Tuesday, May 18, 2021

सतत विकास और जलवायु परिवर्तन Sustainable Development and Climate Change | Indian Economy

सतत विकास क्या है 

वर्तमान में आर्थिक व्यवस्था का उल्लेख करने में कुछ नयी शब्दावलियों का प्रयोग किया जा रहा है, जैसे "संपोषित अथवा सतत विकास" एवं "हरित सकल घरेलू उत्पाद"। सतत विकास एक विश्व स्तरीय मान्य शब्दावली है जिसका प्रयोग विश्वव्यापी समस्याओं; जैसे कि भूमण्डलीय तापक्रम वृद्धि, पर्यावरण संबंधी विषय, बढ़ते प्रदूषण, पारिस्थितिक संतुलन आदि को व्यक्त करने के लिये किया जा रहा है। ये समस्याएं पृथ्वी के अस्तित्व को ही संकट में डाल रही हैं और इन्हें किसी एक देश के परिप्रेक्ष्य में न देखते हुए, वृहद् स्तर पर प्रभावी समझना चाहिए। 

उपरोक्त समस्याएँ किसी राष्ट्र विशेष की समस्या नहीं हैं और न ही कोई एक राष्ट्र इसे अकेले हल करता है। यह एक वृहद् स्तरीय समस्या है, जिसे हल करने के लिए विश्वस्तरीय मंच पर सभी देशों को सामूहिक भागीदारी के रूप में इस पर विचार-विमर्श करना पड़ेगा। मानव समुदाय की वर्तमान पीढ़ी को अपनी मौजूदा आवश्यकताएं पूरा करने के साथ ही भावी पीढ़ियों की जरूरतों का भी ध्यान रखना पड़ेगा। इसका आशय भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक बेहतर पर्यावरण की उपलब्धता सुनिश्चित करने से है। यह यथोचित है कि भविष्य का पर्यावरण, वर्तमान की पर्यावरणीय दशाओं से किसी भी स्थिति में खराब अथवा निम्नस्तरीय नहीं होना चाहिए। 

यद्यपि सतत विकास के बारे में जागरुकता विद्यमान रही है, परंतु इसे समुचित महत्त्व 1992 में आयोजित भूमंडलीय सम्मेलन तथा तत्पश्चात् अनेक अंतर्राष्ट्रीय प्रस्तावों के माध्यम से ही मिल सका है।

 इन पारित प्रस्तावों में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव, पर्यावरण-तापन-प्रभाव (ग्रीन हाउस) वाले गैस उत्सर्जन में कमी करने वाला है। यह सतत विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। सतत विकास के अंतर्गत स्वच्छ ऊर्जा, वृक्षारोपण, सौर एवं पवन ऊर्जा, जैव विविधता में हो रहे नुकसान में कमी और इसी प्रकार के वैश्विक समस्याओं को समाहित किया गया है। सतत-विकास का आशय मात्र महत्त्वपूर्ण समस्याओं को उजागर करना ही नहीं है, बल्कि विश्व स्तर पर सामूहिक सहमति की आवश्यकता पर बल देना भी है। इसके लिये यह जरूरी है कि सामूहिक विचार-विमर्श के बाद अलग-अलग देशों द्वारा किये जा रहे उत्सर्जन की मात्रा को निर्धारित समय-सीमा के अंदर कम किया जाय। किन्तु, यह समस्या विकसित एवं विकासशील देशों के बीच गहरे मतभेद से ग्रसित है। भारत और चीन जैसे देशों का मानना है कि प्रदूषण स्तर में कमी करने के लिए अभी तक पारित प्रस्ताव जहां असफल रहे हैं, वहीं राष्ट्रों द्वारा उत्सर्जन का एक स्वनिर्धारित स्तर निश्चित करते हुए वृहद् स्तर की परिसीमाओं के अंतर्गत प्रयास होना चाहिए। विश्व के सभी विकसित और धनी देश बार-बार निर्धारित समय-सीमा के अंदर उत्सर्जन स्तर को कम करने में असफल रहे हैं और इसमें भी पर्यावरण तापन प्रभाव (ग्रीन हाउस) के उत्सर्जन में कमी तो बिल्कुल नहीं हो सकी है। 

दूसरी ओर भारत इस संबंध में काफी स्पष्टवादी रहा है कि इसके यहां नुकसानदायक गैस का उत्सर्जन स्तर पहले से ही न्यूनतम है और इस गति से 2031 तक होने वाला अनुमानित उत्सर्जन 2005 के मौजूदा औसत से भी कम रहेगा। भारत द्वारा स्वच्छ ऊर्जा, सौर एवं पवन ऊर्जा तथा वृक्षारोपण की दिशा में सराहनीय प्रयास किये जा रहे हैं। 

इसके बावजूद भी भारत के लिए कई अन्य बड़ी समस्याएँ सामने हैं। इन चिन्तनीय समस्याओं में शामिल हैं- विकास को गति देना, उत्पादन वृद्धि तथा जहां पर लाखों-करोड़ों की जनसंख्या की दैनिक आय एक अमेरिकी डॉलर से भी कम है और इसी कारण भारत को सर्वाधिक गरीब जनसंख्या वाला देश कहा जाना, अपने-आप में खेद का विषय है। गरीबी और सतत विकास को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। भारत के संदर्भ में मलिन बस्तियों की संख्या में हो रही निरंतर वृद्धि, सर्वव्यापी दयनीय आवास व्यवस्था, प्लास्टिक की सामग्रियों का इस्तेमाल एवं प्रदूषित नदियाँ, सभी कुछ सतत-विकास के अंतर्निहित भाग हैं।

सतत विकास और जलवायु परिवर्तन

21वीं कांफ्रेंस ऑफ पर्टीज पेरिस में 195 देशों द्वारा स्वीकृत जलवायु परिवर्तन समझौता जलवायु परिवर्तन से संघर्ष की दिशा में एक ओर मील का पत्थर है। पेरिस समझौता सभी देशों के लिए 2020 के बाद के कार्य योजनाओं के लिए रोडमैप तैयार करता है। सहस्राब्दि विकास लक्ष्य (Millennium Development Goals-MDGs) जोकि वर्ष 2000 से 2015 तक क्रियाशील था, वह अब संपोषित विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals-SDGs) से बदल दिया गया है SDG का उद्देश्य आगामी 15 वर्षों के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय और देशों के लिए संपोषित विकास की दिशा तय करना है। 17 नये SDGs और 169 नये लक्ष्यों को विश्व के देशों द्वारा 2015 के सम्मेलन में स्वीकार किया गया। पेरिस समझोते के लागू करने के लिए 'कांग्रेस ऑफ पार्टीज 22' का आयोजन माराकेश मोरक्को में सम्पन्न हुआ। इसने तुरंत समझौते को लागू करने के लिए एक दबाव का काम किया। मोरक्को में सम्पन्न सम्मेलन में पेरिस सम्मेलन के साथ-साथ क्योटो प्रोटोकॉल पर भी दृष्टिपात किया गया। अब सभी देश 2018 पर ध्यान दे रहे है। जब कोई सुविधाजनक बातचीत सम्पन्न हो जिसमें जलवायु परिवर्तन पर अन्तर सरकारी पैनल से प्राप्त जानकारी के अनुसार 1.5 °C तापमान, साथ ही सभी पार्टीयों द्वारा ली गई प्रतिज्ञा पर की गई प्रगति और सभी हिस्सेदार शामिल होंगे। जो सभी पार्टियों को अपने नेशनल डिटेरमाइन्ड कान्ट्रीब्यूशन (NDC) को पूरा करने के लिए दबाव को बनाएगा। 

घरेलू मोर्चे पर भारत जलवायु-परिवर्तन संबंधी महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील है। विश्व स्तर पर जलवायु-परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए किये जा रहे प्रयासों में भारत का योगदान अभीष्ट राष्ट्रीय दृढ़ता कार्यक्रम के रूप में (Intended Nationally Determined Contribution- INDC) है जिसका उद्देश्य घरेलू स्तर पर प्रयास के माध्यम से महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों की प्राप्ति करना है। भारत ने वर्ष 2030 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद में होने वाले उत्सर्जन को वर्ष 2005 के स्तर से 33-35% कम करने का महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है। साथ ही ऊर्जा संसाधनों की स्थापना के क्षेत्र में कुल मिला कर, विद्युत उत्पादन की स्थापित क्षमता में गैर जीवाष्म (Non-fossil) तैल आधारित ऊर्जा स्रोतों पर 40% निर्भरता कायम करने का निश्चय वर्ष 2030 तक किया है। 

भारत ने 121 देशों के साथ एक अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (International Solar Alliance) स्थापित करने की पहल की है। ये देश सौर-ऊर्जा-संसाधन संपन्न देश हैं जिनकी भौगोलिक स्थिति कर्क-रेखा और मकर-रेखा के बीच है। इस संगठन की स्थापना की संयुक्त घोषणा भारत के प्रधानमंत्री और फ्रांस के राष्ट्रपति द्वारा, संयुक्त राष्ट्र की 21वीं संगोष्ठी UNFCCC के समय 30 नवंबर, 2015 को पेरिस में की गयी थी। ISA के पेरिस घोषणा-पत्र में यह कहा गया है कि सभी सदस्य देश सौर ऊर्जा के . प्रतियोगी उत्पादन के क्षेत्र में नयी खोज और संयुक्त प्रयास द्वारा कम लागत वाली सस्ती टेक्नोलोजी का विकास करने के लिए प्रयासरत रहेंगे जिससे सौर ऊर्जा उत्पादन में वृद्धि हो और भविष्य में इसके उत्पादन, संग्रहण तकनीक और अच्छी टेक्नोलोजी का विकास हो सके ताकि सदस्य देशों की निजी आवश्यकताएँ पूरी हो सके। 

भारत ने जलवायु परिवर्तन की दिशा में अपने कार्यक्रम INDC के अंतर्गत निम्नलिखित घोषणा की है-

  • भारतीय परंपराओं और मूल्यों पर आधारित जीवनशैली के लिए लोगों को प्रोत्साहित करना जिसमें संरक्षण एवं मितव्ययिता जीवन का हिस्सा बने। 
  • पश्चिमी और अन्य विकसित देशों की तुलना में भारतीय समाज को जलवायु-मित्र एवं स्वच्छ पर्यावरण के लिये अनुकूल बनाना। 
  • 2005 के आधार-वर्ष की तुलना में उत्सर्जन-सघनता को GDP में 33-35% तक की, वर्ष 2030 तक कमी करना। 
  • ऊर्जा-उत्पादन की क्षमता में, कुल मिला कर गैर-जीवाष्म तैल आधारित ऊर्जा स्रोतों 40% अधिक निर्भरता (2030 तक)। यह टेक्नोलोजी हस्तांतरण, कम दरों पर अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सहायता और 'हरित- -जलवायु फंड' (GCF) के माध्यम से संभव किया जायेगा। 
  • 2030 तक अतिरिक्त वन एवं वृक्ष सघनता से कार्बन-डाई-आक्साइड उत्सर्जन के अनुपात में 2.5 से 3 बिलियन टन, अतिरिक्त कार्बन सिंक' की व्यवस्था। 
  • जलवायु – परिवर्तन के अनुसार सामाजिक परिवेश को ढालना और इससे अधिक प्रभावित होने वाले क्षेत्रों, जैसे कृषि, जल संसाधन, तटीय क्षेत्र, स्वास्थ्य एवं आपदा प्रबंधन आदि में विकास हेतु अधिक निवेश करना। 
  • जलवायु-प्रबंधन में संसाधनों की आवश्यकता और उसमें विद्यमान कमी को पूरा करने के लिए नये एवं अतिरिक्त फंड की व्यवस्था, विकसित देशों से करना ताकि जलवायु-परिवर्तन के कारण होने वाली त्रासदी से लड़ा जा सके। 
  • जलवायु-परिवर्तन में उपयोगी अग्रणी टेक्नोलोजी के विकास के लिए देश में समुचित ढांचा तैयार करना और साथ ही अंतर्राष्ट्रीय-आर्किटेक्चर की परिकल्पना, ताकि संयुक्त प्रयास, रिसर्च और विकास के के द्वारा, जलवायु परिवर्तन से होने वाली कठिनाइयों का सामना और उनका त्वरित निवारण किया जा सके। 

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