अर्थव्यवस्था के उत्पादों को मुद्रास्फीति के अनुसार अनुकूलन करना पड़ता है अर्थात् उत्पाद का मौद्रिक मूल्य (Monetary value), मुद्रास्फीति से बड़ी कीमतों के कारण बढ़ जाता है। सामान्य शब्दों में, मुद्रास्फीति वह दशा है जिसमें अर्थव्यस्था में वस्तुओं की कीमतें बढ़ती है। वर्तमान में भारत में CPI मुद्रास्फीति के आकलन का आधार है। (2014 से)। CPI के आकड़ों का संकलन मासिक आधार पर किया जाता है। CPI और WPI का विवरण इस प्रकार है:-
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Consumer Price Index) (CPI)
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक घरेलू उपभोग की वस्तुओं और सेवाओं के सामान्य मूल्य स्तर में समय के साथ होने वाले परिवर्तन का मापन करता है। CPI का व्यापक रूप से मुद्रास्फीति के एक व्यापक संकेतक के रूप में, सरकार और केन्द्रीय बैंक के द्वारा मुद्रास्फीति का आकलन और मूल्य स्थिरता की निगरानी, और राष्ट्रीय खातों में अपस्फीतिकारक के रूप में उपयोग होता है।
WPI की तरह CPI का कोई एक आकलन नहीं होता है। भारत में CPI की चार सूचियां जारी की जाती है। जो इस प्रकार है:- औद्योगिक श्रमिक (CPI-IW) पेशेवर (CPI-UNME), कृषि श्रमिक (CPI-AL) ग्रामीण श्रमिक (CPI-RL)।
थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index) (WPI)
थोक मूल्य सूचकांक की गणना साप्ताहिक आधार पर की जाती है। थोक मूल्य सूचकांक, वस्तुओं के खुद्रा विक्रय से पूर्व उनके मूल्य में होने वाले परिवर्तनों का मापन करने वाली सूची है।
थोक मूल्य सूचकांक का आधार वर्ष सशोधित होकर अब 2011-12 हो गया है जो पहले 2004-05 था। सशोधित सूची में WPI को तीन मुख्य समूह में विभाजित किया गया है वो इस प्रकार है- प्राथमिक वस्तु (117) ईंधन और ऊर्जा (16) और निर्मित उत्पाद (564)।
मुख्य परिवर्तन इस प्रकार है-
- WPI में मदों की संख्या 676 से 697 कर दी गई है, जिसमें 199 नयी मदें जोड़ी गयी और 146 पुरानी हटायी गई है।
- नई WPI की सूची ज्यादा प्रदर्शक है क्योंकि इसमें उदरणों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है।
- नई सूची में, राजकोषीय नीति पर प्रभाव को कम करने के लिए, जो मूल्य उपयोग होते है उनमें अप्रत्यक्ष कर को नहीं शामिल किया जाता है।
यह एक ऐसा सूचकांक है जो अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों जैसे-खनन, विद्युत, विनिर्माण आदि के लिए संवृद्धि (Growth) का विवरण प्रस्तुत करता है। यह सूचकांक केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय (CSO) द्वारा जारी किया जाता है।
IIP में सरकार द्वारा किये गये महत्वपूर्ण परिवर्तन इस प्रकार है:-
- IIP और WPI का आधार वर्ष परिवर्तित करके 2011-12 कर दिया।
- IIP बास्केट की मदों की संख्या में बढ़ोत्तरी करके 809 (पहले 320) कर दी
- IIP में विनिर्माण का भारांश बढ़ाकर 75.5% से 77.6% कर दिया जबकि विद्युत एवं खनन का भारांश घटकर क्रमशः 7.9% एवं 7.9% हो गया है।
- WPI में मदों की संख्या 676 से बढ़कर 697 कर दी। WPI में अप्रत्यक्ष करों को सम्मिलित नहीं किया जाता है।
मुद्रास्फीति के मापन के कुछ और तरीकों में "कोर मुद्रास्फीति" एक है। इसका आशय उस मूल्यवृद्धि से है जिसमें खाद्यान्न और ऊर्जा के लचीले और परिवर्तनशील मूल्यों को नहीं शामिल किया गया है। इस मापन-विधि को 'ढांचागत-मुद्रास्फीति' (Structural Inflation) भी कहते हैं। एक और मापन विधि है "खाद्यान्न मुद्रास्फीति" (Food Inflation) अर्थात् खाद्य पदार्थों में मूल्य वृद्धि। वर्ष 2009 से देश में खाद्यान्नों में मूल्य वृद्धि हो रही है, और यह दो अंकों (double, digit) तक पहुंच चुकी है।
इसके अतिरिक्त एक और मापन विधि है जिसे 'आयातित-मुद्रास्फीति' कहते हैं (Imported Inflation)। इसका आशय है कि कुछ आयातित पदार्थों के कारण मूल्यों में वृद्धि होती है, जैसे कच्चे पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्य में वृद्धि से तेल की मूल्य वृद्धि और परिणामतः सभी वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि।
अर्थशास्त्रियों ने इसके अतिरिक्त भी कई प्रकार की मुद्रास्फीति की चर्चा की है, जैसे:
- 'अति मुद्रास्फीति' (llyper or runaway Inflation) जिसमें 3 वर्षों में औसत 100% मूल्यवृद्धि हुई हो।
- इसी प्रकार ‘द्रुतस्फीति' (Galloping Inflation) अर्थात् मुद्रास्फीति की दर अंकगणितीय या ज्यामितीय श्रेणी में बढ़ रही हो।
- "मुद्रास्फीति" (Creeping Inflation) अर्थात् धीरे-धीरे कीमतों का बढ़ना, इसे अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा माना जाता है।
- "अवस्फीति" (Dis-inflation) अर्थात् मूल्यों में कमी की दर से बढ़ोत्तरी।
- “अपस्फीति" (Inflation turning negative) अर्थात् मुद्रास्फीति नकारात्मक स्तर पर हो और मूल्यों में गिरावट हो रही हो।
- मांग-पुल इनफ्लेशनः यह मुद्रास्फीति तब होती है जब कुल आपूर्ति की तुलना में सकल दर तेज गति से बढ़ती है। इस प्रकार की मुद्रास्फीति आम तौर पर तब होगी जब अर्थव्यवस्था विकास की लंबी अवधि की प्रवृत्ति दर तेजी से बढ़ रही है। यदि मांग आपूर्ति से अधिक हो जाती है, तो वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं।
- लागत धक्काः मुद्रा स्फीति यह मुद्रास्फीति तब होती है जब फर्मों के लिए उत्पादन की लागत में वृद्धि होती है। बढ़ती ऊर्जा और कमोडिटी की कीमतों के कारण कॉस्ट-पुश मुद्रास्फीति हो सकती है।
मुद्रास्फीति के प्रभाव (Fallout of Inflation)
ऐसी धारणा है कि हल्की मात्रा में मूल्य वृद्धि, जैसे 'मंदस्फीति' अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा है, क्योंकि इससे उत्पादकों को और अधिक उत्पादन के लिए प्रोत्साहन मिलता है, परिणामतः अधिक आय प्राप्त होती है। बढ़ी हुई आय से आम-जन, थोड़ी मूल्यवृद्धि को बर्दाश्त कर लेते हैं।
परंतु, यदि मूल्य वृद्धि की दर, आय में वृद्धि की दर से ज्यादा है तो चोट पहुंचाती है, विशेषकर गरीबों को जो मुद्रास्फीति से सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। उपभोग वाली आवश्यक वस्तुएं बहुसंख्यक आबादी की पहुंच के बाहर हो जाती हैं। अपने जीवन स्तर को बनाये रखने के लिए लोगों को, अपनी बचत का ज्यादा हिस्सा, मुद्रास्फीति काम खर्च करना पड़ता है। लंबे अर्से तक चलने वाली मुद्रास्फीति, अर्थव्यवस्था के ताने-बाने को ध्वस्त कर सकती है। अनुभव बतलाता है कि मुद्रास्फीति के कारण कई देशों में सरकारें बदल गयी हैं।
मूल्यों में वृद्धि क्यों होती है? (Why Prices Increase?)
साधारणतः जब माँग, आपूर्ति से ज्यादा हो, या मांग आधारित हो; क्योंकि मांग, मुद्रास्फीति को खींचती है या आपूर्ति कारणों से भी मूल्य वृद्धि होती है। हालांकि मुद्रास्फीति काल में, मांग और आपूर्ति, दोनों ही कारणों से मूल्यों में वृद्धि होती है और इन दोनों में अंतर कर पाना मुश्किल होता है। मांग आधारित मुद्रास्फीति, निम्न कारणों से हो सकती है-
1. बढ़ती हुई जनसंख्या और अर्थव्यवस्था में उत्पादों की मांग प्राकृतिक रूप से बढ़ना।
2. आय-वृद्धि के कारण लोगों की क्रय-शक्ति बढ़ जाती है और लोग ज्यादा सामान खरीदते हैं।
3. अर्थव्यवस्था में उपभोक्तावाद, जब आम-जन, बचत के बदले, खर्च करने में ज्यादा विश्वास करते हैं।
4. अर्थव्यवस्था में मुद्रा की अधिकता, तरलता में वृद्धि।
अर्थव्यवस्था में मांग होना अच्छा है, परंतु इसके प्रत्युत्तर में आपूर्ति में बाधा नहीं होनी चाहिए क्योंकि आपूर्ति व्यवस्था में विस्तार नहीं हुआ तो इससे मांग-आधारित, मुद्रास्फीति पैदा होगी। आपूर्ति की दृष्टि से, भारत में, मुख्य मुद्दे इस प्रकार हैं-
- खाद्यान्नों का उत्पादन एक प्रकार से तटस्थ हो चला है, जिससे मांग और आपूर्ति में आपसी संतुलन बिगड़ गया है, कमोबेश यही स्थिति अन्य कृषि उत्पादों की भी है। पूर्व में मुद्रास्फीति का प्रमुख कारण खाद्यान्नों की कमी होना था, परंतु हाल के कुछ समय से मुद्रास्फीति का कारण, दैनिक उपभोग वाले पदार्थ जैसे फल, सब्जियाँ आदि बन गये हैं।
- मानसून पर कृषि स्रोत की अत्यधिक निर्भरता और आपूर्ति व्यवस्था को मजबूती देने में मौसम की बड़ी भूमिका है।
- भारत की एक और समस्या है आपूर्ति श्रृंखला का पूर्ण विकसित न होना और अत्यधिक बिचौलिए आपूर्ति को बाधित कर, कृषि क्षेत्र में नकली संकट खड़ा कर देते हैं।
- प्रमुख औद्योगिक उत्पाद जैसे स्टील, सीमेंट, विद्युत आदि अतिरिक्त आपूर्ति को पूरा करने में बाधक होते हैं।
- उदारीकरण और निजी क्षेत्र को उद्यम की स्वतंत्रता के बावजूद, यह अपेक्षाकृत आसान नहीं है कि आपूर्ति को थोड़े समय में लचीला बनाया जा सके, क्योंकि इसके परिणामस्वरूप आपूर्ति में कमी मुद्रास्फीति को और बढ़ावा देती है।
- कच्चे माल की बढ़ी कीमतें, श्रम इत्यादि उत्पादन की लागत बढ़ाती है, जिससे लागत-जनित मुद्रास्फीति (cost push Inflation) उत्पन्न होती है।
प्रथम, मौद्रिक पहलू से, बैंकों के पास तरलता में वृद्धि, बाजार में मुद्रा-उपलब्धता में वृद्धि, जिसके कारण 'अत्यधिक धन और कम उत्पाद' की स्थिति पैदा होती है जिससे कीमतें बढ़ने लगती हैं। इस तरलता को नियंत्रित करना रिजर्व बैंक की मुख्य जिम्मेदारी है और इस कार्य के लिए उसके पास नीतिगत औजार जैसे CRR, SLR, OMO, रेपो-नीलामी आदि उपलब्ध है
द्वितीय, मुद्रास्फीति को वित्तीय दृष्टिकोण से ही देखा जाता है। आय और कराधान के तरीके और आपूर्ति की दशाओं, विशेषकर कृषि उत्पादों के संदर्भ में जहां वास्तव में उत्पादन संबंधी रुकावटें आ गयी हों अथवा वितरण संबंधी कठिनाई भी हो सकती है। इसके अलावा सट्टेबाजी और जमाखोरी भी मुद्रास्फीति के कारणों में योगदान दे सकते हैं। उपरोक्त दशाओं के आधार पर, कारणों का विभाजन या वर्गीकरण आसान दिखता है, परंतु अर्थव्यवस्था में जब एक बार मुद्रास्फीति शुरू हो जाती है तब उसका कारण चिन्हित करना मुश्किल होता है क्योंकि सभी कारण एक-दूसरे से अंतर्संबंधित हैं।
इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि मुद्रास्फीति बहु-आयामी होती है और इस पर किसी एक नीतिगत औजार से नियंत्रण नहीं पाया जा सकता। इसके लिए कई तरीके अपनाकर एक सम्मिलित रणनीति की आवश्यकता होती है जो आपूर्ति-पक्ष, विशेषकर कृषि क्षेत्र में, को अपना लक्ष्य बनाये। किसी भी सरकार के लिए यही चुनौती है और एक बार मुद्रास्फीति जम जाती है, तब इसे नियंत्रित करने के सभी उपाय, जनसाधारण की अपेक्षाओं पर, खरे नहीं उतरते।
बृहद् स्तर पर कहा जा सकता है कि मुद्रास्फीति एक अनुभूति (Perception) है, जिसमें सरकार की मूल्य नियंत्रण क्षमता के बारे आम लोग समझते हैं। यदि कोई व्यक्ति किसी पदार्थ के मूल्यों के बारे में अनिश्चित है तब वह उसकी कुछ मात्रा, अपने पास स्टॉक करना चाहेगा और यदि उस व्यक्ति की आशंका सच निकली तब वह और भी ज्यादा मात्रा मे स्टॉक करना चाहेगा। उस स्थिति की कामना कीजिए जब अर्थव्यवस्था में हर व्यक्ति इसी प्रकार का व्यवहार करना शुरू कर दे। सरकार चाहे कितनी भी कोशिश कर ले, उस पदार्थ की बढ़ती कीमत को पूरी तरह नहीं रोक सकती और मुद्रास्फीति अंतर्गत यही होता है।
बहुधा कहा जाता है कि कोई भी सरकार मुद्रास्फीति के ढक्कन को कभी खोलना नहीं चाहती क्योंकि इसका नियंत्रण, हमेशा ही चुनौतीपूर्ण रहा है। मुद्रास्फीति जनमानस के मस्तिष्क में ऐसे निशान छोड़ जाती है, जिसे मिटाना मुश्किल होता है।
यहां कुछ ढाँचागत समस्याएं भी हैं; जैसे “मनरेगा" (MNREGA) कार्यक्रम और इसी प्रकार की अन्य आय-दाता योजनाएँ, जिसके कारण गरीबों की क्रयशक्ति में थोड़ी बढ़ोतरी होती है और उससे खाद्यान्नों की मांग बढ़ती है। दूसरी ओर कृषि-क्षेत्र में उत्पादन लगभग स्थिर हो चुका है, जिसके कारण मुद्रास्फीति का दबाव फिर बनेगा। यदि सरकार ने कृषि क्षेत्र की उत्पादन की स्थिरता को दूर करने के लिए आवश्यक प्रयास नहीं किये तो कुछ समय बाद मुद्रास्फीति अपना सर उठाने लगेगी और सरकार को परेशानी झेलनी पड़ेगी।
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