वर्ष 2008 से शुरू हुआ वैश्विक आर्थिक संकट, विश्व के आर्थिक इतिहास में, यहां तक कि वर्ष 1929-33, की आर्थिक मंदी से कहीं अधिक, विस्तृत रूप से प्रभाव डालने वाला और विश्व की अर्थव्यवस्थाओं को अस्थिर करने की क्षमता वाला साबित हुआ। इस महान आर्थिक संकट के परिणामस्वरूप अमेरिकी उत्पादन का स्तर नीचे गिर गया जिसके कारण विश्व में बहुत बड़े पैमाने पर बेरोजगारी पनप उठी। हालांकि इसका प्रभाव ज्यादातर अमेरिका और यूरोप के क्षेत्रों तक सीमित रहा।
एशियाई अर्थव्यवस्थाओं पर इस आर्थिक संकट का प्रभाव बहुत कम रहा है, इसका कारण इनका छोटा आकार, अधिकतर औपनिवेशिक शासन के अंदर रह चुके तथा इनका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर छोटा कद आदि कहे जा सकते हैं। इन सब सम्मिलित कारणों से आर्थिक संकट का दुष्प्रभाव नगण्य रहा। इसी प्रकार अन्य संकट, सापेक्ष रूप से अपनी-अपनी भौगोलिक सीमाओं तक सीमित रहीं और इसी के बाद “अपयुग्मन का सिद्धांत" (De-coupling Theory) की अवधारणा विकसित हुई। इसमें यह प्रतिपादित किया गया कि अर्थव्यवस्थाओं के लिए यह संभव है कि वे स्वयं को विश्व के विभिन्न देशों में उत्पन्न हो रहे आर्थिक उथल-पुथल से कवचित रखें अथवा कोई अर्थव्यवस्था, स्वयं के 'अपयुग्मन' (De-couple) करने की क्षमता रख सकती है।
अपयुग्मन का सिद्धांत, शुरुआती दौर के आर्थिक संकटों के दौरान उपयुक्त रहा, परंतु इस सिद्धांत की परीक्षा, वर्ष 1970 के दशक में कच्चे तेल के मूल्य के झटके के दौरान हुई, जब विश्व की ज्यादातर अर्थव्यवस्थाएँ इससे प्रभावित हुई थीं।
विश्व आर्थिक संकट ने इस मिथक को तोड़ दिया जिसमें वर्तमान को वैश्वीकरण और एकीकरण के युग में, किसी अर्थव्यवस्था के लिए यह संभव नहीं है कि वह सबसे अलग-अलग या अपयुग्म की अवस्था में, वैश्विक घटनाक्रम से बिना प्रभावित हुए रह सके। इस उथल-पुथल का किसी भी अर्थव्यवस्था पर कितना प्रभाव पड़ेगा, इसमें अंतर हो सकता है, परंतु अर्थव्यवस्था स्वयं को कवचित नहीं रख सकती। इस प्रकार, इस विपरीत उथल-पुथल को 'वैश्विक संकट' कहने के साथ "वैश्विक मंदी" या 'सब-प्राइम संकट' के नामों से भी जाना गया।
सबसे पहले यह वित्तीय क्षेत्र के संकट के रूप में और धीरे-धीरे, विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं के अलग-अलग क्षेत्रों में फैलता चला गया। वैश्विक स्तर पर, वित्तीय क्षेत्र को अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी समझा जाता है जिसके ऊपर अन्य क्षेत्र, वित्त के लिए पूरी तरह आश्रित हैं। इस क्षेत्र की मजबूती, अर्थव्यवस्था की संवृद्धि की क्षमता में है। वित्तीय क्षेत्र के किसी भी संकट से, शेष अर्थव्यवस्था का कवचित नहीं किया जा सकता।
वैश्विक वित्तीय संस्थान पिछले काफी अर्सो में विश्व की विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं में अपनी पैठ बना चुक है। आज इनकी जटिलता बढ़ चुकी है और विविध प्रकार के जोखिम भरे उत्पादों का बहुत ही मामूली लाभ पर व्यापार होता है जिससे वित्तीय क्षेत्र को काफी झुकाव और स्वयं को, रबर बैंड की अंतिम सीमा तक खींचना पड़ता है।
ये वित्तीय संस्थान न केवल गहरी पैठ और व्यापक रूप से फैले हुए हैं, बल्कि इनका मकड़जाल तरह इस प्रकार का है कि समझना मुश्किल है। इनके व्यापार में, अत्यंत जोखिम वाले उत्पाद का अथवा व्युत्पत्तिक (Derivative) या कहं प्राप्त होने वाले मूल्य का आधार किसी छिपी परिसंपत्ति, (Underlying asset) की शक्ति पर आधारित होता है। यह विनिमय दर, बाड, शेयर अथवा पदार्थों के रूप में हो सकता है।
यहा साख-व्युत्पत्तिक (credit derivative) का मामला नहीं है, बल्कि बैलेंस शीट का कई गुना अधिक विस्तार, उस होने वाले हादसे का पूर्वाभास था जोकि घटित होने वाला था। बस उसे सुलगाने वाली चिंगारी का इंतजार था। यहां यह जानना रुचिकर होगा कि आर्थिक संकट के पूर्व, व्युत्पत्तिक बाजार (derivative market) का आकार 600 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का हो चुका था जोकि वर्ष 2007 में वैश्विक उत्पादन से 11 गुना ज्यादा था।
अमेरिका के पाँच शीर्ष बैंकों की कुल परिसंपत्ति, 4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर थी जबकि उनकी कुल पूँजी 200 बिलियन अमेरिकी डॉलर थी अर्थात् 21 गुना अधिक उत्तोलन (leverage) पर टिकी थी। इनका व्युत्पत्तिक बाजार में सम्मुखता (Exposure), 90 गुना अधिक उत्तोलन पर केंद्रित थी। यह एक अत्यधिक - उत्तोलन वाली व्यवस्था थी जिसकी तुलना उल्टी दिशा में रखे पिरामिड से की जा सकती है जो अपनी नोक पर टिका है और जरा भी असंतुलन होने पर धड़ाम से नीचे गिरने की अवस्था में है।
इस संकट का 'ट्रिगर-प्वाइंट', सब-प्राइम कर्जदारों द्वारा अमेरिका में बंधक रख कर लिये गये कर्ज की वापसी न कर पाना था। इसके विरुद्ध, बंधक आधारित सिक्यूरिटिज (Mortgage Based Securities) को अनेक बार, टुकडों में, बैंकों द्वारा बेचा जा चुका था। यही बेचने का काम निवेशक बैंकर्स और दूसरे अन्य वित्तीय संस्थानों द्वारा, जोकि पूरे विश्व की अर्थव्यवस्थाओं में रचे-बसे थे, किया जा चुका था। यहां तक कि इन संस्थाओं का अता-पता लगाना भी, उन बैंकों द्वारा, असंभव था जिन्होंने उन्हें इन प्रतिभूतियों को बेचा था।
इन सबके परिणामस्वरूप, शृंखलाबद्ध प्रतिक्रिया (Chain Reaction) ऐसी शुरू हुई कि रातों-रात, बड़े, प्रतिष्ठित वित्तीय संस्थान जैसे लेहमेन ब्रदर्स, AIG, बियर एण्ड स्टियर्नस्, जनरल मोटर्स आदि बंद होने की कगार पर आ गये या बंद हो गये और कई प्रतिष्ठित बैंकों में ताला लग गया, स्टॉक मार्केट ध्वस्त हो गये और इसलिए इस घटनाक्रम को वैश्विक-मंदी की संज्ञा दी गयी।
यहां यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि अमेरिकी और यूरोप की सरकारों को बाजार ध्वस्त होने के बाद, (न कि पहले) पता चल सका था और इसी लिए कोई निरोधात्मक उपाय, सरकारी स्तर पर नहीं किया जा सका। इस आर्थिक संकट की शुरुआत से, 157 अमेरिकी बैंकों में ताला लग चुका है। यह कहा जा सकता है कि इस संकट का केंद्र-बिंदु (epicentre) अमेरिका में था, परंतु इसका कंपन पूरे विश्व की अर्थव्यवस्थाओं में महसूस किया गया।
ये सब-प्राइम कर्जदार कौन हैं? यह लोगों का वह वर्ग है जो कर्ज लेकर, अदायगी में गलती करते हैं, उनके पास कर्ज वापसी का कोई जरिया नहीं है अथवा सीधे-सीधे, उपभोग के उद्देश्य से कर्ज लिया है, परंतु इन्हें कर्ज दिया ही क्यों जाय? यह "उपभोग आधारित संवृद्धि" का अमेरिकी माडल था- ज्यादा उपभोग, ज्यादा उत्पादों और सेवाओं की माँग और इसके फलस्वरूप ज्यादा उत्पादन।
अमेरिकी अर्थव्यवस्था में पूर्व में धीमी संवृद्धि के जवाब में, अमेरिकी बैंकों ने कर्ज देने में, आक्रामक रूख अख्तियार कर लिया, इस विश्वास पर कि उनका वित्तीय क्षेत्र बहुत मजबूत है और वह संतुलित करने में सक्षम है। इससे उनका जोखिम, उनके जटिल और उलझे उत्पादों के माध्यम से बढ़ता गया।
अतः इस संकट के क्या कारण हो सकते हैं? क्या यह कहें कि ऐसा, वैश्विक वित्तीय एकीकरण के कारण हुआ या फिर सब-प्राइम कर्जदारों को कर्ज देने के कारण या इन सब मिले-जुले कारणों से यह आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ। इन सभी कारणों का अपना-अपना योगदान तो रहा ही, परंतु निम्न पांच कारण, जिनका आधिक्य (excesses) देखा गया, वह इस प्रकार थे-
1. अत्यधिक अतिउत्तोलन
2. अत्यधिक तरलता
3. अत्यधिक जटिल उत्पाद
4. वित्तीय व्यवस्था में अत्यधिक विश्वास
5. वित्तीय व्यवस्था का अत्यधिक लालची होना ।
सबसे पहला कारण था- बहुत ही ऊंची अतिउत्तोलित वित्तीय व्यवस्था जोकि एक उल्टे पिरामिड की भांति, नोक पर टिकी थी और ढांचागत रूप से असंतुलित थी। दूसरा कारण स्वतंत्र वित्तीय बाजार एवं वित्तीय संस्थाओं द्वारा अतिउत्तोलन की स्थिति में बिना किसी नियमन व्यवस्था के होना। तीसरा कारण, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों का यह अति-विश्वास कि कुछ भी गड़बड़ नहीं हो सकता।
सब प्राइम कर्जदारों ने इस अनपेक्षित संकट के लिए ट्रिगर-प्वाइंट का काम किया, परंतु जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, यह संकट उत्पन्न होने के इंतजार में था।
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