Thursday, May 20, 2021

एकीकृत ऊर्जा नीति क्या है What is Integrated Energy Policy | Indian Economy

इस नीति के अनुसार, 2031-32 तक ऊर्जा की 8 लाख मेगावाट की अत्यंत विशाल, माँग होगी जबकि वर्तमान क्षमता सिर्फ 2 लाख मेगावाट की है (वास्तविक विद्युत उत्पादन सिर्फ 1.5 लाख मेगावॉट है)। इसे उपलब्ध कराने के लिए ढाई लाख करोड़ रुपयों का निवेश, केवल ऊर्जा क्षेत्र में करने की आवश्यकता है। विद्युत उत्पादन क्षमता में वर्तमान की तुलना में, अपेक्षाकृत, अत्यधिक वृद्धि अपरिहार्य है। भारत ने वर्तमान क्षमता हासिल करने में 66 वर्ष लगा दिये हैं और इसे, अगले 20 वर्षों में, 6 लाख मेगावॉट अतिरिक्त बिजली का उत्पादन लक्ष्य प्राप्त करना है। दूसरे शब्दों में, अगले चार, पंचवर्षीय योजनाओं में, प्रत्येक योजना अवधि के दौरान 1.5 लाख मेगावॉट अतिरिक्त विद्युत उत्पादन होना चाहिए और यह चक्र, बारहवीं पंचवर्षीय योजना से शुरू होना चाहिए। 

सौर, पवन, गैस और कोयला आधारित ऊर्जा की भारी मांग को पूरा करने के लिए नीति आयोग ने यह एकीकृत नीति पेश की है। इस समय देश के सभी स्रोतों की कुल बिजली उत्पादन की स्थापित क्षमता 2,50,000 मेगावाट है। जबकि व्यस्त समय में बिजली की कमी करीब 3.6 प्रतिशत है। सरकार ने 2022 तक अक्षय ऊर्जा स्रोतों से कुल 1,75,000 मेगावाट बिजली उत्पादन का महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किया है। इसमें से 1,00,000 मेगावाट क्षमता सौर ऊर्जा की होगी। 

इस लक्ष्य प्राप्ति के लिए अत्यधिक संसाधन की आवश्यकता के अतिरिक्त, यहां कुछ संरचना से जुड़े मुद्दे भी हैं। जैसे भारत में विद्युत संचारण और वितरण (Transmission and Distribution) में हो रहा सकल नुकसान, 25% है जोकि पूरे विश्व में सर्वाधिक है। इसके अतिरिक्त कुछ और भी मुद्दे हैं। जैसे बिजली की चोरी, जब संचारण और वितरण के नुकसान से मिलाकर देखा जाए तो राज्य बिजली बोर्डों का घाटा सामने आता है, साथ ही कम मूल्य लगाना, मुफ्त में बिजली देने की अवधारणा, राज्य विद्युत बोर्ड के घाटे को कई गुना, प्रतिवर्ष बढ़ाती जाती है। 

इस नीति में यह उल्लेख किया गया है कि कोयला-आधारित, थर्मल ऊर्जा पर निर्भरता बनी रहेगी। यहां तक कि 2031-32 तक भी कोयला, ऊर्जा का मुख्य स्रोत होगा और कुल उत्पादित ऊर्जा का 60% इसी से प्राप्त होगा। इसके साथ थर्मल पावर उत्पादन 47% का योगदान करेगा। कोयले का बहुत बड़ा भंडार उपलब्ध होना प्रश्न नहीं है, परंतु उसकी गुणवत्ता, विचारणीय है। हमारे मौजूदा कोयला भंडार . बिजली उत्पादन के लिए उपयुक्त नहीं हैं। 

कोयले से जुड़ा एक और मुद्दा है सरकार का कोयला खदानों पर पूर्ण एकाधिकार। इसलिए नयी नीति ने सुधार की अपेक्षा रखते हुए, कोयला क्षेत्र को निजी और विदेशी भागीदारी के लिए अनुमति देने का पक्ष लिया है। कोयले की कीमत, बाजार द्वारा निर्धारित की जाये ताकि उसका सही मूल्यांकन हो सके और इसका अनुकूलतम, कौशलपूर्ण उपयोग सुनिश्चित हो। भारत में कोयला-उपलब्धि की संभावनाएँ आगामी 100 वर्षों तक की है, अतः एक कोयला-भविष्यवाणी की आवश्यकता महसूस की गयी। 

भविष्य में ऊर्जा की आवश्यकताएं पूरी करने का दूसरा स्रोत है पेट्रोलियम, जोकि 25% तक की आवश्यकता पूरी करेगा, परंतु यहाँ समस्या यह है, कि पेट्रोलियम का भी दुबारा नवीनीकरण (Non- renewable) नहीं किया जा सकता। एक दूसरी समस्या है, पेट्रोलियम के आयात पर निर्भर होना। वर्तमान में कुल आवश्यकता का 70% पेट्रोलियम, आयात किया जाता है, और वर्ष 2030-31 तक यह बढ़कर 90% तक पहुंच जायेगा और इस स्थिति में अमेरिका और चीन के बाद भारत, विश्व का तीसरा सबसे बड़ा आयातक देश बन जायेगा। इस स्थिति में देश की अर्थव्यवस्था, विश्व बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव के कारण और पश्चिम एशिया में विपरीत परिस्थितियाँ पैदा होने की स्थिति में, संकटपूर्ण हो सकती हैं। 

खुदरा पेट्रोलियम पदार्थो का घरेलू बाजार में मूल्य निर्धारण, सरकारी नियंत्रण से मुक्त होना चाहिए जिससे उसके अभाव की कीमत का अंदाजा आम लोगों को हो सके। सरकार को ऊर्जा की बचत, ऊर्जा के कौशलपूर्ण उपयोग को प्रोत्साहन और ऊर्जा की सघनता के बारे में समाज को संवेदनशील बनाने का प्रयास करना चाहिए। पेट्रोलियम पदार्थो का अनुसंधान एवं विकास (R & D) द्वारा व्यवहार योग्य विकल्प ढूंढ़ने की आवश्यकता है । सरकार को एक राष्ट्रीय-ऊर्जा-कोष की स्थापना कर ऊर्जा क्षेत्र की सभी कंपनियों के कुल व्यापार की मात्रा पर 1% का कर लगा कर करना चाहिए। यूरोप के कई देशों ने कच्चे तेलों पर निर्भरता, एक निश्चित समय-सीमा से पूरी तरह समाप्त करने की घोषणा कर रखी है। भारत में भी ऐसा कुछ करना चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल के मूल्यों में विद्यमान अस्थिरता, कच्चे तेल का कम-से-कम 90 दिनों का रिजर्व भंडारण की आवश्यकता स्थापित करती है। 

जल-विद्युत परियोजनाओं के संदर्भ में, इस नीति में यह चेताया गया है कि पर्यावरण असंतुलन और स्थानीय जनसंख्या पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करने के बाद ही इस खर्चीले विकल्प को प्रोत्साहन देना चाहिए। वैसे भी जल-विद्युत की संभावनाएँ 1.5 लाख मेगावॉट अर्थात् वर्ष 2031-32 की ऊर्जा आवश्यकता का कुल 20% आँकी गयी है। 

परमाणु ऊर्जा को भविष्य का ऊर्जा स्रोत समझा गया, परंतु इसके लंबे निर्माणपूर्व अवधि (gestation period), दूसरे देशों से परमाणु ईधन की उपलब्धता के लिए किये जाने वाला समझौता इत्यादि कारणों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ऊर्जा उपलब्धता में कोई बदलाव 2050 के बाद ही अपेक्षित कुल 5% ही पूरा होगा। यहां इसके बारे में यह भी याद रहना चाहिए कि परमाणु ऊर्जा उत्पादन बेहद खर्चीला है और साथ ही रेडियेशन परमाणु कचरे का निस्तारण और उनका दीर्घकालीन प्रभाव, महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं जिनका हल मौजूद होना चाहिए। वैसे भी अनुमान है कि वर्ष 2031-32 तक, देश की ऊर्जा आवश्यकता का परमाणु ऊर्जा से हो सकेगा। 

वर्तमान में अक्षय ऊर्जा (Renewable energy) पर बहुत जोर दिया जा रहा है। इसके प्रकार हैं ईंधन वाले पौधों का वृक्षारोपण, बायो गैस, बायो मास (जैव ईंधन), इथेनॉल इत्यादि जो कि स्थानीय कृषि और अन्य घरेलू आवश्यकताओं को पूरा कर सकते हैं। सौर एवं वायु ऊर्जा, सघन पूँजी-प्रधान विकल्प हैं जिनकी प्रति यूनिट लागत भी ज्यादा होती है, साथ ही अतिरिक्त संसाधन भी चाहिए। इन सबके बावजूद भी, इनसे सिर्फ स्थानीय आवश्यकता ही पूरी हो सकती है और इन्हें प्रोत्साहित भी इसीलिए किया जाता है। साथ ही इनसे स्थानीय उद्यमियों को अवसर मिलता है, स्थानीय रोजगार के अवसर पैदा होते हैं और यह पर्यावरण के अनुकूल भी है। इसका वृहद् रूप से, ऊर्जा आवश्यकताओं में एकीकरण नहीं किया जा सकता, कम-से-कम दूर तक दिखने वाले भविष्य में। 

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