विदेशी ऋण से आशय विदेशी मुद्रा में लिए गये उस ऋण से है, जिसका देनदार केन्द्र या राज्य की सरकार, भारतीय कंपनियां अथवा भारतीय नागरिक हो। आज की खुली अर्थव्यवस्थाओं विदेशी ऋण एक महत्त्वपूर्ण विषय बन जाता है क्योंकि ऋण अदायगी अर्थव्यवस्था का उतना ही संवेदनशील हिस्सा है, जितना कि उसकी अदायगी न कर पाना। ऋण अदायगी न हो पाने की स्थिति का आशय होगा, विदेशी मुद्रा में ज्यादा उधार ताकि ऋण अदायगी हो सके।
उधार की मात्रा महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह महत्त्वपूर्ण है कि उसका उपयोग किस प्रकार हो रहा है, क्या उससे इतना लाभ मिल रहा है कि ब्याज अदायगी हो सके और मूलधन की भी वापसी की जा सके। कर्ज भुगतान (Debt Servicing) का अर्थ यही है। जब तक कर्ज भुगतान संभव है, कितनी भी मात्रा में कर्ज वहन किया जा सकता है।
विदेशी कर्ज भुगतान की योग्यता का मापन कैसे हो सकता है? इसका मापन विदेशी मुद्रा के आवक से किया जाता है। यह आवक ऋण के रूप में न होकर भुगतान संतुलन के चालू खाते में शेष के रूप में मानी जाती है अर्थात् विदेशी मुद्रा की आवक ऐसी हो कि सेवाओं और वस्तुओं के निर्यात अन्य प्रकार से प्राप्त आवक जैसे अप्रवासी भारतीयों द्वारा देश में भेजा गया धन, विदेशी पर्यटकों से प्राप्त विदेशी मुद्रा या ऐसी कोई भी आवक जिसके ऋण का स्वरूप न हो या उसके बहिर्गमन की संभावना न हो।
इसे वार्षिक आधार पर सापेक्ष तौर पर ऋण भार के रूप में देखा जाता है। ऋण की राशि कितनी भी हो इसके एवज में कुछ धनराशि ब्याज और मूलधन के रूप में प्रति वर्ष अदा किया जाना है। मान लीजिए चालू खाते में विदेशी मुद्रा की आवक 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर है और ब्याज के रूप में मुद्रा का बहिर्गमन 20 मिलियन अमेरिकी डॉलर है और यदि ऋण अदायगी की तय अवधि पांच वर्ष है, इसका अर्थ है ब्याज के साथ 20 मिलियन अमेरिकी डॉलर और जुड़ गया तब ऋण और उसके भुगतान का अनुपात [Debt Service Ratio (DSR)] 40% होगा।
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