बैंकों की जनसंख्या में पैठ के बारे में बात करें तो अभी भी 60% भाग, बैंकों की पहुंच के बाहर है। अतः आवश्यकता है और भी बड़े “वित्तीय समावेशन" के प्रयास की, जिसमें आम-जन, विशेषकर गरीबों को वहन करने योग्य, टेक्नोलोजी-सुविधायुक्त बैंकिंग की सुविधाएँ उपलब्ध करायी जा सके। ऐसा विश्वास है देश में सार्वजनिक बैंकों की आवश्यकता इसीलिए ज्यादा है। यह अवधारणा सही हो सकती है, यदि वित्तीय समावेशन को एक समाज-कल्याण के रूप में परिकल्पित किया जाय, ठीक वैसा ही जैसा कि प्राथमिकता-क्षेत्र में रियायती ऋण देने की अवधारणा है। इस प्रकार के ऋण देने की व्यवस्था, बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद शुरू की गयी है जब बैंकिंग संस्था को 'विशिष्ट वर्ग' (Class) से 'सामान्य वर्ग' (Mass) के साथ जोड़ा गया।
गरीबों और असुरक्षित समूहों, सुविधाहीन क्षेत्र एवं पिछड़ रहे क्षेत्रों को सुरक्षित, आसान और वहन करने योग्य वित्तीय सेवाओं की सुलभता, संवृद्धि में बढ़ोतरी, आय में असमानता कम करने तथा गरीबी घटाने की पूर्व शर्ते हैं। 11वीं पंचवर्षीय योजना में (2007-12) इसी कारण, वित्तीय समावेशन को पूरी कार्यनीति का प्रमुख अंश माना गया था और इसे, इसी रूप में "तेज और गतिशील संवृद्धि की ओर' (Towards Faster and More Inclusive Growth) में उल्लिखित किया गया है।
वित्तीय समावेशन को सामान्यतः, वित्तीय अवस्था से बाहर (exclusion) के संदर्भ में, परिभाषित किया गया है। एक लक्ष्य-समूह को वित्तीय समावेशन से तब बाहर कहा जाता है जब वे औपचारिक वित्तीय सेवाओं जैसे बैंक खाता क्रेडिट-कार्ड, बीमा, अदायगी सेवाओं इत्यादि से वंचित हो।
भारत सरकार ने वर्ष 2006 में एक कमेटी डॉ. सी. रंगराजन की अध्यक्षता में गठित की थी जिसका कार्य-क्षेत्र, लिंग एवं व्यावसायिक ढांचे को आधार बना कर वित्तीय समावेश से वंचितों के एक पैटर्न का अध्ययन करना था। इसके साथ ही इस कमेटी ने, असुरक्षित समूहों द्वारा क्रेडिट और अन्य वित्तीय सेवाओं का लाभ लेने के मार्ग में आ रही बाधाओं की पहचान करके, उन्हें दूर करने के उपायों पर भी सुझाव देने थे। इस कमेटी की रिपोर्ट जनवरी, 2008 में पेश की गयी। इस रिपोर्ट में वित्तीय समावेशन की एक कामकाजी परिभाषा इस प्रकार दी गयी है-
"वित्तीय समावेश वह प्रक्रिया है जिसमें असुरक्षित समूहों, जैसे समाज का कमजोर वर्ग, निम्न आय वर्ग को, वित्तीय सेवाओं की आवश्यकतानुसार, पर्याप्त क्रेडिट की सुविधा वहन करने योग्य दरों पर मिल सके।"
स्पष्टतः, निर्देशित कर्ज देना, एक प्रकार की बाध्यता है न कि स्वेच्छया कर्ज का प्रावधान है। वित्तीय समावेश को समाज-कल्याण का रूप देने से यह बाध्यता की भावना समाप्त हो जायेगी। इसे व्यावसायिक के साथ-साथ व्यवहार्य (Viable) रूप में भी देखना चाहिए। गरीबों के लिए महाजनों से कर्ज लेना बहुत ही महंगा पड़ता है। बैंकों के लिए इस प्रकार की सुविधा एक लाभकारी उपक्रम हो सकता है। कोई भी निजी बैंक, लाभ की दृष्टि से क्रियान्वित होता है, चाहे वह लाभ निर्धन अथवा धनी, किसी से भी प्राप्त हो।
यहां बड़ा मुद्दा है एक संगठित वित्तीय माध्यम से समाज के इस वर्ग तक, साहूकारों के अतिरिक्त, पहुँच बनानी है। निजी क्षेत्र द्वारा लघु-वित्तीय संस्थान का समाज में फैलाव इस बात का उदाहरण है कि किस प्रकार मुनाफे की वजह से प्रसार हो सकता है। हालांकि इस प्रकार से प्रयासों की सफलता के लिए नूतन प्रयोग करने पड़ेंगे, क्योंकि सभी गाँवों में बैंक की शाखाएँ खोलना न तो संभव है और न ही व्यावहारिक है। इसके लिए विभिन्न तरीके (Model) अपनाये जा सकते हैं और निजी क्षेत्र, निश्चय ही ऐसे तरीके ढूंढ निकालेगा जोकि लागत-कुशल (Cost effective) होंगे और वे यह कार्य सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से ज्यादा बेहतर ढंग से कर सकेंगे।
आज जब टेक्नोलॉजी वास्तव में समाज के हर क्षेत्र एवं कार्यों में फैल चुकी है तब यह गरीबों के लिए क्यों नहीं उपयोगी बनायी जा सकती है। यह कुछ ही समय पहले की बात है जब मोबाइल फोन केवल प्रभावशाली वर्ग के पास होता था, वही आज समाज के हर तबके के पास पहुँच चुका है। यह व्यवसाय की पटुता ही है जो कहीं भी उपलब्ध अवसर का भरपूर उपयोग करके उसे एक लाभप्रद उपक्रम में परिवर्तित कर देती है।
वित्तीय समावेशन को तभी फलीभूत कहा जा सकता है जब सभी व्यक्ति और व्यवसाय, वित्तीय सेवाओं की बड़ी रेंज की उपलब्धता से लाभान्वित होते हैं और यह उचित मूल्य पर उपलब्ध टिकाऊ संस्थाओं द्वारा एक सुदृढ़ वैधानिक वातावरण में संचालित हो।
वित्तीय समावेशन का सार तत्व इसी में है कि उपयुक्त वित्तीय सेवा, प्रत्येक व्यक्ति को उपलब्ध हो और वह उसे समझकर उनका उपयोग कर सके।
भारत सरकार, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और NABARD ने विस्तृत वित्तीय समावेशन के लिए कई कदम उठाये हैं। इस दिशा में कुछ महत्त्वपूर्ण प्रयास है- बैंक से जुड़े कार्यक्रम सादा बैंक खाता frills), मोबाइल बैंकिंग, किसान क्रेडिट कार्ड, प्रधानमंत्री जन-धन योजना इत्यादि।
वित्तीय समावेशन संभव है, बशर्ते कि इसे कल्याण के रूप में नहीं, बल्कि एक व्यावसायिक उपक्रम के रूप में देखा जाय। आज की यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है कि गरीबों को बैंकिंग सेवा से जोड़ा जाय। इसके बहुउद्देशीय कार्य हैं, प्रथम-गरीबों को संगठित वित्तीय क्षेत्र तक पहुँच, द्वितीय, उन्हे महाजनों के चंगुल से छुटकारा, तृतीय, सरकार द्वारा उनके लिए रियायतों के स्थान पर आमदनी की व्यवस्था करना और इन सबसे महत्त्वपूर्ण बिचौलियों का खात्मा। इसे भविष्य के भारत के संयुक्त संवृद्धि के एकीकृत पहलू के रूप में भी देखा जा रहा है।
वित्तीय समावेशन के लाभ (Benefits of Financial Inclusion)
वित्तीय समावेशन द्वारा वित्तीय-साक्षरता के माध्यम से अच्छे वित्तीय निर्णय एवं सलाह संभव होगी, वित्तीय सेवाएँ सभी की पहुंच में होंगी, विशेषकर असुरक्षित समूहों जैसे कमजोर वर्ग, अल्पसंख्यक, घुमंतु समुदाय, वृद्ध-जन, अति सूक्ष्म उद्यमी, कम-आय वर्ग के लोग जिन्हें वहन करने योग्य खर्च पर यह सब उपलब्ध होगा ताकि वे-
- अपना दैनिक वित्तीय प्रबंधन, आत्मविश्वास, सुरक्षित और प्रभावी ढंग से कर सकें।
- अपनी आय में थोड़े समय के लिए होने वाले उतार-चढ़ाव की स्थिति में स्वयं को सुरक्षित कर सकें, धन अर्जित कर सकें और वित्तीय क्षेत्र में हो रहे विकास से स्वयं को लाभान्वित कर सकें तथा
- वित्तीय संकट की स्थिति में स्वयं की असुरक्षा, अनजाने कारणों से, न होने दें।
वित्तीय समावेशन की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति होने के बावजूद, वंचितता (exclusion) की समस्या अभी भी बरकरार है। समावेशी संवृद्धि की वर्तमान नीति के अनुपालन में, वित्तीय समावेश पर केंद्रित होना न केवल आवश्यक है, बल्कि एक पूर्व आवश्यकता है और एक विस्तृत समावेश के लिए पहला आवश्यक कदम है असुरक्षित समूहों और सर्वहारा वर्ग को क्रेडिट-समावेशी बनाना।
No comments:
Post a Comment