अन्तर्राष्ट्रीय चेतना का विकास करने तथा विश्व में शान्ति बनाए रखने के उद्देश्य से, द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त, विश्व के अनेक देशों ने मिलकर एक संघ की स्थापना की, जिसे 'संयुक्त राष्ट्र' कहा जाता है। इस संघ ने यह निश्चय किया कि विश्व में शान्ति स्थापित करने हेतु तथा अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग का विस्तार करने के लिए नागरिकों को सुशिक्षित करना आवश्यक है क्योंकि “युद्ध व्यक्तियों के मस्तिष्क में आरम्भ होते हैं'' अतः शान्ति की रक्षा के साधन भी व्यक्तियों के मस्तिष्क में ही निर्मित किए जाने चाहिए। शिक्षाशास्त्रियों एवं राजनीतिज्ञों का यह विचार है कि व्यक्तियों के मन में द्वेष की भावना उत्पन्न होने पर ही युद्ध होते हैं अतः युद्ध का विरोध व्यक्तियों की मानसिक भावनाओं एवं संवेगों को परिवर्तित करके ही करना चाहिए।
इस भावना को ध्यान में रखकर ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक विशेष विभाग की स्थापना की है, जिसे 'संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संस्था' (UNESCO) कहा जाता है। यूनेस्को के गठन सन् 1945 में ब्रिटेन एवं फ्रांस की सरकारों द्वारा एक सम्मेलन आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन स्वीकृत एक विधान के अनुरूप ही 4 नवम्बर, सन् 1946 को यूनेस्को अस्तित्व में आया। वर्तमान में यह , अन्तर्राष्ट्रीय भावना के विकास में प्रयासरत है। इस संघ ने अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास करने एक शिक्षा-योजना भी बनाई है। इस संस्था ने विश्व के अनेक देशों में शिक्षा से सम्बन्धित राष्ट्रीय का गठन किया है, जो अपने-अपने देश में शिक्षा के विस्तार एवं अनेक संस्कृतियों के समन्वय प्रयास कर रहे हैं।
प्रमुख उद्देश्य-
यूनेस्को का उद्देश्य शिक्षा के आधार पर विश्व में शान्ति स्थापित करना है। इस दृष्टि यह संस्था अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा की व्यवस्था करती है तथा विभिन्न देशों के बालकों में शिक्षा के से अन्तर्राष्ट्रीय भावना का विकास करती है। डॉ० एच०सी० लेब्ज ने अन्तर्राष्ट्रीय भावना के विकास शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताए हैं -
(1) छात्रों को सामाजिक कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेने योग्य बनाना।
(2) विश्व के नागरिकों के रहन-सहन के ढंगों, मूल्यों व आकांक्षाओं का ज्ञान कराना।
(3) एक साथ रहने की भावना का विकास करना।
(4) छात्रों को अन्य देशों के प्रति सद्व्यवहार करने की शिक्षा प्रदान करना।
(5) भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण न अपनाने की शिक्षा प्रदान करना।
(6) छात्रों में ऐसा भाव पैदा करना, जिससे वे विश्व के अन्य राष्ट्रों, संस्कृतियों तथा प्रजातियों को मानें।
परिमाणात्मक एवं गुणात्मक शैक्षिक प्रगति में यूनेस्को की भूमिका
यूनेस्को द्वारा विभिन्न देशों में शिक्षा के विकास हेतु विभिन्न प्रकार से अपनी सहायता प्रदान की है। यह संगठन शिक्षा से सम्बन्धित विश्व के गैर-सरकारी संगठनों को भी सहायता प्रदान करता है। रूप से यह इस प्रकार की राष्ट्रीय परियोजनाओं हेतु अनुदान देता है, जिनका लक्ष्य सतत रूप से शिक्षा प्रदान करना और अपनी शिक्षा-प्रणालियों में अपेक्षित सुधार करना होता है। इस दृष्टि से यूनेस्को के द्वारा मुख्यत: चार शैक्षिक लक्ष्यों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया जाता है -
(1) सभी के लिए शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराना,
(2) शिक्षा के मूलभूत उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु सहायता प्रदान करना,
(3) मूलभूत शिक्षा की गुणवत्ता में वांछित सुधार करना तथा
(4) 21वीं शताब्दी के लिए शिक्षा की योजना आदि पर विचार करना।
विश्व के लगभग 50 से अधिक देशों में शिक्षा के विकास हेतु यूनेस्को के द्वारा अपने क्षेत्रीय एवं उप-क्षेत्रीय कार्यालय स्थापित किए गए हैं। इन देशों में शिक्षा के विकास एवं सुधार हेतु यूनेस्को के द्वारा शैक्षिक सुविधाओं के आधुनिकीकरण, शिक्षकों के प्रशिक्षण, विज्ञान एवं सामाजिक विज्ञानों की शिक्षण-प्रक्रिया में सुधार तथा वैज्ञानिकों एवं इंजीनियरों के प्रशिक्षण पर विशेष रूप से ध्यान दिया जा रहा है।
यूनेस्को के अंग के रूप में इसके अन्तर्गत दो शैक्षिक संगठनों का गठन; विशेष रूप से शिक्षा के क्षेत्र में अपने योगदान हेतु ही किया गया है। इन दोनों संगठनों के नाम हैं-'अन्तर्राष्ट्रीय शैक्षिक नियोजन संस्थान' (आई०आई०जी०पी०) तथा 'अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा ब्यूरो' (आई०बी०ई०)। आई०आई०जी०पी० की स्थापना सन् 1963 में पेरिस में की गई थी। यह अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण के क्षेत्र में कार्य करता है। आई०बी०ई० की स्थापना तो सन् 1925 में ही हो गई थी, परन्तु यह सन् 1969 में यूनेस्को का अभिन्न अंग बन गया।
यूनेस्को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा के विकास एवं उसमें सुधार के साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सहयोग को भी प्रोत्साहित करता है। इसके द्वारा समग्र जीवन में सुधार लाने वाले वैज्ञानिक शोध-कार्यों को विशेष रूप से प्रोत्साहन प्रदान किया जाता है। काहिरा, जकार्ता, नैरोबी, नई दिल्ली, मॉण्टेवीडियो और वेनिस में इसी उद्देश्य से यूनेस्को के द्वारा 'विज्ञान सहयोग कार्यालय' स्थापित किए गए हैं।
भारत सन् 1946 से यूनेस्को का सदस्य बना और सन् 1949 में ही भारत सरकार द्वारा यूनेस्को के साथ सहयोग हेतु एक अन्तरिम भारतीय राष्ट्रीय सहयोग (आई०एन०सी०सी०यू०) का गठन किया गया। सन् 1951 में इस आयोग को स्थायी स्वरूप प्रदान कर दिया गया। इस आयोग के अन्तर्गत प्राकृतिक विज्ञान, समाज विज्ञान, संस्कृति एवं संचार से सम्बन्धित पाँच उप-आयोगों की स्थापना भी की गई है। इस आयोग का प्रमुख उद्देश्य; यूनेस्को के अधिकार क्षेत्र में आने वाले विषयों सरकार को अपना परामर्श देना तथा यूनेस्को के विभिन्न शैक्षिक कार्यों में अपनी भूमिका का निर्वाह करना है। इस आयोग का अध्यक्ष मानव संसाधन विकास मन्त्री होता है। साथ ही केन्द्र सरकार के माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा विभाग के सचिव को इस आयोग का महासचिव बनाया गया है। राष्ट्रीय आयोग; यूनेस्को के कार्य-क्षेत्र में आने वाले सभी मामलों में सलाहकार, संयोजक एवं सम्पर्क-एजेन्सी के रूप में कार्य करता है। इसके साथ ही यह विभिन्न राष्ट्रीय आयोगों और यूनेस्को के क्षेत्रीय आयोगों से शिक्षा, विज्ञान, संस्कृति और सूचना के क्षेत्र में आवश्यक समझौते भी करता है।
भारत के समान ही अन्य देशों की सरकारें एवं वहाँ स्थापित आयोग भी यूनेस्को के लक्ष्यों की दिशा में अपना सहयोग प्रदान कर रहे हैं। संक्षेप में यूनेस्को विभिन्न देशों की परिमाणात्मक एवं गुणात्मक शैक्षिक प्रगति की दिशा में अग्रलिखित दृष्टियों से अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहा है -
(1) विश्व के उन सभी देशों से निरक्षरता तथा अज्ञानता को समाप्त करने का प्रयास करना, जो पिछड़े हुए या अल्पविकसित हैं।
(2) यूनेस्को; सभी राष्ट्रों के साहित्य, संस्कृति एवं कला को, अन्य राष्ट्रों में प्रसारित करने का कार्य करता है।
(3) यूनेस्को; विश्व के सभी राष्ट्रों के चयनित उत्कृष्ट शोधार्थियों को आर्थिक सहायता प्रदान करता है।
(4) यूनेस्को द्वारा विश्व के सभी राष्ट्रों के शिक्षकों, विचारकों तथा वैज्ञानिकों को आपस में विचार-विमर्श के अवसर प्रदान किए जाते हैं। इससे जहाँ एक ओर ज्ञान का आदान-प्रदान होता है, वहीं अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का भी विकास होता है।
(5) इस संस्था द्वारा विभिन्न राष्ट्रों के उत्तम ग्रन्थों का अन्य भाषाओं में अनुवाद करवाया जाता है। इसके साथ-साथ यह संस्था; विभिन्न राष्ट्रों की पाठ्य-पुस्तकों के सुधार तथा पाठ्यक्रम के निर्धारण के के लिए भी उपयोगी सुझाव देती है।
(6) यूनेस्को द्वारा अल्पविकसित तथा विकासशील देशों में शिक्षा के विकास के लिए अपनी नीति के अनुरूप आवश्यक आर्थिक सहायता भी प्रदान की जाती है।
(7) अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास के लिए, यूनेस्को द्वारा विभिन्न देशों में साहित्य एवं कला ' सम्बन्धी प्रदर्शनियों का आयोजन किया जाता है।
(8) यूनेस्को द्वारा विभिन्न राष्ट्रों के शिक्षकों एवं छात्रों को अन्य देशों के भ्रमण के लिए प्रोत्साहित किया जाता है तथा इसके लिए आवश्यक व्यवस्था भी की जाती है।
(9) यूनेस्को द्वारा विभिन्न प्रचार एवं संचार माध्यमों द्वारा, विश्व के सभी राष्ट्रों को अन्तर्राष्ट्रीयता के प्रति उन्मुख करने का कार्य भी किया जाता है।
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास हेतु पाठ्यक्रम-सहगामी क्रियाएँ
आधुनिक युग में अन्तर्राष्ट्रीयता को समस्त मानव जाति की आवश्यकता के रूप में स्वीकार किया जा चुका है। अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास का प्रमुख साधन शिक्षा ही है। शिक्षा ही विश्व के युवकों को अन्तर्राष्ट्रीयता की ओर उन्मुख कर सकती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए दार्शनिकों एवं शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा के पाठ्यक्रम में विभिन्न परिवर्तनों का साथ ही विभिन्न पाठ्यक्रम-सहगामी क्रियाओं (Co-curricular Activities) को अपनाने का भी सुझाव दिया है।
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास के लिए शिक्षा के क्षेत्र में मुख्य रूप से निम्नलिखित पाठ्यक्रम-सहगामी क्रियाओं को अपनाने का सुझाव दिया जाता है -
1. विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय दिवसों का आयोजन-
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास के लिए एक महत्त्वपूर्ण एवं उत्तम उपाय है—अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण से निर्धारित किए गए विभिन्न महत्त्वपूर्ण दिवसों का आयोजन करना। इस प्रकार के कुछ महत्त्वपूर्ण दिवस हैं-
(i) अन्तर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस,
(ii) मानवाधिकार दिवस,
(iii) विश्व पर्यावरण दिवस,
(iv) संयुक्त राष्ट्र दिवस,
(v) विश्व स्वास्थ्य दिवस,
(vi) विश्व विकलांगता दिवस तथा
(vii) अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस।
इन सभी अन्तर्राष्ट्रीय दिवसों को प्रत्येक विद्यालय में अनिवार्य रूप से आयोजित किया जाना चाहिए तथा उनकी पृष्ठभूमि एवं महत्त्व को भी स्पष्ट किया जाना चाहिए।
2. विश्व की महान् विभूतियों के जन्म-दिवसों का आयोजन-
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास के लिए सभी विद्यालयों में विश्व की समस्त महान् विभूतियों के जन्म-दिवस आयोजित किए जाने चाहिए। इन अवसरों पर सम्बन्धित महान् विभूतियों के आदर्शों, उपदेशों तथा मानवतावादी दृष्टिकोण एवं विचारों की विस्तार से चर्चा की जानी चाहिए। इन आयोजनों से निश्चित रूप से अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना में वृद्धि होगी।
3. उपयोगी व्याख्यानों का आयोजन–
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास के लिए सभी विद्यालयों में समय-समय पर ऐसे व्यक्तियों द्वारा व्याख्यानों का आयोजन किया जाना चाहिए, जो अन्य राष्ट्रों के रहन-सहन एवं जीवन-प्रतिमानों तथा परम्पराओं से भली-भाँति परिचित हों। इन व्याख्यानों से छात्रों का दृष्टिकोण व्यापक एवं उदार बनता है।
4. विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन-
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास के लिए विद्यालयों में कुछ ऐसी प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाना चाहिए, जिनका विषय; अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का पोषक हो। इस प्रकार की मुख्य प्रतियोगिताएँ वाद-विवाद, निबन्ध-लेखन, काव्य तथा सामान्य ज्ञान आदि हैं।
5. विभिन्न राष्ट्रों के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का मंचन–
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास के लिए समय-समय पर विद्यालयों में भिन्न-भिन्न राष्ट्रों के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का मंचन किया जाना चाहिए। इन कार्यक्रमों के आयोजन से छात्रों को विभिन्न राष्ट्रों के रहन-सहन, जीवन एवं वेशभूषा आदि की समुचित जानकारी प्रत्यक्ष रूप से हो जाती है तथा पारस्परिक सौहार्द एवं निकटता के सम्बन्ध विकसित होते हैं।
6. विभिन्न प्रदर्शनियों का आयोजन-
छात्रों में अन्तर्राष्ट्रीयता के भाव को विकसित करने के लिए एक अन्य महत्त्वपूर्ण उपाय है-विद्यालय प्रांगण में समय-समय पर कुछ ऐसी प्रदर्शनियों को आयोजित करना, जिनमें विश्व के भिन्न-भिन्न देशों की सभ्यता एवं संस्कृति को दर्शाया गया हो। इन प्रदर्शनियों को देखकर अन्य राष्ट्रों के साथ एक विशेष प्रकार का सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।
7. अन्तर्राष्ट्रीय खेलों आदि का आयोजन-
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास का एक अत्यधिक उपयोगी एवं लोकप्रिय उपाय है-अन्तर्राष्ट्रीय खेलों का आयोजन। इन खेलों के आयोजन से विश्व के विभिन्न देशों के खिलाड़ी तथा दर्शक परस्पर सम्पर्क में आते हैं। इससे विभिन्न राष्ट्रों के बीच मित्रता एवं स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के भाव विकसित होते हैं।
8. पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं का आदान-
प्रदान–अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास के लिए विश्व के प्राय: सभी देशों में प्रकाशित होने वाली पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं का परस्पर आदान-प्रदान होना चाहिए। इन माध्यमों से विश्व के विभिन्न राष्ट्रों के नागरिकों के बीच निकटता के सम्बन्ध विकसित होते हैं तथा उन्हें अनेक महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ भी प्राप्त होती हैं। इस प्रकार की जानकारियों से अनेक प्रकार के दुराग्रह समाप्त हो जाते हैं तथा सम्बन्धित व्यक्तियों के दृष्टिकोण में उदारता आती है। यूनेस्को द्वारा इस प्रकार का उपयोगी साहित्य-निरन्तर प्रकाशित किया जा रहा है तथा उसे विश्व के विभिन्न देशों में प्रसारित भी किया जा रहा है।
9. विश्व के किसी भी देश में प्राकृतिक आपदा आने पर सहायता कार्यों का आयोजन-
विश्व के प्रायः सभी क्षेत्रों में समय-समय पर कोई-न-कोई प्राकृतिक आपदा आती ही रहती है। इन आपदाओं के अवसर पर पीड़ित देश को विश्व के अन्य देशों की सहायता एवं सहानुभूति की विशेष आवश्यकता हा सभी विद्यालयों द्वारा इस प्रकार की सहायता में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए। इस सहायता एवं सहानुभूति से सारा विश्व पीड़ित क्षेत्र के नागरिकों के साथ भावनात्मक दृष्टि से जुड़ जाता है।
10. पत्र-मित्रता एवं अन्तर्राष्ट्रीय क्लबों का गठन–
छात्रों एवं युवाओं में अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास का एक उपाय पत्र-मित्रता एवं अन्तर्राष्ट्रीय क्लबों के गठन को प्रोत्साहन देना भी है। पत्र-मित्रता से भिन्न-भिन्न देशों के युवाओं को परस्पर विचारों एवं भावनाओं के आदान-प्रदान का अवसर प्राप्त होता है। इससे उनका भावात्मक पक्ष एवं मानसिक दृष्टिकोण उदार बनता है तथा पारस्परिक सद्भावना में वृद्धि होती है। इसी प्रकार से विभिन्न देशों के पारस्परिक सम्बन्धों पर आधारित कुछ क्लब भी स्थापित किए जा सकते हैं।
11. प्रत्यक्ष सम्पर्क के उपाय–
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास के लिए विश्व के विभिन्न देशों के बीच प्रत्यक्ष सम्पर्क के उपाय भी किए जा सकते हैं। इस प्रकार के कुछ मुख्य उपाय हैं—
(i) अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षकों एवं छात्रों का आदान-प्रदान,
(ii) अन्तर्राष्ट्रीय शिविरों का आयोजन तथा
(iii) अध्ययन परिभ्रमण का आयोजन आदि।
उपर्युक्त विवरण द्वारा उन कतिपय पाठ्यक्रम-सहगामी क्रियाओं का सामान्य परिचय प्राप्त हो जाता है, जिनके माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का विकास सम्भव है।
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