पूँजी-पर्याप्तता, [Banking Committee for Financial Supervision (BCFC)] अथवा वित्तीय निरीक्षण के लिए बनी बैंकिंग कमेटी, जोकि एक अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था है, उसका हिस्सा है। इसे विश्व आर्थिक संकट के पश्चात् बासल-I, बासल-II तथा बासल-III प्रतिमानों के नाम से भी जाना जाता है। बासल, स्विट्जरलैंड में एक स्थान है जहां BCFC के प्रतिमान बनाये गये और इनका, पूरे विश्व की बैंकिंग व्यवस्था में पालन होता है। पूँजी की पर्याप्तता से आशय है कि कोई भी बैंक, ऋण देते समय, अपने पास इतनी पूँजी अवश्य रखे कि उधार देने में जो सामान्य-जोखिम है, उसकी भरपाई करने में वह समर्थ रहे।
बैंक की पूँजी को परिभाषित करते हुए यह कहा जा सकता है कि बैंक की अपनी पूँजी और उसका रिजर्व, (टीयर-1) तथा उसकी पूरक पूँजी (टीयर-2) (Supplimentary Capital) उसके पास उपलब्ध है। यद्यपि टीयर-2 पूँजी, तुरंत उपलब्ध नहीं है, जैसे की परिसंपत्तियों का पुनर्मूल्यांकन (छूट पर आधारित) और स्टैंडर्ड परिसंपत्तियों के लिए प्रावधान तथा बैंकों द्वारा जारी दीर्घकालिक बांड, जिसे गौण- -ऋण (subordinate debt) भी कहा जाता है।
वर्तमान के नियमानुसार, बैंकों के पास अपनी पूँजी होनी चाहिए जोकि शेयर-धारकों के कोष और रखा हुआ लाभ के रूप में होंगी, (बैंकों में जमा धन, उनका नहीं बल्कि आम-जन का है)। शर्त यह थी कि टीयर-II पूँजी, टीयर-I की पूँजी के मुकाबले 100% से ज्यादा न हो। गौण-ऋण, टीयर-2 की पूँजी वाला टीयर-I की पूँजी के 50% से ज्यादा न हो।
किसी बैंक की परिसंपत्ति पोर्टफोलियो पर जोखिम का भार रहता है, इसलिए विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंकों ने यह नियम बनाया है कि न्यूनतम 8% पूँजी बैंक के पास, पूँजी-पर्याप्तता अथवा बासल-I प्रतिमान के अनुरूप हमेशा रहनी चाहिए। इसका आशय है कि यदि बैंक का जोखिम-भार परिसंपत्ति (risk-weighted asset) 100 रु. के बराबर है तो इसे कम-से-कम 8 रु. पूँजी के तौर पर रखना चाहिए। (टीयर I और II) ताकि बासल-I प्रतिमानों का पालन हो सके।
भारतीय रिजर्व बैंक ने, वित्तीय क्षेत्र के सुधार के अंतर्गत भारतीय बैंकों को एक समय-सीमा के अंदर बासल-अनुवर्ती (Basal compliant) होने को कहा। आगे यह प्रतिमान 9% कर दिया गया और आज भी लागू है। बासल-II प्रतिमान ने, इस विचारधारा को और परिष्कृत करते हुए जोखिम नापने के तौर-तरीकों में सुधार किया और ऑपरेशनल-जोखिम की अवधारणा की बात की जोकि बासल-I का हिस्सा नहीं थी। यहां उन्होंने 8% जोखिम का अनुपात बनाये रखा। सभी भारतीय बैंक, बासल-I और II के अनुवर्ती हैं (compliant)।
विश्व-आर्थिक-संकट के बाद, इस अनुपात को और बढ़ा दिया गया है जिससे बैंकों की पूँजी की आवश्यकता और बढ़ गयी है। ऐसा इसलिए किया गया है कि भविष्य में इस प्रकार का, विश्व आर्थिक संकट दुबारा न पैदा हो। पूँजी की पर्याप्तता, इस प्रकार, वित्तीय नियमनों को विश्व स्तरीय बना चुकी है। इससे किसी निवेशक या पैसा जमा करने वाले को बैंक की मूल-शक्ति का अंदाजा लगता है और विभिन्न बैंकों की पूँजी-पर्याप्तता के आधार पर वे अपना सुलझा हुआ निर्णय ले सकते हैं।
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