Wednesday, July 19, 2017

बाल विकास की अवधारणा Concept Of Child Development

समय के साथ किसी व्यक्ति में हुए गुणात्मक और परिमाणात्मक परिवर्तन को खुश व्यक्ति का विकास कहा जाता है विकास के कई आयाम होते हैं जैसे शारीरिक विकास सामाजिक विकास संज्ञात्मक विकास भाषाई विकास मानसिक विकास आदि किसी बालक में समय के साथ हुए गुणात्मक एवं परिमाणात्मक परिवर्तन को बाल विकास कहा जाता है




बालक के शारीरिक मानसिक एवं अन्य प्रकार के विकास कुछ विशेष प्रकार के सिद्धांतों पर ढले हुए प्रतीत होते हैं इन सिद्धांतों को बाल विकास का सिद्धांत कहा जाता है बाल विकास के सिद्धांतों का ज्ञान शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने के लिए आवश्यक है क्योंकि इन्ही सिद्धांतों के ज्ञान के आधार पर शिक्षक बालक बालिकाओं में समय के साथ हुए परिवर्तनों एवं उनके प्रभाव के साथ-साथ अधिगम से इसके संबंधों को समझते हुए किसी विशेष शिक्षण प्रक्रिया को अपनाता है किसी निश्चित आयु के बालकों की पाठ्यक्रम संबंधित क्रियाओं को नियोजित करते समय शिक्षक को यह जानना आवश्यक हो जाता है कि उस व्यक्ति के बालको में सामान्यतः किस प्रकार की शारीरिक वह मानसिक क्षमता है उन्हें किस प्रकार की सामाजिक प्रक्रियाओं में लगाया जा सकता है तथा वह अपने संवेगों पर कितना नियंत्रण रख सकते हैं इसके लिए शिक्षक को आयु के सामान्य बालकों के शारीरिक मानसिक सामाजिक और संवेगात्मक परिपक्वता के स्तर का ज्ञान होना आवश्यक है जिससे वह उनकी क्रियाओं को नियंत्रित करके उंहें अपेक्षित दिशा प्रदान कर सके |


बाल एवं विकास इन दो शब्दों के सहयोग से बाल विकास शब्द की रचना हुई है बालक शब्द से अभिप्राय यहां केवल बालक अथवा बाल्यकाल विशेष से नहीं है अपितु गर्भावस्था के प्राणी से लेकर परिपक्वता प्राप्त कर रहे अथवा परिपक्वता प्राप्त कर चुके व्यक्ति से भी है बाल शब्द विभिन्न अवस्थाओं का पर्याय है जिनमें व्यक्ति परिपक्वता की लक्ष्य की ओर अग्रसारित होता है बाल विकास के अध्ययन के दौरान हम बालक शब्द अजन्मे शिशु के लिए भी प्रयोग करते हैं और 21 वर्षीय किशोर के लिए भी विकास शब्द हमारे लिए नया नहीं है जीवन के हर क्षेत्र में हम इसका प्रयोग करते हैं तथा सामान्य रूप से इसका अर्थ वर्तमान स्थिति में सुधार की ओर बढ़ना मनुष्य के साथ जुड़ जाने पर इस शब्द का अर्थ और विस्तृत हो जाता है हम देखते हैं कि जन्म से पूर्व गर्भावस्था की अवस्था से लेकर मृत्यु पर्यंत व्यक्ति में निरंतर अनवरत परिवर्तन होते रहते हैं इन परिवर्तनों की गति में परिवर्तन होता रहता है किंतु गति पूर्णतया रुकती नहीं है गर्भावस्था में तेजी से बालक के शारीरिक आकार एवं भाड़ में परिवर्तन होता है नग्न आंखों से न देख पाने योग्य प्रजनन कोशिकाएं अंडाणु एवं शुक्राणु गुणात्मक रूप से बढ़ते जाते हैं और 9 माह 10 दिन में एक संपूर्ण शरीर का सृजन कर देते हैं  जन्म के बाद किशोरावस्था तक अनेकों महत्वपूर्ण शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन बालक के व्यक्तित्व को स्वरूप प्रदान करने की दिशा में नित्य प्रति दृष्टिगत होते हैं किंतु सभी परिवर्तन व्यवस्थित एवं सम्मानित होते हैं प्रत्येक नया परिवर्तन पिछले परिवर्तन पर निर्भर करता है



यह परिवर्तन निम्न पक्षों में होते हैं
·         शारीरिक विकास
·         मानसिक ज्ञानात्मक अथवा बोधात्मक विकास भाषा विकास
·          संवेगात्मक विकास
·         सर्जनात्मक विकास
·         सौंदर्य आत्मक विकास
·         नैतिक विकास
·         सामाजिक विकास


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