समाज मानवीय अंतःक्रियाओं के प्रक्रम की एक प्रणाली है। समाज से आशय उस परिभाषित क्षेत्र और संस्कृति वाले समुदाय तथा उसके सदस्यों एवं संस्थाओं के बीच संबंधो की संरचना से है। समाज शब्द का अनेक बार एक समूह या 'संघ' के रूप में भी प्रयोग होता है, जैसे-उपभोक्ता संघ, सहकारी संघ आदि या फिर अधिक व्यापक स्तर पर ग्रामीण समाज, शहरी समाज आदि। समाजशास्त्रीय दृष्टि से समाज का आशय सामाजिक संबंधों एवं अंतक्रियाओं के तंत्र से होता है। अतः 'समाज' का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आयाम सामाजिक संबंधों की व्यवस्था है। सरकार या शासन अथवा राज्य किसी क्षेत्र पर सार्वभौम सत्ताधारी इकाई है। यह सभी नियम और विनियम (rules and regulations) बनाने वाली संस्थाओं, निगमों और अधिकारियों का समुच्चय है। अधिक सटीक रूप से संघ, राज्य और स्थानीय स्तर की सभी प्रशासनिक इकाइयों और उनके अधीन कार्यरत संस्थाओं और निगमों आदि को 'सरकार' में शामिल किया जा सकता है।
अर्थशास्त्र में 'बाजार' के उस स्थान का, जहाँ वस्तुओं और सेवाओं का क्रय-विक्रय होता है, विशेष होना आवश्यक नहीं है। यह तो ग्राहकों एवं विक्रेताओं के बीच विनियम को संभव बनाने वाले माध्यम का नाम है। विक्रेताओं एवं क्रेताओं के बीच यह विनियम ऑनलाइन भी हो सकता है, उनके बीच प्रत्यक्ष भेंट की आवश्यकता ही नहीं होती। बाजार में किसी वस्तु की संतुलन कीमत का निर्धारण आपूर्ति और माँग की पारस्परिक अंतक्रियाओं द्वारा होता है- इस प्रकार निर्धारित कीमत तब तक अपरिवर्तित रहती है जब तक कोई बाहरी शक्ति या प्रभाव उन माँग अथवा आपूर्ति या फिर दोनों की दशाओं को परिवर्तित नहीं करे। एक पूर्ण प्रतियोगी बाजार में कीमत प्रणाली संसाधनों का सुदक्ष अथवा अभीष्ट आबंटन सुनिश्चित कर देती है किंतु वास्तविकता में बाजारों में पूर्णता बहुत कम दिखाई पड़ती है अत: स्वाभाविक है कि बाजार में कुछ-न-कुछ विकृतियाँ अवश्य बनी रहती हैं। इस प्रकार के संदर्भो में, बाजारों के दक्षतापूर्ण कार्य निष्पादन को सुनिश्चित करने में सरकार की भूमिका निर्णायक रूप धारण कर लेती है। हालाँकि समाज के विकास के कारण आज सरकार एवं बाजार को अलग-अलग संस्थाओं के रूप में निरूपित करना संभव हो गया फिर भी इनके बीच बहुत गहन अंतर्संबंध बने रहते हैं। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में समाज के सदस्य सरकार की निर्णय प्रक्रिया में एक बड़ी भूमिका निभाते हैं। इस प्रक्रिया में सभ्य समाज संगठन, गैर-सरकारी संगठन आदि की भूमिकाएँ बहुत अहम् हो जाती हैं। सरकार स्वयं अपने नागरिकों को संवैधानिक अधिकार (constitutional rights), मताधिकार आदि से संपन्न कर निर्णय प्रक्रिया में उनकी भागीदारी को एक स्पष्ट स्वरूप प्रदान करती है।
समाज, सरकार और बाजार का उपर्युक्त संबंध उस लोकतांत्रिक व्यवस्था पर निर्भर रहता है जो विभिन्न सामाजिक समूहों के गठन की अनुमति प्रदान करती है। ऐसे समूह और संगठन एक प्रकार से सरकार और बाजार के ही अनुपूरक बन जाते हैं। सरकार व्यवस्था को अपनी सतर्कता द्वारा भली प्रकार कार्य करने को विवश कर ये दक्षता और आर्थिक संवृद्धि में न्यायपूर्णता सुनिश्चित करते हैं। बाजार उसी दशा में सुदक्ष संसाधन आबंटन कर पाते हैं जब बाह्यताएँ नहीं हो।
एक सतर्क एवं ऊर्जस्वी सभ्य समाज सरकार एवं बाजार तंत्र को अधिक संवेदी, उत्तरदायी और दक्ष (efficient) बना सकता है। इसके लिए एक सबल प्रशासन व्यवस्था का होना आवश्यक रहता है। ऐसी स्थितियों में बाजार की अनेक विकृतियों का प्रभावी राजकीय हस्तक्षेप द्वारा निर्मूलन हो जाता है। किंतु अनेक बार प्रशासकीय स्तर पर भी विफलताएँ संभव हो सकती हैं - अतः एक विकसित एवं उत्तरदायी नागरिक समाज/संगठनात्मक समूह ही बाजार की विफलताओं को न्यूनतम करने में सहायक हो सकता है। एक ऐसी स्थिति का उदाहरण जब सार्वजनिक हित संवर्धन के लिए बाजार में राज्य हस्तक्षेप का उल्लेख किया जा सकता है, कर एवं साहाय्यों का उपयोग करके मूल्य नियंत्रण तंत्र है। उदाहरण के लिए, यदि निम्न कार्बन उत्सर्जन ऊर्जा का प्रयोग बढ़ाना हो तो सरकार सौर ऊर्जा उत्पादन में निवेश पर कर छूट तथा साहाय्यों द्वारा प्रोत्साहन की नीति अपना सकती है। दूसरे शब्दों में, यद्यपि बाजार संसाधनों का कुशल आबंटन कर सकते हैं किंतु सरकार को बाजार के सुदक्ष कार्य व्यवहार के लिए उपयुक्त संप्रेरणा और नियमन व्यवस्था की रचना करनी होती है। बाजार प्रायः पूर्ण प्रतियोगी नहीं रह पाते - इसी कारण से उनके तथा अर्थव्यवस्था के दक्षतापूर्ण कार्य करने के लिए सरकार और सामाजिक संस्थाओं/संगठनों की भागीदारी अनिवार्य हो जाती है। अतः देश के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक विकास के लिए सामाजिक पूँजी का विकास एवं क्रियाशील होना तथा प्रशासन और बाजार प्रचालन में उसका उपयोग होना बहुत ही आवश्यक है।
No comments:
Post a Comment