तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education का अर्थ एवं परिभाषाएँ
किसी देश अथवा विभिन्न देशों की शिक्षात्मक समानताओं, विभिन्नताओं, समस्याओं एवं विकासक्रमों के क्रमिक, विवेचनात्मक, आलोचनात्मक एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन को तुलनात्मक शिक्षा कहते हैं। हैन्स ने राष्ट्रीय शिक्षा सुधार के दृष्टिकोण से विभिन्न देशों की शिक्षा प्रणालियों के विश्लेषणात्मक अध्ययन को तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education कहा है। ब्रेडे के अनुसार तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education, शिक्षा संस्थानों का समाज की पृष्ठभूमि में किया हुआ विश्लेषणात्मक अध्ययन है। वस्तुत: तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education की कोई सरल व्याख्या करना कठिन है। शिक्षा का अध्ययन समाज की पृष्ठभूमि में ही वांछनीय है। अत: तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के गहन अध्ययन में देशों की ऐतिहासिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, औद्योगिक अवस्थाओं का अध्ययन जुड़ा रहता है।
तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education की परिभाषाएँ अनेक विद्वानों ने दी हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं -
निकोलस हैन्स के अनुसार, "अनेक राष्ट्रों के अतीत का इतिहास उन तत्त्वों पर आधारित होता है, जो विश्व के लगभग सभी राष्ट्रों के विकास में सहायक होते हैं और इन देशों के भविष्य के भी जो आदर्श एवं मूल्य-निर्धारित होते हैं, वे भी विश्व आन्दोलन के परिणाम होते हैं। विभिन्न देशों की शिक्षा-समस्याएँ भी समान होती हैं, शिक्षा की समस्याओं का समाधान करने वाले नियम भी कुछ समान होते हैं और कुछ पृथक् होते हैं। तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education का मुख्य उद्देश्य विभिन्न राष्ट्रों की शिक्षा प्रणालियों, शैक्षिक समस्याओं, तत्त्वों आदि का उन देशों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर विश्लेषणात्मक अध्ययन करना होता है।"
इसमें सन्देह नहीं कि तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education विभिन्न देशों के ऐतिहासिक तत्त्वों तथा उन देशों की परिस्थितियों का इस प्रकार विश्लेषणात्मक अध्ययन करती है, जिस पर उन देशों की शैक्षिक प्रणाली आधारित होती है। निकोलस हैन्स का विचार है कि अनेक देशों की आन्तरिक परिस्थितियाँ, शिक्षा की समस्याओं और उनका समाधान करने की नीतियाँ भी समान ही होती हैं। तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education का अध्ययन करने से यही लाभ होता है कि हम अपने देश की परिस्थितियों को ठीक प्रकार से समझकर शिक्षा प्रणाली में सुधार कर लेते हैं।
आई०एल० कैण्डल के अनुसार, “तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education उन कारणों का विश्लेषणात्मक अध्ययन है, जो किसी देश की शिक्षा के उत्थान एवं पतन के लिए उत्तरदायी होते हैं। विभिन्न देशों की शैक्षिक परिस्थितियाँ; सांस्कृतिक, सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों से सम्बन्धित होती हैं। तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education इन्हीं परिस्थितियों तथा घटकों का अध्ययन करती है, जो किसी भी देश की शिक्षा की गुणात्मकता में सहायक सिद्ध होती हैं।"
कैण्डल के विचारानुसार किसी भी देश की सामाजिक परिस्थितियों का प्रभाव विद्यालयों पर भी पड़ता है। विद्यालयों में उसी प्रकार की शिक्षा व्यवस्था की जाती है, जिसकी अपेक्षा उस देश का समाज करता है। कोई भी देश सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों से सम्बन्धित विषमताओं के रहते हुए भी शिक्षा की समस्याओं का हल किस प्रकार खोजता है, इसी तथ्य का अध्ययन तुलनात्मक शिक्षा करती है। कैण्डल को तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education का जनक इसलिए माना जाता है क्योंकि उसने अपने क्षेत्र में अपने मौलिक विचार प्रस्तुत किए हैं। कैण्डल का विचार है कि तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education यदि किसी भी देश की परिस्थितियों का अध्ययन किए बिना ही शिक्षा के पाठ्यक्रम, अनुशासन, शिक्षण विधियों, प्रशासन, व्यवस्था आदि पर विचार करती है तो वह अर्थहीन ही कही जाएगी। वस्तुत: कैण्डल सांस्कृतिक, सामाजिक अथवा राजनीतिक घटकों को तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education का अविच्छिन्न अंग मानता है।
सैडलर के अनुसार, “विदेशी शिक्षा प्रणाली का अध्ययन करते हुए हमें यह विस्मृत नहीं करना चाहिए कि विद्यालयों की पाठ्य-सामग्री के अतिरिक्त हमें अन्य अनेक बातों का भी अध्ययन करना पड़ता है।
वस्तुत: विदेशी शिक्षा का अध्ययन करने का समुचित परिणाम यह होता है कि हम अपने देश की शिक्षा को उत्तम बनाने का प्रयास करते हैं और अपने देश की शिक्षा की वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।" वस्तुतः प्रत्येक राष्ट्र की शिक्षा अपनी परम्पराओं तथा श्रेष्ठ गुणों पर आधारित होती है। उस शिक्षा का मूल उद्देश्य राष्ट्र की उन्नति करना ही होता है। जब हम दूसरे देशों की शिक्षा प्रणालियों का अध्ययन करते हैं, तब हमें अपने देश की शिक्षा प्रणाली के अभावों का भी स्पष्ट ज्ञान होता है। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन का यही उद्देश्य रहा है।
तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के प्रमुख उद्देश्य
तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के उद्देश्यों का विभिन्न विद्वानों ने पृथक्-पृथक् ढंग से विवेचन किया है। इन उद्देश्यों का संक्षेप में उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है -
(1) तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के आधार पर हम विभिन्न देशों की प्राथमिक, माध्यमिक, विश्वविद्यालयी, शिक्षक प्रशिक्षण, व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा के स्तर, शिक्षण पद्धतियों आदि का विश्लेषणात्मक मूल्यांकन कर सकते हैं।
(2) तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के आधार पर विभिन्न देशों में शिक्षकों की स्थिति एवं उनकी व्यवस्था आदि से सम्बन्धित सामान्य अथवा विशिष्ट बातों की जानकारी प्राप्त होती है।
(3) तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के आधार पर विभिन्न देशों के पाठ्यक्रम की सार्थकता, उपयुक्तता एवं व्यापकता आदि के सम्बन्ध में तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है।
(4) विभिन्न देशों की शिक्षा पद्धतियों के गुण-दोषों के सम्बन्ध में तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के द्वारा महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
(5) तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के आधार पर विभिन्न देशों की सामान्य एवं विशिष्ट समस्याओं के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
(6) तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education का उद्देश्य; विभिन्न देशों की शिक्षा प्रणालियों के उन कारणों की खोज करना है, जिनसे वे देश समृद्ध हो चुके हैं।
(7) तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education का उद्देश्य; एक देश की शिक्षा प्रणाली, पाठ्यक्रम, संगठन आदि का अध्ययन करके अपने देश की शिक्षा में सुधार करना तथा देश की उन्नति में सहयोग देना है।
(8) तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education का उद्देश्य उन तुलनात्मक विधियों से परिचित होना है, जिनके आधार पर विभिन्न शिक्षा प्रणालियों का सार्थक तुलनात्मक अध्ययन किया जा सके।
(9) तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के आधार पर विभिन्न देशों की राष्ट्रीय शैक्षिक व्यवस्था एवं राष्ट्रीय नीति का समुचित मूल्यांकन किया जा सकता है।
(10) तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन द्वारा विभिन्न देशों की शिक्षा प्रणालियों को प्रभावित करने वाले घटकों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है।
(11) विभिन्न देशों के प्रशासन, संगठन एवं शैक्षिक व्यवस्था के मूल्यांकन हेतु तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
(12) तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के आधार पर विभिन्न देशों के शैक्षिक प्रशासन एवं संचालन तथा संगठन एवं नियोजन की परस्पर तुलना की जा सकती है।
तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education का उद्गम
सर्वप्रथम 1817 ई० में फ्रांस के मार्क अन्तोइन जूलियन द पेरिस ने तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education का अध्ययन आरम्भ किया। अन्तोइन जूलियन ने तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन में विभिन्न देशों की शिक्षा प्रणालियों में निहित समान एवं असमान तत्त्वों के विश्लेषण को महत्त्वपूर्ण बताया। अन्तोइन जूलियन शिक्षा को एक विज्ञान का रूप देना चाहता था। इसके लिए वह यह चाहता था कि शासकों की संकुचित और सीमित विचारधाराओं के कारण शिक्षा के विकास का मार्ग अवरुद्ध न हो जाए। अत: वह शिक्षा के तथ्यों को एक तालिका में प्रस्तुत करके उनका विश्लेषण करना चाहता था, जिससे शिक्षा के कुछ सिद्धान्तों और निष्कर्षों की ओर वैज्ञानिक ढंग से संकेत किया जा सके। जूलियन का यह विश्वास था कि किसी भी देश की शिक्षा से सम्बन्धित तथ्यों के विश्लेषण के आधार पर कुछ सिद्धान्तों और निश्चित नियमों का उल्लेख किया जा सकता है।
इस प्रकार जूलियन ने तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन में विश्लेषण पर ने दिया, परन्तु इस सम्बन्ध में जूलियन के इन विचारों से शिक्षा जगत् 20वीं शताब्दी से पूर्व तक अवगत नहीं हो सका।
तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education का प्रारम्भ शिक्षा के घटकों और तत्त्वों के विश्लेषण से नहीं हुआ। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही विदेशों में जाने वाले यात्रियों ने अपने यात्रा-विवरणों में सम्बन्धित देशों की शिक्षा व्यवस्था की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया। किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था और संगठन ऐसा होता है कि यात्रियों का ध्यान उधर सहज रूप से आकर्षित हो जाता है। इन यात्रियों ने सम्बन्धित देशों की सामाजिक प्रगति और आर्थिक समृद्धि की ओर विशेष ध्यान दिया तथा उनके लिए शिक्षा सम्बन्धी कुछ तत्त्वों को विशेष महत्त्वपूर्ण बताया। उन्होंने अपने इस विश्वास पर विशेष बल दिया कि शिक्षा के कुछ तत्त्व, किसी देश की सामाजिक प्रगति और आर्थिक समृद्धि में अपना विशेष योगदान देते हैं। इस प्रकार तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के विकास में विदेश में भ्रमण करने वाले यात्रियों के यात्रा-विवरण में पाए जाने वाले शिक्षा सम्बन्धी विवरणों का महत्त्वपूर्ण स्थान माना जा सकता है।
तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education का विकास
तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के विकास का उल्लेख निम्नलिखित तीन चरणों (अवस्थाओं) के अन्तर्गत किया जा सकता है -
1. प्रथम चरण -
तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के विकास का प्रथम चरण, सन् 1817 में अन्तोइन जुलियन के विचारों से प्रारम्भ हुआ। यह अवस्था 20वीं शताब्दी के आरम्भ तक मानी जा सकती है। 19वीं शताब्दी में यह धारणा बलवती हो उठी कि किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली की विशेषताओं को दूसरा देश अपने शिक्षा-संगठन में अपना सकता है। इस धारणा के फलस्वरूप विभिन्न देशों के शिक्षा व्यवस्था सम्बन्धी आँकड़े एकत्रित करने का प्रयास किया गया तथा इन आँकड़ों को तालिकाबद्ध करके उनसे कुछ सामान्य सिद्धान्तों का निर्धारण किया गया। आँकड़ों को एकत्रित करने के क्रम में सम्बद्ध देश की तात्कालिक राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक दशाओं पर ध्यान नहीं दिया जाता था, जबकि किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली पर इन दशाओं का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है; फलतः उस समय इस बात पर विचार नहीं किया जाता था कि जिस देश की शिक्षा प्रणाली की विशेषताओं को अपनाने के लिए कहा जा रहा है वे उस देश की सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल हैं भी या नहीं।
तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के विकास के इस प्रथम चरण की 'अनुकरण की अवस्था' में फ्रांस के विक्टर कजिन, इंग्लैण्ड के मैथ्यू आरनोल्ड, अमेरिका के होरेसमैन व हेनरी बरनार्ग, रूस के टॉलस्टॉय और उशीन्सकी तथा अर्जेण्टीना के डोमिन्गो सारमीण्टो के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन विद्वानों का यह विश्वास था कि किसी भी देश की शिक्षा के विकास के लिए अन्य देशों की शिक्षा प्रणालियों का अध्ययन आवश्यक है; फलतः तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education का अध्ययन, अपने देश की शिक्षा प्रणाली को और अधिक सुव्यवस्थित करने के उद्देश्य से किया जाने लगा।
2. द्वितीय चरण-
तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के विकास के प्रथम चरण में तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन के अनन्तर शिक्षा को प्रभावित करने वाले घटकों जैसे सामाजिक, आर्थिक आदि परिस्थितियों पर ध्यान नहीं दिया जाता था। साथ ही, यह भी नहीं देखा जाता था कि किसी देश-विशेष की शिक्षा प्रणाली की विशेषताओं को किसी देश ने अपनाया है या नहीं। तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन के विकास के द्वितीय चरण में इन सभी बातों पर ध्यान दिया जाने लगा अर्थात् अब यह विचार किया जाने लगा कि किसी देश की शिक्षा प्रणाली जाने वाली विशेषता को यदि किसी दूसरे देश में अपनाया जाए तो वह वहाँ की परिस्थिति के अनुरूप होगा या नहीं। साथ ही उस विशेषता की सम्भावनाओं पर भी ध्यान दिया जाने लगा। इस प्रकार अन्धानुकरण की प्रवृत्ति का परित्याग किया गया।
तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के विकास के इस द्वितीय चरण के जनक इंग्लैण्ड के सर माइकल सैडलर माने जाते हैं। सन् 1907 में इनका तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education सम्बन्धी एक निबन्ध प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने इस बात पर बल दिया कि किसी भी देश की शिक्षा-प्रणाली उस देश के सामाजिक वातावरण से सम्बन्धित होती है। इस प्रकार सैडलर के अनुसार शिक्षा प्रणाली के अध्ययन में सामाजिक परिस्थिति की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। सैडलर की इस धारणा की अन्य विद्वानों ने भी पुष्टि की। इनमें अमेरिका के आइजक कैण्डल तथा रॉबर्ट यूलिच, जर्मनी के फ्रेडरिक श्नाइडर, इंग्लैण्ड के जोजेफ लौरीज तथा निकोलस हैन्स के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन सभी विद्वानों ने तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन में किसी देश की शिक्षा प्रणाली तथा उस देश के सामाजिक वातावरण के परस्पर सम्बन्ध को समझने पर विशेष बल दिया।
3. तृतीय चरण-
तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन का तृतीय चरण 1950 ई. से प्रारम्भ होता है। इस चरण को जॉर्ज जैड०एफ० बियरडे एलिस ने 'द पीरियड ऑफ एनालिसिस' कहा। इस समय विज्ञान की प्रगति के कारण सभी वैज्ञानिक विषयों के अध्ययन में विश्लेषण पर बल देना स्वाभाविक हो चला था; फलतः तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education में भी विश्लेषणात्मक अध्ययन पर विशेष बल दिया गया।
इस पद्धति में किसी देश की शिक्षा प्रणाली की विशेषताओं को स्वीकार करने से पहले दोनों देशों की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थितियों का विश्लेषणात्मक विवेचन करके उस प्रणाली की अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता के बारे में निष्कर्ष निकाला जाता है। अत: शिक्षा से सम्बन्धित घटकों का विशेष रूप से अध्ययन किया जाने लगा। यह ध्यान देने की बात है कि अब तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन में केवल शिक्षा के घटकों की समानता और विषमता का ही अध्ययन नहीं किया जाता है अपितु समानता एवं विषमता के तुलनात्मक विवेचन के साथ-साथ, देश से सम्बन्धित सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में किसी शिक्षा प्रणाली की विशिष्टता की अनुरूपता अथवा प्रतिकूलता के सम्बन्ध में भी विचार किया जाता है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट है कि तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के विकास के द्वितीय और तृतीय चरण में केवल रूप का ही अन्तर है। तृतीय चरण में हम शिक्षा प्रणाली के विविध घटकों तथा विशेषताओं को एक क्रमबद्ध रूप में रखकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की चेष्टा करते हैं, जबकि द्वितीय चरण में इस क्रमबद्धता का अभाव साफ परिलक्षित होता है।
रॉबर्ट यूलिच, फ्रेडरिक श्नाइडर तथा आइजक कैण्डल की रचनाओं ने तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन के तृतीय चरण के विकास में विशेष योगदान दिया है। इन विद्वानों की धारणा है कि विविध देशों की शिक्षा प्रणालियों के तुलनात्मक अध्ययन से हम उन देशों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक समस्याओं की अनुरूपता को समझते हुए विश्व की मानव जाति की सामान्य आकांक्षाओं का ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे और संसार में अन्तर्राष्ट्रीय एकता की भावना और अधिक बलवती होगी।
तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education का महत्त्व
बियरडे के अनुसार इस विषय के दो मूल महत्त्व हैं
1. बौद्धिक-
चूँकि अन्य ज्ञान-क्षेत्रों के समान, यह विषय भी एक शास्त्रीय (academic) विषय है।
2. व्यावहारिक-
चूँकि इसका लक्ष्य शिक्षा-सुधार-माध्यम द्वारा समाज का रूपान्तर करना है। इस विषय का अध्ययन वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय युग में उत्तरोत्तर बल पकड़ता जा रहा है। तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education राष्ट्रीय संस्थानों का विस्तृत ब्योरा देती है। शिक्षा समाज का दर्पण है और साथ ही सामाजिक कसौटी भी। शिक्षाध्ययन समाज का वास्तविक चित्र ज्ञात करा देता है और उसका मूल्यांकन भी। इस विषय के मुख्य कार्य हैं -
(i) सामाजिक सुधार का रास्ता खोलना एवं सामाजिक पुनर्निर्माण द्वारा समाज का रूपान्तर करना जिसका अन्तिम लक्ष्य समाज का उन्नयन है।
(ii) निजी शिक्षण संस्थाओं का निष्पक्ष मूल्यांकन करना, शैक्षिक समस्याओं की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं उनके कारणों की ओर ध्यान केन्द्रित करना, साथ ही अन्य देशों की समस्या-समाधान-युक्तियों से स्वदेशीय शिक्षा समस्याओं के समाधान की सूझ विकसित करना।
(iii) शिक्षा विकास की सम्भावनाओं तथा सम्भाव्यताओं का दिग्दर्शन कराना एवं भविष्य के सम्भावित परिवर्तनों का महत्त्व दर्शाते हुए, उनके अनुकूल शिक्षा को ढालने के ढंग सुझाना।
(iv) किसी देश की शिक्षा प्रणाली का मूल्यांकन उसकी पृष्ठभूमि में कहाँ तक हो सकता है इसका पता लगाना। शैक्षिक समस्याएँ भी समाज से आबद्ध हैं। विभिन्न देशों की समस्याएँ अपनी रूपरेखा रखती हैं, अतएव उनका निदान भी समाजगत है। दूसरे देशों के शिक्षा अध्ययन से केवल संकेत मिल सकते हैं।
(v) यह ज्ञात करना कि विभिन्न देशों के शिक्षा संस्थानों एवं प्रणालियों का एक-दूसरे पर क्या प्रभाव पड़ सकता है।
(vi) शिक्षा को प्रभावित करने वाले प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रभावों को समझना।
(vii) अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना को बल देना।
तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन की विभिन्न विधियाँ
तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन हेतु विभिन्न विधियों का प्रयोग किया जाता है। इन विभिन्न विधियों का सम्बन्ध; तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के विकास की अवस्थाओं से होता है। इन विधियों का संक्षेप में वर्णन अग्रलिखित है -
1. ऐतिहासिक विधि-
तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन की एक विधि है-ऐतिहासिक विधि। इस विधि के अन्तर्गत शैक्षिक गतिविधियों के साथ ही शैक्षिक समस्याओं की उत्पत्ति के कारणों पर भी प्रकाश डाला जाता है। तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन की यह अत्यन्त लोकप्रिय एवं महत्त्वपूर्ण विधि है। ऐतिहासिक विधि का, शैक्षिक अनुसन्धानों में विशेष महत्त्व है। इस विधि के द्वारा वर्तमान शैक्षिक स्थिति के निर्माण के कारणों का पता लगाया जाता है तथा शैक्षिक क्षेत्र के वांछित तत्त्वों को दृढ़ बनाने और अवांछनीय तत्त्वों को समाप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। उदाहरणार्थ-भारत में साक्षरता का प्रतिशत अभी भी सन्तोषजनक नहीं है। अब यह जानना आवश्यक है कि किन कारणों से भारत में साक्षरता कम रही है। इस विधि द्वारा इसके प्रमुख कारणों को भी जाना जा सकता है। तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education की दृष्टि से साक्षरता का अध्ययन करते हुए हम उन देशों के आँकड़ों को भी समायोजित कर सकते हैं, जिन देशों में भारत के समान ही साक्षरता है तथा निरक्षरता के कारणों का तुलनात्मक अध्ययन करके यह ज्ञात कर सकते हैं कि जिन देशों में साक्षरता कम है, उनके ऐतिहासिक कारण, भारत में कम साक्षरता हेतु उत्तरदायी कारणों से किस सीमा तक समान हैं और भविष्य में किस प्रकार साक्षरता का प्रसार किया जा सकता है। तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन की ऐतिहासिक विधि के अन्तर्गत किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली को प्रभावित करने वाली समस्त भौगोलिक, जातीय, राजनीतिक, सामाजिक, भाषागत तथा धार्मिक बातों का अध्ययन किया जाता है। इस विधि को निकोलस, हैन्स, श्नाइडर, कैण्डल आदि ने विशेष महत्त्व प्रदान किया है।
2. वर्णनात्मक विधि-
तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन के अन्तर्गत 19वीं शताब्दी में वर्णनात्मक विधि का प्रयोग प्रारम्भ हुआ क्योंकि 19वीं शताब्दी में तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन का मुख्य उद्देश्य अन्य देशों की शिक्षा प्रणालियों के गुणों का अनुकरण करना था। वर्णनात्मक विधि के अन्तर्गत अनेक शिक्षाविद् विदेशों में रहकर, उन देशों की शिक्षा प्रणालियों का अध्ययन करते थे। सर्वप्रथम सन् 1818-19 में अमरीकी नागरिक जॉन ब्रिस्कम ने विभिन्न यूरोपीय देशों का भ्रमण करके एक पुस्तक का प्रकाशन किया। इस पुस्तक में उसने फ्रांस, इटली, हॉलैण्ड, ब्रिटेन तथा स्विट्जरलैण्ड आदि देशों की शिक्षा प्रणालियों का वर्णन किया। इसके उपरान्त सन् 1831 में फ्रांस के प्रो० विक्टर कजिन ने प्रशा में जाकर, वहाँ की शिक्षा प्रणाली के सम्बन्ध में एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इस रिपोर्ट में उसने किसी अन्य देश की शिक्षा प्रणाली से अपने देश की शिक्षा प्रणाली की तुलना नहीं की।
अमेरिका के होरेसमैन तथा ग्रेट ब्रिटेन के मैथ्यू आरनोल्ड ने भी वर्णनात्मक विधि के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अमेरिका के होरेसमैन के छह माह के यूरोपीय देशों के भ्रमण पर आधारित रिपोर्ट सन् 1843 में प्रकाशित हुई। इस रिपोर्ट में होरेसमैन ने इंग्लैण्ड, स्कॉटलैण्ड, आयरलैण्ड, फ्रांस, जर्मनी तथा हॉलैण्ड आदि देशों की शिक्षा प्रणालियों का विस्तृत वर्णन करते हुए उनके शैक्षिक महत्त्व का भी वर्णन किया था। इंग्लैण्ड के मैथ्यू आरनोल्ड की रिपोर्ट सन् 1859 में फ्रांस तथा सन् 1865 में जर्मनी की शैक्षिक प्रणालियों के सम्बन्ध में प्रकाशित हुई। विभिन्न देशों की शैक्षिक प्रणालियों का अध्ययन करने हेतु उसने वर्णनात्मक विधि का प्रयोग किया। इसके साथ ही फ्रांस तथा जर्मनी की राष्ट्रीय विशषताओ का वर्णन करते हुए उसने इन देशों की शिक्षा प्रणालियों की विशिष्ट बातों की ओर भी ध्यान आकर्षित कराया। इस प्रकार मैथ्यू आरनोल्ड का अध्ययन पहले की अपेक्षा सुव्यवस्थित था। माइकल सैडलर ने मैथ्यू आरनोल्ड से प्रेरणा प्राप्त करके ही इस बात पर विशेष बल दिया कि तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन द्वारा हम उन राष्ट्रीय तत्त्वों को जान सकते हैं, जिनसे किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली प्रभावित होती रहती है। इसके अतिरिक्त सैडलर ने यह भी कहा कि विदेशों की शिक्षा प्रणालियों के अध्ययन से हम यह समझ सकते हैं कि शिक्षा द्वारा किस प्रकार राष्ट्रीय व्यवस्था बनी रह सकती है तथा उसे बनाए रखने के मध्य आने वाली कठिनाइयाँ कौन-कौन सी हैं। अन्य देशों की राष्ट्रीय शिक्षा प्रणालियों का अध्ययन करके सैडलर इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन द्वारा ही किसी सुदृढ़ राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का विकास सम्भव हो सकता है।
इस विधि के सम्बन्ध में अमेरिका के हेनरी बर्नार्ड के विचार 'द अमेरिकन जनरल ऑफ एजुकेशन' में सन् 1865 से 1881 के मध्य 31 खण्डों में प्रकाशित हुए। इस पुस्तक के विभिन्न खण्डों में बर्नार्ड ने संयुक्त राज्य अमेरिका के विभिन्न राज्यों तथा अन्य देशों में पायी जाने वाली शिक्षा व्यवस्थाओं पर भी प्रकाश डाला था।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education की वर्णनात्मक विधि; तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन को आरम्भ करने एवं उसके विकास में योगदान करने वाले शिक्षाविदों द्वारा अपनायी गई।
3. विश्लेषणात्मक विधि–
समाजशास्त्रीय विधि के दोषों को दूर करने हेतु तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के क्षेत्र में इस विधि का विकास हुआ। विश्लेषण के अभाव में कोई भी तटस्थ व सटीक तुलनात्मक अध्ययन नहीं हो सकता क्योंकि विश्लेषण के आधार पर ही विभिन्न तथ्यों को पृथक् करके उनका तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है। सामाजिक एवं शैक्षिक संगठनों की पूर्णरूपेण तुलना करने पर ही विश्लेषण विधि उपयोगी सिद्ध हो सकती है। इस विधि द्वारा तुलनात्मक अध्ययन करते समय निम्नलिखित नार चरणों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है
(i) प्रथम चरण–
प्रथम चरण के अन्तर्गत किसी देश की शिक्षा प्रणाली से सम्बन्धित व्यवस्थित सामग्री को वर्णनात्मक एवं सांख्यिकीय विधियों के आधार पर एकत्रित किया जाता है।
(ii) द्वितीय चरण-
इसके अन्तर्गत विश्लेषण हेतु चयनित तत्त्वों की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से व्याख्या की जाती है। इस व्याख्या द्वारा यह स्पष्ट किया जाता है कि तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education प्रणालियों में कौन-कौन से तत्त्व समान हैं तथा यदि उनमें असमानताएँ हैं, और इन असमानताओं के कारण क्या हैं।
(iii) तृतीय चरण-
तृतीय चरण में विश्लेषण के पश्चात् निश्चित आधारों पर उनकी तुलना की जाती है अर्थात् सम्बन्धित शिक्षा प्रणालियों की तुलना हेतु कुछ मापदण्ड निर्धारित किए जाते हैं।
(iv) चतुर्थ चरण-
इस चरण के अन्तर्गत परिकल्पनाओं के आधार पर अनेक शिक्षा-प्रणालियों की तुलना कर निष्कर्ष निकाला जाता है।
विश्लेषणात्मक विधि; तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन की अत्यन्त उपयोगी विधि है क्योंकि विश्लेषणात्मक विधि द्वारा विभिन्न देशों की शिक्षा प्रणाली का तुलनात्मक अध्ययन; वैज्ञानिक विधि से किया जाता है।
4. संश्लेषणात्मक विधि-
वर्तमान युग में अनेक शिक्षाविद् समस्त विश्व को एक इकाई के रूप में मानकर शिक्षा प्रणालियों का अध्ययन करते हैं। एडमण्ड किंग ने सन् 1962 में तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education में विश्व दृष्टिकोण पर बल देते हुए 'दि बैकग्राउण्ड ऑफ एजुकेशन' नामक पुस्तक में लिखा है, “हम औद्योगिक क्रान्ति की द्वितीय एवं अत्यधिक महत्त्वपूर्ण अवस्था में हैं। उसमें दो बातें मुख्य रूप से होंगी, प्रथम-समस्त प्रकार की तकनीकी कुशलता एवं स्रोतों का समस्त देशों में व्यवस्थित विकास तथा द्वितीय इस नवीन सम्पन्नताओं एवं अवसरों की मानव जाति की स्थिति में सुधार का उपयोग।" इस विधि के द्वारा विभिन्न देशों की शिक्षा-प्रणालियों में निहित असमानताओं में कुछ शाश्वत सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है क्योंकि समस्त मानव जाति की आकांक्षाएँ एवं आवश्यकताएँ समान होती हैं। शिक्षा के क्षेत्र में संश्लेषणात्मक विधि का प्रयोग; शैशव अवस्था में ही है, लेकिन इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं कि भविष्य में संश्लेषणात्मक विधि का स्वरूप और अधिक स्पष्ट हो जाएगा तथा यह विधि शैक्षिक क्षेत्र में, विश्व दृष्टिकोण के विकास में अत्यन्त सहायक सिद्ध होगी।
5. समाजशास्त्रीय विधि-
इस विधि का प्रयोग शिक्षा की समस्याओं के अध्ययन के सामाजिक सन्दर्भ में किया जाता है। समाजशास्त्रीय विधि इस मान्यता पर आधारित है कि किसी भी देश की शिक्षा पद्धति तथा संगठन; देश की सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है। किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था की जानकारी प्राप्त करने के लिए उस देश की सामाजिक संग्चना एवं समस्याओं को जानना आवश्यक है। किसी भी शैक्षिक समस्या को सामाजिक रूप प्रदान किया जा सकता है क्योंकि शिक्षा की समस्याओं एवं समाज में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education की यह पद्धति इस तथ्य पर अधिक बल देती है कि किसी भी देश की शिक्षा पद्धति सम्बन्धी समस्याओं एवं विशेषताओं का अध्ययन; शिक्षा प्रणाली की समाजशास्त्रीय पृष्ठभूमि की ओर समुचित ध्यान देने पर ही सम्भव है। इस विधि के प्रमुख समर्थक सैडलर हैं। सैडलर का विचार था कि विभिन्न देशों की तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education प्रणाली; समाज के समस्त पक्षों के गत्यात्मक सम्बन्धों का अध्ययन है। यह पद्धति; अतीत की परिस्थितियों पर बल देने के साथ ही, शैक्षिक समस्याओं के प्रति उत्तरदायित्व तथा उसके सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहलुओं का अध्ययन करने पर भी बल देती है। हैरिस का विचार है कि किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली के निर्धारित उद्देश्यों एवं पाठ्यक्रम रचना सम्बन्धी बातों के अध्ययन हेतु यह विधि अत्यन्त उपयोगी है।
समाजशास्त्रीय विधि के आधार पर तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अन्तर्गत अन्य देशों की शिक्षा-प्रणालियों के संगठन आदि से सम्बन्धित असमानताओं को समझा जा सकता है। इसके अतिरिक्त यह विधि सांस्कृतिक आदान-प्रदान की दृष्टि से भी अत्यन्त सहायक एवं उपयोगी सिद्ध होती है।
इस विधि के प्रमुख दोष निम्नवत् हैं -
(i) इसके आधार पर किए जाने वाले अध्ययन के अन्तर्गत व्यक्तिगत योगदान से सम्बन्धित तथ्यों की उपेक्षा कर दी जाती है।
(ii) यह विधि उन घटनाओं की ओर भी उचित ध्यान नहीं देती, जो किसी देश की शिक्षा प्रणाली के स्वरूप का निर्धारण करते हैं।
6. सांख्यिकीय विधि-
तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अन्तर्गत अनेक देशों की शिक्षा प्रणालियों में निहित समानताओं का अध्ययन किया जाता है इसलिए अनेक विद्वानों का यह विचार है कि तुलनात्मक शिक्षा Comparative Education के अध्ययन में सांख्यिकीय विधि का प्रयोग किया जाना चाहिए, क्योंकि सांख्यिकीय विधि द्वारा ही किसी देश की शिक्षा के क्षेत्र में हुई प्रगति एवं अवनति की जानकारी प्राप्त होती है।
इस विधि के अन्तर्गत सर्वप्रथम किसी देश की शिक्षा प्रणाली से सम्बन्धित आँकड़े एकत्रित किए जाते हैं तथा प्राप्त आँकड़ों की तुलना किसी दूसरे देश के शिक्षा सम्बन्धी आँकड़ों से की जाती है। इस प्रकार एक ही देश के विभिन्न वर्षों के आँकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन; इस विधि के अन्तर्गत किया जाता है। इस प्रकार के मात्रात्मक विश्लेषण द्वारा किसी भी देश की शैक्षिक क्षेत्र की प्रगति एवं अवनति का ज्ञान प्राप्त होता है।
इस विधि का प्रयोग करने में सर्वप्रथम कठिनाई यह है कि इसके प्रयोग हेतु विश्वसनीय आँकड़े " एकत्रित करना अत्यन्त जटिल कार्य है। अधिकांशतया ये आँकड़े भ्रामक व गलत होते हैं। द्वितीय कठिनाई यह है कि विभिन्न देशों में शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर असमान शब्दावलियों का प्रयोग किया जाता है परिणामतः एकत्रित आँकड़ों का सांख्यिकीय वर्णन करना अत्यन्त कठिन जाता है। इस विधि के प्रयोग में तृतीय कठिनाई यह है कि इस विधि के माध्यम से किसी भी देश की शिक्षा की उन विशिष्टताओं की जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती, जो वहाँ की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं धार्मिक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती हैं।
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