प्रश्न . लोक अर्थशास्त्र की व्याख्या कीजिए। आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए कि लोक अर्थशास्त्र को बहुधा व्यावहारिक कल्याणकारी अर्थशास्त्र क्यों कहा जाता है?
अथवा
विस्तारपूर्वक लोक अर्थशास्त्र का कार्यक्षेत्र बताइए ।
अथवा
लोक अर्थशास्त्र क्या है? आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए कि क्यों लोक अर्थशास्त्र को बहुधा व्यवहारिक कल्याण अर्थशास्त्र कहा जाता है।
अथवा
लोक अर्थशास्त्र की व्याख्या करें। किस प्रकार का सार्वजनिक हस्तक्षेप अभी लोक अर्थशास्त्र का हिस्सा नहीं माना जाता है और क्यों ?
अथवा
किस प्रकार का सार्वजनिक हस्तक्षेप अभी भी लोक अर्थशास्त्र का हिस्सा नहीं माना जाता है और क्यों ? विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं में सार्वजनिक हस्तक्षेप भिन्न प्रकार का क्यों होता है ?
अथवा
लोक अर्थशास्त्र का मूल सिद्धांत क्या है ?
उत्तर -
लोक अर्थशास्त्र को लोकहित का ही एक अंग माना जाता है। इसे व्यावहारिक क्षेम अर्थशास्त्र या व्यावहारिक कल्याण अर्थशास्त्र भी कहा जाता है। इसमें आर्थिक विषयों से . जुड़ी सार्वजनिक नीतियों को बनाया जाता है। इसका संबंध व्यक्ति की स्वहित प्रेरित वरीयताओं, सामाजिक दशाओं, सामाजिक विकल्पों तथा विभिन्न चयन कसौटियों के अंतर्गत समाज स्तरीय वरीयताओं के बीच अंतर्संबंधों से अवश्य रहता है।
एक अर्थव्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप से संबंधित अर्थशास्त्र की प्रशाखा को लोक अर्थशास्त्र के नाम से जाना जाता है। इसके कार्यक्षेत्र में सार्वजनिक हस्तक्षेप के औचित्य, विधियाँ, स्वरूप, प्रक्रियाएँ तथा उपाय आदि सम्मिलित हैं। यहाँ लोक शब्द का अर्थ सरकार तक सीमित रहता है। लेकिन यह सरकार स्थानीय निकायों से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक की हो सकती है। साथ ही इसकी परिधि में सरकार द्वारा स्थापित संस्थाएँ और संगठन भी आ जाते हैं। परंतु यह स्पष्ट है कि लोक शब्द का प्रयोग ऐसे किसी जन समुदाय के लिए नहीं किया जाता जो सरकारी रूप से अधिकृत नहीं है। चाहे इस समुदाय का आकार कितना भी के विशाल हो ।
हमारे संविधान की धारा 39 (ख) तथा (ग), सरकार को निजी गतिविधियों की निगरानी करने का निर्देश देती है और यदि कुछ कार्य जनहित विरोधी लगें तो सरकार को उनके निराकरण के उपाय करने का निर्देश भी देती है। अतः सरकार संवैधानिक व्यवस्थाओं के अनुसार अनेक आर्थिक एवं गैर-आर्थिक कार्यों में हस्तक्षेप करती रहती है। किंतु लोक अर्थशास्त्र का संबंध राजकोषीय नीतियों से आगे निकल कर आर्थिक कार्यों में सरकार के हस्तक्षेप और भागीदारी से है - इसका कारण यही है कि अर्थशास्त्र का प्रभाव क्षेत्र निरंतर विस्तृत हो रहा है।
आज सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप की आवश्यकता को लेकर कोई विवाद नहीं है - किंतु उस हस्तक्षेप के स्वरूप और प्रसार पर आम सहमति का नितांत अभाव है। हस्तक्षेप का स्वरूप अर्थव्यवस्था की रचना तथा लोक चयन और संभवतः जनता द्वारा अपने चयन के लिए अपनाई गई प्रक्रियाओं पर निर्भर करता है। सरकार संसाधनों की विभिन्न गतिविधियों के बीच विभाजन को प्रभावित करने के लिए अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करती है। इस कार्य में वह वर्तमान एवं भावी पीढ़ियों के बीच संसाधनों के वर्तमान आबंटन एवं भावी विभाजन के विषय में अपने चिंतन के अनुरूप निर्णयों को कार्यान्वित करती है। ये कार्य समाज के दीर्घकालिक हित से संबंधित होते हैं। कई बार संवृद्धि में बेरोजगारी, कीमत स्तर, विदेशी मुद्रा संग्रह आदि में स्थायित्व की प्राप्ति के लिए भी हस्तक्षेप की जरूरत पड़ जाती है ताकि अर्थव्यवस्था को किसी वांछित पथ से भटकने से रोका जा सके।
लोक अर्थशास्त्र का अंग निम्नलिखित विषय हैं.
1. लोक वित्त (लोक राजस्व आगम, लोक व्यय सार्वजनिक ऋण),
2. लोक चयन,
3. सार्वजनिक निर्माण कार्य - प्रकल्प,
4. सार्वजनिक सुविधाएँ तथा सेवाएँ,
5. सार्वजनिक उद्यम |
इन सबका संबंध राष्ट्रीय, प्रांतीय या स्थानीय स्तर के प्रशासन से होता है। लोक वित्त विषय के अंतर्गत सदैव ही राजकोषीय नीति तथा सरकार के विभिन्न स्तरों के बीच संबंधों का अध्ययन होता रहा है। आगे चल कर इसमें सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित और सरकार द्वारा अधिग्रहित निजी उद्यमों के वित्तीय क्रियाकलाप भी जुड़ते चले गए। सार्वजनिक निर्माण कार्य सदा से लोक वित्त का अंग रहे हैं - भले ही उन्हें करने का ठेका निजी व्यावसायिकों को दे दिया गया हो । किंतु लोक वित्त में सार्वजनिक सुविधाओं और स्वाभाविक एकाधिकारी उद्यमों के अतिरिक्त अन्य व्यावसायिक निकायों के नियमन से जुड़े हस्तक्षेप को शामिल नहीं किया जाता। किंतु फिर भी इसे लोक अर्थशास्त्र में समाहित किया जाता है।
अब अनेक राजनैतिक एवं प्रशासकीय प्रक्रियाओं और उनके अंतर्संबंधों से जुड़ी सार्वजनिक निर्णय प्रक्रिया में आर्थिक विश्लेषण विधियों का प्रयोग होने लगा है। ये सभी लोक चयन के नाम पर लोक अर्थशास्त्र का अंग बन गए हैं। प्रायः अनेक परिणाम अपनाई गई प्रक्रियाओं पर अधिक निर्भर करते हैं । इसी कारण से अंतर्निहित व्यवहार संबंधी मान्यताओं तथा प्रक्रियाओं का भी अध्ययन होने लगा है।
एक बात विलक्षण है कि मौद्रिक नीति के अस्त्रों जैसे मुद्रा की पूर्ति, ब्याज की दर, विदेशी विनिमय दर आदि के माध्यम से आर्थिक कार्यों में सरकारी हस्तक्षेप की लोक अर्थशास्त्र में प्रायः घोर अनदेखी दिखाई पड़ रही है। आंशिक रूप से इसका वास्तविक कारण यह हो सकता है कि लोक अर्थशास्त्र प्रशासन का विकास मुख्यतः व्यक्ति स्तरीय आर्थिक सिद्धांतों के माध्यम से हुआ है किंतु मौद्रिक तथा विनिमय दर हस्तक्षेपों का मुख्य सरोकार समष्टि स्तरीय ही रहता है। लीफ जॉनसन जैसे लेखकों ने समष्टि स्तरीय हस्तक्षेपों का विश्लेषण किया है। फिर भी इन्हें लोक अर्थशास्त्र में समाहित करने पर अभी व्यापक सहमति नहीं बन पाई है ।
बीसवीं शताब्दी में मुख्यतः दो प्रकार की अर्थव्यवस्थाएँ विश्व में दिखाई दे रही थीं-बाजारोन्मुखी अर्थव्यवस्थाएँ एवं समाजवादी आयोजनोन्मुखी अर्थव्यवस्थाएँ । किंतु अब 21 वीं शताब्दी में तो सभी अर्थव्यवस्थाएँ मिश्रित हो गई हैं। किंतु इस परिदृश्य में मिश्रण का एक वर्णक्रम भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है।
विभिन्न देश विकास के पृथक्-पृथक् सोपानों पर हैं और सभी के लिए निश्चित आकार या प्रतिमान का मान्य होना आवश्यक नहीं है। जिस प्रकार पूर्ण रूप विकसित (व्यस्क) सभी व्यक्ति रंग, आकार; देहयष्टि की दृष्टि से एक समान नहीं हो जाते उसी प्रकार प्रत्येक सोपान और समय बिंदु पर देशों के बीच भी व्यापक स्तर पर अंतर बने रहेंगे। फिर भी आज विश्व के देशों में किसी एक दिशा में अग्रसर होने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ रही है। अर्थव्यवस्था में सरकार के हस्तक्षेप के विषय में ये बात विशेष रूप से सही है।
क्षेम संबंधी विचार आमतौर पर आर्थिक नीतियों की रीढ़ और खास तौर पर लोक–अर्थशास्त्रोन्मुखी निर्णयों को रूपामित करते हैं । लोक अर्थशास्त्र में; तद्नुसार, क्षेम अर्थशास्त्र के साथ व्यापक अधित्यापन देखा जाता है। इन दोनों के बीच फिर भी इस अर्थ में एक स्पष्ट सीमांकन है कि क्षेम अर्थशास्त्र में अधिकांशतः क्षेम के समस्त स्तरों (हालाँकि वह वैयक्तिक उपयोगिता स्तरों के कुल योग के सिवा कुछ और नहीं होता ) पर चर्चा की जाती है जबकि लोक अर्थशास्त्र में प्रतिनिधि वैयक्तिक क्रेता अथवा विक्रेता पर ध्यान केंद्रित किया जाता है (क्योंकि किसी भी प्रतिस्पर्धी बाजार अर्थव्यवस्था में क्रेता वर्ग को विक्रेता वर्ग की भाँति ही तद्रूप माना जाएगा ) । अतएव, लोक अर्थशास्त्र में, क्षेम को प्रायः उपभोक्ता के ‘अधिशेष (उपयोगिता की दृष्टि से), उत्पादक के अधिशेष (लाभ की दृष्टि से) और सरकार के अधिशेष (निवल कर राजस्व की दृष्टि से) के कुल योग के रूप में मापा जाता है। तद्नुसार, क्षेम अर्थशास्त्र में प्रायः सामने आने वाली सामाजिक क्षेम अवधारणा से भिन्न, लोक अर्थशास्त्र में किसी भी प्रकार के अधिशेष को क्षेमवर्धक के रूप में देखा जाता है।
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