भारत, अमेरिका और ज़्यादातर दूसरे देशों ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं में संवृद्धि मापने के लिए सकल घरेलू उत्पाद को मान्यता दी है। यहां पर हमारा ध्यान इस अध्याय के प्रारंभ में दिये हुए उत्पाद के अंतर्गत “वस्तुओं और सेवाओं के मौद्रिक मूल्य की अवधारणा" की ओर जाना चाहिए।
यह मौद्रिक मूल्य दो परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है- कारकों का मूल्य (यह उत्पादन के कारकों की आय भी है) और बाज़ार-भाव। उदाहरणस्वरूप मोटर-कार का मूल्य जैसा कि Previous Blog Post में उल्लेख किया जा चुका इसका और स्पष्टीकरण इस प्रकार किया जा सकता है कि बाजार-भाव वह मूल्य है जो वस्तुओं और सेवाओं के लिए बाजार में अदा किया जाता है।
अब हम कारक के मूल्य और बाजार-भाव के बीच अंतर की चर्चा करेंगे। यह सर्वविदित है कि सरकारें उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं पर बाजार में पहुंचने से पहले टैक्स लगाती हैं (और रियायत भी देती हैं)। भारत में वस्तुओं के उत्पादन पर 'उत्पाद-शुल्क' (Excise duty) और सेवाओं पर 'सेवा-कर' देना पड़ता है (इस पर आगे के अध्याय में सरकारी वित्त के अंतर्गत चर्चा की जायेगी)। अब,
कारक मूल्य + अप्रत्यक्ष कर - रियायतें = बाजार मूल्य
(Factor Cost) + (Indirect Taxes) - (Subsidies) = Market Price
अथवा
कारक मूल्य + शुद्ध कर (रियायतें कर से ज्यादा या उसके बराबर नहीं हो सकती) = बाजार मूल्य।
अब प्रश्न यह उठता है कि मौद्रिक मूल्य में कारकों का मूल्य अथवा बाजार भाव शामिल किया जाना चाहिए या नहीं।
अर्थव्यवस्था में बाजार भाव पर मापे गये उत्पाद को कर वृद्धि द्वारा बढ़ाया जा सकता है, परंतु इसका आशय यह नहीं होगा कि इससे अर्थव्यवस्था में ज्यादा उत्पादन हुआ है व सेवाओं में भी वृद्धि हुई है। अर्थव्यवस्था के उत्पाद का मापन बाजार-भाव और कारक-मूल्य दोनों के आधार पर होता है, परंतु वृद्धि के निर्धारण के लिए कारक मूल्य पर आधारित उत्पाद को ध्यान में रखना होता है। अर्थात् अर्थव्यवस्था में वस्तुओं के उत्पादन और प्रदत्त सेवाओं के बढ़े मूल्य की रिकार्डिंग, कारक-मूल्यों पर आधारित है, न कि बाजार भाव पर।
बाजार-भाव एवं कारक-मूल्यों पर आधारित उत्पाद निर्धारण बीच का अंतर अर्थव्यवस्था में कर-भार के रूप में सामने आता है। जो अन्य देशों के साथ तुलनात्मक अध्ययन के लिए उपयोगी है।
क्या उत्पाद, बाजार-भाव एवं कारक- मूल्यों के आधार पर एक हो सकते हैं? इसका उत्तर है हाँ टैक्स, सरकार द्वारा दी जा रही रियायतों के बराबर हों या आदर्शवादी अर्थव्यवस्था के अंतर्गत जहाँ टैक्स और रियायतें शून्य के बराबर हों। यह विचारधारा व्यवहार-योग्य न होकर, ज्यादातर शैक्षणिक संदर्भो तक ही सीमित है।
जब हम बाजार-भाव या कारक-मूल्य आधारित मौद्रिक मूल्य की बात करते हैं, तब मुद्रा-स्फीति की अवधारणा महत्त्वपूर्ण हो जाती है। सामान्य शब्दों में मुद्रास्फीति का आशय बढ़ी हुई कीमतों से है जब वस्तुओं की कीमतें सामान्य से कहीं अधिक होने लगती हैं। माना जाय कि मुद्रास्फीति की दर 10 प्रतिशत है, इसका अर्थ है कि वस्तओं की कीमतें 10 प्रतिशत बढ़ चुकी हैं, अर्थात् कारक-मूल्य भी बढ़ जायेगा जिससे उत्पाद में वृद्धि समझी जाने लगेगी, परंतु वास्तव में न ही वस्तुओं का उत्पादन बढ़ा है और न ही प्रदत्त-सेवाओं में कोई बढ़ोतरी हुई है। इसी कारण कारक-मूल्यों पर आधारित उत्पाद का मापन नियमित या अनुकूल करना पड़ेगा ताकि अर्थव्यवस्था में वस्तुओं का उत्पादन और प्रदत्त सेवाओं का सही आकलन हो सके। यह नियमित या अनुकूल की एक सांख्यिकीय प्रक्रिया है जिसमें सकल-घरेलू-उत्पाद को अवस्फीति (deflate) करके कारक-मूल्य आधारित उत्पाद को “स्थिर मूल्य' (Constant Price) के संदर्भ में देखा जाता है।
स्थिर-मूल्य आधारित उत्पाद का आशय उस उत्पाद से है, जिसे मुद्रास्फीति को अनुकूलन करके प्राप्त किया गया है। इसका और स्पष्टीकरण इस उदाहरण से दिया जा सकता है, मान लीजिए कि मुद्रास्फीति को अनुकूल नहीं किया गया है और एक वर्ष में उत्पाद वृद्धि 9% रिकार्ड कि गयी है, उसी प्रकार मुद्रास्फीति भी है। अर्थात् जमीन पर उत्पाद में कोई वृद्धि नहीं हुई है, परंतु उनकी कीमतें बढ़ गयी हैं। मुद्रास्फीति को अनुकूल किये बिना, उत्पाद में वृद्धि का कोई महत्त्व नहीं है और वास्तव में यह भ्रमित करने वाला है।
मुद्रास्फीति के इस अनुकूल करने (adjustment) को 'वास्तविक' (Real) भी कहा जाता है. अन्यथा यह 'नाम-मात्र' (Nominal) का होता है और अधिकांशतः सामान्य प्रवृत्ति की श्रेणी में आता है। वास्तविक वृद्धि को मुद्रास्फीति के विरुद्ध अनुकूल किया जाता है जबकि 'नाम-मात्र' की वृद्धि में मुद्रास्फीति-अनुकूल को नकार दिया जाता है। परिभाषा के अनुसार वृद्धि 'वास्तविक' (Real) होनी चाहिए।
इसी प्रकार ब्याज-दर, आय, मजदूरी आदि 'नाम-मात्र' या 'वास्तविक' हो सकती है, परंतु वृद्धि का नाम-मात्र या वास्तविक होने जैसी कोई विचारधारा नहीं है। परिभाषा के अनुसार वास्तविक वृद्धि को मुद्रास्फीति के विरुद्ध अनुकूल करना ही पड़ेगा। वृद्धि शब्द के अर्थ में अंतर्निहित है।
भारतीय संदर्भ में वृद्धि का आशय सकल घरेलू उत्पाद में बढ़ोतरी, स्थिर मूल्य पर आधारित कारक मूल्य से है।
भारत में पूरी संगणना (Computation) की जिम्मेदारी केंद्रीय सांख्यिकीय संस्थान (CSO) भारत सरकार की है। इस संस्था द्वारा वृद्धि का त्रैमासिक आकलन हर तिमाही के अंत में अर्थात् मार्च, जून, सितंबर और दिसंबर महीनों में किया जाता है। वार्षिक वृद्धि का अनुमान प्रतिवर्ष अप्रैल से मार्च के महीनों में प्रकाशित किया जाता है, जिसे सामान्यतः वित्तीय वर्ष कहते हैं (कैलेन्डर वर्ष जनवरी से दिसंबर माह तक होता है)। भारत में सभी वित्तीय गणनाएं, सरकारी और उद्योग-जगत की, वित्तीय-वर्ष पर आधारित होती हैं।
इस अध्याय में हमने छात्रों के 'राष्ट्रीय आय के कुल योग' (National Income Aggregate), जिसे 'राष्ट्रीय आय गणना' (National Income Accounting) भी कहते हैं, की एक सामान्य झलक विशेषकर उन छात्रों को जिनका अर्थशास्त्र विषय नहीं रहा है, प्रस्तुत किया है।
राष्ट्रीय आय की गणना की तीन विधियां है जैसे उत्पाद विधि, आय विधि, व्यय विधि यह उन विद्यार्थियों के लिए है जो आर्थिकी में अपना रोजगार तलाश रहे है। इन तीनों विधियों पर संक्षिप्त दृष्टि निम्न आरेख से डाली गई है-
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