विकास की अवधारणा गुणात्मक (qualitative) है, वहीं संवृद्धि परिमाणात्मक (quantitative) होती है। संवृद्धि, अंकगणितीय अंकों के माध्यम से किसी अर्थव्यवस्था में उत्पाद-वृद्धि को दर्शाता है जबकि विकास की अवधारणा में उत्पाद वृद्धि से हुए लाभ को समाज के सबसे निचले स्तर पहुँचाना होता है। विकास का आशय अर्थव्यवस्था में समान वितरण से भी है।
पहले ऐसा विश्वास किया जाता था कि प्रारंभ में वृद्धि हुई और तत्पश्चात् विकास "नीचे रिसने वाले सिद्धांत" (Trickle down Theory) के तहत् होगा। इसका आशय यह है कि वृद्धि में बढ़ोत्तरी का लाभ नीचे छनते हुए समाज के सबसे निचले स्तर तक पहुंचेगा और समान वितरण सुनिश्चित होगा। "संवृद्धि और विकास" शब्द यही दर्शाता है।
शुरुआती वर्षों में हमारी समस्या थी- वृद्धि से दर को बढ़ाने में हमारी अयोग्यता और इस बात पर जोर था कि वृद्धि को बढ़ाया जाय, ताकि 'नीचे रिसने वाला सिद्धांत' विकास का अपना काम कर सके और समाज के निचले स्तर तक समान-वितरण हो सके। परंतु, भारत के संदर्भ में 1991 और 2005 में हुए आर्थिक सुधारों के बाद यह कहानी कुछ अलग बयान करती है। भारत न सिर्फ कम-वृद्धि-चक्र से बाहर निकल आया है, बल्कि चीन के बाद आज सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक है।
भारत में 2005 से ऊँची वृद्धि दर प्राप्त होते हुए भी उसका लाभ 'नीचे रिसने वाला सिद्धांत' के आधार पर समाज के सबसे निचले स्तर तक नहीं पहुंच पाया है और इसलिए इस सिद्धांत की सत्यता पर संदेह उठ खड़ा होता है। इस सिद्धांत के बावजूद अत्यंत गरीबी का स्तर अप्रभावित रहा, बेरोज़गारी भी यथावत रही और क्षेत्रीय विषमताएं भी जस-तस बनी रहीं (बल्कि और भी ज्यादा परिलक्षित हुई है)। नीचे रिसने वाले सिद्धांत के, भारत के परिप्रेक्ष्य में सफल न होने के कई कारण हैं। सर्वप्रथम, भारतीय अर्थव्यवस्था की एक ढाँचागत समस्या यह है कि यहाँ की आर्थिक निर्भरता अत्यधिक रूप से कृषि क्षेत्र पर निर्भर है। लगभग 65% जनसंख्या प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि क्षेत्र पर निर्भर है। सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में, कृषि से कर का योगदान मात्र 18% है। लगभग 55% का सबसे बड़ा योगदान प्रदत्त सेवाओं का है। शेष 27% अनुपूरक क्षेत्र (Secondary Sector) का है जिसमें 14% ही औद्योगिक क्षेत्र का है। जो क्षेत्र सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में, सबसे कम योगदान करता है, इसके उलट उसपर सबसे ज्यादा निर्भरता है (कृषि) और सर्वाधिक योगदान वाले क्षेत्र (प्रदत्त सेवाएं) पर सबसे कम निर्भरता है।
दूसरा कारण भारत की संवृद्धि प्रक्रिया में एक कड़ी गायब है; और वह है, देश में प्रदत्त सेवाओं का क्षेत्र, औद्योगिक क्षेत्र से तुलनात्मक रूप से पहले परिपक्व हो गया। आदर्श परिस्थितियों में औद्योगिक क्षेत्र की परिपक्वता पहले आनी चाहिए थी या कम-से-कम प्रदत्त-सेवा क्षेत्र के बराबर अवधि में होना चाहिए था। यह एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है कि औद्योगिक क्षेत्र एवं कृषि क्षेत्र में एक जुड़ाव होता है, चाहे वह कच्चे माल के जरिये हो या औद्योगिक उत्पादनों के माध्यम से हो। साथ ही, रोजगार अवसर भी जोड़ने की कड़ी का काम करते हैं। कुल मिलाकर इनसे अर्थव्यवस्था में दीर्घकालिक वृद्धि होती है।
इस प्रकार हाल के वर्षों में बढ़ी हुई संवृद्धि का लाभ, प्रदत्त सेवा क्षेत्र को ज्यादा मिला है और तुलनात्मक रूप से औद्योगिक क्षेत्र को काफी कम और कृषि क्षेत्र को तो बिल्कुल ही नहीं मिला है; जहां हमारी अधिकांश जनसंख्या निवास करती है। भारत में प्रदत्त-सेवा क्षेत्र के जल्दी परिपक्व होने का एक कारण BPOs और KPOs में वृद्धि है, साथ ही बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की एक आवश्यकता मूल्यवर्धित सेवाओं (Value added services) की है और भारत में उपलब्ध और नौकरी का इच्छुक होने के कारण इन बड़ी कंपनियों ने देश में अपना आधार स्थापित कर लिया है। इससे भी देश में प्रदत्त-सेवा क्षेत्र को परिपक्व होने में सहायता मिली है। फिर भी एक प्रश्न कि भारत के कृषि क्षेत्र पर इतनी निर्भरता क्यों है; अनुत्तरित है। भारत की बहुसंख्यक आबादी गाँवों में निवास करती है। रोजगार के अवसरों का औद्योगिक क्षेत्र में अभाव, शिक्षा का अभाव, कौशल में कमी, कृषि आधारित उद्योगों का कम विकास, परंपरागत सोच एवं अत्यंत दयनीय निर्धनता आदि अनेक कारणों में कुछ-एक कारण हो सकते हैं।
कुछ हद तक कृषि क्षेत्र पर अत्यधिक निर्भरता के पीछे कम सरकारी प्रयास भी जिम्मेदार है। जैसे सरकार गाँवों के इर्द-गिर्द मूलभूत, कारगर, संरचनात्मक ढांचा तैयार कर सकती है और सड़क, रेल मार्ग को आपस में जोड़ सकती है। उद्देश्य होना चाहिए कि अखिल-भारतीय (Pan India) सड़क एवं रेल यातायात सुगम हो, का उद्देश्य होना चाहिए। जिससे एक तो आसानी से हर जगह पहुंचा जा सकेगा और साथ ही श्रमिकों की गतिशीलता भी बढ़ जायेगी।
इतिहास साक्षी है कि जर्मनी-अमेरिका एवं हाल ही में चीन में सड़क यातायात में उन्नति से विकास के द्वार खुले। भारत में इस वास्तविकता की जागृति अभी हाल में ही आयी है और अब सड़क निर्माण को उचित महत्त्व दिया जा रहा है। इसलिए भारत में कई महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं का क्रियान्वयन हो रहा है। जैसे स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना, (देश के चार महानगरों व मुम्बई, कोलकाता, दिल्ली और चेन्नई को जोड़ने के लिए), उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर (श्रीनगर-कन्याकुमारी) और पूर्व-पश्चिम कॉरिडोर (सिल्चर-पोरबंदर)।
इसके अतिरिक्त टीयर-2 और 3 शहरों को जोड़ने का भी प्रयास चल रहा है। गांवों को प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के अंतर्गत शहरों से या मुख्य मार्गों से जोड़ा जा रहा है।
हाल में सरकार ने भारतमाला परियोजना शुरू की है, जो NHDP के बाद दूसरी बड़ी परियोजना है, जिसके अन्तर्गत लगभग 50,000 किमी. तक की बृहत सड़क परियोजना पूरे देश में लक्षित है। भारतमाला के अन्तर्गत आर्थिक गलियारा, सीमा पर, दूरस्थ क्षेत्रों में सामान की आवाजाही और निर्यात को बढ़ाना शामिल किया गया है।
इस परियोजना से प्रतिदिन 100 मिलियन लोगों को सड़क निर्माण से और 22 मिलियन लोगों को बढ़ी हुई आर्थिक गतिविधियों के परिणाम स्वरूप रोजगार की प्राप्ति की आशा है। निर्माण कार्य का भुगतान ऋण, बजट के द्वारा, निजी निवेश, टोल आपरेटर हस्तान्तरण आदि के माध्यम से होगा।
वृद्धि में बढ़ोतरी के फायदों को संपादित कर चुकने के बाद भारत सरकार आम लोगों तक फिर भी नहीं पहुंच पा रही थी और इसलिए "विकास" की शब्दावली को हटाकर "संयुक्त (समावेशी) संवृद्धि" (Inclusive Growth) का नाम दिया है।
यह कोई नयी अवधारणा नहीं है, परंतु इससे यह इंगित होता है कि सरकार विकास को किस दृष्टि से देख रही है। पहले यह विश्वास किया जाता था कि विकास के लिए वृद्धि एक आवश्यक आवश्यकता है। संयुक्त संवृद्धि के परिवर्तित अभिप्राय से यह भावना प्रगट होती है कि किसी भी प्रकार की वृद्धि से होने वाला लाभ आम जनता तक पहुंचे, इसका आधार बड़ा हो और इस बढ़ोतरी की उन्मुखता आम जन (Masscs) की ओर हो न कि केवल विशिष्ट वर्ग (Classes) की ओर हो। इस प्रकार संयुक्त-विकास में संवृद्धि और विकास दोनों ही तत्व समाहित हैं और इनको अलग-अलग न देखकर, वर्तमान सहित भविष्य के एक रूप में देखना चाहिए।
यहां संयुक्तता (Inclusivity) से आशय ऊँची संवृद्धि से प्राप्त लाभ का ज्यादा से ज्यादा न्याय-संगत वितरण (equitable) से हैं, परंतु न्यायसंगत वितरण एक अर्थव्यवस्था में अंकगणितीय आधार पर समान वितरण नहीं है। यह सिर्फ सैद्धांतिक रूप से संभव है। न्यायसंगत वितरण से आशय "ईमानदार और न्याययुक्त" वितरण को आम जनता, विशेषकर गरीबों, के लिए सुनिश्चित करना है। इसके अंतर्गत धनी लोग और भी धनी हो जाएं, ऐसा नहीं होना चाहिए, बल्कि निर्धन की भी आय और उसके कल्याण में कुछ बढ़ोतरी हो; यद्यपि इसमें धनी, उच्च वर्ग और निर्धन की बढ़ोतरी भले ही उचित अनुपात में नहीं हो पाये।
अगर अर्थव्यवस्था के दोनों ही उपभाग (धनी और निर्धन) वृद्धि की एक ही दिशा में बढ़ रहे हैं, उनके जीवन-यापन के साधन उपलब्ध हैं, उनकी जीवन शैली आर्थिक रूप से बेहतर है और उनकी मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी हो रही हैं, तब न्याय संगत वितरण का उद्देश्य पूरा होता माना जायेगा। इसके विपरीत असमान वितरण (inequitable distribution) का आशय होगा कि धनी लोग और भी धनाढ्य हो जायेंगे जबकि निर्धन अपनी जगह पर गरीब ही रहेंगे या इससे भी खराब स्थिति में चले जाएंगे।
हम देख चुके हैं कि 'संयुक्त संवृद्धि' आम जनता की ओर उन्मुख है, तब यह जानना जरूरी है कि संयुक्त संवृद्धि से क्या-क्या मिलना चाहिए? अथवा यह कब कहा जा सकता है कि संवृद्धि अब संयुक्त हो गयी है? समावेशी संवृद्धि से निम्न दशाएं प्राप्त होनी चाहिए-
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