देखा गया है कि सामाजिक क्षेत्र, वित्त के संघटित क्षेत्रों (जैसे बैंकों) से अपनी धन की आवश्यकता पूरी नहीं कर पाते, ऐसा कई कारणों से होता है अत्यधिक कागजी कार्रवाई, भारी-भरकम प्रणाली और बहुत सारे कागजातों की जरूरत। इनके स्थान पर लघु-उधार-एजेंसियां, समस्या के एक हल के रूप में देखी जा सकती हैं जो कि सामाजिक क्षेत्र के साथ ही गरीबी उन्मूलन में भी सहायक सिद्ध होंगी। इन आर्थिक संस्थानों की अवधारणा के जनक बंग्लादेश के नागरिक, श्री मोहम्मद यूनुस हैं, जिन्हें इस कार्य के लिए नोवेल पुरस्कार भी दिया गया है। उनकी सोच थी कि बैंक अर्थव्यवस्था की आखिरी इकाई तक नहीं पहुँच सकते और गरीबों के उत्थान, विशेषकर ग्रामीण महिलाओं के संदर्भ में, सहायक नहीं हो सकते |
भारत में “स्वयं सहायता समूह" (SHG) अभियान, नाबार्ड (NABARD) के तत्वावधान में बैंक के मिले-जुले प्रयास से 1992 में प्रारंभ हुआ। इस योजना के अंतर्गत प्रदान किये जाने वाले ऋण को बचत के साथ जोड़ा गया है और इसका केंद्र-बिंदु है 'क्षमता निर्माण'। इसमें कम ब्याज दर (8-10%) पर ऋण दिया जाता है और उसकी मासिक अदायगी की जाती है। इस योजना की एक खास बात और है कि इसमें ऋण अदायगी की जिम्मेदारी समूह की है, न कि व्यक्ति की। स्वयं-सहायता-समूह अभियान के अंतर्गत देश के 90 मिलियन परिवारों को दायरे में लाया गया है और कुल 25 हजार करोड़ का ऋण बांटा जा चुका है।
लघु वित्तीय संस्थाएं (Micro Finance Institutions) गरीबों को ऋण देने वाली वे संस्थाएं हैं, जिनकी ब्याज दरें सामान्य से ज्यादा हैं, परंतु साहूकारों द्वारा लिये जाने वाली दरों से कम होती हैं। इन संस्थाओं की ओर सरकार का ध्यान ही 2003 में गया है और पिछले 7 वर्षों में इनका व्यापक प्रसार हुआ है। इनके द्वारा, इस दौरान 30 मिलियन गरीब परिवारों को लगभग 30 हजार करोड़ ऋण उपलब्ध कराया गया है। सूक्ष्म आर्थिक प्रबंध के अंतर्गत लघु-वित्तीय संस्थानों को स्वयं सहायता समूहों के पार्टनर के रूप में देखा जा रहा है। साथ ही इसे आम-जन को वित्तीय व्यवस्था में 'आर्थिक समावेश' (Financial Inclusion) का एक बड़ा कदम भी बताया जा रहा है। आर्थिक समावेश से आशय गरीबों को अर्थव्यवस्था के संगठित माध्यमों के उपयोग की सुविधा दिलाना है ताकि कर्ज देने वाले साहूकारों पर उनकी निर्भरता कम हो सके और उन्हें एक नियमित आय का साधन मिले, बेरोजगारी कम हो और वे गरीबी चक्र से बाहर निकल सकें।
तथापि, हाल के समय में लघु वित्तीय संस्थानों ने, विशेषकर आंध्र-प्रदेश में स्थित संस्थानों ने वित्तीय व्यवस्था का एक नया पहलू प्रस्तुत करके कुछ मूलभूत प्रश्न खड़े कर दिये हैं-
- इन संस्थाओं का मुख्य इरादा ऊँचे लाभ कमाना है। ऐसा वे ऊँची ब्याज दरों पर ऋण देकर, (साहूकारों के ब्याज दर से थोड़ा ही कम) करते हैं।
- लघु वित्तीय संस्थान जनसंख्या के उस हिस्से तक पहुंचे हैं जिन्हें बैंकों ने उपेक्षित कर रखा है, परंतु यह भी सत्य है कि वे बैंकों के प्रयास के पूरक के रूप में नहीं हैं। समाज के जिस क्षेत्र एवं वर्ग तक बैंक पहले से ही पहुंचे हैं, वहां पर इन लघु वित्तीय संस्थानों का भी जमावड़ा हो रखा है।
- लघु वित्तीय संस्थाएं ऋण देने के लिए आसान विकल्प, जैसे कि स्वयं सहायता समूहों, का माध्यम तलाश करती हैं। इससे लेनदारों पर बहु-वित्त-प्रबंधन और ऋण के बोझ की समस्या आ पड़ती है।
- लघु वित्तीय संस्थानों के काम करने की शैली आक्रमक है और वे उपभोक्ता उन्मुखी-ऋण ज्यादा देते हैं, बजाय कि उत्पाद-उन्मुखी ऋण के। इस कारण इनकी तुलना निजी बैंकों द्वारा ऋण देने तथा अमेरिकी बैंकों द्वारा प्रमुखता वाले ग्राहकों को ऋण देने से की जा सकती है।
No comments:
Post a Comment