एक बाजार अर्थव्यवस्था में विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन हेतु संसाधनों का आबंटन माँग और आपूर्ति की शक्तियों के माध्यम से कार्य करने वाली कीमत प्रणाली द्वारा दक्षतापूर्ण किया जाता है। किंतु बाजार की विफलताएँ एवं अपूर्णताएँ, जो मुख्यतः बाह्यताओं का परिणाम होती हैं या फिर उपभोक्ताओं एवं उत्पादकों के बीच जानकारी की विसंगति दुर्लभ संसाधनों के आबंटन में बाजार के क्रियाकलाप पर विपरीत प्रभाव डाल सकती हैं। उदाहरण के लिए, सरकारी नियंत्रण के अभाव में उत्पादक पर्यावरण में ठोस, तरल और गैसीय उत्सर्जन द्वारा सभी के लिए ऋणात्मक बाह्यताएँ पैदा कर सकते हैं - उनके लिए इस प्रकार दूषक पदार्थों का निपटान बहुत सस्ता रहता है। व्यापार संगुटों और एकाधिकार आदि के माध्यम से भी उत्पादक उपभोक्ता वर्ग का शोषण कर सकते हैं। यहाँ सरकारी हस्तक्षेप द्वारा सभी बाह्यताओं को आंतरिक स्वरूप प्रदान कर बाजार की कार्य पद्धति को कुशल एवं न्यायपूर्ण बनाया जा सकता है।
बाजार व्यवस्था में सरकार की भूमिका पर लंबे समय से विचार किया जा रहा है। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री तो सरकार की भूमिका को सीमित रखने का आग्रह करते हुए तर्क देते थे कि "सर्वोत्तम प्रशासन वही है जो न्यूनतम शासन करे।" 1930 के दशकारंभ की महामंदी ने अर्थशास्त्रियों को बाजार अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका पर पुनः विचार करने को विवश कर दिया। पिछले कुछ दशकों के अनुभव द्वारा पता चलता है कि न केवल बाजार दक्षतापूर्ण आबंटन में विफल रह जाते हैं बल्कि सरकार भी बाजार की विकृतियों के निवारण में असफल रह सकती है। वास्तव में सरकार की विफलता आर्थिक विकास के लिए बाजार की विफलता की अपेक्षा अधिक घातक सिद्ध हो सकती है। फिर भी स्वतंत्र बाजार के पक्षधर अर्थशास्त्री कहते हैं कि सरकार को अपना कार्य क्षेत्र प्रभावी कानून व्यवस्था और स्थिरतापूर्ण समष्टि आर्थिक वातावरण बनाए रखने तक सीमित रखना चाहिए। समष्टि आर्थिक वातावरण बनाए रखने के लिए सरकार को विशेष गुण पदार्थ सुलभ कराने और सामाजिक-आर्थिक उपरिसंरचनाएँ " निर्मित करने पर ध्यान देना चाहिए, शेष कार्य बाजार की शक्तियों के भरोसे छोड़ देने चाहिए। उनका भावार्थ है कि बाजार की विफलताएँ सरकार के व्यापक हस्तक्षेप का पर्याप्त आधार नहीं हैं, क्योंकि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि सरकार उन विफलताओं का निर्मूलन कर पाएगी। इस संदर्भ में प्रो. पॉल स्ट्रीटन का कहना है कि जैसे सरकारी कार्यवाही से भाड़ा जीविता (अनार्जित आय हस्तगत करना) हो सकती है, वैसे ही बाजार में कार्य कर रहे निजी व्यक्ति भी परस्पर मिलकर भाडाजीवी व्यवहार अपना सकते हैं। इसीलिए उनका सुझाव है कि यदि सरकार को बाजार की कार्य पद्धति को कुशल बनाना है तो उसे भाड़ा जीविता पर अंकुश करने वाले सजग प्रहरी की भूमिका निभानी होगी।
'जनहित सिद्धांत” और “हित समूह सिद्धांत" इन दो सिद्धांतों के आधार पर ही बाजार अर्थव्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता का प्रतिपादन किया जाता है। पहले सिद्धांत के अनुसार सरकार को अपूर्ण प्रतियोगिता, अपूर्ण जानकारी और बाह्यताओं की समस्याओं के निवारण द्वारा सामान्य जनहितों का संपोषण करना चाहिए। बाजार व्यवस्था से जुड़े यही तीन कारक सरकारी नियमन और नियंत्रण अनिवार्य बना देते हैं। अत: सरकार का प्रथम महत्त्वपूर्ण कार्य आर्थिक इकाइयों के बीच स्पर्धा बढ़ाकर बाजार शक्ति के संकुलन को रोकना है। सरकारी हस्तक्षेप इसलिए भी जरूरी हो जाते हैं कि जानकारी की सुलभता अपूर्ण नहीं होती बल्कि उसे पाने की लागतें भी हितलाभों से अधिक हो जाती है। सरकार यहाँ सुपरिभाषित उत्तरदायित्व नियमों की रचना कर सकती है, ताकि उत्पाद की उपयुक्त गुणवत्ता से हीन होने की दशा में उपभोक्ता के हितों की रक्षा संभव हो सके। यदि सरकारी नियमन नहीं हो तो, उदाहरण के लिए, कोई भी चीनी मिल अपने ठोस, तस्ल एवं गैसीय उत्सर्जनों को पर्यावरण में छोड़ देने से बाज नहीं आएगी। ऐसी नकारात्मक बाह्यताओं को आंतरिकता प्रदान करने हेतु सरकार उत्पादनकर्ताओं पर उनके प्रदूषण के "योगदान" की लागत हर्जाने के रूप में थोप सकती है। “हित समूह सिद्धांत" के अनुसार विभिन्न समूहों/क्षेत्रों/समुदायों के हितों के संरक्षण के लिए राजकीय हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, हरित व स्वच्छ स्रोतों और निवेश को आकृष्ट करने व उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए सरकार सौर, वायु या फिर जैविक ऊर्जा उत्पादन के लिए आदान साहाय्यों और कर-छूट आदि का सहारा ले सकती है।
बाजार के दक्षतापूर्ण कार्य करने के लिए उपयुक्त वातावरण का निर्माण कर बाजार की विफलताओं का निवारण करना सरकार का मुख्य कार्य है। इस कार्य के लिए कानूनी रूप से बाध्यकारी नियमों और विनियमों की रचना के साथ-साथ उन्हें लागू करने के लिए उपयुक्त सुदक्ष एवं सुचारु रूप से कार्य करने वाली संस्थागत रचनाओं का भी निर्माण करना होगा। हाल ही के वैश्विक आर्थिक संकटों ने एक बार पुन: सरकार की भूमिका पर ध्यान केंद्रित कर दिया है, क्योंकि विनियमनहीन बाजार की शक्तियाँ अर्थव्यवस्था को संकट में धकेल सकती हैं। इस प्रकार, बाजार व्यवस्था में सरकार की भूमिका की व्याख्या कुछ इस प्रकार की जा सकती है-
- सरकार की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका विशेषकर विकासशील देशों में तो विभिन्न क्षेत्रों, लिंग, सामाजिक समूहों और क्षेत्रकों के बीच विषमताओं का निवारण है – इसी से संवृद्धि एवं विकास की प्रक्रिया अधिक समाहनकारी एवं समतापूर्ण बन पाएगी। इसका कारण यही है कि संवृद्धि विकास की एक आवश्यक शर्त तो हो सकती है, पर्याप्त नहीं। अत: सरकार को आगे बढ़कर समाज के सभी वर्गों के लिए समान अवसरों की रचना कर, गरीबों एवं पिछड़े वर्गों की योग्यता-दक्षता का संवर्धन कर उन्हें बाजार व्यवस्था में सक्रिय रूप से भागीदारी करने के लिए सक्षम बनाना होगा।
- सरकार को लोक पदार्थों एवं अर्द्ध-लोक पदार्थों की व्यवस्था करने को तैयार रहना चाहिए - सामान्यतः बाजार इनकी आपूर्ति नहीं कर पाते। ऐसे लोक पदार्थों के उदाहरण हैं-प्रतिरक्षा, पुलिस सुरक्षा और न्याय व्यवस्था जबकि अर्द्ध-लोक पदार्थों में हम शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को शामिल करते हैं। इन लोक-अर्द्ध-लोक पदार्थों का प्रावधान निजी पदार्थों में पर्याप्त निवेश आकृष्ट करने के लिए आवश्यक होता है किंतु सरकार के संसाधन भी बहुत प्रचुर नहीं होते इसीलिए इनके प्रावधान में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों की साझेदारी भी हो सकती है।
- सरकार का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य तो ऐसी न्याय व्यवस्था की रचना है जिसके बिना बाजार कार्य ही नहीं कर पाएगा। इस विधिक व्यवस्था में नियम और विनियम होते हैं जिनमें संपदा अधिकार, अनुबंध लागू करने विषयक, कानून आदि सम्मिलित रहते हैं। बाजार व्यवस्था तभी कार्य कर सकती है जब सरकार संपदा अधिकार सुनिश्चित करने को तत्पर हो।
- बाजार का स्पर्धाशील रहना आवश्यक है - तभी उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं को सटीक कीमत संकेत मिल पाएँगे। ऐसी बाजार व्यवस्था की स्थापना के लिए सरकार को व्यावसायिक उपक्रमों की एकाधिकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना होगा।
- अर्थव्यवस्था में स्थिरतापूर्ण संवृद्धि हेतु सरकार को एक स्थायित्वपूर्ण समष्टि अर्थशास्त्रीय वातावरण का निर्माण करना होता है। यहाँ राजकोषीय एवं मौद्रिक नीति उपस्करों के प्रयोग द्वारा स्फीति-अवस्फीति पर नियंत्रण रख अर्थव्यवस्था की विकास प्रक्रिया को बढ़ावा दिया जा सकता हैं।
- सकारात्मक नीतियों द्वारा सरकार को गरीब एवं अति पिछड़े वर्गों के हितों का संवर्धन करना चाहिए। यह समाज में विषमता के निवारण के लिए आवश्यक है।
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