सतत विकास क्या है
वर्तमान में आर्थिक व्यवस्था का उल्लेख करने में कुछ नयी शब्दावलियों का प्रयोग किया जा रहा है, जैसे "संपोषित अथवा सतत विकास" एवं "हरित सकल घरेलू उत्पाद"। सतत विकास एक विश्व स्तरीय मान्य शब्दावली है जिसका प्रयोग विश्वव्यापी समस्याओं; जैसे कि भूमण्डलीय तापक्रम वृद्धि, पर्यावरण संबंधी विषय, बढ़ते प्रदूषण, पारिस्थितिक संतुलन आदि को व्यक्त करने के लिये किया जा रहा है। ये समस्याएं पृथ्वी के अस्तित्व को ही संकट में डाल रही हैं और इन्हें किसी एक देश के परिप्रेक्ष्य में न देखते हुए, वृहद् स्तर पर प्रभावी समझना चाहिए।
उपरोक्त समस्याएँ किसी राष्ट्र विशेष की समस्या नहीं हैं और न ही कोई एक राष्ट्र इसे अकेले हल करता है। यह एक वृहद् स्तरीय समस्या है, जिसे हल करने के लिए विश्वस्तरीय मंच पर सभी देशों को सामूहिक भागीदारी के रूप में इस पर विचार-विमर्श करना पड़ेगा। मानव समुदाय की वर्तमान पीढ़ी को अपनी मौजूदा आवश्यकताएं पूरा करने के साथ ही भावी पीढ़ियों की जरूरतों का भी ध्यान रखना पड़ेगा। इसका आशय भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक बेहतर पर्यावरण की उपलब्धता सुनिश्चित करने से है। यह यथोचित है कि भविष्य का पर्यावरण, वर्तमान की पर्यावरणीय दशाओं से किसी भी स्थिति में खराब अथवा निम्नस्तरीय नहीं होना चाहिए।
यद्यपि सतत विकास के बारे में जागरुकता विद्यमान रही है, परंतु इसे समुचित महत्त्व 1992 में आयोजित भूमंडलीय सम्मेलन तथा तत्पश्चात् अनेक अंतर्राष्ट्रीय प्रस्तावों के माध्यम से ही मिल सका है।
इन पारित प्रस्तावों में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव, पर्यावरण-तापन-प्रभाव (ग्रीन हाउस) वाले गैस उत्सर्जन में कमी करने वाला है। यह सतत विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। सतत विकास के अंतर्गत स्वच्छ ऊर्जा, वृक्षारोपण, सौर एवं पवन ऊर्जा, जैव विविधता में हो रहे नुकसान में कमी और इसी प्रकार के वैश्विक समस्याओं को समाहित किया गया है। सतत-विकास का आशय मात्र महत्त्वपूर्ण समस्याओं को उजागर करना ही नहीं है, बल्कि विश्व स्तर पर सामूहिक सहमति की आवश्यकता पर बल देना भी है। इसके लिये यह जरूरी है कि सामूहिक विचार-विमर्श के बाद अलग-अलग देशों द्वारा किये जा रहे उत्सर्जन की मात्रा को निर्धारित समय-सीमा के अंदर कम किया जाय। किन्तु, यह समस्या विकसित एवं विकासशील देशों के बीच गहरे मतभेद से ग्रसित है। भारत और चीन जैसे देशों का मानना है कि प्रदूषण स्तर में कमी करने के लिए अभी तक पारित प्रस्ताव जहां असफल रहे हैं, वहीं राष्ट्रों द्वारा उत्सर्जन का एक स्वनिर्धारित स्तर निश्चित करते हुए वृहद् स्तर की परिसीमाओं के अंतर्गत प्रयास होना चाहिए। विश्व के सभी विकसित और धनी देश बार-बार निर्धारित समय-सीमा के अंदर उत्सर्जन स्तर को कम करने में असफल रहे हैं और इसमें भी पर्यावरण तापन प्रभाव (ग्रीन हाउस) के उत्सर्जन में कमी तो बिल्कुल नहीं हो सकी है।
दूसरी ओर भारत इस संबंध में काफी स्पष्टवादी रहा है कि इसके यहां नुकसानदायक गैस का उत्सर्जन स्तर पहले से ही न्यूनतम है और इस गति से 2031 तक होने वाला अनुमानित उत्सर्जन 2005 के मौजूदा औसत से भी कम रहेगा। भारत द्वारा स्वच्छ ऊर्जा, सौर एवं पवन ऊर्जा तथा वृक्षारोपण की दिशा में सराहनीय प्रयास किये जा रहे हैं।
इसके बावजूद भी भारत के लिए कई अन्य बड़ी समस्याएँ सामने हैं। इन चिन्तनीय समस्याओं में शामिल हैं- विकास को गति देना, उत्पादन वृद्धि तथा जहां पर लाखों-करोड़ों की जनसंख्या की दैनिक आय एक अमेरिकी डॉलर से भी कम है और इसी कारण भारत को सर्वाधिक गरीब जनसंख्या वाला देश कहा जाना, अपने-आप में खेद का विषय है। गरीबी और सतत विकास को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। भारत के संदर्भ में मलिन बस्तियों की संख्या में हो रही निरंतर वृद्धि, सर्वव्यापी दयनीय आवास व्यवस्था, प्लास्टिक की सामग्रियों का इस्तेमाल एवं प्रदूषित नदियाँ, सभी कुछ सतत-विकास के अंतर्निहित भाग हैं।
सतत विकास और जलवायु परिवर्तन
- भारतीय परंपराओं और मूल्यों पर आधारित जीवनशैली के लिए लोगों को प्रोत्साहित करना जिसमें संरक्षण एवं मितव्ययिता जीवन का हिस्सा बने।
- पश्चिमी और अन्य विकसित देशों की तुलना में भारतीय समाज को जलवायु-मित्र एवं स्वच्छ पर्यावरण के लिये अनुकूल बनाना।
- 2005 के आधार-वर्ष की तुलना में उत्सर्जन-सघनता को GDP में 33-35% तक की, वर्ष 2030 तक कमी करना।
- ऊर्जा-उत्पादन की क्षमता में, कुल मिला कर गैर-जीवाष्म तैल आधारित ऊर्जा स्रोतों 40% अधिक निर्भरता (2030 तक)। यह टेक्नोलोजी हस्तांतरण, कम दरों पर अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सहायता और 'हरित- -जलवायु फंड' (GCF) के माध्यम से संभव किया जायेगा।
- 2030 तक अतिरिक्त वन एवं वृक्ष सघनता से कार्बन-डाई-आक्साइड उत्सर्जन के अनुपात में 2.5 से 3 बिलियन टन, अतिरिक्त कार्बन सिंक' की व्यवस्था।
- जलवायु – परिवर्तन के अनुसार सामाजिक परिवेश को ढालना और इससे अधिक प्रभावित होने वाले क्षेत्रों, जैसे कृषि, जल संसाधन, तटीय क्षेत्र, स्वास्थ्य एवं आपदा प्रबंधन आदि में विकास हेतु अधिक निवेश करना।
- जलवायु-प्रबंधन में संसाधनों की आवश्यकता और उसमें विद्यमान कमी को पूरा करने के लिए नये एवं अतिरिक्त फंड की व्यवस्था, विकसित देशों से करना ताकि जलवायु-परिवर्तन के कारण होने वाली त्रासदी से लड़ा जा सके।
- जलवायु-परिवर्तन में उपयोगी अग्रणी टेक्नोलोजी के विकास के लिए देश में समुचित ढांचा तैयार करना और साथ ही अंतर्राष्ट्रीय-आर्किटेक्चर की परिकल्पना, ताकि संयुक्त प्रयास, रिसर्च और विकास के के द्वारा, जलवायु परिवर्तन से होने वाली कठिनाइयों का सामना और उनका त्वरित निवारण किया जा सके।
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