Tuesday, May 18, 2021

भारतीय अर्थव्यवस्था की संवृद्धि दर Growth Rate of Indian Economy

आप "संवृद्धि दर धीमी हो रही है" कथन पर विचार करें। इस वाक्यांश का मूल आशय यह कि अर्थव्यवस्था का उत्पाद बढ़ तो रहा है, परंतु पिछली तिमाही/छमाही/वार्षिक अवधि की तुलना में (जो भी संदर्भित अवधि हो) धीमी गति से है। यदि इसी संदर्भित अवधि में उत्पाद भी नीचे गिरा है तब इसे "उत्पाद का सिकुड़ना (संकुचन)" (contraction) कहते हैं। लगातार दो तिमाही में यदि सिकुड़ने की गति बराबर रहे तो उसे घटाव या मंदी के नाम से जाना जाता है और लगातार मंदी की स्थिति को "निराशा" (depression) कहते हैं।


अभी तक विश्व की अर्थव्यवस्था में 1929-33 के दौरान भारी गिरावट की अवधारणा का अनुभव किया गया है (इसके बारे में आगे चलकर 'वैश्विक दृष्टिकोण' अध्याय में कुछ और विस्तार से चर्चा की जायेगी)।

जैसा कि हम लोग पहले बात कर चुके हैं, किसी भी अर्थव्यवस्था में संवृद्धि (Growth) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हमने देखा है कि बढ़ी हुई संवृद्धि का आशय अर्थव्यवस्था में बढ़े उत्पाद और बढ़ी आय से है। आय से उत्पाद के कारकों में भी वृद्धि होती है इससे और भी अधिक आय के चक्र का निर्माण इस प्रकार दिखाई देता है -


इस प्रकार अर्थव्यवस्था का बढ़ता विकास उस अर्थव्यवस्था के अच्छी तरह से होने का संकेत देता है। इससे रोज़गार के अवसर पैदा होते हैं, आय में वृद्धि होती है और परिणामस्वरूप पूरी अर्थव्यवस्था में संपूर्ण रूप में धन की वृद्धि होती है। इसी कारण से हर अर्थव्यवस्था अपने समग्र विकास को बढ़ाना चाहेगी। भारत में आर्थिक सुधारों की शुरुआत के समय तक माना जाता था कि यहां की अर्थव्यवस्था “धीमी गति से वृद्धि" के चक्र में फंसी हुई थी जिसके कारण आय का स्तर कम था, इसके परिणामस्वरूप कम बचत और कम निवेश की समस्या थी। अंततः फिर से कम आय-कम बचत हुई जिसे निम्न विकास चक्र के रूप में जाना जाता है।

उन दिनों यह भी कहा जाता था कि भारत “हिंदू संवृद्धि दर" के जाल को भेदकर बाहर नहीं निकल पा रहा है। उस समय की वृद्धि दर 3.5 प्रतिशत थी (इस शब्दावली के जनक प्रमुख भारतीय अर्थशास्त्री प्रो. राज कृष्णा थे)। कम आय और बढ़ती जनसंख्या के दबाव से देश में बेरोजगारी और गरीबी बढ़ रही थी। देश के अंदर बढ़ते क्षेत्रीय एवं अंतक्षेत्रीय असंतुलन के कारण आय की असमानताएं भी बढ़ रही थीं।

एक अर्थव्यवस्था द्वारा अपने वृद्धि दर को बढ़ाने की असफलता का कारण मात्र कम बचत और कम निवेश ही नहीं है, बल्कि संसाधनों का अभाव, तकनीकी और आधारभूत संरचना में कमी भी है। ये सभी कारक भारत के लिए बाधक थे लेकिन 21वीं सदी में चीजें बदल गई हैं।

21वीं सदी का प्रारंभ भारत के लिए अच्छा सिद्ध हुआ है, जहां संवृद्धि-दर ऊपर की ओर बढ़ रही है और देश संभवतः पहली बार दो अंकों की वृद्धि दर की ओर बढ़ रहा है (1980 का संक्षिप्त समय इस कथन का अपवाद है)। यद्यपि संवृद्धि दर में वृद्धि हुई है, परंतु इसका परिलक्षित प्रभाव गरीबी, बेरोजगारी, अंतर क्षेत्रीय आय असंतुलन आदि पर होता नहीं दिखाई दे रहा है। अच्छी संवृद्धि दर हासिल करने के बावजूद वांछित परिणाम की प्राप्ति नहीं हो सकी है। 2010 वृद्धि दर गति में स्पष्ट कमी दिखायी दे रही है और बीच में तो यह इस दशक के सबसे न्यूनतम स्तर 4.4% पर पहुँच गयी थी। किन्तु, बड़ा प्रश्न यह है कि उच्च वृद्धि दर ने भारतीय अर्थव्यवस्था को आदर्श लाभ नहीं दिया है। यह स्थिति हमें विकास की एक नयी अवधारणा की ओर ले जाती है।

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