आल्हा-ऊदल बुंदेलखण्ड में महोबा एक बहुत प्रसिद्ध स्थान है जहाँ पर चन्देलवंशी क्षत्रिय राज्य करते थे। बारहवीं शताब्दी में परमर्दी नाम का राजा शाशी करता था। इसका दूसरा नाम 'परमाल' था। उसके आदिपुरुष प्रतिहारवंशी राजा के अधीन थे, परन्तु पीछे के राजा अपने प्रबल प्रताप से स्वतन्त्र राजा बन बैठे तथा महोबा को अपनी राजधानी बनाया बालको, यही महोबा की भूमि है जिससे 'आल्हा-ऊदल' का सम्बन्ध था तथा जिसके लिये उन्होंने अपना सर्वस्व अर्पण किया।
प्रायः सभी बालक आल्हा-ऊदल के नाम से तो परिचित अवश्य होंगे परन्तु कभी यह भी जानने की कोशिश की है कि ये वीर कौन थे जिनका यशगान सब गाते हैं तथा जिनका नाम शूरवीरों में गिना जाता है? जब राजा परमाल महोबा में राज्य करते थे उसी समय इनका जन्म हुआ। आल्हा और ऊदल दोनों भाई थे और जसराज के बेटे थे। जसराज 'बनाफर' वंश के सरदार थे और उनके कामों से खुश होकर परमाल ने उन्हें जागीर भी दी थी। ये दोनों बचपन ही से बहुत वीरता दिखलाने लगे। जब ये बारह वर्ष के हुए तो इन्होंने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेना चाहा। इनके पिता जसराज को माड़ों के राजा ने छल से मार डाला था, अतः इन्होंने अपने थोड़े से साथियों तथा कुछ सैनिकों के साथ माड़ों पर चढ़ाई कर दी और राजा को मार डाला। इतनी छोटी उमर में राजा को मार डालना कोई साधारण बात नहीं थी, परन्तु इन वीर बालकों के लिये यह केवल खेल था।
राजा परमाल इन बालकों के काम से बहुत खुश हुआ और एक को सेनापति तथा दूसरे को अपना प्रधानमन्त्री बनाया। आल्हा-ऊदल ने यथाशक्ति राज्य को दृढ़ तथा सुन्दर बनाया। राजा परमाल बहुत कमजोर दिल का मनुष्य था। स्वयं अपने ऊपर राज काज का भार न लेकर अपनी रानी 'मल्हना' को सब काम सौंप दिया था। यह राजा इतना कायर था कि इसने अपने अन्तिम समय में मुसलमानों के डर के मारे उनकी अधीनता स्वीकार की। चन्देल राजाओं का प्रतिहारों से शादी का सम्बन्ध चला आता था। परमाल की रानी भी प्रतिहार वंश की लड़की थी। रानी का अधिकार होने पर स्वतः इसके भाई का भी सिक्का महोबा में जम गया। मल्हना का विश्वास अपने भाई पर बहुत ज्यादा था परन्तु वह राज्य का शुभचिंतक न होकर महोबा को नाश करना चाहता था। उसने देखा कि उन वीर प्रतापी आल्हा-ऊदल के रहते राज्य नष्ट नहीं हो सकता। अतः उसने अपने बहिन (परमाल की रानी) का कान अच्छी तरह से इनके विरुद्ध भरा। ऐसा कहा जाता है कि इन्होंने परमाल के कामों का विरोध किया और राजा की इच्छा रहने पर भी पृथ्वीराज को कर देने से इन्कार किया। परन्तु जो कुछ हो, राजा ने इन दोनों भाइयों आल्हा-ऊदल को अपने राज्य से निकाल दिया। इसमें रानी तथा राजा के साले का पूरा हाथ था। उन्हीं के षड्यन्त्र से यह हुआ भी था। इस बेइज्जती को कौन वीर पुरुष सहन कर सकता? इसलिये आल्हाऊदल अपनी माता के साथ महोबा को छोड़ चले गये तथा कन्नौज के राजा जयचन्द्र के दरबार में रहने लगे।
अब क्या था 'बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा'। राजा के नीच साले माहिल की बन आयी। उसने सब हाल पृथ्वीराज को कह सुनाया और यह भी बतलाया कि महोबा में अब कोई ऐसा पुरुष नहीं है जो आपका सामना करे। आल्हा-ऊदल के चले जाने से महोबा का राज्य बिल्कुल कमजोर हो गया है। पृथ्वीराज की लड़की बेला का विवाह परमाल के पुत्र ब्रह्मा से हो चुका था। राज्य के लिये अन्धे पृथ्वीराज ने अपने सम्बन्ध का ख्याल न करते हए माहिल के कहने पर महोबा के राजा परमाल पर चढ़ाई करने के लिये चल दिया। रास्ते में महोबा जागीरदार मलखान ने पृथ्वीराज को रोका परन्तु बेचारा मलखान खेत में काम आया। परमाल ने उसकी सहायता के लिये ध्यान तक न दिया परन्तु कहावत है 'बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी'। पृथ्वीराज शीघ्र ही महोबा पर चढ़ आया और चन्देल तथा चौहानों में खूब घमासान लड़ाई हुई। रानी मल्हना ने पृथ्वीराज से दो महीने की मुहलत माँगी जिसको पृथ्वीराज ने स्वीकार कर लिया। इधर पृथ्वीराज का दिल्ली लौटना था कि रानी ने आल्हा-ऊदल के पास महोबा की आपत्ति का सन्देशा भेजा।
यह दुःख का हाल ‘जगनक' ने जाकर आल्हा-ऊदल को सुनाया परन्तु उन दोनों भाइयों ने रानी के द्वारा अपमानित होने के कारण जगनक के साथ सहानुभूति नहीं दिखलाई। जगनक ने उन्हें बहुत समझाया परन्तु उन्होंने एक न सुनी। महोबा के दुःख की कथा जब आल्हा-ऊदल के माता को मालूम हुई तब उस वीर रमणी ने अपने लड़कों को बहुत बुराभला कहा। उसने कहा कि इस समय तुम्हारी मातृभूमि पर आपत्ति आई है, उसकी स्वतन्त्रता, धन तथा मान हरा जा रहा है और तुम लोग अपना अपमान का बदला लेना चाहते हो। पर यह समय बदला चुकाने का नहीं है। मुझे कलंकित न करो। इससे तो अच्छा होता कि मैं बाँझ होती। क्योंकि ऐसे पुत्रों से अपने को कलंकित तो नहीं करती। माता के इन उत्तेजक वचनों ने दोनों भाइयों पर बहुत प्रभाव डाला और वे लोग कुछ सैनिकों के साथ महोबा की तरफ चल पड़े।
ऊपर कहा जा चुका है कि परमाल के पुत्र ब्रह्मा का पृथ्वीराज की लड़की बेला से विवाह हुआ था। इधर जगनक सन्देशा लेकर चला और उधर ब्रह्मा अपनी स्त्री को लाने के लिए दिल्ली की तरफ चला। बेला की शादी हुए साल भर हो गये थे, परन्तु अभी तक गवना नहीं हुआ था। पिता तथा ससुर दोनों में शत्रुता देखकर ब्रह्मा स्वयं बेला को लेने दिल्ली पहुँचा। माहिल के कहने पर पृथ्वीराज ने ब्रह्मा को छल से मार डालने का प्रयत्न किया परन्तु वह सफल न हो सका। इस युद्ध में ब्रह्मा बहुत घायल हुआ। आल्हा-ऊदल के महोबा पहुँचते ही इसका समाचार मिला। इसलिये दोनों बिजली की तरह दिल्ली पहुंचे। दोनों वीरों ने बेला को ले आने की ठानी। किसी तरह वे पृथ्वीराज के महल में पहुँच गये और बेला उनके साथ अपने पति के पास पहुँच गयी। वह अपने भाई से जिसने उसके पति को घायल कर डाला था, लड़ाई लड़ी तथा उसे मार डाला। ब्रह्मा जो पहले से घायल था ही, बेला के पहुँचने के बाद सुरधाम को सिधारा परन्तु बड़े सन्तोष के साथ, क्योंकि उसका मारने वाला उसके पहले ही मर चुका था। ब्रह्मा की मृत्यु का समाचार सुनते चन्देलों की सेना में हाहाकार मच गया। सती साध्वी बेला ने पति के साथ चिता पर जल मर जाने को ठान ली। चिता सजायी गयी। दोनों पति-पत्नी की लाशें रखने के बाद ऊदल ने उसमें आग लगायी।
इस घटना का हाल सुनते ही पृथ्वीराज सेना सहित वहाँ आ पहुंचा। उन्होंने ऊदल को चिता में आग लगाने से रोका। पृथ्वीराज का कहना था बनाकर कुलीन राजपूत नहीं है, इसलिये उसके कुछ का या परमाल के वंश का कोई मनुष्य चिता पूँक सकता है ऊदल नहीं। यह ऊदल को बहुत बुरा लगा और दोनों सेनाओं में युद्ध छिड़ गया। यह लड़ाई बहुत ही भयानक थी। इधर चिता जलती थी, उधर योद्धा लड़ रहे थे। बहुत देर तक घमासान युद्ध हुआ। दोनों तरफ के हजारों सैनिक काम आये। ये वीर योद्धा भी वीरगति को प्राप्त हुए। कहा जाता है कि ऐसी लड़ाई महोबा और दिल्ली के बीच नहीं हुई थी। इसी लड़ाई के बाद चन्देलों की स्वतन्त्रता छीन गई।
बालकों! तुमने नटों को ढोल बजाकर आल्हा गाते हुए देखा होगा। वह इन्हीं वीर आल्हा-ऊदल का यशगान है। गान के सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं और सुनने वाले वीर रस से भर जाते हैं। तुमने देख लिया कि अपमान सहते हुए भी इन वीर भाइयों ने अपनी मातृभूमि के लिये खून बहाया। इनका जीना तथा मरना केवल अपनी जन्मभूमि के लिये ही था। ठीक ही है, जन्मभूमि प्राणों से भी प्यारी होती है। हर एक मनुष्य को अपने मातृभूमि के लिये त्याग करना चाहिये। अगर समय आ पड़े तो जीवन का भी कुछ परवाह न कर माता के मान की रक्षा करनी चाहिये। मातृभूमि का अपमान सह कर संसार में रहना वृथा है।
यहाँ पर बालकों के मनोरंजनार्थ आल्हा-ऊदल सम्बन्धी कुछ कवितायें'आल्हा-ऊदल' से दी जाती हैं।
आल्हा की प्रेममयी भार्या 'सोना' के श्रृंगार का कितना सुन्दर वर्णन है -
पेन्हल घुघरा पश्चिम के, मखमल के गोट चढ़ाय।
चोलिया पेन्हें मसरुफ के, जेह में बावन बन्द लगाय॥
पोरे-पोरे अंगुठी पड़ गैल, सारे चुरियन के झंझकार।
सोभे नगीना कनगुरिया में, जिन्हके हीरा चमके दाँत॥
सात लाख का मँगटीका है, वे लीलार में ले ली लगाय।
जूड़ा खुल गैल पीठन पर, जैसे लोटे करियवा नाग॥
घमासान लड़ाई का यह भीषण वर्णन कितना वास्तविक है। कविता के पढ़ते ही लड़ाई का दृश्य सामने आ जाता है:
हल्ला होइगो सब लसिगर में सारी फौज भई तैयार।
पहले नगाड़ा में जिनबन्दी दूसरे धरे रके बन पाय॥
तिसरे नगाड़ा के बाजत खन सिगरी फौज भई तैयार।
बड़ी-बड़ी तोपैं तब सजवाई जो मन पक्के गोला खाँय॥
खर र खर र जे रथ दौरें रब्बा चले पवन के साथ।
लैकै थैली बारुदन की औ तोपन में दई डराय॥
गोला लागे जिन ऊँटन के रन में गिरें चकत्ता खाय।
गोला लागे जिन क्षत्रिन के तिनको भुजा सर्ग मँडरायें।
No comments:
Post a Comment