Thursday, May 20, 2021

तरलता क्या है What is Liquidity | Indian Economy

एक बैंक, आमलोगों से धन जमा करता है और उसे अर्थव्यवस्था में उधार के रूप में देता है। बैंकों के पास जमा धन का वह भाग, जिसे संभावित रूप से उधार-स्वरूप दिया जा सकता है, उसे तरलता कहते हैं। अपने पास जमा राशि को बैंक, कई प्रकार से, अर्थव्यवस्था के अंदर उधार देने के लिए प्रस्तुत करते हैं, इसे 'परिसंपत्ति निर्माण' (Asset Creation) कहते हैं। यह परिसंपत्ति निर्माण, अर्थव्यवस्था में नयी धनराशि के इंजेक्शन के समान है और इससे मुद्रास्फीतिक दबाव पैदा होता है। अतः तरलता, अर्थव्यवस्था में एक संतुलन स्थापित करने वाली होनी चाहिए जो संवृद्धि की आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ, मूल्य-नियंत्रण में भी सहायक हो। रिजर्व बैंक के क्रिया-कलापों में तरलता-प्रबंधन का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। 

भारतीय रिजर्व बैंक, देश का शीर्ष केंद्रीय बैंक है, जिसका कार्य सरकार एवं अन्य बैंकों के लिए, बैंकर का है। मुद्रा की छपाई की जिम्मेदारी इसी बैंक की है और बैंकिंग क्षेत्र के सारे क्रिया-कलाप पर निगरानी रखना भी इसी के अधिकार क्षेत्र में आता है। इसी के साथ, तरलता-प्रबंधन में भी इसकी अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। 

पहले यह समझना आवश्यक है कि बैंकों में जमा धन, तरलता का स्रोत है। यह जमा धन या तो 'माँग' आधारित (Demand) (ग्राहक द्वारा माँगे जाने पर धन तुरंत प्रदान करना जैसे बचत-खाते में रखा धन कभी भी निकाला जा सकता है) या सावधि-जमा, अर्थात् 'समय' आधारित होता है जैसे फिक्सड् डिपॉजिट, जिसे एक निश्चित समय-सीमा के बाद निकाला जा सकता है। 'माँग' एवं 'समय' आधारित, दोनों ही जमा राशि बैंक की देनदारी की श्रेणी में आता है क्योंकि इसे बैंक को, ग्राहकों को वापस लौटाना है। 

अतः उपरोक्त दोनों ही प्रकार की जमा राशि, बैंकों की 'मांग और समय आधारित देनदारी है। बैंकिंग व्यवस्था में, यह 'माँग और समय' देनदारी, तरलता बढ़ाने का स्रोत है। यदि इस पर अंकुश नहीं रखा गया तब यह बढ़ती ही जायेगी। रिजर्व बैंक, जनता को बैंक में धन जमा करने से नहीं रोक सकता क्योंकि यह तरलता का स्रोत है और न ही वह बैंकों को उधार देने पर पाबंदी लगा सकता है क्योंकि यदि बैंकों ने उधार देना बंद कर दिया तो वे जमा राशि पर ब्याज नहीं दे पायेंगे और साथ ही वे मुनाफा भी नहीं कमा पायेंगे जिससे उनकी भविष्य में बढ़ोतरी प्रभावित होगी। भारतीय रिजर्व बैंक के पास कुछ परिमाणात्मक एवं गुणात्मक औजार हैं जिनसे वह तरलता को नियंत्रित करता है। इनका विवरण इस प्रकार है- 

1. आरक्षित नकदी निधि अनुपात (Cash Reserve Ratio): 

सभी बैंकों को 'मांग और समय आधारित देनदारी' का कुछ प्रतिशत, नकद रूप में रिजर्व बैंक के पास रखना होता है। इसे रिजर्व बैंक, कभी बढ़ा कर अधिक तरलता को नियंत्रित करता है तो कभी घटा कर अर्थव्यवस्था में तरलता बढ़ाता है। 

उदाहरणस्वरूप, बैंकों में 5 लाख करोड़ रु. की पब्लिक-जमाराशि-आधार पर यदि CRR में 1% की वृद्धि की जाती है तो एक झटके में, 50 हजार करोड़ रु., बैंकिंग व्यवस्था से निकल कर रिजर्व बैंक के खाते में चले जायेंगे और बैंक उनका उपयोग कर्ज देने के लिए नहीं कर सकेंगे। यहां तक कि मात्र 0.25% बढ़ोतरी का आशय है 12,500 करोड़ रु. बैंकिंग व्यवस्था से बाहर चले जायेंगे। इतनी बड़ी मात्रा में धनराशि का अभाव, बैंकों की कर्ज देने की क्षमता प्रभावित करेगा, औद्योगिक वृद्धि धीमी हो जायेगी और यहां तक कि अर्थव्यवस्था में मंदी की स्थिति पैदा हो सकती है। 

अत: CRR का मौद्रिक औजार के रूप में प्रयोग रिजर्व बैंक को अत्यंत सावधानी से करना पड़ेगा जिसमें उसको अर्थव्यवस्था के सभी पहलुओं का ध्यान रखना पड़ेगा और मुद्रास्फीति के भय से तरलता का घटाना ही एकमात्र तरीका अपनाना चाहिए। किसी भी देश के केंद्रीय बैंक CRR का बहुधा प्रयोग, खासकर उसमें वृद्धि, अर्थव्यवस्था में एक नकारात्मक संदेश भेजता है। CRR में परिवर्तन, अत्यंत विशेष परिस्थितियों या अर्थव्यवस्था में विपरीत स्थितियों में ही किया जाना चाहिए न कि इसे एक मौद्रिक-औजार के रूप में, तरलता-प्रबंधन के लिए बहुधा उपयोग में लाना चाहिए। 

इसका (CRR) का एक और पहलू यह है कि CRR सभी बैंकों के लिए लागू है और इसके कारण, बैंक दीर्घकालिक उधार नहीं दे पाते क्योंकि उन्हें पता नहीं होता कि भारतीय रिजर्व बैंक, CRR में कब वृद्धि करेगा। 

2. सांविधिक चलनिधि अनुपात (Statutory Liquid Ratio - SLR): 

यह रिजर्व बैंक के पास एक दूसरा औजार है, जिसके अनुसार सभी बैंकों को अपनी 'मांग और समय आधारित देनदारी' का एक निश्चित प्रतिशत, नकदराशि के रूप में अपने पास रखना पड़ता है, या सोने के रूप में अथवा सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश के रूप में भी रखा जा सकता है। बैंक, सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश करना पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें, इस पर ब्याज मिलता है। 

वर्तमान में, (अगस्त 2012 से) बैंकों द्वारा मांग और समय देनदारी का, कम-से-कम 23% निवेश करना अनिवार्य है। हालांकि बैंकों ने इससे ज्यादा राशि, सरकारी प्रतिभूतियों में लगा रखी है, इस कारण यह तरलता प्रबंधन का एक कारगर औजार नहीं रह गया है। 

3. बैंक दर (Bank Rate): 

यह रिजर्व बैंक द्वारा लिया जाने वाला ब्याज है जो उसे बैंकों को प्रतिभूतियां देने के बदले प्राप्त होता है। बैंकों पर कड़े नियंत्रण और नियमन वाले समय में, बैंक दरों में वृद्धि करके, बैंकों को RBI से उधार लेने में हतोत्साहित किया जाता था और इस प्रकार तरलता-नियंत्रण किया जाता था। 

बैंक दर के माध्यम से, इसे आधार बनाकर रिजर्व बैंक द्वारा अन्य ब्याज-दरों को भी निर्धारित किया जाता था। यद्यपि बैंक दर अभी भी विद्यमान है, परंतु रिजर्व बैंक द्वारा अब इसका इस्तेमाल, तरलता-प्रबंधन के लिए नहीं किया जाता क्योंकि प्रतिभूतियों के लिए अब एक-दूसरे क्रम का बाजार (Secondary Market) उपलब्ध है, इस कारण इस प्रणाली का महत्त्व समाप्त हो गया है। अब इसका प्रयोग, रिजर्व बैंक द्वारा, उन बैंकों पर हर्जाने के रूप में किया जाता है जिन्होंने किन्हीं नियमों का उल्लंघन किया हो। 

4. खुले बाजार के कार्य-कलाप (Open Market Operation - OMO): 

यह दूसरे दर्जे की सरकारी प्रतिभूतियों की खरीद/बिक्री के लिए, रिजर्व बैंक द्वारा नीलामी रास्ता अख्तियार करने की व्यवस्था है और CRR तथा SLR की भांति, बैंकों के लिए यह अनिवार्य नहीं है। तरलता की मात्रा अधिक होने पर, रिजर्व बैंक, इन सरकारी प्रतिभूतियों को "बिक्री' करके, बैंकों के पास धन की कमी कर देता है और इस प्रकार तरलता नियंत्रण किया जाता है। इसी प्रकार तरलता बढ़ाने के लिए, रिजर्व बैंक, अन्य सभी बैंकों से प्रतिभूतियां 'क्रय' (Purchase) करता है, जिससे बैंकों को अधिक धन प्राप्त होता है और इसे कर्ज देने के लिए प्रयोग करते हैं। OMO का इस्तेमाल तीन महीने के अंतराल पर किया जाता है। 

5. पुनर्खरीद-नीलामी (Repo Auction) (पुनर्खरीद-दायित्व ): 

अल्प-काल के लिए तरलता नियंत्रण हेतु, रिजर्व बैंक द्वारा अपनाया जाने वाला यह सबसे प्रचलित तरीका है। यह OMO की भांति ही व्यवस्थित होता है सिवाय इसके कि, इसमें यह अंतर्निहित है कि एक निश्चित अवधि के पश्चात्, रिजर्व बैंक इसे पुनः वापस खरीदने की गारंटी देता है। बैंक, रिजर्व बैंक द्वारा लागू नीति के अनुसार अनिवार्य रूप से SLR के अंतर्गत प्रतिभूतियां रखने के बाद, अन्य ग्रहणीय (eligible)  प्रतिभूतियाँ भी रख सकते हैं और इसी आधार पर RBI से अल्पकालिक उधार लेते हैं (प्रायः रात भर के अंदर)। बैंकों द्वारा इस उधार पर जो ब्याज अदायगी होती है उसे पुनर्खरीद-दर (Repo Rate) कहते हैं। 

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पास एक और तरीका है जिससे वह बैंकों को सरकारी प्रतिभूतियाँ बेच सकता है और इस पर वह जो ब्याज-अदायगी करता है उसे 'रिवर्स रेपो' कहते हैं। इन दोनों ही केस में, एक निश्चित समयावधि के पश्चात् रिजर्व बैंक, स्वचलित रूप से पुनर्खरीद करता है। ये दोनों ही दरें, रिजर्व बैंक खुद तय करता है। रेपो और रिवर्स रेपो दरें, 100 bps से जुड़ी हैं और रेपो रेट हमेशा ही रिवर्स रेपो रेट से अधिक रहेगा। 

6. सीमांत स्थायी सुविधा (एमएसएफ): 

आरबीआई ने पहली बार फाइनैंशल ईयर 2011-12 में सालाना मॉनेटरी पॉलिसी रिव्यू में एमएसएफ का एलान किया था। यह कॉन्सेप्ट 9 मई 2011 को लागू हुआ। इसमें सभी शेड्यूल्ड कमर्शियल बैंक एक रात के लिए अपने कुल डिपॉजिट का 1 फीसदी तक लोन ले सकते हैं। बैंकों को यह सुविधा शनिवार को छोड़कर सभी वर्किंग डे में मिलती है। इंटरेस्ट रेट रेपो से 1 फीसदी ऊपर होता है। रेपो वह रेट हैं, जिस पर बैंक आरबीआई से शॉर्ट टर्म लोन ले सकते हैं 

यह बैंकों के लिए एक आपातकालीन स्थिति में भारतीय रिजर्व बैंक से उधार लेने के लिए एक खिड़की है जब अंतर-बैंक तरलता पूरी तरह से सूख जाती है। एमएसएफ दर 100 आधार अंक या रेपो दर से ऊपर एक प्रतिशत अंक आंकी गई इस सुविधा के तहत, मांग और समय देनदारियों (NDTL) के एक प्रतिशत तक धन उधार ले सकते हैं 

7. नैतिक प्रत्यायन: 

यह केंद्रीय बैंक द्वारा देश के आर्थिक हित में ऋण को आगे बढ़ाने के लिए वाणिज्यिक बैंकों को राजी करने या मनाने के लिए अपनाई गई एक विधि को संदर्भित करता है। इस प्रक्रिया में, केंद्रीय बैंक केंद्रीय बैंकों की सामान्य मौद्रिक नीति के अनुपालन में वाणिज्यिक बैंकों को अन्य बैंकों या संस्थानों को उधार देने या ऋण देने का अनुरोध करता है। 

आदर्श रूप से अल्पकालिक/वाष्पशील तरलता को रेपो नीलामियों के माध्यम से, मध्यम अवधि की तरलता को ओएमओ के माध्यम से और दीर्घकालिक तरलता को सीआरआर के माध्यम से संबोधित किया जाना चाहिए। 

भारतीय रिजर्व बैंक तरलता प्रबंधन और सीआरआर एवं एसएलआर में किए गए परिवर्तनों को संबोधित करता है कि तिमाही आधार पर समीक्षा की गई वार्षिक मौद्रिक नीति के हिस्से के रूप में रेपो दर और तरलता की स्थिति को ध्यान में रखते हुए संशोधित दरों में परिवर्तन हो। अपनी नीति में भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) की चिंता का एक क्षेत्र मुद्रास्फीति पर नजर रखना है। जबकि आरबीआई की भूमिका, तरलता प्रबंधन के अलावा, मुद्रास्फीति को नियंत्रित करती है, देश के सभी वाणिज्यिक बैंकों के लिए बैंकर के रूप में भी कार्य करती है। 

आदर्श रूप से, अल्पकालिक/ परिवर्तनशील तरलता रेपो-नीलामी, मध्यमशील सत्र की तरलता, OMO के द्वारा और दीर्घकालिक सत्र की तरलता, CRR के माध्यमों से संबोधित किया जाना चाहिए। 

रिजर्व बैंक, तरलता प्रबंधन के लिए, अपनी वार्षिक वित्तीय नीति के अंग के रूप में हर तिमाही, समीक्षा में CRR, SLR और रेपो-दरों का पुनरीक्षण करता है। दरों में परिवर्तन, बाजार में तरलता की स्थिति के अनुसार किया जाता है। यहां पर रिजर्व बैंक के बाजार में मुद्रास्फीति की परिस्थितियों का ध्यान रखना पड़ता है। इस प्रकार रिजर्व बैंक की भूमिका, तरलता-प्रबंधन के साथ मुद्रास्फीति नियंत्रण की तो है ही, साथ ही देश के सभी व्यावसायिक बैंकों के लिए बैंकर की भी है। 

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