"सार्वलौकिकता, निःशर्तता और बृहत्तर (सामाजिक) भूमिका किसी भी सार्वलौकिक आधारिक आय UBI कार्यक्रम के प्रमाण चिन्ह होते हैं। इन्हीं पर आधारित, “प्रत्येक आँख के आँसू" पोछने का विचार सैधान्तिक स्तर पर बहुत आकर्षक है। किन्तु इसे लागू करने में अनेक चुनौतियां आएंगी, सबसे बड़ी जोखिम तो यही है कि UBI अभी चल रहे गरीबी निवारक कार्यक्रमों का प्रतिस्थापन करने के स्थान पर उनके साथ ही जुड़ जाएगा। इस प्रकार यह राजकोषीय अर्थक्षमता के लिए असह्य हो जाएगा। फिर वर्तमान कार्यक्रमों की बहुलता, लागतें और संदेहास्पद प्रभावोत्पादकता तथा निरंतर तेजी से JAM संरचना तंत्र के विकास को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि UBI वर्तमान सामाजिक दशा बड़ा सुधार ला सकता है।
परिचय
भले ही भारत स्वतंत्रता प्राप्ति के समय के गरीबी अनुपात को 70 से घटाकर 22 प्रतिशत (तेंदुलकर समिति), (वर्ष 2011-12), तक ले आया हो किन्तु 'प्रत्येक आँख के आँसू पोछने' का विचार तो कुछ एक कैलोरी खा भर लेने से कही अधिक व्यापक है। और महात्मा ने उसे सभी मार्क्सवादियों, बाजार के मसीहाओं, भौतिकवादियों तथा व्यवहारवादियों से पहले, बेहतर और अधिक गहराई से समझ लिया था। उन्होंने इसे अंतर्निहित रूप सम्मान, दौर्बल्यहीनता, आत्मसंयम एवं स्वातंत्र्य तथा बौद्धिक-मानसिक बोझ से मुक्ति का स्वरूप प्रदान कर दिया था। उस दृष्टि से नेहरू का यह आह्वान कि "जब तक आँसू (बह रहे हैं) कष्ट है, हमारा कार्य संपूर्ण नहीं होगा" आज स्वतंत्रता के 70 वर्ष बाद भी उतना ही सत्य प्रतीत होता है।
गांधीजी के लक्ष्य की प्राप्ति का एक विकल्प आज भारत ही नहीं सारे विश्व के नीति-निर्माताओं को आन्दोलित कर रहा है। यह है सार्वलौकिक आधारिक आय, संक्षेप में UBI का विचार। इस UBI के तीन घटक हैं: सार्वलौकिकता, निःशर्तता और बृहतर भूमिका (अर्थात नकद अन्तरण द्वारा समाज के सदस्यों के चयनों का सम्मान करना, उनपर अपने आदेश थोपना नहीं)।
UBI पक्ष संकल्पनात्मक/दार्शनिक तर्क
UBI सामाजिक न्याय और उत्पादन अर्थव्यवस्था विषयक चिन्तनों में एक अत्यंत ही क्रांतिकारी परिवर्तन का विचार है। इसका आधार इस मान्यता पर टिका है कि एक न्यायपूर्ण समाज को अपने प्रत्येक सदस्य को व्यक्तिगत रूप से इतनी आय अवश्य सुलभ करानी चाहिए जिसपर वह भरोसा कर सके और जो उसे जीवन के लिए आवश्यक भौतिक पदार्थ और सुविधाओं के साथ-साथ उस जीवन को सम्मानपूर्वक व्यतीत करने योग्य बनाने में समर्थ हो। अनेक अधिकारों की भांति UBI भी निःशर्त और सार्वलौकिक है। इसका आग्रह है कि प्रत्येक व्यक्ति को, नागरिक होने मात्रा से, उसकी आवश्यकताएं पूर्ण करने योग्य आय पाने का अधिकार है। अनेक कारणों से UBI पर चिन्तन मनन करने का समय आ गया
सामाजिक न्याय:
UBI एक न्यायपूर्ण और शोषण मुक्त समाज की पहल और सर्वोच्च कसौटी है। एक सार्वलौकिक आधारिक आय व्यक्ति को स्वतंत्र और समान मान कर उसका सम्मान करने वाले समाज के अनेक आधारभूत जीवन मूल्यों का संवर्धन-पोषण करती है। यह पितृवाद विरोधी होने के कारण स्वातंत्रय को बढ़ावा देती है और श्रम बाजार में नम्यता की संभावना का सूत्रपात करती है। सरकारी अन्तरणों में बर्बादी घटाकर यह दक्षता में वृद्धि करती है। यही नहीं, कतिपय परिस्थितियों में तो यह उत्पादिता में भी वृद्धि कर सकती है। यह कोई आकस्मिकता नहीं है कि वाम एवं दक्षिण पंथी विचारकों (दोनों) ने इस UBI के विचार को अंगीकार कर लिया है।
गरीबी निवारणः
यदि एक सुचारू रूप से चल रही वित्त व्यवस्था विद्यमान हो तो UBI गरीबी निवारण की सबसे शीघ्र प्रभावी कार्य विधि हो सकती है। यही नहीं, भले ही यह बात विस्मयपूर्ण लगे, भारत जैसे देश में तो UBI सबसे अधिक व्यवहारिक गरीबी निवारण विधि भी बन सकती है। इसे अपेक्षाकृत निम्न आय स्तर पर नियत करने पर भी अतिविशाल स्तर पर क्षेम लाभ संभव है।
रोजगारः
अब यह भी स्वीकार किया जा चुका है कि रोजगार सृजन की अनिश्चित संभाव्यता के परिवेश में तो UBI द्वारा न्यूनतम जीवन स्तर की गारंटी देने के सामाजिक दायित्व का वहन भी हो जाता है। यही नहीं, UBI श्रम बाजार में नई संभावनाओं का प्रवर्तन भी कर सकती है। व्यक्तियों को हितलाभ गंवाने की आशंका के बिना श्रम बाजार से अपना संबंध आंशिक या क्रमिक बनाने की नम्यता मिल जाती है। इससे जो सौदेबाजी क्षमता उन्हें मिलती है उसमें उनके शोषण की संभावना कम रह जाती है। अब व्यक्ति का गुजारा तो हो ही रहा है। अतः उसे किसी भी प्रकार की शर्ते स्वीकार कर काम पाने की विवशता नहीं रहती।
प्रशासनिक दक्षताः
भारत में वर्तमान क्षेम कार्यों में छाए हुए अप आवंटन, क्षरण और गरीबों के उनसे बाहर रह जाने की गंभीर त्रुटियों के कारण UBI अपनाने के पक्ष का तर्क और भी सशक्त हो गया है। जब जनधन, आधार और मोबाईल की त्रिमूर्ति JAM पूर्ण रूप से समाज में स्थापित हो जाएगी तब तो UBI को लागू करना प्रशासकीय दृष्टि से और भी सरल एवं दक्ष हो जाएगा। किन्तु प्रशासन विषयक तर्क देते समय कुछ और सतर्क रहने की आवश्यकता है। आधार की रचना एक पहचान पत्र के रूप में की गई है। यह स्वमेव में किसी कार्यक्रम के हितलाभों को लक्षित नहीं कर पाएगा। यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि UBI लागू करने से सरकार के तंत्र की क्षमताओं के विकास की आवश्यकता कम नहीं हो जाएगी: उसे अभी भी अनेक जनसेवाएं प्रदान करने की अपनी क्षमताओं का विकास-संवर्धन करना होगा। UBI प्रशासन तंत्र की क्षमता की प्रतिस्थापक नहीं हैं, यह तो केवल इतना सुनिश्चित करती है कि सरकार के क्षेम अंतरण अधिक दक्षतापूर्ण हो जाए और वह अन्य सार्वजनिक पदार्थों की रचना सुदृढ़ करने पर अपना ध्यान केंद्रित रख सके।
UBI के विपक्ष में संकल्पनात्मक तर्क
आर्थिक दृष्टि से एक सार्वलौकिक आधारिक आय के तीन मुख्य और परस्पर संबंधित तर्क दिए जा सकते हैं। सबसे पहला यह है कि क्या UBI से काम करने की संप्रेरणा कम होगी। यह तर्क बेहद अतिशयोक्तिपूर्ण है। पहली बात तो यही है कि जिन स्तरों पर UBI नियत होगी, वह तो हद से हद एक न्यूनतम गारंटी का स्तर होगा। यह कार्य करने की संप्रेरणाओं को समाप्त या कम नहीं कर पाएगा। ऐसे विचार भी सामने आ सकते हैं कि यह कहना कि मनुष्य केवल अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए काम करता है, उसका अपमान है और कि इस विवशता के भार को उसके कंधों से उतारने भर से वह सुस्त हो जाएगा। ऐसे ही तर्क उच्च मजदूरी के विरुद्ध भी दिए जाते थे कि मजदूरी दर एक स्तर से अधिक होने पर तो श्रमिक आराम पसंद हो जाएंगे। किन्तु उक्त विचार की पुष्ट करने के लिए कोई साक्ष्य सुलभ नहीं हैं।
दूसरी चिन्ता यह है: क्या आय का रोजगार से नाता तोड़ देना चाहिए? इसका ईमानदारीपूर्ण आर्थिक उत्तर तो यही है कि समाज आज भी यही तो कर रहा है, किन्तु केवल धनिक एवं विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों के लिए। कोई ऐसा समाज, जो उत्तराधिकार और बिना काम के आय स्वीकार करने की अनुमति देता हो, पहले ही आय और रोजगार का संबंध विच्छेद कर चुका है। अतः सरकार से छोटी सी अनार्जित आय पाना समाज द्वारा अनुमित विशाल एवं विविधतापूर्ण अनार्जित आयों की अपेक्षा कही कम आर्थिक एवं नैतिक दुविधापूर्ण होना चाहिए।
तीसरा तर्क, चिन्ता तो प्रतिचिन्ता ही है। यदि समाज सचमुच एक "सामाजिक सहयोग तंत्र" है तो क्या आय को निःशर्त होना चाहिए? इसका व्यक्तियों के समाज के लिए योगदान से कोई संबंध नहीं होना चाहिए। संक्षिप्त सा उत्तर यही है कि व्यक्ति पूर्व उल्लेखित रूप में समाज को अपना योगदान देते ही रहेंगे। वस्तुत: UBI के हम समाज के प्रति गैर-मजदूरी योगदान की अभिस्वीकृति भी मान सकते हैं।
उदाहरण के लिए, वर्तमान समय में गृहणियों का परिवार के निर्माण एवं संचालन में योगदान आर्थिक दृष्टि से अनाभिस्वीकृत ही रह जाता है, क्योंकि उनका काम किसी मजदूरी अनुबंध पर आधारित नहीं होता। यह बात भी महत्वपूर्ण है कि UBI की रचना धनी से गरीब को अंतरण की नहीं है। यह बहुत ही अलग है। UBI इस विचार को एक स्थूल रूप प्रदान करती है कि हम सभी नागरिक होने मात्रा से एक न्यूनतम आय पाने के अधिकारी हो जाते हैं। यह एक सांझे प्रकल्प के रूप में समाज की अभिस्वीकृति मात्रा है। यह अधिकारिता आग्रह करती है कि समाज की आर्थिक रचना का निरूपण इस प्रकार हो कि प्रत्येक व्यक्ति को आधारिक आय अवश्य प्राप्त होती रहे। ये सभी तर्क वस्तुतः यही कह रहे हैं कि UBI वास्तव में सार्वलौकिक एवं निःशर्त हो और इसे सीधे अंतरण द्वारा ही लागू किया जाए।
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