निकलते हैं। हिन्दी में एक कहावत है-"जैसा गुरु वैसा चेला''। वास्तव में जैसा गुरु होता है तदनुरूप ही विद्यार्थी निकलता है। प्राचीन समय में यह प्रसिद्ध था-"शिष्यापराधे गुरोर्दण्डः' अर्थात् शिष्य के अपराध करने पर गुरु को दण्ड दिया जाता था। उस समय में यह समझा जाता था कि यदि गुरु बुरा नहीं है, तो शिष्य ने यह अपराध ही क्यों किया। अतः वह दण्डनीय है। वास्तव में शिष्य, गुरु का एक दूसरा प्रतिबिम्ब मात्र है। सर ग्रान्ट ने अनेक सुयोग्य शिष्य पैदा किये जिसमें रानाडे, तैलङ्ग और मेहता प्रधान हैं। ऐसे सुयोग्य शिक्षक के सतत सम्पर्क से रानाडे को विशेष लाभ पहुँचना स्वाभाविक ही था। सन् 1862 ई० में रानाडे ने अँगरेजी में प्रथम श्रेणी में पास होते हुए अपनी बी० ए० को डिग्री ली। सन् 1865 ई० में आपने इतिहास लेकर एम०ए० पास किया। इस परीक्षा को भी आपने उत्तम श्रेणी में पास किया और तदनुसार आपको उपहार में एक सुवर्ण पदक मिला। आप एम० ए० पास करने के बाद बम्बई विश्वविद्यालय के फेलो भी नियुक्त किये गये। सन् 1866 ई० में आप ने एल-एल० बी० की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ पास की।
रानाडे का विद्यार्थी-जीवन बड़ा चमत्कार पूर्ण था। आपने प्रायः हर एक परीक्षा को उच्च श्रेणी में पास किया। आपको शिष्य वृत्ति भी मिलती थी। विद्यार्थी जीवन में आप पुस्तक पढ़ने के बड़े प्रेमी थे। आप पुस्तकों के कीड़े थे, ऐसा कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी। आपने अपने कालेज की लाईब्रेरी का बहुत अंश पढ़ कर समाप्त कर डाला था। पठन-काल में एक बड़ी विचित्र घटना घटी जिससे आपकी राष्ट्रीयता तथा अद्भुत तीक्ष्ण बुद्धि का पता लगता है। वह घटना यों है।
परीक्षा में आपको एक लेख लिखने को दिया गया जिसका विषय 'अंगरेजों और मराठों की शासन प्रणाली की तुलना"। उस समय मराठों के उत्थान और पतन की गाथा सबके हृदय में नवीन ही थी। रानाडे नवयुवक थे ही, राष्ट्रीयता आप में भरी थी ही। पुनः किस विषय की कमी थी। आपने एक बहुत बड़ा आलोचनात्मक लेख लिखा जिसमें आपने मराठों की शासन प्रणाली की प्रशंसा की और अँगरेजों की कड़ी आलोचना की। आपने अपने लेख में वस्तुतः यथार्थ बातें लिखी थी, परन्तु प्रिन्सिपल ग्रान्ट को ये बातें कड़ी लगी और उसने रानाडे की अद्भुत तीक्ष्ण बुद्धि का पुरस्कार उनकी छात्रवृत्ति बन्द करके दिया। परन्तु रानाडे इससे कुछ भी विचलित नहीं हुए और उन्होंने अपना विचार पूर्ववत् ही रक्खा। इस घटना से रानाडे की राष्ट्रीयता और उनकी बुद्धि की तीणता का पता चल सकता है।
नौकरी
आपने अपनी पढ़ाई समाप्त कर शिक्षा विभाग में प्रवेश किया और मराठी अनुवादक का कार्य करने लगे। आप इस पद पर सन् 1866 ई. से 1867 ई० तक कार्य करते रहे। इसके बाद आपको कोल्हापुर राज्य में कारभारी का कार्य वहाँ के न्याय विभाग में करते रहे। इस कार्य के पश्चात्, आप एलिफिन्स्टन कालेज में अँगरेजी का अध्यापन करने लगे और इस पद पर आपने सन् 1868 ई० से लेकर 1878 ई० तक काम किया। कालेज में आपका कार्य बड़ा सुन्दर था। वहाँ पर आपने बड़ी योग्यता के साथ कार्य सम्पादन किया तथा आपको बड़ी सफलता भी मिली। परन्तु रानाडे को न्यायाधीश होना था, भला आप एक साधारण अध्यापक के स्थान पर कैसे रह सकते थे। कानूनी पेशे की ओर आपका ध्यान आकृष्ट हुआ और आपने अध्यापकी छोड़ दी। कुछ दिनों तक आप हाईकोर्ट के ला रिपोर्टर थे। सन् 1873 ई० में आप फर्स्ट क्लास सब जज नियुक्त किये गये। सन् 1878 ई० में कुछ दिनों तक आप नासिक में सदर अमीन का कार्य करते रहे। सन् 1881 ई० में आप कुछ दिन तक मुन्सिफ भी रहे और 1884 ई० में स्माल काज कोर्ट के जज बनाये गये। इसी समय में आप फायनेन्स कमेटी ( अर्थ समिति ) के कमिश्नर भी रहे। इस तरह से धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते आप सन् 1893 ई० में बम्बई हाईकोर्ट के जज नियुक्त किये गये। सन् 1887 ई० में सरकार ने आपकी सेवाओं से सन्तुष्ट होकर आपको सी० आई० ई० की उपाधि से विभूषित किया। आपने बहुत दिनों तक जज के पद को विभूषित किया। इस तरह से रानाडे एक छोटे से पद से बढ़ते-बढ़ते उस समय के परम पद तक पहुँच गये। वास्तव में रानाडे उन लोगों में से एक है जिन्होंने एक छोटे से पद से बड़ा पद प्राप्त किया है। रानाडे तीन बार कौन्सिल के मेम्बर भी थे। आपने अपना सब कार्य सुचारु तथा सुन्दरता के साथ किया। आप जिस पद पर बैठाये गये उस पद को अच्छी तरह से निबाहा। इस तरह से अपने कार्य को अन्त समय तक करते हुए रानाडे ने सन् 1901 ई० की 16वीं जनवरी को अपनी इहलीला सर्वदा के लिये समाप्त कर दी।
ग्रन्थ
रानाडे का न्याय बड़ा प्रसिद्ध था। आप न्याय करने में सिद्ध हस्त समझे जाते थे। इसी कारण से आप 'न्यायमूर्ति' कहे जाते थे। न्यायाधीशों में आपका स्थान प्रथम है। आप अपनी न्याय-प्रियता के लिये सर्वत्र प्रसिद्ध थे, हैं तथा रहेंगे। महादेव रानाडे केवल एक योग्य न्यायाधीश ही नहीं थे, परन्तु आपमें और भी अनेक गुण थे। आपने अनेक साहित्यिक कार्य किये हैं जिससे आपकी कीर्ति सदा चिरस्मरणीय रहेगी। आपकी योग्यता मराठी संस्कृत और अँगरेजी इन तीनों भाषाओं में प्रधान थी। आप तीनों भाषाओं के अच्छे विद्वान् थे। आपके अध्ययन का प्रिय विषय राजनीति और इतिहास था। आप इतिहास के अनन्य प्रेमी थे। ऊपर लिखा जा चुका है कि इतिहास विषय को लेकर ही आपने एम० ए० पास किया था। आपका ऐतिहासिक ज्ञान स्तुत्य और आदरणीय था। प्रत्येक हिन्दू आपके इस अलौकिक साहित्यिक कार्य के लिये सर्वदा ऋणी रहेगा। आपने छत्रपति शिवाजी को बुरे अँगरेज इतिहास लेखकों के निन्दात्मक पंजे से छुड़ाया और आपने उनके विषय में जो कुछ भ्रम फैला हुआ था, उन सबका खण्डन किया। आपने 'मराठों का उत्कर्ष' नामक एक पुस्तक भी लिखी है। यह पुस्तक बड़ी योग्यता पूर्वक तथा बड़े अनुसंधान के बाद लिखी गई है। इस पुस्तक में आपने ग्रान्ट डफ के विचारों का बड़ा खण्डन किया है। आपने इस पुस्तक में मराठों का सच्चा इतिहास दर्शाया है। इस पुस्तक ने मराठों का ठीक इतिहास बतलाने में बड़ी सहायता प्रदान की है। दुःख के साथ लिखना पड़ता है कि आपने इतिहास की और कोई पुस्तक नहीं लिखी। आपने इतिहास विषयक और भी अनेक लेख लिखे हैं जो कुछ कम महत्व के नहीं हैं।
आपको अर्थशास्त्र से भी बड़ा प्रेम था। इस विषय के भी आप अच्छे ज्ञाता थे। आपने 'भारतीय-अर्थशास्त्र लेख-संग्रह' नामक एक निबन्धों का समूह लिखा है जिसमें भारतीय अर्थशास्त्र के ऊपर भिन्न भिन्न दृष्टि से विचार किया है। आपने 'नेदर लैन्ड, इन्डिया एण्ड दि कल्चर सिस्टम' नामक निबन्ध में भारतीय और नेदर लैन्ड की शासन प्रणाली की आपने तुलना की है। आपने 'आस्तिक वाद का रहस्य' और 'आस्तिक-मत-स्वीकृति' आदि विद्वत्तापूर्ण निबन्धों में आपने भारतीय धर्म की सच्ची व्याख्या की है। आपने हिन्दू धर्म कैसा समझा था, इस धर्म के विषय में आपके क्या विचार थे? प्राचीन लोगों से किन-किन बातों पर आपका विरोध था! इत्यादि बातों का उत्तर उन निबन्धों को पढ़ने से अच्छी तरह से मिल सकता है। आपने धार्मिक तथा सामाजिक सुधार पर एक निबन्ध-निचय लिखा है। इन लेखों में आपके धार्मिक तथा सामाजिक विचारों का समुचित समावेश है। ये लेख नवीन समाज सुधारकों के लिये दीपक का कार्य करते हैं। आपने सामाजिक विचारों को इनमें स्पष्टतया प्रकटित किया है। आपने भी कितने और सामाजिक, धार्मिक तथा राजकीय अवसरों पर भाषण दिये हैं जो कि बड़े ही महत्वपूर्ण हैं और जो आपकी सर्व विषय-व्यापकता को अच्छी तरह से प्रकट करते हैं। ये छोटे निबन्ध और भाषण भी आपकी अपूर्व विद्वत्ता को सुस्पष्टतया बतलाते हैं।
समाज-सेवा
महादेव रानाडे एक बहुत बड़े समाज-सुधारक भी थे। आपके जीवन का प्रधान कार्य समाज-सुधार ही था। आप वर्तमान सामाजिक अवस्थाओं से असंतुष्ट थे और इसमें परिवर्तन की अत्यधिक आवश्यकता बतलाते थे। आपने समाज सुधारने की धारणा से प्रार्थना समाज की स्थापना भी की थी। इस समाज ने समाज-सुधार में सहायता की है। आपके सामाजिक और धार्मिक सुधार के साथी सुप्रसिद्ध सर रामकृष्ण भण्डारकर और महामति गोखले थे। आप ही प्रथम पुरुष हैं जिसने महाराष्ट्र में सर्व-प्रथम समाज-सुधार की आवाज उठायी। आप सदा अपने न्याय मार्ग पर अटल रहे और उससे कभी भी विचलित नहीं हुए। वास्तव में किसी संस्कृत कवि ने क्या ही ठीक कहा है - न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः''। सन् 1900 लखनऊ में होने वाले 'सामाजिक सम्मेलन' के सभापति के पद को भी आपने सुशोभित किया था। आपने विधवा की अवस्था सुधारने की बहुत कोशिश की तथा सफल भी हुए। आप बाल-विवाह के कट्टर विरोधी थे। तिलक दहेज आदि कुप्रथाओं के परम शत्रु थे।
राष्ट्र सेवा
यह पहले लिखा जा चुका है कि रानाडे में राष्ट्रीयता कूटकूटकर भरी हुई थी। कालेज में पढ़ते समय ही आप अपनी राष्ट्रीयता के कारण छात्रवृत्ति से वंचित कर दिये गये थे। तबसे लेकर जीवनपर्यन्त आपने राष्ट्रीय कार्य में सर्वदा हाथ बढ़ाया। आप सरकार के उच्च पदाधिकारी होते हुए भी कांग्रेस के सर्वदा समर्थक रहे। आप इसमें सर्वदा अधिक भाग लेते रहे। शायद ही ऐसा कोई कांग्रेस का अधिवेशन हो जिसमें आपने भाग न लिया हो। बहुत साल तक आप कांग्रेस कार्यकारिणी समिति के मेम्बर भी रहे। आपकी सम्मति सर्वदा आदर की दृष्टि से देखी जाती थी। जबकि सारे सरकारी अफसर राष्ट्रीय कार्यों में भाग लेने से डरते थे। आपने खुले तौर से कांग्रेस में हाथ बटाया। आप स्वदेशी वस्तुओं के व्यवहार के पछपाती थे। आपने भारत की आर्थिक अवस्था सुधारने का बड़ा प्रयत्न किया। वास्तव में आप एक राष्ट्रीय नेता थे और भारत के उद्धार के लिये सदा प्रयत्न करते रहे। आपका स्वभाव बड़ा सुन्दर तथा नम्र था। आप बड़े मिलनसार आदमी थे। साधारण से साधारण आदमी भी आपसे नि:संकोच मिल सकता था। आपकी सादगी प्रसिद्ध थी। आप सदा अत्यन्त साधारण वेषभूषा में रहते थे। देखने से कोई नहीं कह सकता था कि आप हाईकोर्ट के जज हैं। यह प्रसिद्ध ही है कि आपने एक गरीब बुढ़िया की लकड़ी की गठरी उसके सर पर उठाई थी। वास्तव में आप अलौकिक पुरुष थे। संक्षेप में, आप एक न्यायशील जज, गम्भीर विद्वान् और अद्वितीय समाज-सुधारक थे।
बालकों! तुम्हें भी रानाडे के समान न्यायप्रिय होना चाहिये। अपने देश की जीवन भर सेवा करनी चाहिये तथा सादे वेष-भूषा में रह कर गरीबों का सदा उपकार करना चाहिये।
No comments:
Post a Comment