निर्देशित योजनाएँ P1-P6 (Directed Planning P1-P6)
भारत में पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत प्रथम पंचवर्षीय योजना (वर्ष 1951-52 से वर्ष 1955-56) से हुई। इसमें कुल संवृद्धि की दर, बहुत ही कम, 2.1% रखी गयी थी। भारत उस समय, एक नया स्वतंत्र देश बना था और प्रथम योजना का उद्देश्य कृषि क्षेत्र में संवृद्धि, संतुलित विकास के साथ ही मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रखना था। पहली योजना होने के कारण, इसके लक्ष्यों को साधारण-सा ही रखा गया और ज्यादा जोर सुदृढीकरण (consolidation) पर दिया गया।
द्वितीय पंचवर्षीय योजना (वर्ष 1956-57 से वर्ष 1960-61) में योजना को असली रूप दिया गया जिसमें भारत के लिए दूरदृष्टि की परिकल्पना को आकार दिया गया, औद्योगिक-आधार, औद्योगीकरण के प्रारंभ जैसे प्रयासों की शुरुआत हुई। इसे 'महालनोबिस मॉडल' के नाम से जाना गया, जिसके अंतर्गत, सरकार द्वारा पूँजीगत और प्रमुख उद्योग (core industries) दोनों ही क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण क्षमता निर्माण का कार्य शुरू किया गया।
इस मॉडल में इस पहलू पर बल दिया गया कि देश को आत्मनिर्भर होना चाहिए और साथ ही घरेलू अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम होना चाहिए। यह मॉडल बड़े उद्योगों की स्थापना करके, मझोले और लघु उद्योगों के लिए आधार तैयार करने वाला प्रयास था। इसे 'शीर्ष से नीचे की ओर' होने वाले औद्योगीकरण के नाम से भी जाना गया। इसमें अंततः ग्रामीण और कुटीर उद्योगों तक पहुंचने का लक्ष्य रखा गया था। रूस के औद्योगीकरण के नमूने पर आधारित इस मॉडल से, सार्वजनिक क्षेत्र में बड़े उद्योगों की स्थापना की शुरुआत हुई। ऐसी परिकल्पना भी की गयी थी कि सार्वजनिक क्षेत्र, अर्थव्यवस्था के वृहद् समाज कल्याण के उद्देश्यों को पूरा करने में सफल होगा।
ज्यादातर सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग, इसी योजना अवधि में स्थापित किये गये थे और इसीलिए इसे सार्वजनिक क्षेत्र की योजना या औद्योगीकरण के नाम से भी जाना जाता है। पहली योजना में संवृद्धि का निर्धारित लक्ष्य, दूसरी योजना के महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य (4.5%) को पार कर गया था, परंतु दूसरी योजना पांच वर्षों में अपने निर्धारित लक्ष्य का औसत 3.9% ही प्राप्त कर सकी।
तीसरी पंचवर्षीय योजना (वर्ष 1961-63 से वर्ष 1965-66) में, औद्योगीकरण पर काफी बल देने का प्रस्ताव था, परंतु वर्ष 1962 के चीन युद्ध और वर्ष 1965 के पाकिस्तान युद्ध के कारण, परिवर्तित प्राथमिकताओं में योजना की प्रगति काफी डाँवा-डोल रही और विवशतः, वर्ष 1966-67 से वर्ष 1968-69 की अवधि में 'योजना अवकाश' घोषित करना पड़ा। तीसरी योजना की अंतिम अवधि में, योजना अवकाश के दौरान 'हरित क्रांति' का सफल क्रियान्वयन, अच्छी पैदावार देने वाले बीजों के द्वारा गेहूँ जैसी फसलों की अच्छी पैदावार प्राप्त कर किया गया।
चतुर्थ पंचवर्षीय योजना (वर्ष 1969-70 से वर्ष 1973-74) में अर्थव्यवस्था के पुनर्निमाण पर बल दिया गया। इस अवधि में बहुमूल्य संसाधन, युद्ध के कारण अन्यत्र उपयोग कर लिए गये थे। अतः इस योजना का उद्देश्य, स्थिरता एवं अधिक आत्मनिर्भरता, विशेषकर रक्षा क्षेत्र में रखा गया ताकि भविष्य में यदि पुनः युद्ध की स्थिति पैदा हो तो उससे निपटा जा सके।
पाँचवीं पंचवर्षीय योजना (वर्ष 1974-75 से वर्ष 1978-79) में पहली बार, गरीबी हटाने को मुख्य उद्देश्य बनाया गया।
छठवीं पंचवर्षीय योजना (वर्ष 1980-81 से वर्ष 1984-85) में यह महसूस किया जाने लगा कि गरीबी उन्मूलन के लिए अकेले, संवृद्धि का होना ही पर्याप्त नहीं है। इसका पहला कारण यह था कि संवृद्धि-दर बहुत ज्यादा नहीं थी जिससे गरीबी के सारे कारणों का निदान हो सके। दूसरा कारण यह समझा गया कि अर्थव्यवस्था में ढांचागत विषमताएं थीं। इस योजना के अंतर्गत गरीबों की समस्या पर सीधे प्रहार किया गया और तत्कालीन प्रधानमंत्री, स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गाँधी ने "गरीबी हटाओ" का प्रसिद्ध नारा दिया था।
यह पंचवर्षीय योजना, अर्थव्यवस्था के दुर्लभ संसाधनों को कल्याणकारी कार्यक्रम, विशेषतः गरीबी-उन्मूलन के लिए हस्तांतरित करने के पहले गंभीर प्रयास के लिए जानी जाती है। इसके अंतर्गत कोई बिल्कुल नयी योजना नहीं शुरू की गयी, बल्कि उस समय तक की लागू विभिन्न योजनाओं को एकीकृत करके, एक योजना के रूप में लागू किया गया और इसे एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम (Integrated Rural Development Programme (IRDP)) का नाम दिया गया। यह पहली ऐसी कार्यकारी योजना थी जिसमें लिंग भेद, महिला सशक्तिकरण, राज्यों के बीच बढ़ती असमानता और अंतर-क्षेत्रीय असंतुलन पर ध्यान केंद्रित किया गया।
प्रथम से छठी पंचवर्षीय योजनाओं को निर्देशित योजनाओं (Directed Plans) की संज्ञा दी जा सकती है। इसमें सार्वजनिक-क्षेत्र एवं सरकार की बड़ी भूमिका रही है क्योंकि सरकार या तो स्वयं एक बड़े निवेशक की भूमिका में रही है या फिर उसने यह सुनिश्चित किया कि क्षेत्र-विशेष में पर्याप्त निवेश हो सके। उपरोक्त सभी पंचवर्षीय योजनाओं का सामान्यतया, केंद्रित प्रयास यही रहा है कि औद्योगीकरण, सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापना, आत्मनिर्भरता और भारत को स्वसंचालित अर्थव्यवस्था वाला देश बनाया जा सके। इसके माध्यम से प्रयास किया गया कि अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ-साथ रोजगार सृजन भी हो, न कि सरकार को सीधे रोजगार देना पड़े। पाँचवीं और विशेषकर छठी पंचवर्षीय योजना में, कल्याणकारी एवं गरीबी उन्मूलन संबंधित कार्यक्रम ज्यादा परिलक्षित होने लगे थे।
सांकेतिक योजना (Indicative Planning) –
सातवीं पंचवर्षीय योजना से प्रारंभ सातवीं पंचवर्षीय योजना (वर्ष 1985-86 से वर्ष 1989-90) के दो महत्त्वपूर्ण पहलू थे- पहला, बड़े स्तर पर कृषि क्षेत्र की ओर उन्मुखता ताकि कृषि उत्पादन और उत्पादक दोनों में वृद्धि की जा सके और दूसरा, सार्वजनिक क्षेत्र के निवेश में लगातार ह्रास (declinc)। योजना के कुल व्यय का, यह निवेश लगभग 50% से भी नीचे आ गया। इसका स्पष्ट आशय था कि योजना के सकल व्यय में निजी क्षेत्र का योगदान, पहले से ज्यादा होना था।
सातवीं योजना पहली ऐसी योजना थी जिसमें कृषि समेत सकल वृद्धि उच्चतम 10.4 प्रतिशत रिकार्ड किया गया (वर्ष 1988-89)। हालांकि ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि विगत् वर्ष की संतृप्ति की आधार रेखा, मात्र 3.8 प्रतिशत थी। इसी दौरान अर्थव्यवस्था में पहली बार आयात-निर्यात में भारी असंतुलन का अनुभव हुआ। इससे भुगतान संतुलन का संकट पैदा हुआ और भारत को अंतर्राष्ट्रीय-मुद्रा कोष [International Monetary Fund, (IMF)] से ऋण लेना पड़ा। इसके बारे में विस्तार से चर्चा अलग अध्याय में की गयी है।
उपरोक्त विपरीत परिस्थितियों के उत्पन्न होने से सरकार को पुनः ‘योजना अवकाश' (वर्ष 1990 से वर्ष 1992 तक) लेना पड़ा। सातवीं योजना में सरकार को आर्थिक सुधारों की रूपरेखा फिर से तैयार करनी पड़ी, जिसे 'नयी आर्थिक नीति-1991 के नाम से जाना गया। नयी आर्थिक नीति पर, गत् अध्याय- सार्वजनिक क्षेत्र के अंतर्गत चर्चा की गयी है। सातवीं योजना के पश्चात् की सभी पंचवर्षीय योजनाओं में सार्वजनिक क्षेत्र पर किये जाने वाले व्यय में क्रमश: कमी की जाने लगी जिसके फलस्वरूप निजी क्षेत्र की भूमिका में बढ़ोतरी हुई और इस प्रकार योजना का स्वरूप परिवर्तित होकर 'निर्देशित' के स्थान पर 'सांकेतिक' होने लगा। इसके अंतर्गत जिस क्षेत्र में अधिक निवेश की आवश्यकता हो, उसमें प्राथमिकता के आधार पर निजी क्षेत्र द्वारा मिलने की अपेक्षा की गयी।
आठवीं पंचवर्षीय योजना (वर्ष 1992-93 से वर्ष 1996-97) में संवृद्धि में बढ़ोत्तरी के अतिरिक्त, कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भरता को अधिक बल दिया गया। पहली बार ढांचागत विकास, विशेषकर ऊर्जा, परिवहन एवम् दूरसंचार को मजबूत करने की आवश्यकता पर बल दिया गया।
आठवीं योजना वह पहली योजना थी जिसमें सार्वभौम बेसिक शिक्षा और 15 से 35 वर्ष की आयु के बाद निरक्षरता उन्मूलन को प्रमुख उद्देश्य के रूप में घोषित किया गया। इस योजना में ही पहली बार, शिक्षा, साक्षरता, परिवार नियोजन, भूमि विकास, सिंचाई इत्यादि में जनता की पहल एवं भागीदारी को स्वीकार किया गया। इसी कड़ी में सार्वजनिक-क्षेत्र में, स्वैच्छिक रूप से काम करने वाली एजेंसियों को शामिल करने की आवश्यकता पर बल दिया गया। निजी क्षेत्र की भागीदारी कर दूरसंचार, बिजली और गैस के क्षेत्र में इनकी भूमिका में वृद्धि की गयी तथा सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका अब चुने हुए क्षेत्र में सीमित रह गयी थी।
नौंवी योजना (वर्ष 1997-98 से वर्ष 2001-02), एक प्रकार से आठवीं योजना का विस्तार थी, परंतु इसमें संवृद्धि के अतिरिक्त, अर्थव्यवस्था में सामाजिक न्याय और निष्पक्षता (equity) को भी केंद्रीय-स्वरूप प्रदान किया गया।
दसवीं पंचवर्षीय योजना (वर्ष 2002-03 से वर्ष 2006-07) में व्यापक, महत्त्वाकांक्षी उद्देश्य निर्धारित किये गये, जिसके अंतर्गत अर्थव्यवस्था के प्रत्येक पहलू को संबोधित किया गया परंतु यहां एक विशेष अंतर यह दिखा कि गरीबी-उन्मूलन, बेसिक शिक्षा, साक्षरता एवं अन्य समस्याओं के निराकरण के लिए एक समय-सीमा निर्धारित की गयी। इसी योजना में सरकार ने "राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंध अधिनियम" (Fiscal Responsibility Budget Management Act) लागू किया, जिसका उद्देश्य राजकोषीय सुदृढ़ीकरण के अंतर्गत, राजकोषीय और वित्तीय घाटे को, एक समय-सीमा के अंतर्गत कम करना था।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (वर्ष 2007-08 से वर्ष 2011-12) में समावेशी संवृद्धि (Inclusive Growth) की अवधारणा को जन्म दिया गया अर्थात् संवृद्धि से होने वाले लाभ का फायदा जनता को मिले। इस योजना में राज्य और केंद्र सरकारों के लिए निरीक्षण योग एवं परिमाणात्मक लक्ष्य (Monitorable and Quantifiable Targets) निर्धारित किये गये।
इस योजना में अर्थव्यवस्था में विभेद पर चिंता व्यक्त की गयी और विशेष रूप से, उत्तर-पूर्वी राज्यों को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने का प्रयास उल्लिखित किया गया। ग्यारहवीं योजना के कुल व्यय में, सार्वजनिक क्षेत्र को न्यूनतम स्तर, 25% पर रखा गया और इसके विपरीत निजी क्षेत्र को 75% कुल व्यय की परिधि में रखा गया। यह पूर्व के मानकों के बिल्कुल विपरीत था, जहां सार्वजनिक क्षेत्र का अंश 60% हुआ करता था।
ग्यारहवीं योजना-पत्र में नव-उदार (Neo-Liberal) नीतियों की आवश्यकता पर लाभ दिया गया, जोकि परिवर्तनशील वैश्विक आयामों के अनुरूप हो और अर्थव्यवस्था के बदले रूप को दर्शाये। इसमें ढांचागत विकास के लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की भागीदारी मॉडल पर बल दिया गया। योजना के मध्यकाल में पुनरीक्षण के दौरान, संवृद्धि दर के शुरुआती लक्ष्य का पुनर्मापन किया गया। ऐसा वर्ष 2008-09 में वैश्विक मंदी को ध्यान में रखकर किया गया। इसमें यह भी कहा गया कि अर्थव्यवस्था के ज्यादातर क्षेत्र, पूर्व निर्धारित लक्ष्य की ओर संतोषप्रद गति से बढ़ रहे हैं और योजना के समाप्त होने तक, कृषि क्षेत्र सहित, सभी क्षेत्रों में बढ़ोत्तरी की संभावना दर्शायी गयी।
12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) का मुख्य फोकस 'समावेशी संवृद्धि' पर केंद्रित है। इस योजना से यह आशा की जाती है कि इसके माध्यम से, सरकारी खर्च पर देश की कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य और समाज कल्याण के क्षेत्रों में विकास को प्रोत्साहन मिलेगा/उससे यह भी अपेक्षा की जाती है कि विकसित हो रहे निर्माण क्षेत्र में लोगों को और अधिक रोजगार मिल सकेगा और देश, बहुमूल्यता की कड़ी में और ऊपर स्थापित हो सकेगा।
योजना आयोग इस प्रकार की नीतियाँ लागू करने का प्रयास करेगा ताकि लगभग 10% की संवृद्धि दर फैक्टरियों में तथा 4% की संवृद्धि दर कृषि उपज में प्राप्त की जा सके। यद्यपि प्रधानमंत्री ने राष्ट्र में संवृद्धि दर 9 से 9.5% तक सुनिश्चित करने की बात कही है।
समावेशी संवृद्धि की एक और महत्त्वपूर्ण बात है- सरकारी सहायता का लक्ष्य ग्रामीण क्षेत्रों की ओर करना है। सामान्यतः बड़े प्रोजेक्ट्स जैसे कि ऊर्जा उत्पादन, सड़क जिससे माल की ढुलाई होती है और हवाई अड्डों आदि पर सरकारी रियायतों का बहुत बड़ा भाग खप जाता था और ग्रामीण ढांचे पर अपेक्षाकृत बहुत कम खर्च होता था।
ग्रामीण ढाँचा जिस पर 70% आबादी निर्भर है वहाँ सरकार का जितना ध्यान होना चाहिए उतना नहीं है। जब योजना आयोग, देश में अगले पाँच वर्षों का योजनाबद्ध निवेश का खाता तैयार कर रहा हो तब इस महत्त्वपूर्ण कमी की ओर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है और साथ ही क्या कुछ नये तरीके, इस कमी को पूरा करने के लिए अपनाये जा सकते हैं, उन पर भी विचार आवश्यक हैं।
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