खाद्यान्नों की घरेलू उपलब्धता खाद्य सुरक्षा का प्रथम पहलू है। कोई भी देश अपने खाद्यान्न एवं दूसरे कृषि उत्पादों की जरूरतों के लिए दूसरे देश पर निर्भर नहीं रहना चाहेगा, जबतक कि उसके पास सिवाय इसके, कोई और विकल्प ही न हो। स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर आजतक खाद्यान्न आत्मनिर्भरता के मामले में भारत को एक लंबा सफर तय करना पड़ा है। जहां पहले भारत खाद्यान्नों का आयात करता था, घरेलू कृषि उत्पादन में वृद्धि करके वह आत्मनिर्भर बन चुका है|
खाद्यान्न के सुरक्षित भंडार
भारत विश्व के उन कुछ देशों में से एक है जहां की सरकार खाद्यान्न का सुरक्षित भंडारण करती है, इसके निम्न कारण हैं -
1. प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति से निपटने के लिए।
2. फसल चौपट होने की अवस्था में मूल्यों को स्थिर करने के लिए।
3. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत खाद्यान्न मुहैय्या करने के लिए।
सरकार ने सुरक्षित भंडारण के लिए, वर्ष के अलग-अलग महीनों के लिए मानदंड या नियम बना रखे हैं। वर्तमान में गेहूं और चावल की अधिकतम भंडारण सीमा, सरकार द्वारा उपर्युक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए, 27 मिलियन टन है।
खाद्यान्नों का भंडारण भारतीय खाद्य निगम, (Food Corporation of India) की प्रमुख जिम्मेदारी है। निगम, सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support Price) पर खाद्यान्न खरीद कर देश भर में फैले अपने भंडारों/गोदामों में रखता है, जहां से खाद्यान्नों की राज्यों की आवश्यकतानुसार, आपूर्ति की जाती है। भारतीय खाद्य निगम समय-समय पर भंडारण किया हुआ खाद्यान्न फसल खराब होने की स्थिति में, जब मूल्यों में उतार-चढ़ाव होता है तब, खुले बाजार में भी बेचता है ताकि मूल्य नियंत्रित रहे।
सुरक्षित भंडारण के क्रिया-कलाप से संबंधित कुछ मुद्दे इस प्रकार संक्षेप में वर्णित हैं-
सर्वप्रथम, सरकार निर्धारित 50-60 मिलियन टन खाद्यान्न के भंडार से कहीं ज्यादा स्टॉक रख रही है और ऐसा पूर्व का अत्यधिक भंडार उपलब्ध होने के बावजूद किया जा रहा है। आवश्यकता से अधिक भंडारण सरकार क्यों करती है? इसका उत्तर न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद का मूल्य नियमानुसार खाद्य-निगम को, भंडारण के लिए जितनी भी मात्रा में खाद्यान्न की आवश्यकता होती है, उन्हें उपरोक्त मूल्यों पर खरीदना पड़ेगा। जिस वर्ष फसल का भरपूर उत्पादन होता है, खाद्य निगम को है। पूरा खाद्यान्न खरीदना पड़ता है, भले ही खाद्यान्नों का बाजार-भाव कुछ ज्यादा हो। फिर भी किसान अपना अनाज खाद्य-निगम को ही बेचना चाहता है क्योंकि वहां बड़ी मात्रा (Bulk) में खरीद होती है। इस कारण खाद्यान्नों का स्टॉक बढ़ता चला जाता है।
दूसरा, खाद्य-निगम के पास खाद्यान्न का पूरा स्टॉक रखने के लिए समुचित भंडारण सुविधा का अभाव है। वर्तमान में खाद्य-निगम की कुल भंडारण क्षमता 60 मिलियन टन की है, परंतु वास्तव में उपयोगी-क्षमता 50 मिलियन टन से ज्यादा नहीं हो पाती और यह क्षमता भी भंडारण के उपयुक्त नहीं कही जा सकती। अनुपयुक्त भंडारण एवं क्षमता की कमी के कारण प्रतिवर्ष लगभग 50 हजार करोड़ मूल्य के खाद्यान्न बर्बाद हो जाते हैं।
खाद्य सुरक्षा का एक अन्य पहलू सार्वजनिक वितरण प्रणाली है। राज्य सरकारों को आवश्यकतानुसार खाद्यान्न, 'निर्गम मूल्य' (Issue Price) पर गरीबों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत् बेचने के लिए दिया जाता है। यह मूल्य खाद्यान्न के वास्तविक मूल्य (न्यूनतम समर्थन मूल्य + परिवहन खर्च + भंडारण खर्च) से बहुत ही कम होता है। परिणामतः सरकार को निर्गम मूल्य और वास्तविक मूल्य के अंतर, (जिस दर पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से बेचा जाता है) को स्वयं वहन करना पड़ता है, जिसे खाद्यान्न-अनुदान (Food Subsidy) कहते हैं, और यह अनुदान प्रतिवर्ष लगभग 75 हज़ार करोड़ की कीमत के रूप में होता है।
शुरुआती दौर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत सभी नागरिकों (उपभोक्ताओं) को खाद्यान्न मिलने की पात्रता थी जिसमें अनाज, चीनी, खाद्य-तेल का, सरकारी दुकानों या बिक्री केंद्रों से, बाजार-भाव से कम कीमत पर वितरण किया जाता था। जून 1992 में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरूस्त करने, दुरूपयोग और खाद्यान्नों की काला बाजारी रोकने तथा गरीबों एवं आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों पर ध्यान केंद्रित करने के उद्देश्य से एक "सुधरी हुई सार्वजनिक वितरण प्रणाली" देश के 1775 ब्लॉकों में शुरू की गयी। ये ब्लॉक ज्यादातर पिछडे और दूर-दराज इलाकों वाले थे।
वास्तविक मूल्य (Economic Cost) का 50% ही था। इसके साथ ही गरीबी रेखा से ऊपर वाले परिवारों के लिए भी खाद्यान्न मात्रा में वृद्धि की गयी।
गरीबी रेखा से नीचे वाले परिवारों की संख्या में वृद्धि, जनसंख्या गणना के रजिस्ट्रार जनरल के 01 मार्च 2000 के आँकड़ों के आधार पर की गयी। पहले यह 1995 के आँकड़ों पर आधारित थी। इस कारण रियायती दर पर खाद्यान्न के हकदार BPL परिवारों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई। जुलाई 2001 से इन परिवारों को दी जाने वाली खाद्यान्न की मात्रा में और वृद्धि करके 20 से 25 कि. ग्रा. प्रति परिवार कर दिया गया। खाद्यान्न वितरण योजना के प्रारंभिक अवसर पर जुलाई 2000 में अंत्योदय अन्न योजना (AAY) के पात्रों के लिए 25 कि. ग्रा. खाद्य सामग्री प्रतिमाह निर्धारित की गयी थी, इसके बाद अप्रैल 2002 से, घरों, परिवारों के स्तर पर खाद्य सुरक्षा को और भी ज्यादा सुनिश्चित करने के लिए सभी प्रकार की पात्रता (AAY, BPL, APL) वाले परिवारों को दिये जा रहे खाद्यान्न की मात्रा को एक बार फिर बढ़ा कर 35 कि.ग्रा. कर दिया गया।
लक्ष्योन्मुख सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत सभी राशन कार्ड-धारक, APL और BPL वर्गों में विभाजित कर दिये गये हैं। गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवार अनाज, चीनी और खाद्य-तेल, गरीबी रेखा से ऊपर वाले परिवारों को दिये जा रहे मूल्य से आधी कीमत में प्राप्त करते हैं। इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार ने एक और योजना AAY सन् 2000 में शुरू की है। इसके अंतर्गत सबसे निचले स्तर वाले 2.5 करोड़ BPL परिवारों को 35 कि.ग्रा. चावल 3 रुपए प्रति कि.ग्रा. और गेहूं 2 रुपए प्रति कि.ग्रा. सरकारी दुकानों से दिया जाने लगा है।
65 वर्ष से ऊपर की आयु वाले वरिष्ठ नागरिक, यदि राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना के सदस्य नहीं हैं तो 10 कि.ग्रा. खाद्यान्न निःशुल्क पाने के हकदार होंगे।
खाद्य सुरक्षा और खाद्य सब्सिडी
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के जुलाई 2013 के लागू होने के बाद से खाद्य सब्सिडी बिल 2014-15 के 133171.2 करोड़ रुपये से बढ़कर 2018-19 में 171127.5 करोड़ रुपये पहुंच गयी। वर्ष 2020-21 में खाद्य सब्सिडी के लिए 1,15570 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया जोकि वर्ष 2019-20 के संशोधित अनुमान की तुलना में 6.3% अधिक है। 2019-20 के बजट में खाद्य सब्सिडी के लिए 1,84,220 करोड़ रुपये आबंटित किए गए थे, हालांकि संशोधित अनुमान, बजट अनुमान से 1,08,688 करोड़ रुपये कम थे। इसका कारण 2019-20 के बजट चरण से संशोधित चरण में खाद्य सब्सिडी के आवंटन में की कटौती है (75,532 करोड़ रुपए की राशि)। वैसे भारत के खाद्य प्रबंधन को खाद्य सुरक्षा विशेषकर संवेदनशील वर्गों की चुनौतियों का सामना करते हुए खाद्य सब्सिडी को संगत बनाने पर बल देना चाहिए।
प्रायः एफ.सी.आई. स्टॉक्स बफर मानदंड से परे हैं, जिसका समय से समाधान किए जाने की आवश्यकता है। गरीबों की संख्या अधिक होने के कारण, खाद्य सुरक्षा बरकरार रखना अब भी एक चुनौती है। प्रारम्भ में तीन वर्षों की अवधि के लिए एन.एफ.एस.ए. के तहत निर्धारित दरों में 2013 से संशोधन नहीं किया गया है, जिसके परिणाम स्वरूप खाद्य सब्सिडी में तेजी से वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत इनकी दरों और विस्तार क्षेत्र में संशोधन किए जाने की आवश्यकता है।
लक्ष्योन्मुखी सार्वजनिक वितरण प्रणाली : मुद्दे और कारण
इस योजना की सबसे बड़ी कमी यह पायी गयी है कि BPL वर्ग का एक बड़ा भाग, रियायती दर पर राशन पाने से वंचित रह गया है। इस कारण योजना की व्यापकता पर प्रश्न उठ खड़े हुए हैं।
इस योजना में शामिल होने का आधार केवल आर्थिक है और यह बहुधा कम करके आँका जाता है या रिपोर्ट में शामिल किया जाता है। ऐसा इसलिए संभव है कि देश में राष्ट्रीय-आय-आँकड़ा जैसे डेटा-बेस का अभाव है। इस प्रकार के आरोप लगते रहते हैं कि राजनीतिक संरक्षण की वजह से अपात्र लोग भी BPL सूची में शामिल हो गये हैं। इस सूची में शामिल सभी परिवार, वास्तव में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले नहीं हैं, बल्कि बनाये गये हैं। बहुत निर्धन परिवारों की एक बड़ी संख्या, गरीबी रेखा के ऊपर रहने वाली सूची (APL) में शामिल कर दी गयी है और इसका कारण गरीबों का एक बड़ा वर्ग रियायती राशन पाने से वंचित रहा है।
इसके अतिरिक्त, गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों की जब आय बढ़ जाती है तो उन्हें तकनीकी रूप से इस सूची से बाहर हो जाना चाहिए, परंतु ऐसा नहीं होता। इस प्रकार BPL परिवारों की श्रेणी में रहने के पीछे रियायती राशन 'प्रोत्साहन' जैसा दिखता है और इस कारण कोई भी परिवार इससे बाहर नहीं जाना चाहता। अतः वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत "सिर्फ प्रवेश और बहिर्गमन नहीं" का सिद्धांत काम कर रहा है जिससे सरकार के ऊपर वित्तीय छूट देने का बोझ बढ़ता जा रहा है और "वास्तविक लाभार्थियों" तक योजना पूरी तरह से नहीं पहुंच पा रही है।
स्पष्टतः योजना में खामी नहीं है, बल्कि इसका क्रियान्वयन है जो असफल सिद्ध हुआ है। लाभार्थियों की सही पहचान, नकली राशन कार्ड आदि ऐसी समस्याएं हैं जिनके सुधार के लिए कोई कदम नहीं उठाये जा रहे हैं। एक सरकारी अनुमान के आधार पर नकली राशन कार्ड धारकों की संख्या लगभग 1.75 करोड़ आँकी गयी है।
एक दूसरी समस्या है, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के राशन की बड़े पैमाने पर काला-बाजारी, जमाखोरी और उसे खुले बाजार में बेचने की। सरकारी सूत्रों के अनुसार लक्ष्योन्मुखी सार्वजनिक वितरण प्रणाली (TPDS) का लगभग 20% राशन खुले बाजारों में बिक जाता है। इस खाद्यान्न की गुणवत्ता भी सवालों के घेरे में इसलिए है कि खाद्य निगम की भंडारण व्यवस्था असंतोषप्रद है।
TPDS अपने वर्तमान स्वरूप में न केवल अक्षम है, बल्कि उससे भी अहम बात है कि जिन गरीब परिवारों के लिए यह योजना बनी है उन तक राशन पहुंच ही नहीं पाता। बड़े पैमाने पर राशन की बर्बादी और राशन को भ्रष्टाचार द्वारा गलत दिशा में पहुंचा देना जैसी समस्याएं अपनी जगह है। विडंबना यह है कि भारत में जहां आवश्यकता से अधिक खाद्यान्न सुरक्षा भंडारों में खाद्यान्न जमा हो, सरकार द्वारा अत्यधिक रियायतें दी जा रही हों फिर भी देश में भुखमरी हो और 270 मिलियन गरीब निवास करते हों। क्या इसे भारत की “खाद्य सुरक्षा" कहा जा सकता है?
खाद्य सुरक्षा के लिए क्या कुछ करने की ज़रूरत?
सर्वप्रथम एक ऐसे तंत्र की आवश्यकता है, जिसके द्वारा गरीब जनता की सही पहचान की जा सके। "गरीबी रेखा के नीचे" का सूचक कार्ड, धारकों को अंतिम रूप से इसका पात्र बताने का प्रमाण है, परंतु यह निर्धारित करने में असफल रहा है कि इसके धारक वास्तव में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोग ही हैं। भारत में खाद्य सुरक्षा व्यवस्था के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती है।
सरकार ने "भारत विशिष्ट पहचान प्राधिकरण" (UIA of India) की स्थापना करके जीव पंजीकरण (Biometric) के माध्यम से 12 अंकों की एक विशिष्ट पहचान देने की महत्त्वाकांक्षी पहल की है। यह अपने-आप में इतने बड़े स्तर का, विश्व में अकेला, अनूठा प्रयास है जिसे 'आधार प्रोजेक्ट' के नाम से जाना जाता है। तथापि, यह विशिष्ट पहचान नंबर व्यक्ति की पहचान तो करेगा, परंतु वह निर्धन है या नहीं, और उसके उपभोग-खर्च का ब्यौरा क्या है, इसकी जानकारी नहीं दे सकता। और बिना इस जानकारी के पात्रता की पहचान नहीं हो सकती।
इस समस्या के हल का अब तक का सबसे अच्छा तरीका, जो सरकार ने प्रस्तावित किया है, वह है 'अपवर्जन का तरीका' (Exclusion Method), जिसमें आबादी के कुछ वर्गों को निर्धनता के कारण मिलने वाली खाद्य-सुरक्षा की पात्रता से अलग कर दिया गया है और इस प्रकार निर्धन पात्रों को पहचानने की प्रक्रिया के बजाय, पहले से चिन्हित वर्गों को निर्धन श्रेणी से अलग माना गया है। हालांकि कुछ वर्गों को निर्धनता की पात्रता से अलग करने की अवस्था पर आम सहमति आवश्यक होगी क्योंकि एकरूपता के लिए इस निर्णय को अलग-अलग राज्य सरकारों के विवेक पर नहीं छोड़ा जा सकता। एक राज्य किसी वर्ग-विशेष को निर्धनता की पात्रता से अलग कर देता है, वहीं दूसरा राज्य उसी वर्ग को शामिल भी कर सकता है। अतः यह आवश्यक है कि केंद्र सरकार इसके लिए सामान्य मानदंड आम सहमति के बाद सुनिश्चित कर दे और उसमें छोटे-मोटे सुधार राज्य सरकारों के विवेक पर छोड़ दे। जैसा कि पहले कहा गया है, खाद्य सुरक्षा को 'पोषण - सुरक्षा' (Nutrition Security) माना जाना चाहिए। कुपोषण से ग्रसित जनसंख्या को मात्र अनाज देना पर्याप्त नहीं है। सरकार का उद्देश्य न सिर्फ भोजन मुहैय्या कराना, बल्कि एक स्वस्थ आबादी तैयार करना होना चाहिए।
लक्ष्योन्मुखी सार्वजनिक वितरण प्रणाली (TPDS) जिसमें भंडारण, खाद्यान्नों की ढुलाई और अंततः गरीबों में वितरण, इन सारी प्रक्रियाओं में आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करते हुए पूरे देश में कम्प्यूटरीकृत निगरानी (ट्रैकिंग) की व्यवस्था होनी चाहिए। यद्यपि लाभ मुश्किल है परंतु सरकारी स्तर पर आधार कार्ड आधारित पूरी जनसंख्या का डाटा-बेस तैयार किया जा सकता है। इसके बाद खाद्यान्न मैनेजमेंट प्रणाली संभव है।
निकट भविष्य में खाद्यान्न भंडारण क्षमता में 15-20 मिलियन टन की वृद्धि करने कि आवश्यकता है। भंडारण, भंडारण की सुविधाएं, खाद्यान्न ढुलाई और प्रभावी डिलेवरी चेन की व्यवस्था में सुधार के लिए सरकारी एवं निजी क्षेत्र की भागीदारी का मॉडल (PPP) अमल में लाने की आवश्यकता है।
सरकार द्वारा किसी भी प्रकार के रियायती मॉडल में चूक होने के भरपूर अवसर होते हैं चाहे उन्हें रोकने की कितनी भी व्यवस्था क्यों न कर दी जाए। रियायतें सही पात्रों तक पहुंचाने का एक बेहतर तरीका यह हो सकता है कि निर्धन वर्ग को दी जाने वाली रियायत की सहायता सीधे उनके पास पहुंचे। उदाहरणस्वरूप यदि सरकार निर्धन परिवारों को 3रु प्रति कि.ग्रा. चावल देना चाहती है और बाजार भाव 15रु प्रति कि.ग्रा. है उस स्थिति में रियायत के 12रु निर्धन पात्रों को सीधे उनकी आय के रूप में पहुंचाये जा सकते हैं। यह तभी संभव है जब सरकार उन पात्रों को चिन्हित कर चुकी हो और उनके बैंक खाते का ब्यौरा उपलब्ध हो ताकि रियायत की राशि सीधे उनके खाते में पहुंच सके। इसके अतिरिक्त यह भी एक तरीका हो सकता है कि निर्धन व्यक्तियों को स्मार्ट-चिप वाले कार्ड दे दिये जाएं जिसमें रियायत के बराबर की आर्थिक मूल्य उसमें उपलब्ध हो जिससे कि वे बाजार भाव पर निर्धारित मात्रा में अनाज खरीद सकें।
अंततः सैद्धांतिक रूप से खाद्य सुरक्षा को इस कहावत को चरितार्थ करनी चाहिए व्यक्ति को मछली खाने के लिए नहीं देनी चाहिए, बल्कि उसे मछली पकड़ना सिखाना चाहिए ताकि फिर उसे मांगने की आवश्यकता न पड़े।
भारत की समस्याओं तथा केंद्र बिंदु है, रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना। भारत को इस दिशा में प्रयास करना है कि अधिकांश जनसंख्या को दीर्घकालिक खाद्य सुरक्षा चक्र में लाया जा सके। इसके लिए उनकी सापेक्ष योग्यता के अनुसार उन्हें जीवनयापन का अवसर मिले और अपनी आय से, इच्छानुसार खाद्यान्न खरीद कर खा सके। इसके लिए कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी करके आपूर्ति श्रृंखला को सुदृढ़ करने की जरूरत है जिससे कि 'न्यूनतम पोषण-पैकेज' उचित मूल्य पर निर्धन परिवारों के लिए हमेशा उपलब्ध हो सके।
सरकारी रियायती खाद्यान्न उन दिव्यांगों, वरिष्ठ नागरिकों और इस प्रकार के लोग जो स्वयं जीविकोपार्जन करने में असमर्थ हैं, को उपलब्ध कराना चाहिए और ऐसा एक अपवाद के रूप में न होकर एक सामान्य नियम की तरह होना चाहिए।
खाद्य सुरक्षा को एक विस्तृत संदर्भ में देखना चाहिए जिसमें भूख, कुपोषण, अत्यंत निर्धनता, आपूर्ति श्रृंखला की कमियाँ, पात्रों की सही पहचान आदि सब कुछ सम्मिलित रूप से लोगों का जीवन स्तर ऊपर करने में सहायक हो और देश में 'अत्यंत-निर्धनता' वर्ग-श्रेणी समाप्त हो सके।
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