विनिमय दर (Exchange Rate) को परिभाषित करते हुए कहा जा सकता है कि घरेलू मुद्रा को विदेशी भद्रा से किस दर पर विनिमय किया जा सकता है अथवा घरेलू मुद्रा की कितनी मात्रा एक विदेशी मुद्रा लिए अथवा विदेशी मुद्रा की घरेलू मुद्रा के मुकाबले कितनी कीमत अदा करनी है। एक मुद्रा का, दूसरी मुद्रा से बदलाव या विनिमय भिन्न क्यों होता है? यह किसी भी मुद्रा के “माँग और आपूर्ति" से जुड़ा है जोकि आय के स्तर में सापेक्ष अंतर के कारण प्रभावित है, साथ ही यह विश्व व्यापार में भागीदारी, क्रय शक्ति में फर्क, उत्पादों की लागत में सापेक्ष अंतर आदि से भी प्रभावित होता है। इसके अतिरिक्त, गृह देश का केंद्रीय बैंक भी विदेशी मुद्रा का घरेलू मुद्रा के लिए दर तय करता है।
विनिमय दर, उन अर्थव्यवस्थाओं के लिए महत्त्वपूर्ण है जो खुलेपन की नीति अपना रही है। इससे अंतर्राष्ट्रीय मुद्राओं का, घरेलू मुद्रा से अंतर्मिश्रण होता है और इसलिए उन्हें घरेलू मुद्रा में बदलकर उपयोग किया जा सकता है। इसी प्रकार विदेशी-बाजार के लिए घरेलू मुद्रा को उस देश की मुद्रा में बदला जा सकता है। इस विनिमय से आयात-भुगतान की आवश्यकता पूरी होगी या विदेश में निवेश हो सकेगा।
जब तक अर्थव्यवस्था का स्वरूप 'बंद' है, विनिमय दर खास मायने नहीं रखती क्योंकि घरेलू मुद्रा का विदेशी मुद्रा से ज्यादा सामना नहीं होता क्योंकि अंतर्मुखी अर्थव्यवस्था में घरेलू मुद्रा ही विशेषरूप से उपयोग में लायी जाती है और विदेशी मुद्रा की अपेक्षाकृत कम आवश्यकता होती है, सिवाय आवश्यक आयात के।
विनिमय दर का निर्धारण (Determination of Exchange Rate)
यहाँ यह उल्लेख आवश्यक है कि कई अर्थव्यवस्थाएँ ऐसी हैं, जहां विदेशी मुद्रा विनिमय की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि वहां घरेलू मुद्रा की सार्थकता अत्यंत कम है और विदेशी मुद्रा, के लेन-देन में, "समानांतर और प्रमुखता से" इस्तेमाल होती है। ऐसी अर्थव्यवस्थाओं को "डॉलरीकृत अर्थव्यवस्था" (Dollarized Economy) भी कहा जाता है। ये सापेक्ष रूप से बहुत छोटी अर्थव्यवस्थाएँ हैं जो अमेरिका पर निर्भर हैं और इन्हें अमेरिका का पिछवाड़ा (Backyard) भी कहा जाता है; उदाहरणस्वरूप पनामा, अल सेल्वाडर, इक्वाडोर आदि।
अन्य अर्थव्यवस्थाओं में विनिमय दर या तो पूर्वनिश्चित (Pegged) है और या तो बाजार द्वारा निर्धारित की जाती है। पूर्व-निश्चित विनिमय दरें, देश के केंद्रीय बैंक द्वारा सीधे हस्तक्षेप से निर्धारित की जाती हैं। इस प्रकार के हस्तक्षेप को कुछ विभिन्नताएँ इस प्रकार हैं-
1, मुद्रा बोर्ड (Currency Board)-
देश का केंद्रीय बैंक, दूसरी मजबूत विदेशी मुद्रा के साथ 1:1 के आधार पर या दूसरे अनुपात में जिसे आंकी विनिमय दर कहा जाता है, के साथ आकलन करता है अर्थात् घरेलू मुद्रा का वितरण, विदेशी मुद्रा के आवक पर निर्भर है। इसे 'मुद्रा-बोर्ड सिस्टम भी कहते हैं और इसकी वकालत उस समय की जाती है जब अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति की दर बहुत ऊंची हो। विश्वास किया जाता है कि इस प्रणाली से, बहुत सख्त मौद्रिक अनुशासन थोपा जा सकता है और इससे लोगों की मौद्रिक स्वतंत्रता छिन जाती है। मुद्रा-बोर्ड के सामान्य उदाहरण हैं अर्जेंटाइना, हांगकांग इत्यादि।
2. रेंगता हुआ/आंकी विनिमय दर (Crawling/ Pegged Exchange Rate) -
यह भी पूर्व-निश्चित विनिमय दर के समान ही है, परंतु इसमें देश का केंद्रीय बैंक, कुछ लचीलापन दिखाते हुए, विनिमय दर को छोटे बैंड्स में बहने की अनुमति देता है, परंतु ऊपरी और निचली सीमाएँ (ceiling and a floor) भी निश्चित कर देता है। उदाहरणस्वरूप चीन और रूस।
बाजार द्वारा निर्धारित विनिमय दर इस प्रकार हैं-
1. पूर्ण प्रवाह (Full Float) -
ऐसी अर्थव्यवस्थाओं में विनिमय दर, देश में माँग और आपूर्ति के आधार पर बाजार द्वारा निर्धारित की जाती हैं और केंद्रीय बैंक की इसमें कोई भूमिका नहीं होती। अधिकतर विकसित अर्थव्यवस्थाएँ; जैसे-अमेरिका, यूरोपियन यूनियन आदि पूर्ण प्रवाह वाली हैं।
2. "प्रबंधित" विनिमय दर (Managed Exchange Rate) -
इस अवधारणा की उत्पत्ति हाल के वर्षों में हुई है जिसमें भारत जैसे देश, बाजार द्वारा निर्धारित विनिमय-दर व्यवस्था अपनाते तो हैं परंतु केंद्रीय बैंक अप्रत्यक्ष रूप से अपनी समझ के अनुसार वाले दर के आस-पास रखने का प्रयास करते रहते हैं। हालांकि इस प्रयास के दौरान वे कभी भी बाजार द्वारा निर्धारित विनिमय दर में कभी सीधे बदलाव नहीं करते, जैसा कि वे पूर्व-निर्धारित विनिमय दर प्रणाली में कर सकते हैं।
इसे "अशुद्ध-बहाव" (Dirty Floating) भी कहा जाता है जिसमें केंद्रीय बैंक, स्वतंत्र बाजार द्वारा निर्धारित विनिमय-दर को प्रभावित करता है।
ऐसी स्थितियों में विनिमय दर निर्धारण का सबसे अच्छा तरीका क्या है? एक आदर्श निर्धारण व्यवस्था कहना मुश्किल है क्योंकि प्रत्येक अर्थव्यवस्था की अलग-अलग चुनौतियाँ होती हैं, उनकी अपनी अंदरूनी प्राथमिकताएँ होती हैं और यह इस पर भी निर्भर करता है कि अमुक निर्धारण-अवस्था, वहां की घरेलू अर्थव्यवस्था पर कैसा प्रभाव डालेगी।
हालांकि जिस प्रकार अर्थव्यवस्थाएँ अधिक खुलेपन की नीति अपना रही हैं, दीर्घकालिक पूँजी-आगमन और निर्गमन की भूमिका के मद्देनजर, अच्छा होगा कि धीरे-धीरे बाजार-निर्धारित विनिमय दर को स्वीकार किया जाय। इससे घरेलू-मुद्रा को, किसी विदेशी मुद्रा की तुलना में शक्ति का पता चलेगा और विनिमय-दर में हलचल से नीति-निर्धारकों को भी सहायता मिलती है। यह व्यवस्था, विदेशी मुद्रा-बाजार में थर्मामीटर का काम करती है, परंतु इन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात है कि बाजार-निर्धारित विनिमय-दर व्यवस्था, अर्थव्यवस्था की परिपक्वता दर्शाती है उसके मजबूत वृहद् मौलिक आर्थिक नीतियों के साथ वैश्विक स्तर पर प्रतियोगी होने का दावा भी करती है। अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपियन यूनियन और जापान जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ, जिनका विश्व-व्यापार में बड़ा हिस्सा है, कहा जाता है कि उनके पास नगद मुद्रा या दुर्लभ मुद्रा (Hard currency) का भंडार, व्यापार की मात्रा के अनुसार पहले से ही मौजूद है। दूसरी बात, इन देशों का विनिमय दर बाजार-निर्धारित है और तीसरा, इनके हर प्रकार के लेन-देन को. वैश्विक स्वीकार्यता प्राप्त है।
वे अर्थव्यवस्थाएँ, जिनकी विश्व व्यापार में, सीमित भूमिका है, उनकी सुलभ मुद्रा (Soft currency) पर विनिमय दर निर्धारण में प्रतिबंध है, उनकी वैश्विक स्तर पर विभिन्न प्रकार के लेन-देन में, स्वीकार्यता कम है। भारतीय रुपया और चीनी युआन, कुछ सीमा तक सुलभ-मुद्रा की श्रेणी में आते हैं।
खुली-अर्थव्यवस्थाओं में विनिमय दर महत्त्वपूर्ण क्यों हैं? देश में मुद्रा के आगमन और निर्गमन, एवं निर्यात के प्रति विनिमय-दर की बहुत संवेदनशीलता होती है। इसके अतिरिक्त विनिमय दर में अत्यधिक चंचलता, अर्थव्यवस्था में आधारभूत असंतुलन पैदा कर सकती है तथा संकट की ओर धकेल सकती है; जैसा कि दक्षिण-पूर्व एशियाई अर्थव्यवस्थाओं में हुआ।
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