Wednesday, May 19, 2021

नयी आर्थिक नीति 1991 क्या है What is New Economic Policy 1991 | Indian Economy

1991 की नयी औद्योगिक नीति को, भारत में आर्थिक जननी कहा जाता है। यद्यपि सुधार के कदम पहले भी उठाये गये थे, परंतु वे निवर्तमान नीतियों में बदलाव द्वारा लाये गये थे जबकि नयी औद्योगिक नीति में, इन बदलावों को स्पष्ट रूप से मुखरित किया गया। इसे नयी औद्योगिक नीति, नयी आर्थिक नीति अथवा नयी उदारीकरण नीति जैसे नामों से भी जाना गया, जिसके अंतर्गत लाइसेंस-राज और नौकरशाही का नियंत्रण, औद्योगिक क्षेत्र से; विशेषकर निजी क्षेत्र से समाप्त कर दिया गया। 

नयी नीति के द्वारा व्यवसाय करने की पूरी छूट, बिना किसी प्रकार के सरकारी नियंत्रण और सार्वजनिक क्षेत्र का दायरा कम करते हुए निजी क्षेत्र के विस्तार हेतु सहूलियतें दी गयीं। इसके अंतर्गत MRTP/FERA कानूनों को समाप्त कर दिया गया और इसी प्रकार MRTP/FERA कंपनियों की पहचान भी समाप्त हो गयी। उद्योगों को अपना काम करने की स्वतंत्रता, बिना प्रशासनिक नियंत्रण के, प्राप्त गयी। ज्यादातर औद्योगिक उत्पादों पर सरकार द्वारा मूल्य-नियमन की व्यवस्था समाप्त कर बाजार द्वारा मूल्य-निर्धारण की प्रक्रिया शुरू की गयी। नयी नीति के अनुसार प्रतियोगिता को बढ़ावा और सभी के लिए समान धरातल उपलब्ध कराया गया। 

इस नयी नीति के माध्यम से, विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के लिए उदार-विदेशी निवेश नीतियाँ बनाने की वकालत की गयी (इस विषय पर आगे चर्चा की जायेगी)। मुख्यतः, नयी औद्योगिक अथवा आर्थिक नीति के तीन प्रमुख क्षेत्र इस प्रकार हैं: 

1. उदारीकरण 

2. सार्वजनिक क्षेत्र 

3. विदेशी निवेश 

उदारीकरण (Liberalization) 

एक नीति के तौर पर उदारीकरण द्वारा, पूर्व की लाइसेंस और पंजीकरण को समाप्त किया जाना है ताकि निजी-क्षेत्र स्वतंत्र रूप से, बिना लाइसेंस और पंजीकरण के अपने उद्योग स्थापित कर सकें। लाइसेंस व्यवस्था की समाप्ति, उदारीकरण का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है। परमाणु-ऊर्जा और रेलवे, इन दोनों को निजी क्षेत्र के दायरे से बाहर रखा गया है। यद्यपि लाइसेंस व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया है, फिर भी कुछ क्षेत्रों के लिए अभी भी, निजी क्षेत्र की भागीदारी के लिए लाइसेंस की आवश्यकता पड़ेगी - 

1. किसी भी प्रकार का हथियार, कारतूस एवं विस्फोटक पदार्थ। 

2. दवाएं एवं फार्मास्युटिकल्स (औषधियाँ)। 

3. कोयले का खनन। 

4. रक्षा संबंधी साजो-सामान। 

5. सभी प्रकार की शराब, सिगरेट और स्प्रिट। 

6. खतरनाक रसायन। 

पर्यावरण को प्रभावित करने या प्रदूषण पैदा करने वाले उद्योगों को लाइसेंस लेने या पंजीकरण की आवश्यकता तो नहीं है, परंतु उन्हें प्रशासनिक अनुमति, संबंधित मंत्रालय या विभाग द्वारा निवेश के पहले लेना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त, उदारीकरण नीति के अंतर्गत अब निजी कंपनियों द्वारा समता-विस्तार और विविधीकरण (Diversification) के लिए किसी पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं है। नयी नीति से निजी क्षेत्र को पूर्णतः एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान के रूप में काम करने की, बिना प्रशासनिक नियंत्रण के, पूरी छूट मिल गयी और उनका संचालन, विस्तार आदि बाजार की मांग के अनुसार और उपलब्ध अवसरों पर आधारित हो गया। 

ऐसा करने की आवश्यकता क्यों पड़ी? यहां यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि आर्थिक सुधारों के पहले भी, बहुत सारे सरकारी प्रतिबंधों और नियामकों के बावजूद भी निजी क्षेत्र का अस्तित्व बना रहा और सार्वजनिक क्षेत्र, पूरी तरह से हावी नहीं हो सका। बदलते आर्थिक परिवेश में आवश्यकता थी, एक नये अनुकूलन (Orientation) की, जहां पर कार्यकुशलता, उत्पादकता और लाभ, केंद्र बिंदु हों। 

अब समय आ गया है जब निजी क्षेत्र की परिपक्वता, लचीलापन और उनकी युद्धक-मनोस्थिति को स्वीकारा जाय और देश की अर्थव्यवस्था में उन्हें बड़ी जिम्मेदारियां दी जा सके। वास्तव में, पूर्व के प्रतिबंधों से निजी क्षेत्र को, सीमित परिधि में काम करने का अनुभव हो चुका है 

नयी नीति, इस बात का भी परिचायक है कि सरकार की सोच में एक आधारभूत बदलाव आया है, और वह है - सरकार का काम शासन करना जो उत्पादन करने से भिन्न है। निजी क्षेत्र और सरकार की अलग-अलग भूमिकाएं भी स्पष्ट हो चुकी हैं। निवेश बढ़ाकर संवृद्धि में निरंतरता निजी क्षेत्र की जिम्मेदारी है जबकि सरकार का काम बड़े सामाजिक मुद्दों पर विचार, अर्थव्यवस्था और कुशल प्रशासन देने की है। जिम्मेदारियों का यह निर्धारण भी सरकार की सोच में बदलाव का द्योतक है। नयी नीति में मिश्रित अर्थव्यवस्था के उद्देश्यों की स्वीकारोक्ति भी है। इस नीति को सार्वजनिक क्षेत्र के महत्त्व को कम करने वाला न समझ कर निजी क्षेत्र को अर्थव्यवस्था में उनकी साख प्रदान करने वाला समझना चाहिए। 

सार्वजनिक क्षेत्र एवं आर्थिक सुधार (Public Sector and Economic Reforms) 

व्यापक रूप से यह माना गया कि 1991 की नयी नीति से, सार्वजनिक क्षेत्र की परिधि को काफी सीमित कर दिया गया। निजी क्षेत्र को, सार्वजनिक क्षेत्र के विशेषाधिकार वाले उद्योगों में भागीदारी खोल दी गयी। इसे नकारात्मक रूप में न देखते हुए, नीति-निर्धारकों ने कहा कि प्रतिबंधित क्षेत्रों में अब निजी क्षेत्र बड़ी भूमिका अदा कर सकेंगे। 

1991 की नयी नीति ने सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित 18 क्षेत्रों को घटाकर कुल 5 क्षेत्रों वाला कर दिया और भविष्य में इन 5 क्षेत्रों को और भी कम करने की आशा व्यक्त की। हालांकि इनमें परमाणु-ऊर्जा, रेलवे और लाइसेंस की आवश्यकता वाले उद्योग शामिल नहीं होंगे। इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया कि भविष्य में अब कोई भी नया सार्वजनिक क्षेत्र नहीं स्थापित किया जायेगा और मौजूदा कंपनियों में यदि निवेश किया गया तो उसके लिए पूँजी, उस सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों की अपनी प्राप्ति से या अबतक हुए लाभ से प्राप्त की जायेगी। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के लिए कोई नया बजट प्रावधान नहीं किया जायेगा, सिवाय घाटे में चल रही कंपनियों और आर्थिक दबाव झेल रही कंपनियों को छोड़ कर। 

सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में ज्यादा व्यावसायिक कुशलता की अपेक्षा शुरू से रही है। इन कंपनियों के निदेशक मंडल में इस क्षेत्र विशेष के विशेषज्ञों की ही नियुक्ति होगी। इनके मुख्य कार्यकारी (Chief Executive), कंपनी के निष्पादन (Performance) के लिए जवाबदेह होंगे। सार्वजनिक क्षेत्र की जिन कंपनियों का निष्पादन भली-भांति हो रहा है, उन्हें दैनिक क्रियाकलाप में ज्यादा स्वतंत्रता मिलेगी। सर्वप्रथम, यह स्वतंत्रता उन्हें समझौता ज्ञापन (Memorandum of Understanding) के द्वारा निष्पादन में प्रतिबद्धता और संचालन में लचीलेपन के द्वारा प्रदान की जायेगी। बाद में इनके निष्पादन के आधार पर इन्हें महारत्न, नवरल और मिनी रत्न श्रेणियों में वर्गीकृत करके निवेश के निर्णय लिये जायेंगे। 

इस नयी नीति ने पुरानी नीतियों के विपरीत एक पूरा ''यू-टर्न'' ले लिया और घोषणा की गयी कि निजी क्षेत्र में अब कोई अधिग्रहण नहीं किया जायेगा, जब तक कि इसके लिए अकाट्य कारण न हो। 

इसके विपरीत, इस नीति के जरिये, पहली बार विनिवेश (Disinvestiment) और सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण की बात की गयी। इस नयी आर्थिक नीति का तीसरा तत्व है- विदेशी निवेश में सुधार, 

विनिवेश और निजीकरण (Disinvestment and Privatization) 

विनिवेश एवं निजीकरण दोनों निवेश के विपरीत अर्थ वाले हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापना के लिए, सरकार द्वारा निवेश, शेयर के माध्यम से बजट-प्रावधानों के अंतर्गत किया गया था। अतः विनिवेश एवं निजीकरण, दोनों से आशय है, सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र को प्रतिभूतियों (Share) को बेचना। हमें पता है कि प्रतिभूतियों का खरीदना-बेचना, स्टॉक-मार्केट के माध्यम से होता है और इस प्रकार, प्रतिभूतियों की कीमत, खरीददार और विक्रेता के द्वारा तय की जाती है। 

यदि किसी कंपनी की प्रतिभूतियों के खरीददार, बेचने वालों की संख्या से ज्यादा है, तब इसके शेयर का मूल्य "प्रीमियम" पर होगा अन्यथा वह "डिस्काउंट" (छूट) पर निर्धारित होगा। 

उपरोक्त दोनों में अंतर समझने के लिए हमें कंपनी के स्वामित्व के बारे में जानना होगा। कंपनी का स्वामी कौन है? यह, वह व्यक्ति होगा जिसके पास अधिक संख्या (51%) में शेयर हों। तकनीकी रूप से कंपनी का स्वामित्व 51% शेयर रखने वाले व्यक्ति के पास है या फिर उसे 51% शेयर-धारकों का समर्थन प्राप्त है। इसे ऐसे समझा जा सकता है- यदि आपके पास किसी कंपनी का 10% शेयर है और 41% शेयरधारकों का समर्थन आपको प्राप्त है, तब आप उस कंपनी के स्वामी कहे जायेंगे (वैसे ही जैसे कि सरकारों का गठन होता है)। इस प्रकार, विनिवेश वह प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत, सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी के शेयर, प्रीमियम मूल्य पर जनता को बेचती है परंतु कंपनी पर अपना स्वामित्व बरकरार रखती हैं। यहां उद्देश्य है- सरकार के लिए संसाधन जुटाना। इन शेयरों को आम जनता को “अधिमान्य शेयर" (Preferred Option) और 'प्रथम-चुनाव' के आधार पर बेचकर उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र में हिस्सेदार बनाया जाता है। 

हमने स्वामित्व के बारे में पहले चर्चा की है और गहराई से देखने पर यह स्पष्ट होता है कि किसी कंपनी का स्वामित्व हमेशा शेयरधारकों और प्रबंधक-मंडल का होता है और इसका प्रबंधक वह होता है, जिसके पास 51% शेयरधारकों का समर्थन हो। निजीकरण प्रक्रिया के अंतर्गत, प्रबंध नियंत्रण निजी क्षेत्र को, सार्वजनिक क्षेत्र के 51% शेयर बेच कर, हाथ में आ जाता है। शेयरों की संख्या 51% से कम भी हो सकती है, परंतु जब प्रबंध-नियंत्रण, निजी क्षेत्र के किसी समूह या कंपनी को सौंप दिया जाता है तो निजीकरण पूरी तरह हुआ मान लिया जाता है। यहां पर उद्देश्य, संसाधन जुटाना प्राथमिकता न हो कर, कंपनी का नियंत्रण सरकारी हाथ से निकल कर निजी क्षेत्र के हाथ में जाना है। यह विनिवेश के अर्थ का तार्किक विस्तार (Logical extension) नहीं है अर्थात् किसी कंपनी में विनिवेश का आशय यह नहीं है कि उसका निजीकरण कर दिया गया है। 

1991 की नीति, निजीकरण का समर्थक क्यों है? इस नीति में, सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण का परिपक्व फैसला नीचे दिए गए कारणों से लिया गया - 

1. सार्वजनिक क्षेत्र ने प्रारंभ में, प्रमुख क्षेत्रों में क्षमता विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है, जैसे- आत्मनिर्भरता, आयातित औद्योगिक उत्पादों के बदले स्थानापन्न वस्तुओं की उपलब्धि और अधिक औद्योगीकरण के लिए नई पृष्ठभूमि तैयार किया तथा औद्योगिक संवृद्धि सुनिश्चित की। परंतु अब वह समय आ गया है जब इन सभी पहलुओं और क्रियाकलापों को ऊँची गति प्रदान करने की आवश्यकता है ताकि और अधिक क्षमता का विकास हो सके, कुशलता एवं उत्पादकता में वृद्धि हो सके और मुनाफे पर ध्यान दिया जा सके। 

2. उदारीकरण की नीति से, प्रमुख क्षेत्रों निजी क्षेत्र द्वारा निवेश के द्वार खुल गये हैं जिससे प्रतियोगिता और भी ज्यादा बढ़ेगी। इन कारणों से सार्वजनिक क्षेत्र की यह आवश्यकता है कि वह शुद्ध बिजनेस मॉडल पर काम करे, एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान का रूप ले सके और यह निजी क्षेत्र द्वारा ही संभव है। सार्वजनिक क्षेत्र को, निजी क्षेत्र की तुलना में, शुद्ध बिजनेस मॉडल बनकर काम करना संभव नहीं हो सकता। 

3. औद्योगिक उत्पादन करने में सरकार की भूमिका सदैव एक अंतरिम और थोड़े समय वाली व्यवस्था है, यह कमी स्थायी व्यवस्था नहीं हो सकती। सरकार स्थायी तौर पर केवल उन्हीं क्षेत्रों में उत्पादक हो सकती है, जहां जन-कल्याण, प्रभावित हो रहा हो, जैसे रेलवे अथवा राष्ट्रहित का मामला हो, जैसे परमाणु ऊर्जा। 

4. यह सरकार की सोच पर भी निर्भर करता है कि वह निजी क्षेत्र की परिपक्वता स्वीकार करे और उन पर भरोसा करे कि वह किसी संस्थान या उपक्रम को, सरकार से बेहतर चला सकते हैं। 

5. सरकार के पास सार्वजनिक क्षेत्र का प्रबंधन करने के अलावा और भी दूसरे अति महत्त्वपूर्ण कार्य हैं; जैसे- सुशासन, उपयुक्त वातावरण तैयार करना, जनकल्याण योजनाएं चलाना आदि। यह और भी महत्त्व का विषय तब हो जाता है, जब देश में परिपक्व और कुशल निजी क्षेत्र विकसित हो चुका है 

6. लाभ में चल रहे सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का निजीकरण क्यों किया जाय? निजीकरण का उद्देश्य सिर्फ लाभ कमाना ही नहीं है, परंतु इसके पीछे एक और भी बड़ा कारण यह है कि क्या भविष्य में भी, आज के लाभ-कमाने वाले उपक्रम, कड़ी प्रतियोगिता वाले वातावरण में भविष्य में भी उतने ही लाभ प्राप्त करने वाले होंगे। 

7. इस प्रकार, निजीकरण, आज के लिए नहीं किया जा रहा है, बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र के उज्ज्वल भविष्य के लिए आवश्यक है, जहां निजी क्षेत्र बेहतर ढंग से इसके संचालन एवं चुनौतियों के लिए तैयार हैं। 

8. किसी भी व्यवसाय में त्वरित-निर्णय लेने की योग्यता होनी चाहिए, इसमें यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि लिया गया निर्णय सही था या गलत। इस प्रकार के निर्णयों व्यावसायिक जोखिम की संभावना हमेशा बनी रहती है, परंतु निर्णय लेने की योग्यता होना आवश्यक है। सार्वजनिक स्तर का ढांचा, जो विश्व स्तर पर भी देखा गया है, इस प्रकार का होता है कि त्वरित निर्णय नहीं लिया जा सकता। 

9. निजीकरण की प्रक्रिया में यह भी निहित है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम को एक ऐसे 'दूरद्रष्टा' को सौंपा जाय, जिसे इस व्यवसाय की अच्छी समझ हो, प्राथमिकताओं का पता हो और सार्वजनिक क्षेत्र को कैसे नयी ऊँचाइयों तक ले जाया जाय ताकि वह विश्वस्तरीय कंपनी बन सके। 

ऊपर दिए गए तथ्यों को ध्यान में रख कर सरकार ने, कुछ बड़ी कंपनियों के निजीकरण का फैसला लिया जैसे BALCO (वेदांता ग्रुप), VSNL (टाटा), IPCL (रिलायंस उद्योग), माडर्न फूड्स (यूनिलीवर) और मारुति (सुजुकी)। परंतु, निजीकरण का यह प्रथम-चरण विरोध तथा विवादों से भरा रहा। विवाद का मुख्य कारण, निजीकरण की आवश्यकता से लेकर उपक्रमों के जैसे मुद्दे रहे। निजीकरण के विरोध के मुख्य कारण विस्तृत रूप से इस प्रकार थे- 

1. यह आशंका व्यक्त की गयी कि सरकारी एकाधिकार को निजी-एकाधिकार के रूप में बदलने से इस शोषण की संभावनाएं उत्पन्न होंगी। बाद में सरकार द्वारा स्पष्टीकरण दिया गया कि सार्वजनिक क्षेत्र के वे उपक्रम जो एकाधिकार रखकर उत्पादन कर रहे हैं, उनका निजीकरण नहीं होगां, बल्कि उन . उपक्रमों का ही निजीकरण किया जायेगा जो प्रतिस्पर्धी वातावरण में उत्पादन कर रहे हैं। 

2. यह भी आशंका व्यक्त की गयी कि निजीकरण से सेवारत कर्मचारियों की छंटनी कर दी जायेगी और बेरोजगारी बढ़ेगी। यहां यह समझना आवश्यक है कि सार्वजनिक क्षेत्र, उत्पाद के विशेष क्षेत्र में काम करते हैं और उनके कर्मचारियों का कार्य-कौशल काफी अनुभव से प्राप्त हुआ है और कोई भी निजी क्षेत्र इस अनुभव को नहीं छोड़ना चाहेगा। अतः उनकी छंटनी के स्थान पर उन्हें दुबारा रोजगार मिलेगा। 

3. ज्यादातर ऐसा समझा गया कि विनिवेश एवं निजीकरण से प्राप्त धनराशि से, सरकार बजट-घाटे को पूरा करेगी, न कि उसका उपयोग आम लोगों के लिए किया जायेगा या अर्थव्यवस्था में सामाजिक सम्पत्ति का सृजन करने के लिए होगा। 

(क) सरकार ने पहले से ही राष्ट्रीय निवेश कोष (National Investment Fund) बना रखा है, जहां विनिवेश से प्राप्त धनराशि संचित की जायेगी।  

(ख) यह कोष सरकार नहीं इस्तेमाल करेगी, बल्कि मुनाफा देने वाल उपक्रमों में निवेश करेगी और उससे जो लाभांश मिलेगा, उसका 75% सामाजिक सम्पत्तियों के बनाने में उपयोग किया जायेगा। शेष 25% घाटे में चल रहे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को पुनर्जीवित करने के लिए किया जायेगा। 

(ग) राष्ट्रीय निवेश फंड (NIF) का प्रबंधन यूटीआई म्यूचुअल फंड, SBI और LIC के माध्यम से होगा।

 4. देश में ऊँचे वित्तीय-घाटे को देखते हुए, किसी भी सरकार के लिए NIF के उपयोग के प्रलोभन से अछूत रहना मुश्किल है। 

निजीकरण के लाभ और आवश्यकता होने के बावजूद, सरकार और अधिक निजीकरण के पक्ष में नहीं है तथा इस विषय पर विपक्ष और कर्मचारी यूनियनों की आम सहमति की प्रतीक्षा करेगी, जो कि ठीक भी है। निजीकरण एक लंबी प्रक्रिया है, जिसमें कई दशक लग जाते हैं। 

उदारीकरण एवं निजीकरण, आर्थिक सुधारों के बड़े तख्त (Planks) हैं। सरकार द्वारा इसमें रुकावट' पैदा करने से, यह आलोचना भी हो रही है कि आर्थिक सुधारों की गति धीमी पड़ गयी है। 

निजीकरण को ही मात्र, आर्थिक सुधार का जरिया नहीं समझना चाहिए और न ही, इससे सारी आर्थिक समस्याओं का हल निकल आयेगा, ऐसा समझना चाहिए। कुछ ऐसी ही गलत धारणा, सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापना के समय बनी थी। निजीकरण ज्यादा-से-ज्यादा यह कर सकता है कि देश में एक प्रतियोगी और कार्यदक्ष उद्योग का आधार बन सके, किन्तु इसे सुधारों का एकमात्र पहलू कहना गलत होगा। यहां पर कितने ही आसान सुधार, (जिन्हें आसानी से एक प्रशासनिक आदेश से क्रियान्वित किया जा सकता है) आर्थिक क्षेत्र में किये जा सकते हैं। उदारीकरण की नीति के बावजूद नौकरशाही बाधाएं, अनगिनत हैं। 

विश्व बैंक के एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि सरकार को अनुमति और नियामकों के परिप्रेक्ष के बाहर, भारत में 'व्यावसायिक गतिविधि में आसानी के इंडेक्स में, 183 देशों की सूची में 134 वाँ स्थान है, सिंगापुर को 'व्यवसाय की सुविधा' के पैमाने पर नंबर एक आँका गया है। 

इसी प्रकार 'लाइसेंस-राज' की समाप्ति के बाद 'इंस्पेक्टर-राज' शुरू हो चुका है। आज लगभग 34 विभिन्न क्षेत्रों के इंस्पेक्टर, उद्योग-परिसर में जांच के लिए, विभिन्न कानूनों के तहत् आते हैं जबकि यह कार्रवाई 2-3 इंस्पेक्टर्स तक ही सीमित है। एक नया बिजली का कनेक्शन या पर्यावरण कंट्रोल बोर्ड से अनुमति ले पाना अभी भी दुरूह कार्य है। सरकार के लिए एक्साइज-ड्यूटी वसूलना अभी आसान कार्य नहीं है। 

देश में अभी भी व्यवसाय करने में काफी नौकरशाही की अड़चने हैं और सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए। अतः यह कहा जा सकता है कि उदारीकरण से लाभ तो हुआ है, परंतु अभी भी इसे विश्वस्तरीय नहीं कहा जा सकता। सच ही कहा जाता है कि भारत को 'हजारों छोटे आर्थिक सुधारों की आवश्यकता है' न कि 'धमाकेदार बड़े सुधार', जिन्हें कुछ समय के लिए रोका जा सकता है, जब तक अर्थव्यवस्था में इनकी आवश्यकता न महसूस हो। 

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